साहित्यम् इ पत्रिका वर्ष १ अंक 4 फ़रवरी २०१९ –वसंत अंक निशुल्क सम्पादकीय- इस मनोरम वासंती समय में केवल भा व भीनी कहानियां पढ़िए.आनंद लें. यह स...
साहित्यम् इ पत्रिका
वर्ष १ अंक 4 फ़रवरी २०१९ –वसंत अंक निशुल्क
सम्पादकीय-
इस मनोरम वासंती समय में केवल भा व भीनी कहानियां पढ़िए.आनंद लें. यह समय मन ही मन मुस्कराने का है. खुश रहिये आबाद रहिये.इस अंक में वीना करमचंदानी, अमित मल्ल, भागचंद गुर्जर , भगवान अटलानी द्वारा अनुवादित सिन्धी कहानी शामिल हैं. सभी लेखकों का आभार .
अगला अंक –होली अंक याने हास्य –व्यंग्य अंक ,अपने नए व्यंग्य भेजिए. मानदेय देय . इस अंक को १ मार्च को अप लोड कर दिया जायगा.
यशवंत कोठारी –ykkothari3@gmail.com
युवा और चर्चित कहानीकार भागचंद गुर्जर के लिखे जा रहे उपन्यास अंश से शुरू करते हैं.
उपन्यास ' प्रेम भीतर प्रेम ' का अंश.....-भाग चंद
भागचंद गुर्जर
पता-1288/7 चौमू हवेली, गंगापोल , जयपुर 302002.
रुकसाना को जरीना से मिले बहुत दिन हो गये थे। उस दिन दोपहर को मौका देखकर कि अभी घर में जरीना अकेली होगी, रुकसाना उससे मिलने आ गयी । बाहर का गेट खुला था। वह अन्दर आ गयी। उसने अन्दर आकर दो तीन बार पुकारा, "जरीना!..., ओ जरीना !...अरी कहां मर गयी? " पर कोई जवाब नहीं आया। वह एक -एक करके सभी कमरों में उसे खोजने लगी। एक कमरा अन्दर से बन्द था। रुकसाना को यकीन हो गया कि जरीना इसी कमरे में है। वह उस कमरे की सांकल को बजाने लगी तथा दरवाजे को पीटने लगी । पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। फिर वह जरीना का नाम लेकर पुकारने लगी पर जरीना ने गेट नहीं खोला।
रुकसाना को यह बहुत अजीब लगा । पहले भी वह कई बार जरीना से मिलने आती रही थी। पर ऐसा तो पहली बार ही हुआ था। तभी उसे गेट के नीचे से खून की एक पतली सी धार नजर आयी। खून की वह रेख देखते ही उसके होश फाख्ता हो गये।
उसे यकायक कुछ सूझा ही नहीं कि वह क्या करे?ना ही उसे यह अन्दाज लग पाया कि अन्दर जरीना ने क्या कुछ कर लिया है?
वह बुरी तरह डर गयी। पर फिर भी उसने हिम्मत से काम लिया। उसके दिमाग ने सुझाया कि उसे तुरन्त ही जरीना के घर वालों को इस हेतु सूचित करना है।
रुकसाना तुरन्त दौड़कर खेतों की तरफ गयी। उसे अंदाजा था कि जरीना के अब्बा , चाचा, भाई या अम्मी में से कोई ना कोई उसे वहाँ अवश्य मिलेंगे। सौभाग्य से उस समय जरीना के परिवार के लगभग सभी सदस्य उसे वहाँ मिल गये। खेत ज्यादा दूर तो नहीं था,पर दौड़कर आने और घबराहट के कारण रुकसाना की सांस फूल गयी थी। वह सीधी जरीना की अम्मी के पास गयी। उसे यूं दौड़ती हुई आया देख अम्मी भी डर गयी।
रुकसाना ने कांपते और हांफते हुए स्वर में कहा, "जरीना .. ने कुछ...कर लिया है !.... वह गेट भी नहीं खोल रही है ! जल्दी चलिये ! "
इतना सुनना था कि अम्मी के पैरों तले से जमीन खिसक गयी। वह तुरंत अपना काम छोड़कर खड़ी हुई और जोर से बोली , " या अल्ला ! ये क्या हो गया !
अजी सुनते हो जरीना के अब्बा...जल्दी से घर चलो ! जरीना जाने क्या कर बैठी है।"
उसका स्वर इतना तेज और भयावह था कि जरीना के अब्बा और चाचा भी सहम गये। वे कुछ समझ पाये, कुछ नहीं। पर जब अम्मी रुकसाना के साथ दौड़ती हुई घर की तरफ भागी तो वे भी उसके पीछे हो लिए और तुरन्त ही दौड़कर घर आ गये।
अब्बा और चाचा ने शीघ्र ही दरवाजा तोड़ा । अन्दर जरीना खाट पर बेसुध पडी़ थी। उसके उल्टे हाथ की नस कटी हुई थी और वहाँ से निरन्तर खून बह रहा था।
जरीना के चाचा ने अब्बा से कहा, " भाईजान आप इसके हाथ को ऊपर की तरफ उठाकर तुरंत एक कपड़ा बांध दे ताकि खून बहना बन्द हो। मैं रमजान भाई के यहाँ से तुरंत गाड़ी का इंतजाम करता हूँ। हमें जल्दी से जल्दी इसको अस्पताल ले चलना होगा।"
" हां छोटे तुम जाओ..गाड़ी की व्यवस्था करो। मैं जख्म पर पटटी बांधता हूँ ।" और कहने के साथ ही अब्बा अम्मी द्वारा लाये गय कपड़े की पट्टी बांधने लगे।
जरीना के चाचा पडौसी रमजान भाई के घर की तरफ दौडे़। किस्मत की बात कि रमजान भाई और उनकी मारुति कार घर पर ही थी। वे तुरन्त ही बिना देरी किये अपनी कार लेकर चाचा के साथ आ गये।
अब्बा और चाचा ने रुकसाना और अम्मी की सहायता से जरीना को कार की पिछली सीट पर लिटाया। चाचा भी वहीं सीट पर ही थोड़ी जगह बना कर बैठ गये। अब्बा रमजान भाई के साथ आगे वाली सीट पर बैठ गये। जब कार थोड़ी आगे बढी तो रमजान भाई ने पूछा, " कहां ले चले ?"
