यह शीर्षक अपने आप में बाद ही विचित्र लग रहा होगा कि जान देने के बाद खाने की बात कहां से आ गई। जी हां, सच में बड़ा ही विचारणीय प्रश्न है। इस...
यह शीर्षक अपने आप में बाद ही विचित्र लग रहा होगा कि जान देने के बाद खाने की बात कहां से आ गई। जी हां, सच में बड़ा ही विचारणीय प्रश्न है। इस प्रश्न के आशय को समझने के लिए हमें सन 2004 में वापस लौटना होगा । सन 2004 में भारत सरकार ने एक विधेयक नई पेंशन योजना शुरू की इस पेंशन योजना में यह प्रावधान किया गया की अब सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन की व्यवस्था कर्मचारियों के लिए बंद की जाएगी तथा उसके बदले कर्मचारियों के वेतन से 10% की कटौती तथा 10 प्रतिशत का अनुदान विभाग द्वारा किया जाएगा । यह कुल 20% की रकम पेंशन फंड के रूप में एनपीएस के खाते में जमा किया जाएगा। यह जमा रकम बाजार के अर्थात शेयर बाजार के विभिन्न मदों में निवेश की जाएगी। इस निवेश से मिलने वाली आय से पेंशन फंड के रूप में जो पैसा इकट्ठा होगा उसपर लागू कर की कटौती की जाएगी तथा वह कर्मचारियों को सेवानिवृत्त के पश्चात दिए जाने का प्रावधान बनाया गया। इकट्ठा हुए धन का 40% अग्रिम लौटा दिया जाएगा और बाकी बची रकम को एक निश्चित गणित के अनुसार मासिक पेंशन के रूप में देने का प्रावधान किया गया। मुझे यह आयात नहीं कि उस समय से कर्मचारी संगठनों ने इसका विरोध किया या नहीं किया, किन-किन पार्टियों ने इसका समर्थ किया या नहीं किया। मैं राजनीतिक बातों में नहीं जाना चाहता हूँ पर वर्ष 2004 के बाद से नियुक्त होने वाले सरकारी कर्मचारियों पर इसे लाद दिया गया। आकस्मिक फंड के रूप में काम आने निधि 'भविष्य-निधि' को भी बंद कर दिया गया। अर्थात अब यदि कर्मचारी को किसी बीमारी के इलाज, बच्चों की पढ़ाई या फिर इसी आकस्मिक कार्य के लिये पैसे की आवश्यकता पड़े तो उन्हें किसी लोन प्रदाता के चक्रव्यूह में फंसने के अतिरिक्त कोई और राह नहीं दी गई। अब उनके पास और आकस्मिक बचत का कोई सरकारी साधन नहीं छोड़ा गया। 2004 में नियुक्ति पाए नियमित कार्मिकों की तो अभी तक सेवानिवृत्ति नहीं हुई होगी पर अनुकंपा आधार पर नियुक्त हुए कई लोग सेवानिवृत्त होने लगे होंगे और उन्हें इस योजना का दंश पता लग रहा होगा। चूंकि राष्ट्रीय पेंशन योजना में निवेश की गई रकम बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होती है तथा विगत दो वर्षों में कोई भी म्युच्युवल फंड ऐसा नहीं जो घाटे में न चल रहा हो। ऐसे में निवेश की गई रकम अपने मूल धन से काफी निचले स्तर पर होना लाजिमी है। इस स्थिति में निवेश की गई रकम अचानक बढ़कर दूनी या उससे अधिक होगी इसकी संभावना तो कम ही दिखती है। अर्थात कम या न्यूनतम निवेश का अर्थ है न्यूनतम पेंशन। अर्थात जो लोग आठ दस वर्ष की सेवा के बाद अधिवार्षित की अवधि पर सेवानिवृत्त होंगे उनके हिस्से में जो पेंशन आएगी वह उनके अकेले के जीवन के लिए भी उपयुक्त होगा यह कह पाना मुश्किल है। यह दंश अधिकारी हों या कर्मचारी सबके लिये समान है। हो सकता है कि अधिकारी वर्ग को उनके वेतन के अनुरूप अधिक बचत के कारण कुछ रकम अधिक मिले पर उनके लिये भी यह उपयुक्त होगा की नहीं यह तो समय जाने। इस मार का सबसे बड़ा प्रभाव तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों पर पड़ेगा।
इसी क्रम में हम बात करते हैं अर्ध सैनिक बलों के कर्मचारियों की बात। अर्ध सैनिक बल के कर्मचारी भी भारत के नए पेंशन योजना के अंतर्गत आते है इसलिये उनके पेंशन का भी हिसाब भी उसी प्रकार जोग जैसे अन्य असैनिक वर्ग के कर्मचारियों का। अभी दो दिन पहले कश्मीर में शहीद हुए अर्ध सैनिक बल के कर्मचारियों की बात करें तो यह देखने में आया है कि अधिकांश राज्य सरकारों ने उन शहीदों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने का वचन दिया है, उनके परिवार में उनपर आश्रित लोगों का काम तो चल जाएगा
पर उन लोगों का क्या होगा जो ऐसी ही छिटपुट घटनाओं में शहीद होते जा रहे हैं।, उन घटनाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता तथा उनके परिवार वालों को किसी भी आर्थिक मदद की पेशकश नहीं होती है। अर्थात हर हाल में उन्हें पेंशन योजना के रहमोकरम का ही सहारा होता है।
इसी क्रम में हम बात करते हैं अर्ध सैनिक बलों के कर्मचारियों की । अर्ध सैनिक बल के कर्मचारी भी भारत के नए पेंशन योजना के अंतर्गत आते है इसलिये उनके पेंशन का भी हिसाब भी उसी प्रकार जैसे अन्य असैनिक वर्ग के कर्मचारियों का। अभी दो दिन पहले कश्मीर में शहीद हुए अर्ध सैनिक बल के कर्मचारियों की बात करें तो यह देखने में आया है कि अधिकांश राज्य सरकारों ने उन शहीदों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने का वचन दिया है, उनके परिवार में उन पर आश्रित लोगों का काम तो चल जाएगा
कुल मिलाकर यदि हिसाब जोड़ा जाए तो ऐसे शहीदों के परिवार किसी भी तरह से उनके मरणोपरांत मिलने वाली पेंशन (nps स्कीम से) से शायद दो जून की रोटी भी ठीक से जुटा पाएंगे । अर्थात ऐसे शहीदों के मां-बाप को हमेशा अफसोस होता रहेगा कि उन्होंने अपने बच्चों को देश के लिये समर्पित कर कोई गलत कार्य किया हो। सबसे दुखद बात तो उनके लिये यह है कि उनके जीवन बीमा की भी राशि इतनी नहीं होती कि उनके बाद उनके परिवार वालों का सही ढंग से भरण पोषण हो सके। कुल मिलाकर देश की सेवा में खुद को न्यौछावर करने के लिए अर्पण करने वाले देशवासियों के इस वर्ग के लिये कोई ठोस विकल्प या योजना अभी तक नहीं है। अब चूंकि देश उनके बलिदानों को समझने लगा है, उनके प्रति सहानुभूति रखने लगा है, तो यह आवश्यक है कि उनकी सेवानिवृत्ति या उनके शहीद होने के बाद उनके परिवार का सही ढंग से भरण पोषण हो सके इस विषय में कुछ अनुभूत फैसला लिया जाए और उनके लिये पुरानी पेंशन योजना बहाल कर उनके पुनर्वास के लिए कुछ ठोस कदम उठाया जाए।
ईमेल binayshukla02@gmail.com
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