कभी बाप-दादा का बनाया अपना घर था कुल्टी में। अब तो उसके बारे में कुछ भी सोचना राजपति शर्मा बेकार समझते हैं। राजपति और उनके भाइयों का बचपन उस...
कभी बाप-दादा का बनाया अपना घर था कुल्टी में। अब तो उसके बारे में कुछ भी सोचना राजपति शर्मा बेकार समझते हैं। राजपति और उनके भाइयों का बचपन उसी घर के आंगन में गुजरा था। तीनों भाई बड़े हुये। उनकी शादी हुई। इसके बाद रोजी-रोटी की जरूरत ने सभी को अपने-अपने परिवार के साथ एक-दूसरे से अलग कर दिया। वे भी अपने परिवार के साथ अपने मुकाम की ओर चल दिये। कुछ ही वर्षों में उनके माता-पिता गुजर गये सो फिर उस घर में ताला पड़ गया।
एक बार राजपति के बड़े भाई अपने परिवार के साथ छुट्टियां बिताने कुल्टी आये थे तो उन्होंने देखा कि मुहल्ले के कुछ लड़के उस घर के अहाते में जुये का अड्डा जमाये बैठे हैं। पैतृक सम्पत्ति की यह दुर्दशा देख उनके बड़े भाई बड़े दुखी हुये थे। उनके अंदर यह डर समा गया था कि किसी दिन उनके बाप-दादा के चिन्ह बर्तन, पलंग या और कोई सामान चोरी न चले जायें। भाइयों की मजबूरी वे समझते थे। भला कौन अपनी नौकरी और परिवार की चिन्ता छोड़कर घर अगोरने आयेगा। वहां परिवार रखकर दूसरी जगह नौकरी करना संभव भी नहीं था। एक दिन बड़े भाई ने मझले भाई और राजपति शर्मा को बुलाकर सलाह-मशविरा किया और यह फैसला हुआ कि उस घर को बेच देना चाहिये। कुछ दिनों बाद उस घर को बेच दिया गया।
आसनसोल के डुरांड रेलवे कालोनी में रहते हैं राजपति शर्मा। अब उनकी उम्र पचपन के करीब है। परिवार में पत्नी और तीन सयाने लड़के हैं। बड़े लड़के सुभाष की पीठ पर एक लड़की रेणु है। पिछले साल धनबाद में उसकी शादी हो गयी। इसके बाद विवेक और मनोज हैं।
करीब पचीस साल पहले अंडाल में रेलवे में स्टीम इंजन के फायरमैन के पद पर उनकी बहाली हुई थी। प्रमोशन के बाद सेंटर हुये। फिर स्टीम इंजन से इलेक्ट्रिक इंजन में असिस्टेंट ड्रायवर हुये। अभी वे इलेक्ट्रिक ट्रेनर के पद पर हैं। अंडाल से सीतारामपुर, फिर गोमो और आसनसोल के तबादले के साथ रहने के लिये रेल का क्वार्टर मिलता रहा।
अब उन्हें चिन्ता इस बात की है कि अपना एक घर होना चाहिये। रेल का क्वार्टर तो तब तक ही है जब तक नौकरी है। एक दिन तो इसे खाली करना है। इसके बाद भी तो रहने के लिये सिर पर एक छत चाहिये, सो यही अच्छा होगा कि रिटायरमेंट के पहले कहीं जमीन वगैरह खरीदकर एक अपना घर बना लिया जाये। नौ-दस साल से वे इसी प्रयास में हैं। कई बार इसी तैयारी के पूरे होने के समय कई ऐसी समस्याएं आ खड़ी हो गयी हैं कि उन्हें अपना निर्णय बदलना पड़ा था। नौकरी लगने के समय कुछ दिनों भाड़े के घर में रहकर बहुत सारी असुविधाओं को उन्होंने झेला था। इसीलिये इधर कुछ दिनों से अपने एक घर का सपना वे बराबर देखते रहते हैं।