चाचा ने बहुत संक्षेप में उत्तर दिया , " एस.एम.एस.ले चलो।"
ताल मोड़ तक तो कार कच्चे - पक्के रास्तों के कारण धीरे - धीरे चलती रही । पर ताला मोड़ खत्म होते ही हाइवे वाली सड़क आ गयी और रमजान भाई ने कार की स्पीड बढा़ दी। फिर भी अस्पताल पहुँचने में पूरा डेढ़ घंटा लग गया।
अस्पताल के गेट के अन्दर प्रवेश करते ही चाचा ने कहा, " रमजान भाई ! सीधे इमरजेंसी ले चलो।"
रमजान भाई ने कार इमरजेंसी के गेट पर लगा दी। चाचा और अब्बा उतरे और जरीना को स्ट्रेचर पर लिटा कर अन्दर इमरजेंसी में घुस गये। एक डाक्टर और नर्स ने थोड़ी सी पूछताछ करी और फिर जरीना का इलाज आरंभ कर दिया ।
थोड़ी ही देर में रमजान भाई भी गाड़ी पर्किंग में खड़ी करके उनके पास ही आ गये। रमजान भाई बहुत कुछ जानना चाहते थे इस बारे में। पर अभी उनकी खुद की नजर में यह माकूल समय नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी उत्कंठा को दबाये रखा और चुप लगा गये।
उधर जरीना के घर पर उसकी अम्मी के पास बहुत सी आस - पडौस की औरतें आ गयी थीं। रुकसाना व उसकी अम्मी तथा विमला भी अपनी मां के साथ मौजूद थी। सभी अपने - अपने तरीके से उसे ढाढ़स बंधा रही थी। रात के बारह बज गये थे और अभी तक जरीना के बारें में कोई खबर नहीं आयी थी। जरीना के भाई चांद और महमूद भी सूचना पाकर शाम को अपने कुछ दोस्तों के साथ अस्पताल चले गये थे। उनमें से भी अभी तक कोई नहीं लौटा था।
रात के लगभग दो बजे रमजान भाई आये। चांद व महमूद भी उनके साथ ही थे। रमजान भाई ने जरीना की अम्मी से कहा, " चिन्ता की कोई बात नहीं है भाभी जान। ठीक है जरीना। थोड़ा खून की कमी हो गयी थी। एक बोतल खून भी चढा दिया था । होश में है और सब कुछ जान पहचान रही है। आप बेफिक्र रहे । " फिर रमजान भाई ने वहाँ बैठी सभी महिलाओं को कहा, "रात बहुत हो गयी है , अब आप सब भी आराम करें।" यह सुनकर सभी आस - पड़ोस की महिलाएं अपने घरों की तरफ निकल गयी थी। पर जरीना की अम्मी को चैन कहां। उसकी तो पूरी रात ही चिन्ता - फिक्र में गुजरी।
सवेरे जब जरीना के चाचा आये और उन्होंने जरीना की तबीयत के बारे में सन्तोष जनक उत्तर दिया तब जाकर अम्मी को तसल्ली हुई। अम्मी ने चाचा से पूछा, " छुट्टी कब तक देंगे? "
चाचा ने कहा, "कल तक दे देंगे। बड़ा डाक्टर कह रहा था कि ठीक है अब।"
और अगले ही दिन जरीना को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गयी। तीन - चार दिन तक तो जरीना के द्वारा उठाये गये इस कदम के बारे में किसी ने कुछ नहीं कहा। अम्मी तो बहुत डरने लगी थी और अब हमेशा उसके साथ एक साये की तरह रहने लगी थी।
जरीना के स्वास्थ्य में सुधार था पर उसके चेहरे पर उदासी की परत दिन ब दिन गहराती जा रही थी। अम्मी जरीना की उदासी और चुप्पी से घबराने लगी थी।
फिर एक दिन मौका देखकर अम्मी और अब्बा ने जरीना से स्पष्ट बात करने का फैसला किया। अब्बा ने कहा, " हां तो क्या विचार है तेरा?"
जरीना ने अनभिज्ञता जताते हुए कहा, " किस बारे में?"
" तेरे निकाह के बारे में और किस बारे में। क्यों हमारी इज्जत की धज्जियां उडा़ने में लगी है तू। तुझे अम्मी ने बताया तो होगा ना उस रिश्ते के बारे में? "
जरीना ने हल्के से गरदन को हिलाया और धीरे से बोली, " हूँ । "
" तो फिर बता क्या विचार है तेरा ? "
जरीना ने कोई जवाब नहीं दिया तो अम्मी बोली, " बता क्या कमी है उस रिश्ते में? अच्छा घर बार है। खान दान भी बढ़िया ही है। लड़का भी पढा़ लिखा है। शहर में खुद का मकान है। उनके यहाँ तो खेती बाड़ी वाला काम भी नहीं है। ऐसा रिश्ता फिर ढूंढने से भी नहीं मिलेगा समझी। "
पर जरीना का तो जैसे मुँह ही सिला हुआ हो। कोई जवाब नहीं दिया उसने। तब खीझकर अब्बा ने कहा, "क्यों उस लफंगे के पीछे अपना जीवन बरबाद करने पर तुली है तू।"
यह सुनते ही जरीना ने गरदन नीचे किये हुए ही कहा, "लफंगा नहीं है वो।"
अब्बा भी तैश में आ गये, "नहीं वह तो किसी रियासत का राजकुमार है। नालायक तू समझती क्यों नहीं वह तेरे काबिल नहीं है। क्यों उस काफिर के पीछे अपनी जान देने पर आमादा हो गयी तू। क्या वह भी तेरे लिए ऐसा कुछ कर सकता है? "
जरीना ने कोई जवाब नहीं दिया तो उसके अब्बा ने अपनी चाल चली। दरअसल जब जरीना अस्पताल में भर्ती थी तभी अब्बा और चाचा ने जरीना को घेरने की योजना बना ली थी। उसी के तहत उन्होंने जरीना से कहा, "
" अच्छा, मैं तुझसे एक बात पूछता हूँ । वह तुझसे मोहब्बत करता है ना? "
जरीना ने हल्के से हां कहा और सिर को हिलाया तो अब्बा ने कहा, " फिर तो वह तेरे लिए कुछ भी कर सकता है... हैं ना।"
जरीना मन में सोच रही थी कि अब्बा राम से क्या करवाना चाहते हैं। वह कुछ समझ पाती कि तभी अब्बा ने अपना दांव फेंका। वे बोले, "क्या वह तेरे लिए अपना धर्म छोड़कर इस्लाम अपना सकता है?? अगर वह इस बात के लिए तैयार हो जाये तो मैं खुशी खुशी तेरा हाथ उसके हाथ में दे दूंगा।"
यह सुनकर जरीना ही नहीं उसकी अम्मी भी सकते में आ गयी। अम्मी को भी कतई उम्मीद नहीं थी कि बात का रुख इस तरफ मोडा़ जायेगा। जरीना चुप रही तो अब्बा ने कहा, " अगर वह ऐसा नहीं करता है तो समझ लेना कि वह तुझसे सच्चा प्रेम नहीं करता है। फिर उसे हमेशा के लिए भूल जाना और हम बतायें वहीं निकाह कर लेना। "
जरीना क्या कहती , वह मन मारकर चुप बैठी रही। वैसे तो उसके मन में बहुत कुछ उमड़ - घुमड़ रहा था। वह सोच रही थी कि यह कौनसा नियम हुआ कि अगर वह सच्ची मोहब्बत करता है तो अपना धर्म छोड़ दे। उसे अम्मी की कही बातों के सार अब समझ आने लगे थे। अम्मी उसे बार बार इसीलिए कहती रही थी कि वह हिन्दू है और हम मुसलमान । जरीना इस ज्यादती का विरोध करना चाहती थी पर अब्बा के सामने उसकी जबान नहीं खुल रही थी।
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कहानियां
एक नई ज़िंदगी की शुरुआत
वीना करमचन्दाणी –वरिष्ठ कहानीकारा
9 /913 मालवीय नगर ,जयपुर
एक दिन मीनल सुबह उठी तो हमेशा की तरह परी का व्हाट्सअप पर मैसेज आया हुआ था। उठ गईं आप?
