नवगीत भावनाओं का रूप ले लिया व्हाट्स एप ने! चैटिंग से सब बातें होतीं! हिचक हिचक गलबहियाँ रोतीं!! गपशप से नाता तुड़वाया व्हाट्स एप ...
नवगीत
भावनाओं का रूप
ले लिया
व्हाट्स एप ने!
चैटिंग से सब
बातें होतीं!
हिचक हिचक
गलबहियाँ रोतीं!!
गपशप से नाता
तुड़वाया
व्हाट्स एप ने!
नदिया की
पावनता खोई!
जार जार
नदिया है रोई!!
द्वारे द्वारे नदिया
ला दीं
आज टैप ने!
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नवगीत
हम ठहरे
ईमान के टट्टू
उनके वारे न्यारे हैं!
खींच खाँचकर
जेब भरेंगे!
दुनिया से वे
नहीं डरेंगे!!
बेईमान की
जय बोले जो
वे अफसर को प्यारे हैं!
ब्यवहारिकता जरा
नहीं है!
लेन देन में
खरा नहीं है!!
काम उचक्के
की माफिक है
दिन में दिखते तारे हैं!
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नवगीत
कोलाहल भीड़ का
हो गया
पर्यस्त है!
निकलती सायरन
बजाती गाड़ी!
एक पक्ष है
बंद पड़ी दिहाड़ी!!
गली औ नुक्कड़ में
वर्दियों की
गश्त है!
अगरचे बाड़ खेत
को है खाये!
और बाग हाँथ
से छूटा जाये!!
डरा डरा मानव है
चुप्पी का
दश्त है!
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नवगीत
पूरब में
दिनकर मुस्काया,
भोर हुई!
आँगन में
गौरइया चहकी!
चलती हुई हवा
है महकी!!
खेतों ने हल
गले लगाया,
भोर हुई!
पगडंडी है
राहगीर हैं!
बरगद-पीपल
बहुत धीर हैं!!
फूलों पर शवाब
है छाया,
भोर हुई!
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नवगीत
नटखट सी
ॠतुऐं हैं
जाड़ा सुवेल!
सर्द सर्द
रातें हैं!
फूलों सी
बातें हैं!!
ठंड भी
ठिठुरती है
पूष को झेल!
झर रहा
तुषार है!
यौवन का
भार है!!
ओस से
धुली हुई
पिठवन की बेल!
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नवगीत
कुहरे में
डूब गये
सिहराते वन!
दिन फिरे हैं
कंबल औ
रजाई के!
स्वप्न साकार
ऊन के
सलाई के!!
साँझ लपेटे शाल
कर रही
है पूजन!
चना का होरा
औ मटर
की फल्लियाँ!
होंगी अनाज
के बोरों
की छल्लियाँ!!
करता है
कौंड़ा ही
ठंड का शमन!
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नवगीत
खड़े हुये हैं
लाइन में पर
सर्वर डाउन है!
लिपिक रहा
भौंहें सिकोड़ता!
प्यून भी इधर
उधर दौड़ता!!
नदी किनारे
बसा हुआ
छोटा सा टाउन है!
दफ्तर में रहती
भीड़ भाड़!
बात है बनती
तिल का ताड़!!
खड़ा हुआ हर
शख्स वहाँ पर
लगता क्लाउन है!
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नवगीत
नव वर्ष की डाल में
दिन का फूल खिला!
नव संवत्सर के
स्वागत में खुश घड़ियाँ!
खून से लथपथ
भोर न हो, न गड़बड़ियाँ!!
तिथि पत्रों-पंचांग को
अब शुभ लगन मिला!
तौबा है शिकवा शिकायतें
भूलों से!
पेंग बढ़ायेंगे सावन के
झूलों से!!
हो ख्वाबों का आँख में
अटूट सिलसिला!
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नवगीत
पूष को
सूर्य किरण
रही है
बुहार!
जाड़े में
हैं जम गईं
रातें!
कंबल ऊनी
शाल के
नाते!
बाग में
मंडराते
अलि की
गुहार!
है पहाड़ों
पर कोहरा
घना!
पारा लुड़का
मौसम
अनमना!
खिल रहे
फूलों की
सूर्य को
जुहार!
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नवगीत
ठंड की ऋतु का
अवसान हो गया।
सर्द हवा,
कुहरा है।
जाड़ा तो
दुहरा है।।
बस कुछ दिन का
मेहमान हो गया।
स्वागतम
ऋतुराज का।
सप्त स्वर में
साज का।।
फूलों का शर औ
कमान हो गया।
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नवगीत
पराये दुख दर्द भी
संलग्न हो गये।
कष्टों ने तिनके से
घोंसला बनाया।
पीड़ा का एक शहर,
कोलाहल छाया।।
आदमकद आईने तक
भग्न हो गये।
ऋतुओं का ही
पतझर भी
एक रूप है।
छाया थी जहाँ,
वहाँ कटखनी धूप है।।
मधुऋतु में हैं आम्रकुंज
मग्न हो गये।
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नवगीत-चले गुलेल
हो गया है
थाने का
अपराधी से मेल।
उजाले का
खून हो गया।
पहरु अफलातून
हो गया।।
जीवन लगता
है मानो
शतरंज का खेल।
कलियाँ हैं
रौंदी बाग में।
पड़ते हैं
छाले राग में।।
आहत करती
बतकही
जैसे चले गुलेल।
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नवगीतः गुलों की छाँव
बाग में
पड़ रहे हैं
तितली के पाँव!
फूलों में हैं
खुशबुऐं
आकर बसी!
बबूल की है
बाग से
रस्साकसी!!
तैरता है
हवा में
सपनों का गाँव!
बागों में
खिंचा है
गन्ध का वितान!
