बेंक ऑफ़ पोलम पुर - याने हामम में सब नंगे यह अजीब इत्तफाक रहा की एक ही दिन बैंक ऑफ़ पालमपुर आया और उसी दिन ब से बैंक के लेखक का नया उपन्यास –ज...
बेंक ऑफ़ पोलम पुर - याने हामम में सब नंगे
यह अजीब इत्तफाक रहा की एक ही दिन बैंक ऑफ़ पालमपुर आया और उसी दिन ब से बैंक के लेखक का नया उपन्यास –जॉब बची सो...आया.एक दिन बाद यह गाँव बिकाऊ है आया.. इन दिनों व्यंग्य उपन्यासों की बाढ़ आई हुईं है लेकिन सुरेश कांत ने ब से बैंक तब लिखा जब ऐसी कोई चर्चा नहीं थी. खाकसार ने भी यश का शिकंजा उन्हीं दिनों लिख मारा. वेद माथुर ने अपने उपन्यास को हास्य लिखा है , मगर फेसबुक पर वे इसे व्यंग्य साबित करते हैं, हास्य व् व्यंग्य का यह घालमेल घोटाला किसी बैंक के घपले से कम नहीं लगता .उपन्यास का कवर शानदार है. गोल्डन एम्बोजड है , हर शाख पर उल्लू बैठा है. बैंक से माल उड़ाते लोग हैं. अंदर राजू श्रीवास्तव की टीप है जो किसी काम की नहीं है. थोडा आगे बढ़ने पर आलोक पुराणिक से मुठभेड़ हुयी. आलोक ने एक बात अच्छी लिखी - इस उपन्यास के लेखक को भूमिगत हो जना चाहिये. मेरे अपने विचार से अलोक व इस समीक्षक को भी गायब हो जाना चाहिए, क्योंकि उनकी सुपारी कोई भी कभी भी दे सकता है. वेद के उपन्यास में ४२ चैप्टर्स है जो बैंक की आंतरिक स्थिति का बयान करते हैं. २९२ से ज्यादा पन्नों के इस उपन्यास में पठनीयता तो है लेकिन कलात्मकता नहीं है , न हास्य प्रभावित करता है न व्यंग्य.
पढ़ने के बाद भी पाठकों को कोई तारतम्यता रचना में नज़र नहीं आती. हर पाठ एक अलग घटना –दुर्घटना के साथ समाप्त हो जाता है , जबकि उपन्यास में नायक, नायिका खल नायक व् घटनाओं का निर्वहन होना चाहिए, बैंक के चरित्रों को अलग अलग लिखा गया है. पाठों के साथ ही वे चरित्र स्वर्गीय हो जाते हैं . श्रीमती नटराजन का पाठ कुछ चलता है, मगर जमा नहीं. बैंक की महिला अधिकारी को पाठक पहचान जाता है , यही रचना की विशेषता है. लेखक को एक डिस्क्लेमर लगाना चाहिए-पात्र व् घटनायें काल्पनिक हैं.
घोटालों घपलों और कमिशन ही नहीं हैं बैंक . वित्त मंत्रालय के एक उपसचिव जो नाच नाचता है, उसका भी नज़ारा होना चाहिए था. डिफाल्टर वाला पाठ तो सामान्य पत्रकार का लिखा लगता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि सुबह जो घटना अख़बार में पढ़ी, वही रचना में आ गई . इस से बचा जा सकता था.
महिलाओं के बारे जो टिप्पणियाँ की गयी हैं, वे तो किसी पान या चाय की थडी जैसी लगती है, उपन्यास यदि है, तो इसमें पञ्च भी नहीं हैं. यह रचना उपन्यास बनती, यदि विषय का निर्वहन शुरू से अंत तक होता.