उसका जबाव नहीं गया तो परी ने दूसरा मैसेज भी कर दिया था..." कैसी हो"?
ज्यादातर शुरुआत मैं मीनल का हमेशा मोनोटोनस सा एक ही जबाव होता... .ठीक हूँ ...तू बता केसी है ?क्या नया?
फिर धीरे धीरे मां बेटी के मैसेज धड़ाधड़ एक दूसरे को आते जाते। फिर धीरे धीरे दोनों की बातें परवान चढ़ती चली जातीं। समय होता तो स्काइप पर लम्बी बात का दौर चलता।
उस दिन मीनल कुछ अलग ही मूड में थी। उसने शैतानी भरे अंदाज़ में मैसेज लिखना शुरू किया। कैसी हो सकती है वो मां जिसकी जवान बेटी घर से इतनी दूर रह रही हो ... जिसकी अभी तक शादी नहीं हुई हो ... जो शादी की बात सुनते ही बिदक जाती हो ... वो माँ भला कैसे सो सकती चैन की नींद...
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परी का तुरंत मैसेज आया ...हैं !!! ....क्या लिख रही हो?...क्या हो गया है आपको ?
इसके बाद परी ने मम्मी के जवाबी मैसेज का भी इंतज़ार नहीं किया ,तुरंत कॉल लगाया और बोली क्या है यह ?... आज अचानक क्या हो गया है आपको ?
यह सुन मीनल जोर से हंस पड़ी।
मम्मी को हँसता देख परी को राहत महसूस हुई और बोली मैं तो चक्कर में पड़ गई कि यह मम्मी को अचानक क्या हो गया है... डरा ही दिया था आपने एक बार तो ... आप भी पूरी नौटंकी हो...
बात तो हँसी में ही कही गई थी पर वास्तव में मीनल को अब परी की शादी की चिंता भी सताने लगी थी। वैसे ऊपर से उसने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया हालांकि अभी तो चिंता पहले पायदान पर ही है तो इसे छुपाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं मीनल के लिए।
मीनल के स्वभाव में शुरू से ही है कि वो अपना दर्द ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती ... या बताना नहीं चाहती ... मीनल की पहचान है हमेशा स्थाई शांत धीर मुद्रा ...
अपनी पीड़ा,चिंता छुपाने की बला की ताकत है मीनल में। ऐसा मीनल की मां कहती हैं।
बचपन में कभी मीनल को चोट लगती थी तो वो कभी भी घर पर किसी को नहीं बताती थी। बाद में मां की नजर चोट पर पड़ती तो वो बहुत दुखी होतीं और कहतीं, भैंस की खाल है क्या तेरी ..दर्द नहीं होता क्या ?ऐसा ही परी के जन्म के समय भी हुआ। लेबर पेन बढ़ जाने के बाद जब समीर उसे हॉस्पिटल ले गए तो वो नर्स के पूछने पर अपने दर्द का ग्रेड ठीक से नहीं बता पा रही थी । नर्स ने जांच की तो बोली दर्द की वेव तो बहुत तेज है और तुम कह रही हो ज्यादा दर्द नहीं ...औरतें तो ऐसे में पूरा अस्पताल ही सर पर उठा लेती हैं ... किस मिट्टी की बनी हो तुम ... और थोड़ी ही देर में खुशियां लिए परी उनकी ज़िंदगी में आ गयी।
समीर कहते हैं तुम बोलना शुरू करती हो तो बोलती चली जाती हो बिना किसी कोमा फुलस्टॉप के। ऐसा और तो कोई कभी नहीं कहता मगर गाहे बेगाहे समीर ही ऐसा कहने से नहीं चूकते कि यह खानदानी बीमारी है तुम्हारी जिसे सुन कर लाख कोशिशों के बावजूद भी उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आ ही जाते ... तब अगला जुमला यह आता कि मजाक ही तो कर रहा था. .. अरे भई मजाक तो वो होता है जिस पर दूसरे को हँसी न भी आए मगर कम से कम उसे थोड़ा बहुत एन्जॉय तो करे ही...दूसरों पर ताना कसो और फिर उससे अपेक्षा करो कि वो मुस्कराए... अपने खानदान पर किए कटाक्ष को मीनल कैसे एन्जॉय करे ... वैसे समीर अपनी और अपने खानदान की भावनाओं का तो पूरा ध्यान रखता है ...
वैसे ज्यादातर लोग तो यही कहते हैं मीनल बहुत कम बोलती है ...मीनल किसकी बात माने ...
मगर समीर ऐसा कहते हैं तो सही ही कहते होंगे शिव खेड़ा की तरह वो भी पर्सनॅलिटी डेवलपमेंट की क्लासेज लेते हैं और उनको चाहने वालों और फ़ॉलोअर्स की संख्या भी अच्छी खासी है। फेस बुक पर डाली समीर की हर पोस्ट पर कमैंट्स और लाइकिंग की तो मानो बाढ़ ही आ जाती है। जान पहचान वालों की तो खैर बात ही अलग है। अनजाने लोग भी उनसे अपनी समस्याओं के लिए राय मशविरा लेते रहते हैं तो वो गलत तो नहीं ही कहते होंगे पर क्या करे मीनल... कभी कभी और किसी किसी के साथ ही तो मीनल थोड़ा खुल कर बात करती है तब शायद वो भावना के अतिरेक में बह जाती होगी ...समीर की शब्दावली में दूसरों की भावनाओं का कोई महत्व नहीं है इसलिए उसका थोड़ा खुलना भी समीर के गले नहीं उतरता ...वैसे मीनल की पूरी कोशिश रहती है कि वो सोच समझ कर नपा तुला बोले ...मीनल भी क्या करे अचेतन मन में जमा बातों का बांध टूटता है तो उसको समेटना उसके बस में नहीं रह पाता।
समीर अक्सर मीनल को यह भी कहते हैं सोचती बाद में हो बोलना पहले शुरू कर देती हो...मीनल को समीर की यह बात भी सो प्रतिशत सही ही लगती है आखिर वो पर्सनॅलिटी डेवलपमेंट के हर बिन्दु को गहराई से जो जानते हैं।
... जब परी छोटी थी तो उसकी पढ़ाई, उसकी कोचिंग ,उसकी अन्य एक्टिविटीज की पूरी रिपोर्ट वो उससे लेने की जगह मीनल से ही लेते थे यहाँ तक की यदि समीर को लगता कि परी ढंग से पढाई नहीं कर रही है तो वो मीनल के जरिए ही अपनी नाराजगी और नसीहतें भी परी तक पहुंचाते थे। परी के बारे में भी वो उतना ही सुनते जितना समीर जानना चाहते थे जैसे उन जानकारियों के अलावा और कोई इशू हो ही नहीं सकता। कभी वो कुछ बताना शुरू भी करती तो समीर की आँखें ही बहुत थी उसको चुप करवाने के लिए... मीनल भी क्या करे ...