अलि की
गुंजन का
है कोई विधान!!
महकती है
जास्मिन सी
गुलों की छाँव!
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नवगीत
अफसर-बाबू
में साँठ गाँठ!
योजनायें सब
हैं लंबित!
बदअमली
महिमा मंडित!!
उन्हें बुके है
हमको डाँट!
सबसे बड़ा
रुपैया है!
घूसखोर
खेवैया है!!
हुई दफ्तर में
बँदर बाँट!
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नवगीत
कृष्ण पक्ष का,
शुक्ल पक्ष है।
फलीभूत
होती आशाऐं।
निष्फल होती
हैं कुंठाऐं।।
खुला झरोखा,
वही कक्ष है।
भाग्य हुआ
सूरज चमकीला।
रुंधा हुआ था
तार कंटीला।।
वो नौसुखुआ
आज दक्ष है।
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नवगीत
जाड़े औ
गर्मी में
फूले मदार!
शिव जी को
चढ़ते हैं
विल्व पत्र,
आक!
जिनकी कृपा
से तो मनशा
है चाक़!!
मंद मंद
पूर्व से
बहती बयार!
फैले चतुर्दिक
हैं कटुता
के जाल!
लोकतंत्र की
धेनु हाँक
रहे ग्वाल!!
खंड खंड
बँटा हुआ
है ये दयार!
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नवगीत
लंबे हैं
झूठ के साए!
थाना
कोर्ट
कचहरी है!
अंधी
गूंगी
बहरी है!!
जन गण मन
कौन अब गाए!
हाँथ कटे
कानून के!
नेह रख दिया
भून के!!
दुराचार
पंख फैलाए!
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नवगीत
मंडराते खतरे
ज्यों चील
औ कौआ!
कतर ब्योंत है
आपसदारी में!
पूरे मौके हैं
रंगदारी में!!
जहरीले नाते हैं
मानो अकौआ!
छीना झपटी
फैशन हो गई!
मेल मिलाप
नागफनी बो गई!!
आदमी लगने लगा
है कोई हौआ!
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नवगीत
लौस
रेहन
में है!
कामना है
प्रवासी!
चाल सब
है सियासी!!
कल्ला
बेहन
में है!
तमस करे
है तर्जन!
किरन के
लिए वर्जन!!
रोष
जेहन
में है!
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नवगीत
उम्मीद पर करने लगी
संवेदना हस्ताक्षर।
हैं ख्वाब आँखों के
पखेरू हो गये।
विश्वास के पर्वत
सुमेरू हो गये।।
आशा अंगूठा छाप थी
अब हो गई है साक्षर।
पल्लव को हरियाली
रही है दुलार।
छलक पड़ा ऋतुओं का
मौसम से प्यार।।
चमकीले हैं मोती जैसे
चौपाई के अक्षर।
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नवगीत
रिश्वत लगती
है जूठन।
दुष्टों में
सन्यास दिखा।
आँसू ढुलके
हास दिखा।।
नैतिकता में
क्यों टूटन।
मानवता अब
घायल है।
बटमारी तो
कायल है।।
हट्टे कट्टे
हड़फूटन।
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नवगीत
लोग करुणा हीन हैं
मानो मवेशी!
बन्द हुआ लोगों का
आपस में भेंटना!
आजकल का रिवाज
है रुपैया ऐंठना!!
छोड़कर दो चार घर
पड़ रही पेशी!
घने वृक्षों सा हैअपराध
फल फूल रहा!
जो आपादमस्तक था
वो अब धूल रहा!!
आयातित की पूंछ
घूरे में देशी!
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नवगीत
सूरज ने
धूप से कहा
मौसम रंगीन
हो गया।
अब चलने लगी हैं
चुलबुली हवाऐं।
आपस में पेड़
जाने क्या बतियायें।।
मधुप जो है
फूल पर झुका
जुर्म संगीन
हो गया।
रोज रोज होती
पुनर्नवा भोर है।
झलका सन्नाटे में
कोई शोर है।।
ऋतुओं का आलम
है कि पतझर
दीन हीन
हो गया।
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नवगीत
रहजन ही बना
खेवैया है।
करता है
तमस बरजोरी।
मेघ करे
धूप की चोरी।।
उधार के बदले
सवैया है।
बबूल बचे हैं
फूल गए।
बादल बरसना
भूल गए।।
हुआ अब बेकार
रवैया है।
कुप्रथाओं से
उपजा सोग।
क्या करते
मुट्ठी भर लोग।।
सब कुछ अफसर को
मुहैया है।
सपनों ने
सन्यास ओढ़ा।
पड़े बुरे वक्त
का कोड़ा।।
केंचुली को बीन
बजैया है।
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नवगीत
जीवन
आपाधापी है!
अलापेंगे
अपनी राग!
हुई ब्यर्थ की
दौड़ भाग!!
वैभवशाली
पापी है!
चुप अखबारों
की सुर्खी!
खुशियों की
होती कुर्की!!
यार हुआ
संतापी है!
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नवगीत
बाहर कदमों
की आहट!
खुला जंगला
भोर हुई!
प्रेयस् हुआ
हिलोर हुई!!
कुत्तों की
है गुर्राहट!
किरण दरीचे
से झाँके!
धूप दोपहर
को टाँके!!
सख्ती में
है नरमाहट!
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गीत
इतनें प्रदेश हैं
कश्मीर हो गया!
देश का एक
अंग नहीं है!
फागुन है पर
चंग नहीं है!!
पुष्पहार ढलकर
जंजीर हो गया!
लंबी है भय
की परछाँई!
बिना कान की
जन सुनवाई!!
वस्त्र की जरूरत है
छीर हो गया!
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अविनाश ब्यौहार
जबलपुर
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