मनीष शुक्ल के पहले उपन्यास ‘स्वयंसेवक एक महागाथा’ ने पाठकों-समीक्षकों-आलोचकों का ध्यान अच्छी तरह खींचा। इस उपन्यास की यह समीक्षा ........ पु...
मनीष शुक्ल के पहले उपन्यास ‘स्वयंसेवक एक महागाथा’ ने पाठकों-समीक्षकों-आलोचकों का ध्यान अच्छी तरह खींचा। इस उपन्यास की यह समीक्षा ........
पुस्तक – स्वयंसेवक एक महागाथा
लेखक- मनीष शुक्ल
विधा – उपन्यास
विमोचन- 7 फरवरी, विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली
प्रकाशक – नेहा प्रकाशन, शाहदरा, नई दिल्ली.
मूल्य – 175 रुपये
Email – manish.india.co@gmail.com
Phone – 8853057686
======================
स्वयंसेवक एक महागाथा मुख्य रूप से राष्ट्रवाद और धार्मिक- सामाजिक एकता के ताने- बाने में बुनी गई उपन्यास है जिसमें कल्पना और हकीकत के रंगों को एकसाथ पिरोया गया है। जितनी खूबसूरती से कहानी के नायक सूर्यप्रकाश और रहीस की दोस्ती को उकेरा गया है, उसी सौंदर्य के साथ राष्ट्रवाद की अलख भी जगाई गई है। मनीष शुक्ल ने अपने इस पहले ही उपन्यास में अगनित दृश्य बुने हैं। पढ़ते हुए आंखों के सामने दृश्य पर दृश्य बनते चले जाते हैं. दृश्यों को मूर्त रूप देने वाले किसी कुशल निर्देशक की तरह मनीष एक के बाद एक मार्मिक दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। जैसे “मार डाला न मेरे भाई को...’ नफरत की आग में झुलस रहे राधे के छोटे भाई ने ये भी नहीं सोचा कि दो मिनट पहले तक उसकी जुबान उनको चचा ‘जान’ कहते नहीं थक रही थी लेकिन अब उसके हाथ अपने चचाजान के ‘गिरहबान’ तक पहुँच चुके थे। उसने कालर पकड़ उस व्यक्ति को उसके ही देश से बेदखल करने की ‘दुस्साहसी’ बात कह दी थी, जो अपनी इसी मिट्टी की उपज था, जिसके रोम- रोम में भारत बसता था। उसका मोहल्ला उसकी जान थी और राधे में उसके प्राण बसे थे। वो राधे और उसके भाई को अपने ही भतीजों की तरह प्यार करता था लेकिन मोहल्ले की गली के नुक्कड़ पर पुलिस की एक जीप क्या आकर रुकी, उससे बदहवास दिख रहे मोंटी सरदारजी के उतरते ही नफरत का सैलाब राधे के परिवार पर टूट पड़ा था।“ उपन्यास में एक ओर सूर्य और रहीस की दोस्ती आगे बढ़ती है तो दूसरी ओर समकालीन राजनीति से रूबरू होते हैं। दृश्य बुनने की यही कला स्वयंसेवक एक महागाथा का सबसे मजबूत पक्ष है। उपन्यास का एकमात्र संकट, एक फिल्म की तरह अलग-अलग काल और परिस्थितियों का संयोजन है। जिसमें एक ओर तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उड़ान ओर देशवासियों के साथ जुड़ाव की कहानी है तो उसी समय कल्पना की उड़ान भी है। जैसे... “तभी सूचना आई कि आडवाणी जी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया है। एक कार्यकर्ता ने धीरे से सूर्य के पिता जी और चाचा जी के कान में कहा कि ‘आडवाणी जी की गिरफ्तारी से आक्रोश फैल सकता है।‘
इस रथयात्रा में आडवाणी के सारथी खुद नरेंद्र मोदी थे। मोदी का राष्ट्रीय पटल पर अवतरण इसी रथ यात्रा के जरिए हुआ। मोदी ने गुजरात इकाई के महासचिव (प्रबंधन) के रूप में रथ यात्रा के औपचारिक कार्यक्रमों और यात्रा के मार्ग के बारे में मीडिया को बताया। इस तरह मोदी पहली बार राजनीति के राष्ट्रीय मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका में सामने आए थे। मोदी ने उस समय मीडिया को दिए गए तमाम वक्तव्यों के दौरान राम मंदिर को सांस्कृतिक चेतना और धरोहर बताया और उसके लिए संघर्ष की बात कही, जो भविष्य की उनकी योजनाओं को दर्शा रहा था। उसी समय मोदी ने ये भी ऐलान कर दिया कि ‘बीजेपी 30 अक्टूबर को अयोध्या में एक और जलियांवाला बाग के लिए तैयार है’ यह बात साफ थी कि कार्यकर्ता अब झुकने वाले नहीं हैं। तय योजना के मुताबिक आडवाणी की रथयात्रा 30 अक्टूबर को अयोध्या में खत्म होनी थी। रथयात्रा भले ही पूरी न हो सकी हो लेकिन उसका उद्देश्य पूरा हो चुका था।“ लेखक ने ही समय में 80 के दशक से लेकर 2014 तक के कालखंड को कल्पना और राजनीतिक के वास्तविक धरातल को जोड़ने का दुस्साहस किया गया, जो उपन्यास को खास बनाता है।