समीर अपनी पसंद का ही सुनना चाहते हैं और उतना ही सुनना चाहते हैं जितना उनका मन करे। इसके अलावा आपने कुछ बोला तो आप गए काम से ...खास तौर से जब समीर टीवी देख रहे हों और मीनल कुछ बीच में बोल दे तो जरूर कहेंगे ..बिलकुल उसी समय बोलती हो जब बहुत जरूरी बात सुननी होती है। बेशक सीरिया के युद्ध, तमिनलाडु के किसानों द्वारा की गई आत्महत्या के प्रकरण , जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में चल रहे अनशन, ई वी एम,नोट बंदी , नाबालिग छोटी छोटी बच्चियों से होने वाले यौन अत्याचारों की बढ़ती घटनाओं आदि महत्वपूर्ण विषयों पर चल रहे टी.वी. प्रोग्राम की नजाकत और समझ तो वो खुद भी रखती है मगर बहुत जरूरी होने पर उसके थोड़ा सा बोलते ही समीर ऐसे घूर कर देखते हैं मानों मीनल से कोई अपराध हो गया हो फिर बेशक घूरने के दौरान चल रही बहस की दो चार अहम् बात वे नहीं सुन पाएं ...
पता नहीं समीर ज़िंदगी और घर का कैसा सैद्धांतिक परफेक्शन चाहते हैं जो मीनल के पल्ले नहीं पड़ रहा ।इसलिए मीनल के लगभग हर क्रियाकलाप पर कोई न कोई टीका टिप्पणी सुनने को मिल जाती है। मीनल कोशिश भी बहुत करती है समीर को खुश रखने की मगर अब उसे लगने लगा है इस जन्म में तो यह संभव नहीं और अगले जन्म में उसका कोई विश्वास नहीं। मीनल यह भी समझती है,ज़िंदगी में सब कुछ तो वैसा नहीं हो सकता जैसा हम चाहते हैं मगर हर बार समीर द्वारा की गई किसी टीका टिप्पणी को वो दिल पर ले लेती है और भीतर ही भीतर कसमसा कर रह जाती है।
बुल्लेशाह ने कहा ही है, ‘इक नुक्ते विच गल मुकदी’, यानी एक बिंदु से बात पलट सकती है
मीनल हमेशा द्वन्द में रहती है। कब बोलना है ,कब नहीं बोलना है और बोलना है तो कितना बोलना है। मीनल को हर समय समीर से एक नई नसीहत मिलती रहती है।.बुल्लेशाह ने कहा ही है, ‘इक नुक्ते विच गल मुकदी’, यानी एक बिंदु से बात पलट सकती है। समीर कब क्या कहदे कुछ पता नहीं। मीनल के दिमाग पर समीर की नसीहतें इतनी ज्यादा हावी रहती हैं कि समीर उसे अब अपने पति से ज्यादा उसके ट्रेनर या इंस्ट्रक्टर लगने लगे हैं...
मीनल और परी में गज़ब की बॉन्डिंग है। समीर के सामने प्राय: चुप रहने वाली मीनल परी के साथ बात करना शुरू करती है तो चुप ही नहीं होती। चाहे कितना भी बिजी हों पर दोनों रोज़ आपस में गुटरगूँ जरूर करती हैं। दोनों का ही दिन पूरा नहीं होता जब तक दोनों आपस में बात नहीं कर लें। कभी व्हाट्सअप पर तो कभी स्काइप पर वीडिओ कॉल... भला हो व्हाट्सअप पर फ्री कालिंग सुविधा का.. राम जाने इसके बिना परी और मीनल का क्या होता. पेमेंट कर आखिर कितनी बात कर पाती दोनों ... कितनी बातें अनकही रह ही जाती दोनों के बीच ...
मीनल परी से रोज ही पूछती आज खाने में कुछ बनाएगी या कल की बनी दाल से काम चलाएगी। वॉक की या नहीं। योगा करने की नसीहत तो रोज ही परी को मिलती है। रात को मेथी वाला चूरन खाया या नहीं ...और यह दूध दही खाना क्यों बंद कर रखा है ...अब यह भी कोई सूट नहीं करने वाली चीज है ...डॉक्टर्स के चोंचले होते हैं ... इस उम्र में खाया हुआ कैल्शियम ही ज़िंदगी भर काम आता है... हड्डियों के लिए भी बहुत जरूरी होता है ...