राजपति शर्मा के कई दोस्तों ने नौकरी करते हुये ही गोमो, धनबाद और आसनसोल में अपना-अपना घर बना लिया था। वे अपने लड़कों को शिक्षित और सभ्य देखना चाहते थे। सुभाष ने एम.एस.सी. किया था। कई सालों तक उसे नौकरी के लिये काफी भटकना पड़ा। फिर किसी तरह जुगाड़ बैठा कर एक सरकारी हाईस्कूल में विज्ञान के शिक्षक के पद पर उसकी नौकरी हो गयी। रेणु भी बी.ए. तक पढ़ी थी। विवेक बी.काम. करने के बाद एक प्रायवेट फार्म में क्लर्क की नौकरी पा गया था। मनोज ने भी बी.काम. किया था मगर वह अब तक बेकार बैठा था। एक हद तक अब पहले जैसे झमेले नहीं थे इसीलिये उनका निर्णय दृढ़ हो गया था कि अब घर जरूर बनना चाहिये।
बैंक में उन्होंने कुछ रुपया जमा किया है। उनका कहना है कि जमीन अच्छी मिलने से वे बाकी व्यवस्था भी कर लेंगे। सुभाष भी मदद करेगा। उनका एक रिश्तेदार ठेकेदार है। एक दिन बात-बात में उस रिश्तेदार ने उन्हें बताया कि आजकल दो-ढाई कट्ठे में अच्छा और सुविधापूर्ण मकान बन जायेगा। दो-एक कमरे किरायेदारों लायक भी बन जायेंगे। अतिरिक्त आय का स्रोत रहेगा।
वहीं अपने घर की बात सोचते-सोचते इधर एक साल से उन्हें एक अजीब-सी लत लग गयी है। जब भी वे फुर्सत में होते हैं, बस कहीं बैठकर कागज पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने लगते हैं। वे रेखाएं असल में घरों के विभिन्न तरह के नक्शे होते हैं। उनका ख्याल है कि घर बनने से पहले अपने मन मुताबिक घर का नक्शा तैयार कर लें। गली वगैरह में घर बनाने से अच्छा है कि किसी रास्ते के बगल में घर बनाया जाये। समय-असमय ऐसा घर दुकान वगैरह खोलने के काम भी आ जायेगा। आजकल के किरायेदार तो जिस घर में रहते हैं, उसे ही हथियाना चाहते हैं। वे किरायेदार नहीं रखेंगे। उनके रिश्तेदार ने सुझाव दिया है तो क्या हुआ।
उन्हें यह भी फिक्र है कि बुढ़ापे में क्या पता, लड़के साथ दें या न दें, पास रहें या न रहें। वैसे बुढ़ापे के घर में उन्होंने तो पांव तो डाल ही दिया है। पेंशन के पैसे से उन दोनों बूढ़ा-बूढ़ी का काम चल जायेगा। इस तरह विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार कर वे नक्शा बनाते रहते हैं कि आखिर अपना घर तो अपना ही होता है।
यह सामने का कमरा दस-बाई-दस होना चाहिये। थोड़ा बड़ा होने से कोई हर्ज नहीं। ऐसे भी व्यवहार होगा और समय आने पर इसमें दुकान खोली जा सकती है। इसके पीछे सोने का कमरा, नहीं-नहीं बैठक का कमरा होना चाहिये, फिर सोने का कमरा। बगल में पांच या छह फीट चौड़ा गलियारा होना चाहिये। यहां रसोईघर, यहां लैट्रिन और बाथरूम। छत पर जाने के लिये सीढ़ियों के लिये तो जगह ही नहीं बची। हां, एक कमरा कम कर देना चाहिये। कुंआ भी तो चाहिये। ऊंह, यह नक्शा ठीक नहीं है। सामने अगल-बगल दो कमरे होने चाहिये। एक दुकान के लिये और एक बैठक के लिये। दुकान के पीछे सोने वाला कमरा होना चाहिये। यहां छत पर जाने के लिये सीढ़ियां, यहां रसोईघर और यहां कुंआ। यहां लैट्रिन और उसके बगल में बाथरूम। नहीं, ऐसे तो ये दोनों रसोईघर के सामने पड़ जायेंगे। नहीं, इस नक्शे में खामियां हैं।
