यह सेल्फी का दौर है। जिसे देखिए हाथ में मोबाइल लिए सेल्फी खींच रहा है। पहाड़ की चोटी पर, नदी के किनारे, ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं की छत पर, सड़क प...
यह सेल्फी का दौर है। जिसे देखिए हाथ में मोबाइल लिए सेल्फी खींच रहा है। पहाड़ की चोटी पर, नदी के किनारे, ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं की छत पर, सड़क पर, बाज़ार में, दफ्तरों में, ट्रेन में, बस में, झूलों पर, पुलों पर लोग सेल्फी लेते दिख जावेंगे। कभी एकाकी, कभी मित्रों के साथ, अजनबियों के साथ, पड़ोसियों के साथ, नेताओं के साथ, रिश्तेदारों के साथ, पालतू जानवरों के साथ, जंगली पशुओं के साथ लोग सेल्फी लेते नज़र आ जाएंगे। सेल्फी चस्का है, चाहत है, दीवानगी है। नशा है, जुनून है। सेल्फी की धूम है। ज़िंदगी का अहं हिस्सा बन गई है सेल्फी। बच्चों से लेकर बूढों तक कोई इससे अछूता नहीं रहा है। कहते हैं, हर दिन करीब नौ करोड़ साठ लाख लोग सेल्फी लेते हैं।
दुनिया को अपना आत्मविश्वास, व्यक्तित्व, और अपनी अदा दर्शाने का एक आनंददायक ज़रिया बन गया है, सेल्फी। भारत में तो हमारे प्रधानमंत्री तक सेल्फी के दीवाने हैं। बाहर से यहाँ कोई भी गणमान्य व्यक्ति आता है, मोदी जी उसके साथ सेल्फी लेने से चूकते नहीं। ऐसे में उन्हें लगता है कि एक सेल्फी लेना तो बनता ही है। आम आदमी भी अपनी किसी ख़ास मुद्रा की किसी विशेष कोण से सेल्फी लेता है और उसे फेस-बुक, ट्विटर, या वाट्स-एप जैसे सोशल मीडिया पर अपलोड कर देता है। कितनों ने ‘लाइक’ की, देखता है और खुश हो लेता है| सेल्फी एक ऐसी कला है जिसके ज़रिए व्यक्ति आकर्षक रूप से अपने दोस्तों का ध्यान आकर्षित करता है। आप और आपके मित्र इसे बार बार देखना पसंद करते हैं। हर कोई मानो सोचता है. पल भर के लिए कोई हमें ‘लाइक” कर ले – झूठा ही सही !
हर व्यक्ति में थोड़ा-बहुत आत्म-प्रेम तो होता ही है। इसे ‘नार्सीयता’ की संज्ञा दी गई है। कहते हैं एक पौधा है – नार्सिसस (नरगिस); यह, जहां पानी होता है, उसके किनारे ही उगता है और हर समय पानी में अपना ही बिम्ब देखता रहता है। सेल्फी अच्छे-भले आदमी को नरगिस बना देती है। सेल्फी में अपनी ही प्रतिच्छाया देखने लगता ही और धीरे धीरे उसी में लीन हो जाता है।
“सेल्फी” एक गढ़ा हुआ शब्द है। आज से ५-७ वर्ष पहले तक इसे कोई जानता तक नहीं था। सन २०१६ आते आते यह इतना लोकप्रिय हो गया कि आक्सफोर्ड ने उसे साल का सर्वाधिक प्रचलित शब्द “word of the year” घोषित कर दिया। इसके इस चुनाव में कोई पोलपट्टी नहीं हुई थी। बाकायदा ‘पोल’ हुआ था और तब यह चुना गया था। हम सब प्रजातंत्र की परिभाषा तो जानते ही हैं। इसे जनता का, जनता द्वारा, जनता का शासन कहा गया है। इसी तर्ज़ पर सेल्फी की परिभाषा भी गढ़ी जा सकती है – यह “मेरे द्वारा, मेरे लिए, मेरा ही चित्र” है। सेल्फी आत्म-रति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
डार्विन ने बताया था कि आदमी मोटे तौर पर बन्दर की औलाद कहा जा सकता है। (वैसे हमारा भारतीय मत तो यही कहता है कि हम देवताओं की संतान हैं)। जो भी हो, मनुष्य और वानर जाति का सम्बन्ध बड़ा पुराना है। राम की सहायता वानर-सेना ने ही की थी। उनके सेनाध्यक्ष हनूमान को हम आज भी पूजते हैं। कहा जाता है कि ‘सेल्फी’ का भी एक ख़ास किस्म के बन्दर से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। सेल्फी लेने की शुरूआत २०११ से मानी जाती है जब मकाऊ प्रजाति के एक बन्दर ने इंडोनेशिया में ब्रिटिश वन्य-जीव फोटोग्राफर डेविड स्माटर के कैमरे का बटन दबाकर अपनी ही एक तस्वीर खींच ली थी। बेचारे फोटोग्राफर को आज भी बन्दर के इस कृत्य के लिए आभार स्वरूप अपनी कमाई का एक हिस्सा कोर्ट के आदेशानुसार मकाऊ प्रजाति के बंदरों के संरक्षण के हेतु इंडोनेशिया सरकार को देना पड़ता है। आख़िर यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। बन्दर की औलाद जो काम पहले पहल न कर सकी वो एक बन्दर ने कर दिखाया और इस प्रकार सेल्फी का उदघाटन हुआ !