परी ने आज क्या पहना ... क्या खाया ... स्टाफ से कोई बात तो नहीं हुई ... आज कौन-सा केस आया ... उसको क्या राय दी ... रूम मेट से सुबह सुबह तेज आवाज में गाना चला उसकी नींद तो ख़राब नहीं की ...टेलर ने कपड़े ठीक सील दिए ...ऐसी छोटी छोटी अनगिनत बातें रोज उन दोनों के बीच होती हैं। यह नसीहत भी मीनल देना नहीं भूलती कि सप्ताह में कम से कम एक बार फेस पैक भी लगा लिया कर... गोरी है तो क्या हुआ स्किन को भी तो अपनी खुराक चाहिए वरना असमय ही चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगेंगी ...ढेर कपडे दिलाती है मीनल परी को पर जब देखो वो ही दो चार ड्रेस पहने दिखती है स्काइप पर ,तब मीनल उसे टोके बिना नहीं रह पाती ..बस इतना ही बहुत होता है परी के बिदकने के लिए ... अच्छी खासी चल रही बात चीत जब परी के बिदकने पर ट्रैक से उतर जाती तो मीनल अपना सर पकड़ लेती और खुद को ही हिदायत देती है कि आगे से नपा तुला ही बोलेगी और सुनेगी ज्यादा। तभी उसे ध्यान आता है टी वी पर आ रहे उस कार्यक्रम के बारे में जिसमें मनोचिकित्स्क का कहना था बच्चों के साथ अभिभावकों का खुला संवाद होना चाहिए ताकि वो किसी प्रकार के अवसाद में नहीं आएं।
समीर समझदार होने के साथ डिप्लोमैट भी बहुत हैं। मीनल को अपने हिस्से के साथ समीर की नसीहतें भी तो परी तक पहुंचानी होती हैं। जब परी छोटी थी तो एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद समीर उसकी पढ़ाई ,उसकी कोचिंग और उसकी अन्य एक्टिविटीज का मीनल से ही पूछते थे। यहाँ तक की यदि समीर को लगता था कि परी ढंग से पढाई नहीं कर रही है तो वो मीनल के जरिए ही परी तक अपनी नाराजगी भी पहुंचाते थे।
पर जो भी हो मीनल की बड़ी बहिन रमा, मीनल को इतना बोलते देख पाती तो बहुत खुश हो जातीं। रमा दीदी हमेशा उसे गूंगी कहती थीं और कहती थीं बोला कर वरना अंदर घुट जाएगी...पर हाँ उन्होंने भी बोलने को कहा था ... ज्यादा बोलने को नहीं। समय भी न जाने अपने क्या क्या रंग दिखाता है। रमा दीदी सच कहती थीं इंसान हर बात को अपने अंदर ही रखे तो घुट घट कर मरे नहीं तो पागल तो हो ही जाए। मीनल को यह बात बहुत देर से समझ आई। खेर देर आए दुरुस्त आए ... अरे हाँ अब तो अपनी सायकेट्रिस्ट परी भी इलाज कर सकती है ऐसे में ... यह सोच मीनल मुस्करा दी। वो भी क्या क्या सोचती रहती है। बोलेगी कम तो सोचेगी ही,अब मन और दिमाग की उमड़ घुमड़ पर तो कोई अंकुश नहीं और वहां तो परफेक्शन की भी दरकार नहीं। यह सोचते मीनल के चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई।
मीनल बहुत उलझी रहती है अपने आप में और इसका कोई बहुत बड़ा कारण भी उसे समझ नहीं आता. शायद मीनल भी अब हर काम को परफेक्शन के ढांचे में देखने लगी है .किताबी और व्यवहारिक समस्याओं में घालमघाल होता जा रहा है. उसके बीच के अंतर को मीनल समझ नहीं पा रही है इसलिए मीनल सीने पर हर समय एक अदृश्य बोझ लिए अपनी ज़िंदगी को मुश्किल बनाती जा रही है.
यूं तो समीर की सख्त ट्रेनिंग ने मीनल को बहुत समझदार बना दिया है। वैसे वो खुद भी पचपन की हो ही गई है .ज़िंदगी में तज़ुर्बे के लिए यह उम्र कम नहीं होती। धूप में सफ़ेद नहीं किए हैं बाल उसने। शादी के बाद दो तीन साल तक मीनल ने एक नामी स्कूल में पढ़ाया भी है। परी के होने के बाद उसने अपनी इच्छा से नौकरी छोड़ दी ताकि परी को इधर उधर क्रेच में नहीं छोड़ना पड़े। औरतों की इच्छाएं भी कितनी अजीब होती हैं। उनकी तमाम इच्छाएं अपने पति,बच्चों और घर से ही तो जुडी होती हैं. मीनल का सपना था समाज सेवा से जुड़ने का। उसने कई बार किसी स्वयं सेवी संस्था से जुड़ने की कोशिश भी की। समीर बड़े डिप्लोमेट तरीके से कभी सीधे मना भी नहीं करते मगर साथ ही बहुत से सवाल खड़े कर देते ... कब जाया करोगी वहां, लंच के समय घर आ जाया करोगी, शाम की चाय का क्या रहेगा। ... इतने किन्तु- परन्तु कि मीनल ने इरिटेट हो इस बारे में सोचना ही बंद कर दिया।
परी जानती हैं मीनल की इस इच्छा के बारे में .वो कभी- कभी समझाती है मीनल को अपने "आप" से बाहर निकलो। घर से बाहर की दुनिया बहुत बड़ी है। अपने घर को तो सभी संभालती हैं मगर आप उनसे अलग हो ... आपकी योग्यता सब को पता है ... मगर आपने उसे अपने खोल में बंद कर रखा है ...अपनी सहेलियों से मिला करो ... उनसे अपने मन की बात शेयर किया करो ... वो करो जो आप करना चाहती थी ... करना चाहती हो... . किसी संस्था से जुड़ो,उसका अनुभव लो और फिर अपना एन.जी.ओ. सेट अप करो... दुनिया में मदद के लिए लाखों करोड़ों लोग उम्मीद से देख रहे हैं... अपने आपको कपड़ों गहनों में मत उलझाओ ...
मीनल अवाक हो उसे देखने लगती है तो परी थोड़ा सम्भल कर बोलने लगती है ... सॉरी मम्मी, कपड़ों गहनों की बात तो मैं मजाक में कह रही थी। मुझे पता है आप बहुत कुछ कर सकती हो और यह कहती परी माहौल को सामान्य करने की कोशिश करती.
मीनल को गहनों की चाह कभी नहीं रही। फ्रीडम फाइटर और समाजसेवी रहे उसके दादा से उसे यही संस्कार मिले थे सादगी से रहना चाहिए वो गहनों को औरतो की आज़ादी में बहुत बड़ी बाधा मानते थे। मीनल को ध्यान है दादा जी माँ को कहा करते थे पुरुष महिलाओं को गहने दिला कर दोहरा फायदा उठाते हैं ... घर का पैसा गहनों के रूप में प्रॉपर्टी की तरह इन्वेस्ट हो जाता है और उसे पाकर घर की लक्ष्मी भी खुश। वो मजाक में मां से कहते कभी अपने पति से बोलना हमें गहनों की जगह रुपये दे दो और उसे हम अपने हिसाब से खर्च करेंगे तो देखना वो क्या कहता है ... .हालांकि मीनल की मां ने इसे कभी आजमाया नहीं।
परी जानती है मम्मी को अच्छी तरह.उनको इस बात की बेहद पीड़ा है कि पापा ने कभी उनकी इच्छाओं को महत्व नहीं दिया. हालांकि मम्मी ने कभी इसे शो नहीं होने दिया। मगर दर्द तो दर्द होता है .उसकी अपनी एक छाप होती है.आप चाहे कितना छुपा लो वो कही न कही से उभर ही आता है.
एक दिन मीनल की सहेली सुनीता का दिल्ली से फ़ोन आया। बातों ही बातों में सुनीता ने बोल ही दिया ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठने से शादियां नहीं होतीं। उम्र हो गयी है परी की। उसकी शादी कर अपनी जिम्मेदारी पूरी करो। शुभचिन्तक है वो तभी तो इतना बोल रही थी। मगर मीनल क्या करे... मीनल भी एक मां है और वो क्यों नहीं चाहेगी उसकी बेटी का घर बस जाए। मगर मीनल चाहती है पहले परी अपने पांवों पर अच्छे से खड़ी हो जाए वरना शादी के बाद अमूमन औरतों की महत्वाकांक्षाए अपने पति और उसके परिवार की जिम्मेदारियों के आगे अपने आप ही सरेंडर हो जाती हैं फिर चाहे वो कितनी ही पढ़ी लिखी क्यों न हो। सोचने में भले ही यह बात दकियानूसी पुराने ज़माने की लगे पर यह वो कड़वी सच्चाई है जिससे आज भी महिलाओं को व्यवहारिक तौर पर जूझना पड़ता
समीर तो कभी कभार झटके से कहेंगे "परी की शादी की चिंता भी है तुम्हें ?...और बात ख़तम...