लेखक को रिज़र्व बेंक ,वित्त मंत्रालय को भी जोड़ना चाहिये था. संसदीय समितियों के निरिक्षण का आनंद भी लिया जा सकता था. लेखक खुद पत्रकारिता में थे, फिर बैंक में उच्च पद पर रहे. वे बहुत कुछ जानते हैं, और लिखा भी बेबाकी से है, लेकिन उपन्यास के व्याकरण , व्यंग्य के काव्य शास्त्र, का निर्वहन नहीं हुआ. व्यंग्य के सौंदर्यशास्त्र को और भी ऊँचा उठाया जा सकता था. पुस्तक में राम बाबु माथुर के कार्टून हैं जो अनावश्यक हैं व् लेखन की गंभीरता को कम करते हैं. पुस्तक का इंग्लिश अनुवाद भी आ गया है.
उपन्यास में निरंतरता का अभाव है. ऐसा दुर्गा प्रसाद जी ने लिखा है. मैं उनसे सहमत हूं. मैं हिंदी का समीक्षक या आलोचक नहीं, यह केवल एक पाठकीय प्रतिक्रिया है. इसे इसी रूप में लेने की कृपा करें. लेखक ने सेल्फ पब्लिशिंग की हिम्मत दिखाई, साधुवाद. वेद जी खूब लिखे . इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ .
यह गाँव बिकाऊ है –याने आम आदमी की पीड़ा
एम एम चन्द्र का दूसरा उपन्यास –यह गाँव बिकाऊ है आया है. यह रचना तीन उपन्यासों की कड़ी में दूसरी है. पहला उपन्यास –प्रोसतर काफी पढ़ा गया ,कई भाषाओँ में अनुवादित हुआ. उसी कहानी को चन्द्र ने आगे बढाया है . यह रचना उस भारत की कहानी है जो इंडिया से अलग है. उपन्यास में नायक शहर में असफल हो कर वापस गाँव लौटता है, और जीवन का असली संघर्ष यहीं से शुरू होता है. गाँव का मजूर किसान बनता है , मगर गाँव उसे मजबूर कर देता है कि वो आन्दोलन करे, मरे मिटे .आन्दोलनों का असफल होना एक आम घटना है. सरकार कार्पोरेट घराने सब मिलकर सब कुछ खरीद लेना चाहते हैं. यही विडंबना है.
उपन्यास में किसान आन्दोलन , किसान आत्म हत्या आदि का विषद और प्रभावी चित्रण है. लेखक ने इस रचना में आम आदमी की पीड़ा को वाणी दी है.किसान की हक़ की लड़ाई जारी रहती है.
लेखक ने आम किसान आम मजदूर की समस्याओं को निकट से देख समझ कर लिखा है.
कहानी का सच सबका सच बन जाता है.खाद ,बीज.गाँव की गन्दी राजनीति सब है और आपको सोचने को मजबूर कर देता है .यही लेखकीय सफलता है.
सपने देखता देखता किसान कब मर जाता है पता ही नहीं चलता.
आजाद भारत में सबका भला होता है मगर आम आदमी की कोई नहीं सुनता.
उपन्यास १८४ पन्नों का है .फ्लेप पर अच्छी टिप्पणियां है जो पढ़ने को मजबूर करती है. डायमंड द्वारा प्रकाशित यह किताब १५० रुपयों की है. कवर पर एक गरीब किसान का प्रभाव शाली फोटो है.
एक सवाल उठता है क्या केवल गाँव ही बिकाऊ है हम सब भी टेग लगाकर घूम रहे हैं बस सही खरीदार चाहिए.सरकार तक बिकाऊ है,व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाएं रोज बिकती हैं, चंद्रा इस पर भी विचार करें.
सुरेश्कांत कान्त नया व्यंग्य उपन्यास –जॉब बची सो...
इसे अमन प्रकाशन ने छापा है.
सुरेश कान्त कई विषयों पर लिखते हैं और वे उन चंद लेखकों में से हैं जिन पर सबकी नज़र रहती है, कि वे क्या लिख रहे हैं. उनका पहला उपन्यास ब से बैंक चर्चित रहा. बाद में लम्बे समय तक वे व्यंग्य में सक्रिय भूमिका निभाते रहे ,नौकरी करते रहे , संपादकी करते रहे, और लिखते भी रहे.