इस तरह हर नक्शा अंत में उनके मन लायक नहीं बन पाता और घर के एक कोने में कूड़े की तरह जमा हो जाता और फिर दूसरा कागज उनके हाथ में होता। नक्शा दुबारा तैयार होने लगता और फिर कूड़े में बदल जाता। मैं बराबर उनकी यह कार्यगुजारी देखता मगर कुछ समझ में नहीं आता। एक दिन पूछने पर ही मालूम पड़ा कि असल बात क्या है। उस समय मैंने कहा था, 'क्या बेकार की माथा-पच्ची करते हैं। बना-बनाया घर सस्ते में मिल जाने से अच्छा रहता है।’
'मन लायक घर मिले तब तो। अगर जमीन खरीद कर घर बनाना पड़े तो आगे से ही तैयारी अच्छी होती है। बाद में उसी तरीके से नक्शा बनवाकर पास करवा लूंगा।’ उन्होंने मुस्कुराकर जवाब दिया तो मैं कुछ कह न सका था।
शराब, जुआ और सट्टे के नशेबाज मैंने बहुत देखे हैं। कुछ लोग किसी तालाब के किनारे बैठ कर सारा दिन मछली के शिकार में गुजार देते हैं। बाजारू उपन्यासों के बहुत सारे नशेड़ी मैंने देखे हैं। कुछ लोगों की कमजोरी औरत होती है। और भी बहुत तरह के नशा हैं। राजपति शर्मा का नक्शा बनाना और फाड़ना देखकर मैं सोचने लगा था कि यह लत भी एक नशे के समान उन पर सवार हो गयी है। अब तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि उनका अपना मकान जल्द से जल्द बन जाये। अब तो उनकी कमीज और पेंट की जेब में सब समय कागज के बंडल होते हैं। फुरसत मिलते ही कागज-कलम हाथ में मौजूद होता है।
दो-ढाई साल पहले एक बार पूरी तैयारी भी हो गयी थी। रेलपार में एक जगह जमीन पसंद आ गयी थी। उसी समय रेणु के लिये एक अच्छा घर पता चला। लड़का अच्छा और नौकरी वाला था। सो उन्होंने सोचा कि घर तो फिर भी बन जायेगा लेकिन पहले लड़की का व्याह कर सबसे बड़ी चिन्ता से मुक्ति पा ली जाये। और रेणु की शादी हो गयी।
खबरें पढ़ने और सुनने का उन्हें बहुत शौक है। पड़ोसियों की देखादेखी एक पोर्टेबल टी.वी. वे खरीद लाये हैं। लोगों की तरह खबरों पर वे टीका-टिप्पणी नहीं करते। वैसे लोगों के आपसी तर्कों के समय वे कभी कुछ कह देते हैं तो उनकी बात को काटना मुश्किल हो जाता है। वे बड़े हंसमुख और मिलनसार व्यक्ति भी हैं। जिससे भी बात करते हैं उसे 'भैया’ कहकर ही संबोधित करते हैं। मुझसे, मेरे पड़ोसी नदीम भाई और सामने वाले क्वार्टर के रघुनाथ चाचा से उनकी खूब पटती है। हां, कभी-कभी वे दार्शनिकों जैसी बातें भी करने लगते हैं।
राजपति शर्मा की धर्मपत्नी बारहों महीने दवाइयां खा-खाकर घर संभालती है। पत्नी की अवस्था देखते हुये वे सुभाष की शादी कर देने की भी सोचने लगे हैं। घरेलू समस्यायों पर जब वे बातें करते हैं तो 'अपने घर’ का जिक्र कई तरह से आरंभ कर देते हैं, 'लड़के सयाने हो गये हैं और रेलवे के दो कमरों वाले क्वार्टर में अब दिक्कत होती है। जल्द ही सुभाष की शादी करनी है। परिवार तो अब बढ़ेगा। कहीं अच्छी-सी जमीन मिल जाती तो अच्छा रहता। आप लोग भी जरा इस बारे में खबर रखियेगा।’