अब तो परी अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर बैंगलोर के नामी प्राइवेट हॉस्पिटल में साईकेटरिस्ट के तौर पर कंसल्टेन्सी का काम करने लगी है...थोड़े से समय में बहुत नाम कमा लिया है परी ने ... अब उसकी शादी भी हो जानी चाहिए ...
जब उस रात को स्काइप पर बात कर रहे थे तो मीनल ने बातों बातों में कहा आगे का कुछ तो सोचा होगा .परी बोली हाँ थोड़ा एक्सपीरियंस हो जाए फिर मैं प्राइवेट प्रैक्टिस करना चाहती हूँ। मीनल बहुत देर तक कुछ सोचने के बाद बोली..शादी का क्या प्लान है ...अब तो तू नौकरी भी करने लगी हैं,पहले तो तू बोलती थी नौकरी लगने के बाद ही शादी की बात करना।
शादी की बात आते ही परी के चेहरे के भाव हमेशा बदल से जाते हैं। वो किसी सोच में डूब जाती है।
अब यह भी भला कोई बात हुई ...कुछ तो बात करनी पड़ेगी न .लड़के कोई आसमान से तो टपकते नहीं। मीनल जानती है परी का कोई बॉय फ्रेंड भी नहीं। परी बेहिचक कहती भी है वो शादी तो जरूर करेगी और अपनी पसंद के लड़के से करेगी ,अरेंज मैरिज में उसका विश्वास नहीं। पर कब पसंद करेगी यह लड़की किसी को ...यह सोचते मीनल परेशान हो जाती है।
जब परी ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पास की तो दिल्ली और मुंबई के नामी मेडिकल कॉलेज में उसको एडमीशन मिल रहा था मगर उसने मम्मी पापा के ही पास रह कर पढ़ाई करने का फैसला लिया... यदि उसे अपने शहर बीकानेर में ही अच्छी नौकरी मिल जाती तो वो कभी भी बैंगलोर नहीं जाती। वो भी शादी कर अपना घर बसाना चाहती है मगर परी को अपने मम्मी की बहुत चिंता रहती है...
परी भी न जाने कहाँ कहाँ खो जाती है। सामने स्काइप पर मम्मी बैठी कुछ कुछ बोल रहीं थीं. परी अपने आपको झटका दे भूतकाल से वर्तमान में ले आती है.
अरे हाँ मम्मी आप यह बताओ कौन-सी नई ड्रेस बनवाई आपने ? बहुत दिनों से कोई सेल्फी भी नहीं भेजी आपने?सब ठीक तो है न ?परी ने एक साथ कई सवाल दाग दिए मीनल पर .
मीनल फीकी सी मुस्कान दे बात टाल गयी। मीनल कुछ परेशान सी लगी परी को। मम्मी के हैलो बोलते ही वो समझ जाती है आज मम्मी का मूड कैसा है। वो भी कोई बच्ची तो है नहीं। वो समझ गई आज कुछ तो गड़बड़ है। वरना अभी तक तो मम्मी उठ कर चली जाती और नई ड्रेस पहन कर कैटवॉक करते हुए भी आ जाती. उम्र के इस पड़ाव पर भी पूरे उत्साह से भरी हुई रहती हैं.कितनी बीमारियां लगी हुई हैं मगर कभी उनका रोना रोते हुए नहीं देखा। डाइबिटीज ,बी पी और साथ में अक्सर फ्रोजेन शोल्डर का दर्द भी उनको रहता ही है। वैसे ध्यान भी रखती हैं वो अपना। उम्र के इस दौर में भी वो कभी दही-अंडे का लैप सर पर तो कभी संतरे के छिलकों का बना घरेलू उबटन मुँह पर लगा अपने चेहरे मोहरे को निखारने का पूरा ध्यान रखती हैं वो और परी को भी नुस्खे बताती रहतीं हैं। परी को गर्व होता है अपनी मम्मी की इतनी पॉजिटिव एनर्जी से.... पता नहीं मम्मी कैसे संतुलित रख पाती हैं खुद को।
परी बहुत ज्यादा ही प्यार करती है अपनी मम्मी को .अब यह कोई अनोखी बात तो है नहीं। हर बच्चे को अपनी मां दुनिया की सबसे अच्छी मां लगती है। हर कोई यही सोचता है जितना उसकी मां ध्यान रखती है उतना कोई और मां नहीं कर सकती या उतने परफेक्शन से तो नहीं कर सकती .. परफेक्शन शब्द मीनल को बहुत परेशान कर देता है। समीर के मन मुताबिक घर में कुछ नहीं होता तो वो सबको लाइन हाज़िर होने का वारंट जारी कर देते हैं। इसलिए मीनल और घर का काम करने वाली फुल टाइम मैड सोनी भी हर काम परफेक्शन से करने की कोशिश करते हैं पर इंसान काम करे और कभी गलती न हो ऐसा भला कहीं हो सकता है। कभी मीनल तो कभी गंगा की पेशी चलती रहती है।
मीनल जब शादी करके इस घर में आई तो बहुत खुश थी। उसे लगा की उसे सौभाग्य से बहुत पढ़े लिखे ,अंगरेजी बोलने वाले ,ऊँची कद काठी वाले स्मार्ट पति के रूप में समीर मिले हैं। मीनल यह सोच कर खुश होती थी कि पर्सनेलिटी डेवलपमेंट की क्लास लेने वाले समीर तो हर किसी से बात कर उसके अंदर का निकलवा लेते होंगे। पर जब डॉक्टर ही नपा तुला बोलेगा तो मरीज बेचारा अपना मर्ज खुल कर कैसे बता पाएगा। समीर इतना ज्यादा नपा तुला बोलते हैं कि मीनल को घुटन होने लगती। मीनल यह अच्छे से समझ गई कि समीर उस से ही बोलता है जिससे वो बोलना चाहते हैं। जिस से थोड़ा भी मन नहीं मिलता उस से नहीं बोलते। मीनल से भी तो वो अपनी जरूरतों के हिसाब से ही बोलते हैं ...