खैर सियासत की बिसात पर बुने जाने के बावजूद स्वयंसेवक की दास्तान में मुहब्बत का भी फसाना है। आफ़रीन और आशिया की मुहब्बत है, सूर्य और रहीस का इजहार से झिझकना है फिर इकरार करना खास पहलू है। जैसे आफ़रीन रहीस से अपने प्यार का इजहार करती है कि ‘रहीस सच बताऊँ तो तुमने कभी भी मुझे सूर्य की कमी महसूस नहीं होने दी। मैं जानती हूँ कि अब जो मैं कहूँगी वो तुम्हें अजीब लगेगा लेकिन मेरे दिल में कहीं न कहीं तुम्हारे लिए एक खास जगह बन चुकी है। वो जगह क्या है, मुझको नहीं पता लेकिन अब तुम्हारे बिना रहने का ख्याल भी रूह को कंपा रहा है।‘ रहीस के सीने से वो चिपकी हुई, अब रोए जा रही थी।‘ या फिर आशिया और सूर्य का प्रसंग “सफर की शुरुआत में दोनों ही काफी देर तक खामोश रहते हैं। आशिया चुप्पी तोड़ती हुई कहती है कि ‘क्या आप मुझसे नाराज हैं।‘ ‘नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं, तुमको ऐसा क्यों लगा।‘ सूर्य के इस सवाल पर आशिया कहती ‘क्योंकि आप मुझसे मिलने से कतरा रहे हैं, मेरे साथ आना भी नहीं चाह रहे थे। आजकल आप एक चोर की तरह नजरें चुरा रहे हैं।‘ लेखक की जीत यही है कि इश्क की दास्तान होने के बावजूद राजनीति के तथ्यों को बेहद बारीक तरीके से प्रस्तुत करती है जैसे “यह सच था कि दस सालों के शासन के बाद कांग्रेस और संप्रग सरकार पूरी तरह से ढलान पर थी लेकिन देश के सामने मजबूत विपक्ष का भी अभाव था। अन्ना का आंदोलन गैर राजनीतिक था और अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक दल बनाने के बाद वो उनसे अलग हो चुके थे। केजरीवाल की महत्वाकांक्षा तो बहुत बड़ी थी लेकिन केजरीवाल का दायरा बहुत ही सीमित था और कुछ ही समय पहले मुंबई में हुए अनशन में नजर भी आ गया था। एक ओर जहां दिल्ली का रामलीला मैदान लोगों से पटा रहता था, वहीं जब मुंबई में आंदोलन हुआ तो लोगों की भीड़ यहाँ नदारद थी। भाजपा भी इस समय अपने नेतृत्व से जूझ रही थी जनता के बीच लाल कृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता अब महानायक वाली नहीं रह गई थी।“ लेखक ने भारतीय राजनीति के अमेरिका तक बढ़ते प्रभाव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उभार को सटीक ढंग से चित्रित किया “ मोदी गुजरात की तीसरी चुनाव जीत कर देश की जनता के सर्वमान्य नेता बनते जा रहे थे। भले ही उस समय तक अमेरिका में गुजरात के मुख्यमंत्री की एंट्री बैन हो लेकिन भारत का अमेरिकी समुदाय अब उनका मुरीद हो चुका था। वो उनमें भारत का नया नेता देख रहे थे। जो भारत की तकदीर बदल सकता था।“ लेखक ने नायकों को राजनीति के मोर्चे पर खड़ा कर युवा सपनों को मोदी के साथ जोड़ने की भी कोशिश की... जैसे सूर्य और रहीस जैसे ही कई योग्य प्रोफेशनल अपनी- अपनी फील्ड को छोड़कर राजनीति में आ रहे थे। ये अन्ना आंदोलन और मोदी के आभामंडल का प्रभाव था कि कई युवा अमेरिका से नौकरी छोडकर भारत आ चुके थे। महान नेता और देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र भी लाखों डालर की सैलरी छोडकर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए थे। आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर अभिषेक मिश्रा अखिलेश यादव के कहने पर अपनी नौकरी छोड़कर समाजवादी पार्टी में आ गए थे। ऐसा लग रहा था कि राजनीति का चेहरा साफ हो जाएगा।“ कुल मिलाकर स्वयंसेवक की यह पड़ताल पठनीय है।
COMMENTS