नदीम भाई ने मुझे एक बार बताया था कि करीब सात-आठ साल पहले मुर्गासाल में एक जमीन राजपति बाबू को बहुत पसंद आई थी। उसी समय इन्दिरा गांधी की हत्या हो गयी। दंगा भड़क उठा था। नफरत और उत्तेजना में लोगों ने सिक्खों का कई घर लूट लिये थे। उनके घर और दुकान जला दिये गये थे। सिर्फ आसनसोल ही नहीं, पूरा भारत प्रभावित हो गया था। इसके बाद राजपति बाबू ने उस जमीन को खरीदने का ख्याल छोड़ दिया था। नदीम भाई ने बताया था कि दंगे से उनके मन को गहरी चोट लगी थी। अमानवीय मानसिकता वाले लोगों के बीच रहना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ था। राजपति बाबू का कहना था कि सियासती चालों की सजा बेकसूरों को क्यों भुगतनी पड़ती है। उन सिक्खों का क्या दोष था ? एक सड़े हुये फल के लिये पूरे पेड़ को काट डालना क्या बहादुरी है ? कौम को बदनाम करते हैं लोग, मौका मिला नहीं कि निर्दोषों पर अपनी ताकत आजमा बैठते हैं। लानत है ऐसे लोगों पर !
इसके ढाई-तीन महीने बाद उन्होंने फिर उसी जमीन को खरीदने का इरादा बनाया मगर पता चला कि वह जमीन बिक गयी थी।
कुछेक महीने से हमलोग देख रहे थे कि मनोज एक राजनैतिक दल के साथ खूब उठने-बैठने लगा है। राजपति शर्मा को भी यह बात मालूम हुई। यह भी खबर लगी कि मनोज की गतिविधियां संतोषजनक नहीं हैं। मेरे सामने ही एक दिन उन्होंने मनोज को समझाया, 'भइया, इस देश और लोगों के लिये तुम कुछ करना चाहते हो तो करो। अच्छी बात है। हां, किसी दल का तुम ' ब्लाइंड सपोर्टर’ मत बनना, वह गलत बात होगी। अब बड़े हो गये हो तो जो कुछ भी करना, सोच-समझ कर करना।’
मनोज ने लापरवाही के साथ धीमे स्वर में कहा, 'पिताजी, आज के दौर में जीने के लिये यह जरूरी है कि एक ताकत के तहत रहना चाहिये। देखियेगा, मैं बड़े भैया और विवेक भैया से बहुत आगे बढ़कर दिखाऊंगा।’
सबकी बोलती बंद करने वाले राजपति शर्मा चुप हो गये थे।
अगले ही महीने एक दिन शाम को मनोज हाथ-पांव में पट्टियों से लिपटा घर लौटा। मुंह सूजा हुआ था। सिर फट गया था, कई टांके लगे थे। साथियों के सहारे वह घर आकर खाट पर पसर गया। राजपति बाबू और उनके परिवार के सदस्य घबरा गये कि कोई दुर्घटना तो नहीं घट गयी। पूछने पर उसके साथियों ने बताया कि स्टेशन रोड पर विरोधी पार्टी के कुछ लोगों से उसकी तकरार हो गयी थी। इसी झमेले में मनोज को कुछ चोटें आई हैं, घबराने जैसी कोई बात नहीं।
राजपति शर्मा खामोशी से वह घटना सह गये थे। उन लड़कों को क्या कहते ? फिर भी उनकी खामोशी और नजरें यह सवाल करती हुई महसूस हुई थीं कि कैसे घबराने जैसी कोई बात नहीं ! क्या भविष्य बनाने का यही तरीका है ? ताकत का तात्पर्य क्या लड़ाई और अत्याचार है ? उनकी पत्नी मनोज के सिरहाने बैठी काफी देर तक सिसकती रही।