शादी के तीस साल बाद भी यदि दोनों के बीच ऐसा है तो ऐसे साथ रहने का क्या मतलब है यह मीनल को समझ नहीं आता। मीनल की तो छोटी छोटी सी इच्छाएं थी जो अधूरी ही चल रही हैं। वो यही तो चाहती है कभी समीर खुद आगे होकर बोले चलो आज मौसम बहुत अच्छा है ... कहीं घूम आते हैं या चलो आज मूवी देख कर आते हैं... अरे खाने का क्या है वो हम बाहर खा लेंगे ... उसका मन करता है कभी समीर उस से कहे चलो जल्दी से तैयार हो जाओ आज हम लॉन्ग ड्राइव पर चलेंगे...और सुनो आज वही नीले फूल वाली साड़ी पहनना वो तुम पर बहुत फब्ती है ...मगर ऐसा कभी नहीं हुआ। कभी कही बाहर जाएंगे तो ऐसे जाएंगे मानो कोई ड्यूटी पूरी करनी हो। घूमना और ड्यूटी दो अलग शब्द नहीं लगते मीनल को। इस सब की खीझ अब मीनल के चेहरे पर झलकने लगी है।
कितनी कन्फ्यूज्ड है मीनल ... समीर अच्छे हैं ... समीर कम बोलते हैं ...समीर उसे समझते नहीं ... समीर को कही आना जाना पसंद नहीं ..वैसे पर्यटन उनकी हॉबी है ...समीर चाहते हैं मीनल अपनी पसंद के फील्ड समाजसेवा में कुछ करे,.मीनल कुछ करना चाहती है तो बहुत से प्रश्न खड़े कर देते हैं ..इतने कि इंसान इरिटेट हो जाए ..समीर चाहते हैं कि बिना कहे वो सब हो जाए जो वो चाहते हैं ..मीनल चाहती हैं कि समीर खुल कर बताए कि वो क्या चाहते हैं .....मीनल इतने वर्षों के साथ के बाद भी नहीं समझ पाई की आखिर दोनों के बीच प्यार है या वो दोनों बस सिर्फ साथ रह रहे हैं ...
परी जानती है मम्मी को अच्छी तरह। मन के दर्द को वो अपने ऊपर ज्यादा हावी नहीं होने देती .मगर दर्द तो दर्द होता है .उसकी अपनी एक छाप होती है.आप चाहे कितना छुपा लो वो कही न कही से उभर ही आता है .
मीनल तो मीनल परी भी अक्सर पुरानी यादों मैं खो जाती है .ऐसा शायद सबके साथ होता है.बात करते करते पता नहीं हम कहाँ से कहाँ पहुंच जाते हैं .मीनल ने तो एक दो बार पड़ोस में रहने वाली ऋचा के कहने पर घर के पास ही पार्क में लगने वाली मैडिटेशन क्लास भी ज्वाइन की थी मगर लाख कोशिशों के बावजूद भी वो कभी भी अपने आपको अपनी ही सांसो के साथ केंद्रित नहीं कर पाई . वो सांसों के उतार चढ़ाव के साथ यही सोचती रहती जल्दी क्लास ख़त्म हो और वो घर पहुंचे। उसका ध्यान तो वहीं लगा रहता कि समीर उठ नहीं गए हों। उठते ही समीर को अदरक वाली चाय चाहिए। घर आती तो समीर का तना हुआ चेहरा देख मेडीटेशन से मिले थोड़े बहुत सुकून से ज्यादा टेंशन हो जाता तो उसको वहां न जाने में ही अपनी भलाई दिखी।
परी देख रही थी आज मम्मी कुछ ज्यादा ही खोई खोई सी हैं। अमूमन ऐसा होता नहीं है। वो समझ गई आज मम्मी पापा के बीच कुछ तो जरूर हुआ है। उसने मम्मी से पूछा क्या हुआ ...आज बहुत उदास लग रही हो ?
"नहीं तो ...ऐसा कुछ नहीं". ..मीनल ने कहा।
परी बहुत दिनों से मम्मी पापा से बात करना चाह रही थी। उसे लगा अब बात क्र ही लेनी चाहिए। उसने कहा मुझे आप दोनों से जरूरी बात करनी है .
पापा कहां हैं..परी ने पूछा ?
स्काइप पर अपने बारे में पूछते हुए सुन समीर भी अंदर कमरे से बाहर वहां आ गए...क्या हुआ ? समीर ने आते ही पूछा।
बहुत दिनों से परी अपने अंदर अनेक सवाल -जबाव लिए उलझ रही थी।
समीर भी स्काइप के सामने मीनल के पास बैठ गया। परी ने कहा ..आप जानना चाहते हो न कि मैं शादी की बात क्यों टाल जाती हूँ?
पापा आप बताओ आपकी शादी को तीस साल हो गए .. .इन तीस सालो में आपने मम्मी की ख़ुशी के लिए क्या किया ?
समीर कुछ बोलते इस से पहले ही परी ने कहा यह एक बेटी का सवाल नहीं है ..एक मनोचिकित्स्क का सवाल है ...इसलिए जबाव भी वैसे ही देना ...
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तुम्हारी मम्मी समाजसेवा से जुड़ना चाहती हैं ..तो मैंने कभी मना नहीं किया। ...तू पूछले अपनी मम्मी से ... यह कहते हुए समीर ने मीनल को देखा।
आपने मना नहीं किया ...बहुत अच्छी बात है यह तो...घर के मालिक तो आप ही हो।... परी ने हल्के से व्यंग्यात्मक स्वर में कहा...पर आपने इसके लिए किया क्या...? परी ने एक और सवाल दागा।
"पेर्सनलिटी परफेक्शन ट्रेनर " समीर को अपनी ही बेटी से ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी
तुम्हारी मम्मी को कुछ करने की मनाही हैं क्या ...समीर अनचाहा सुनते ही तुरंत बौखला जाते हैं। बहस की कहीं कोई गुंजाइश नहीं... हर मुद्दे पर वो अपनी राय को ही सबसे सही मानते हैं ... मानो हर समय सही होने का पूरा ठेका उनका ही है।
"पापा एक बात बताओ मम्मी रोज हम सबके लिए क्या क्या करती हैं?क्या कभी ऐसा हुआ है आपको इंस्टिट्यूट जाना हो और आपको टिफ़िन तैयार नहीं मिला हो। सुबह जल्दी निकलना हो तो आपकी हर चीज आपको तैयार मिलती है। आपके कपड़े,आपकी फाइल,आपका सामान,आपकी पूरी देखभाल के लिए मम्मी सदा तत्पर रहती हैं. मेरी पढाई, खुद की -आपकी रिश्तेदारी,घर की पूरी सार संभाल कौन करता है? आप सिर्फ यह कह कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते हो कि मैंने उसको यह सब करने को कब कहा और बाहर जाने से कब रोका है? क्या ऐसा हो सकता है मम्मी को अपने काम से बाहर जाना हो तो वो आपकी तरह आसानी से निकल जाए। सिर्फ आपके सोचने से किसी की इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती। आपके सहयोग की भी जरूरत होती है इसमें ... पर आप तो सबका बाहरी रूप परफेक्ट चाहते हो..