इस उपन्यास का मुख्य थीम आज की कोरपोरेट व्यवस्था और गला काट प्रतिस्पर्धा है .जिन लोगों ने दस से पांच की नौकरी की है वे इस संकट को नहीं समझ सकते .आज कल के बच्चे जो नौकरी पा रहे हैं या वे जो काम कर कर रहे हैं, उसमें कोई नहीं जानता कल क्या होगा , कल होगा भी या नहीं. हायर एंड फायर की संस्कृति का मारा यह यह युवा अपनी नौकरी की खैर मानाने में ही व्यस्त है. उसकी बीबी,बच्चे ,टू बीएच के , का र , लेपटोप की किस्तें ही उसे उसकी नींद हर म करने के लिए काफी है. बेचारा युवा न घर का न घाट का. माँ बाप या बाकी को तो भूल ही जाओ, बस कहते रहो इतने का पैकेज है, इत्ते बड़े फ्लेट में रहता है बस. इतनी बार विदेश गया मगर घर कब आया?
गलत को गलत कहना अब आसान नहीं रहा , लोग नौकरी खा जाते हैं. मौका मिले तो कम्पनी खा जाते हैं . छोटा कर्मचारी पूरी जिन्दगी नौकरी बचाने में गुजार देता है. कोर्पोरेट की दुनिया बड़ी जालिम दुनिया है. हर व्यक्ति दूसरे की हत्या कर के आरोप तीसरे पर लगता है, hr का रुतबा वहां वही है जो कलेक्टर या गाँव में पटवारी का है ,ये लोग तो केवल सेठजी से डरते हैं. जो इनकी चाटुकारिता करता है वही विदेश जायगा ,उसके बीबी बच्चे ही पहाड़ों पर जायेंगे ,उनके ही फर्जी मेडिकल पास होंगे.उसे ही सब फायदे मिलेंगे.
पुस्तक में नायक और उसकी महिला मित्र के भी चर्चे हैं मगर वे बेचारे भी दुःख के मारे हैं. कहानी सीधी सा दी है चीन का घटिया मॉल ला कर भारत के बाज़ार में खपाना ,झूठे मार्केटिंग के फंडे सब करते हैं, यह कम्पनी भी करती है.
कम्पनियों की दुनिया एक अजीब दुनिया है शेयर्स ,फंडिंग,चोरी बेईमानी रिश्वत,भ्रष्टाचार ,और सामाजिक जिम्मेदारी का दो प्रतिशत चंदा पार्टियों को देना .पुस्तक में सुरेश ने जगह जगह कविता शेर ,दोहे भी लिखे है वास्तव में पुस्तक का शीर्षक भी एक कहावत का ही हिस्सा है.
सभी कम्पनियां अली बाबा के चालीस चोर की तरह है, जो बॉडी शौपिंग से लगाकर एस्कोर्ट तक देती हैं. बिचारा छोटा कर्मचारी मारा जाता है. यह एक नई दुनिया है जो चमकदार दिखती है, मगर खोखली है, अँधेरी है. सुरेश ने इस अँधेरे को पहचाना है .लिखा है शायद नई पीढ़ी इसे जी रही है.
कम्पनी जब फंसती है तो किसी मुर्गे को काट कर गेट पर लटका देती है ताकि बाकी के लोग ध्यान रखें.
इन दफ्तरों में महिला कर्मचारी तो सजावटी सामान है और यह बात सब कहते हैं, MEETU भी चलता है.
सुरेश ने केनवास छोटा लिया, मगर बात बड़ी की. इस उपन्यास में बहुत कुछ रह गया है, शायद वे इस विषय को अपने अगले उपन्यास में विस्तार दें.
उन्होंने एक नया विषय लिया और उसे लिखने की हिम्मत दिखाई .कुछ अध्याय बहुत छोटे हैं उनको विस्तार की जरूरत थी. २०४ पन्नों के उपन्यास में ५६ पाठ . संवाद बहुत ज्यादा है. एक साक्षात्कार का भी जिक्र है जो जमता नहीं.
लेकिन सुरेश का यह उपन्यास पढ़ा जायगा.
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