मेरे घर में टी.वी. नहीं है। मैं प्राय: कई कार्यक्रम उनकी ही टी.वी. पर देखता हूं। चस्का लग गया है। एक दिन समाचार के समय मैं उनके घर पहुंचा तो उस समय वे बड़ी गंभीरता के साथ नक्शा बनाने में लगे हुये थे। मैं समाचार सुनता रहा। उस पंद्रह मिनट के दौरान मैंने गौर किया कि उन्होंने दो नक्शे मरोड़कर कोने में फेंके। उनकी ओर निहारते हुये मेरे मन में कई तरह के सवाल उभरने लगे और वे शायद मेरी मनोदशा को ताड़ गये। उनका चेहरा और गंभीर हो गया। उन्होंने कहा, 'मनोज की चिन्ता है। कुछ अलग ही किस्म का लड़का है वह। आज मेरे एक साथी ने बताया कि रानीगंज में एक अच्छी जमीन बिक्री है। थोड़ी दूर है तो क्या, सोचता हूं कि चला जाऊं। कम से कम मनोज की संगत तो छूटेगा। अभी कामचलाऊ दो कमरे बना लूंगा, फिर धीर-धीरे बाकी की सोचूंगा।’
उनकी आन्तरिक उथल-पुथल को मैंने अनुभव किया था। मैंने उन्हें समझाया था, 'परिस्थितियों से घबराकर इस तरह पस्त होना उचित नहीं। आप अनुभवी हैं। मनोज को समझने और समझाने की कोशिश कीजिये, मैं भी समझाऊंगा। समय आने पर सब ठीक हो जायेगा। आदमी को तोड़ने वाले ऐसे बवंडर उठते रहते हैं, पर कुछ देर के लिये।’
उन्होंने धीरे से सिर हिलाया था मगर कुछ कहा नहीं।
एक दिन उन्होंने बताया कि सुभाष की शादी के लिये कई जगहों से संबंध के प्रस्ताव आये हैं। दो-एक जगह से लोग उसे देख भी गये हैं। लड़का सभी को पसंद है। उन्होंने यह भी बताया कि मनोज आजकल बाहर कम निकलता है, एम, काम की तैयारी में लग गया है। रानीगंज की जमीन वे देख आये हैं। जगह की 'पोजीशन’ अच्छी है, बातचीत पक्की हो गयी है। अगले महीने ही उस जमीन की रजिस्ट्री होगी।
मैंने उन्हें बधाई देते हुये कहा था कि अब तो उन्हें मिठाई खिलानी होगी। वे मुस्कुरा पड़े थे।
समय का क्या है ? वह अपने नियमबद्ध तरीके से गतिशील है। समय के साथ आदमी को निपटना ही पड़ता है। खाड़ी युद्ध प्रारंभ हुये सप्ताह भर हो गया था। लोगों का ख्याल था कि युद्ध दो-तीन दिनों में समाप्त हो जायेगा। भला अमेरिका जैसी महाशक्ति के सामने इराक कितनी देर टिक पायेगा। अब जबकि हालात दूसरे नजर आ रहे थे तो हर किसी पर तीसरे महायुद्ध का आतंक हावी होने लगा था।
युद्ध आरंभ होने के दिन से ही मैं राजपति शर्मा के घर टी.वी. पर समाचार के समय नियमित जाने लगा। समाचार के बाद हम इस मामले पर अपनी-अपनी चिन्ता प्रकट करते। मिसाइलें दागी जातीं तो हम आदमी की जान का मूल्य आंकते। उस दिन मैं, नदीम भाई और रघुनाथ चाचा वहीं बैठक जमाये थे। उनके तीनों लड़के भी वहीं थे। उनकी पत्नी शायद रसोईघर में थी।
मिसाइलें उड़कर दूर कहीं गिरती हैं, रोशनी का एक भभका-सा काले-काले गुब्बारे के साथ उठता है। रघुनाथ चाचा 'उफ्फ’ करके ललाट सहलाने लगते हैं। खंडहरों का शहर और किसी आदमी को अपनी जान बचाने के लिये पागलों के समान इधर-उधर भागते देख नदीम भाई 'च्य-च्य-च्य’ करने लगते हैं। उन दृश्यों को देखकर मेरा अंतर दहल उठता है। दहशत हर चेहरे पर हावी हो जाती है।
समाचार समाप्त होने के पहले ही मनोज ने उठकर टी.वी. बंद कर दिया और मेरी ओर मुड़कर बोला, 'और हिम्मत नहीं होती, लोग क्या हुये भेड़-बकरी हो गये हैं। अभी थोड़े ही दिनों पहले चीन में बनैलेपन का नंगा नाच हो चुका है। समझ में नहीं आता कि दुनिया किधर जा रही है ? आखिर कौन गलत है, सद्दाम या जार्ज बुश ?’