वैसे सेल्फी का इतिहास अगर खंगारा जाए तो वह इससे भी पुराना है। कई नामचीन चित्रकारों ने अपने चित्र स्वयं ही बनाए है। लेकिन इन्हें हम सही अर्थों में सेल्फी नहीं कह सकते क्योंकि ये फोटोग्राफ्स नहीं है। इन्हें तूलिका और रंगों से कनवस पर रचा गया है। सही सेल्फी तो अब शुरू हुई है – स्मार्ट फोन के आ जाने के बाद से। स्मार्ट फोन के कैमरे से अपना चित्र व्यक्ति स्वयं ही ले ले, सेल्फी का असली रूप तो यही है।
लेकिन एक अच्छी सेल्फी ले पाना भी बड़ा दुष्कर कार्य है। इसके लिए किसी कम कला की आवश्यकता नहीं है। अपने चेहरे का फोटोजेनिक प्वाइंट ढूँढ़ना, फिर उसके लिए मोबाइल को सही कोण पर स्थित करना, फोटो खींचने के लिए मोबाइल को निर्धारित स्थान को ‘’टच” करना, एतिहात रखना कि जिस हाथ से मोबाइल पकड़ा हुआ है उसका कोई हिस्सा चित्र में न आजाए,सांस रोककर अपने पेट को अन्दर की और खींचना ताकि ध्यान अविचलित रहे - इन सारे के सारे करताबों में ‘कर्मसु कौशलम’ की अपेक्षा होती है। और यह कौशल धीरे धीरे ही आ पाता है। इसे प्राप्त करने के लिए निरंतर ‘ट्रायल एंड एरर’ की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। कुछ लोग तो सेल्फी लेने की इस प्रक्रिया से गुज़रते ही रहते हैं, खतरे मोल लेते हैं और कभी कभी अपनी जान तक गवां बैठते हैं। एक सज्जन, सामने आती रेल की पटरी पर खड़े होकर, सेल्फी लेने लगे और कट गए। एक अन्य व्यक्ति ने भालू के साथ सेल्फी लेने की कोशिश की और वह उसका ग्रास बन गया। लोग ऐसी खतरनाक कोशिशें न करें इसलिए कलकत्ता में एक अभियान तक चलाया गया। कहा गया भालू की बजाय गाय के साथ अपनी सेल्फी लें। “सेल्फी विद ए काऊ” आप भी सुरक्षित रहेंगे और गोवंश की सुरक्षा के लिए आपमें जागरूकता भी पैदा होगी।
बेशक, सेल्फी लें, लेकिन इसका रोग न पालें। “सेल्फाइटिस” से बचें। आत्म-प्रेम, “सेल्फ-लवेरिया”, इतना न बढ़ने दें कि वह ‘’सल्फाइटिस” का रूप धर ले। तथास्तु।
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डा. सुरेन्द्र वर्मा
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड / इलाहाबाद -२११००१
बढ़िया
जवाब देंहटाएंसेल्फी का रोचक इतिहास (बहु पुराना नहीं होते हुए भी) दिलचस्प है. हमने भी एक बार ऐसी कोशिश की थी, स्वयं को जब वह अच्छी नहीं लगी तो अन्य देखनेवालों को क्या ख़ाक अच्छी लगेगी यह सोचकर हमने उस सेल्फी को और सेल्फी के विचार को डिलीट कर दिया...अच्छी जानकारी मिली...धन्यवाद...साधुवाद और सेल्फिवाद!
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