मैंने अपना विचार प्रकट किया, 'दोनों ही गलत हैं। दोनों ही अपनी जिद पर अड़ गये हैं।’
रघुनाथ चाचा भी तुरंत बोल पड़े, 'एक अपनी जिद पर अड़ गया है तो दूसरे को अपनी ताकत दिखाने का मौका मिल गया है। अरे, इनकी बात तो अलग, परसों लोको गेट की बात है। अब यही देखो, कहां अयोध्या है और यहां एक चाय की दुकान पर मंदिर-मस्जिद की जरा-सी बात पर हाथा-पाई हो गयी। वो तो दंगा हो जाता कि मौके पर पुलिस पहुंच गयी। खैर, किसी तरह मामला ठंडा पड़ गया नहीं तो आज हमें भी घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता।’
नदीम भाई भी चिन्तित-से थे, 'आजकल हर तरफ ये तेरा-वो मेरा की अफरा-तफरी मची है। जिसे कमजोर पाओ, नोच लो। आदमी जाये तो किधर जाये ?’
बातचीत के दौरान एक घंटा गुजर गया। हमलोगों ने गौर किया कि राजपति बाबू बड़े ध्यान से एक तरफ बैठे नक्शा बना रहे थे। मैंने ही उन्हें टोका, 'क्यों चाचा, आज बड़े खामोश नजर आ रहें हैं ?’
उनका ध्यान भंग हुआ। सिर उठाकर गंभीर स्वर में उन्होंने कहा, 'अरे भइया, तुमलोग तो थे ही। हां, चार-पांच दिनों में रानीगंज वाली जमीन रजिस्ट्री होने वाली है। बातचीत पक्की हो गयी है।’
रघुनाथ चाचा कुछ सोचते हुये बोले, 'सुना है वहां का माहौल कुछ ठीक नहीं है। वैगन ब्रोकरी होती है।’
मनोज ने भी गंभीरता से कहा, 'मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है। वह भले लोगों का मुहल्ला नहीं है। मेरा ख्याल है कि वह जमीन न खरीदी जाये।’
हताशा और चिन्ता का मिला-जुला भाव राजपति शर्मा के चेहरे पर उभर आया। मैंने देखा, उनके हाथ से मसला हुआ नक्शा नीचे गिर पड़ा था। उनके चेहरे को देखते हुये हर कोई चुप्पी साध गया। बड़े बेवश भाव से उनका सिर नीचे लटक गया।
कमरे की खामोशी बोझिल बने कि राजपति शर्मा ने तुरंत ही सिर उठाया। एक नयी चमक के साथ उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। सभी को ध्यान से निहारते हुये वे बोले, 'अच्छा उस जमीन को छोड़ो, किसी ऐसी जमीन का पता बताओ जहां आदमी रह सके। चाहे वह इस धरती पर कहीं भी हो। हां, जंगल में मुझे नहीं रहना, मैं आदमी के बीच रहना चाहता हूं और शायद तुम लोग भी।’ हम सभी लोगों को उनसे नजरें मिलाना कठिन हो गया। सिर झुकाये हुये ही मैंने गौर किया, उनके हाथ में नया कागज था। एक नये नक्शे की तैयारी थी।
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विजय शंकर विकुज
द्वारा - देवाशीष चटर्जी
ईस्माइल (पश्चिम), आर. के. राय रोड
बरफकल, कोड़ा पाड़ा हनुमान मंदिर के निकट
आसनसोल - 713301
ई-मेल - bbikuj@gmail.com
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