कोई कैसे बैठता है ,कैसे चलता है , कैसे बोलता है ,घर साफ होना चाहिए, मम्मी हमेशा मुस्कराती हुई दिखनी चाहिए, आए गए की अच्छी आवभगत होनी चाहिए ... इस सबके पीछे की मेहनत या परेशानियों से आपका कोई लेना देना नहीं"..आज परी बिना कोमा फुल स्टॉप के बोले जा रही थी ..वो तो कभी कभार अपनी सहेली तक से मिलने का कहती हैं तो आपका यही कहना होता है क्या करोगी इतनी दूर जाकर ..धूप तेज है.... थक जाओगी ... अब भला अपनी सहेली से मिलने में क्या दूरी और क्या धूप... दोस्ती की घनी छाँव के सुख का आनंद आपने भी कभी लिया नहीं तो उनको भी नहीं लेने दिया। सच तो यह हैं हमारी परवरिश में ही कुछ ऐसा होता है कि हम महिलाएं पुरुषों को बहुत ऊंचे दर्जे का मानती हैं। बेशक हम कितना ही पढ़ लिख जाए। हम क्या करेंगे ,हम कहाँ जाएंगे यहाँ तक की क्या पहनेंगे,कब हसेंगे और हसेंगे तो कितना हसेंगे .....यह सब घर के पुरुष मुखिया की इच्छा पर निर्भर है। यह मुखिया आपका पिता ,भाई ,पति ,बेटा कोई भी हो सकता है।
पापा आप सोच रहे होंगे की मम्मी ने मुझे कुछ कहा है ... नहीं ... ऐसा कुछ भी नहीं... परी ने कहा।
पापा मुझे अब भी ध्यान है जब हम पप्पी मामा की शादी में गए थे.मम्मी को अपने बहुत से ऐसे रिश्तेदार मिले जिनसे वो बरसो से नहीं मिली थी, इसलिए उनका मन हुआ कि वहां एक दिन और रुका जाए। मगर आप तो अड़ कर खड़े हो गए। आपने सबके सामने आदेश सा देते हुए बहुत रूखे अंदाज़ में कहा हम आज ही चलेंगे। मम्मी की वो गीली आँखें मुझे आज भी याद हैं...पापा आप ही बताओ हम एक दिन रुक जाते तो क्या हो जाता ..इतनी छोटी सी बात के लिए किसी का मन तोड़ना ठीक था क्या? ऐसी बहुत सी बातें हैं जो बहुत बड़ी नहीं हैं पर उसका विपरीत प्रभाव जरूर ज्यादा पड़ जाता है।
पापा मैं नहीं कहती आप गलत हो और मम्मी सही ....मैं कोई जज नहीं... और मैं कोई फैसला सुनाने भी नहीं बैठी।
समीर इस झटके के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने थोड़ी ऊँची आवाज में परी से कहा कौन-सा जुल्म कर दिया मैंने तुम्हारी मम्मी पर ? .पूछ.... पूछ अपनी मम्मी से ...यह कहते कहते समीर बौखला गए।
क्या सिर्फ शारीरिक चोट को ही जुल्म कहते हैं ...? परी ने तुरंत सवाल किया.
समीर यही तो सिखाते हैं अपनी कार्यशालाओं में सबको कि अपने मन पर किसी बोझ को हावी मत होने दो.शरीर का घाव तो कुछ समय में भर जाता है, मगर दिल का घाव न आपको मरने देता है न जीने... पापा दूसरों को नसीहत देना बहुत आसान होता है मगर खुद को अमल करने के लिए बहुत धैर्य चाहिए ...
समीर कोई जबाव देते इस से पहले ही परी बोली पापा यह तो आप भी मानोगे कि हमारा सामाजिक ढांचा ऐसा है यहाँ पुरूषों की इच्छाओं और भावनाओं को ही महत्व दिया जाता है। लड़कियों को जन्म लेते ही घुट्टी के साथ यह पिलाया जाता है पुरुष घर का मुखिया होता है ,इसलिए वो करो जो उनको अच्छा लगता हो। महिलाओं के अचेतन मन पर यह भावना इतनी गहरे से पता नहीं कब छप जाती है कि खुद महिलाऐं ही नहीं समझ पाती की ऐसा वो क्यों करती हैं ,बस खुद ब खुद वो करती रहती हैं जो घर के पुरुष चाहते है।
समीर को समझ नहीं आ रहा था की वो क्या बोले .उसे तो कभी ऐसा कुछ महसूस ही नहीं हुआ।
समीर कोई जबाव देते इस से पहले ही परी बोली जब इतने बरसों के साथ रहने के बाद मम्मी अपने मन की बात खुल कर आपसे साझा नहीं कर पाईं तो ऐसे सम्बन्ध का क्या अर्थ है.यदि शादी के बाद मुझे भी ऐसा साथी मिला तो ? ...मुझमें तो इतनी सहनशक्ति भी नहीं जो मम्मी की तरह घुट घुट कर जी पाऊँ. मैं तो आपको रोज फ़ोन कर- कर के परेशान ही कर दूंगी... ऐसे में तलाक़ लेने में देर नहीं लगाउंगी मैं तो।
आप दोनों के बीच हमेशा चलने वाले शीत युद्ध ने आपकी भावनाओं को भी ठंडा कर दिया है .मैं आप दोनों की तरह भाव शून्य ज़िंदगी नहीं जीना चाहती .
जब शादी के बाद अपने जीवन साथी के साथ मन की हर बात खुल कर साझा नहीं कर पाए तो शादी करने का क्या फायदा . जब आप जैसे समझदार लोगों से यह रिश्ता नहीं संभाला गया तो मैं अपने आपसे तो ऐसी उम्मीद भी नहीं रख सकती..इसलिए मैंने फैसला किया है कि मैं शादी नहीं करूंगी .
समीर का चेहरा बुझा हुआ था। उसको अपनी बेटी के सामने कभी इस तरह कटघरे में खड़ा होना पडेगा ऐसा उसने कभी नहीं सोचा था.
उसकी नजरों के सामने तीस बरस का लम्बा सफर कुछ ही देर में पूरा घूम गया। उसे ध्यान आया. शादी के समय कैसी चमकती हुई सपनों से भरी आँखें थी मीनल की। वो चमक धीमी पड़ती चली गयी और उसे महसूस तक नहीं हुआ। मीनल कॉलेज की हर एक्टिविटी में सबसे आगे रहती थी. वो बुद्धि ,प्रतिभा और सुंदरता का एक कम्पलीट पैकेज थी. परी सही ही तो कह रही है वो हमेशा खुद को सबसे सुपीरियर समझता रहा और अपने आप में ही खोया रहा ...उसके अपने उस से इतना दूर हो गए और उसे पता ही नहीं चला .
आज परी ने उसे सोचने पर मज़बूर कर दिया.सच है उसके कम्फर्ट जोन को बनाए रखने के लिए मीनल घर से बाहर नहीं निकल पाई वरना आज उसका भी अपना नाम होता- शोहरत होती.मीनल और परी के मन में उसके लिए सच्चा प्यार होता.
ज़िंदगी का कीमती लंबा समय यूं ही निकल गया. अब समीर एक दिन भी ख़राब नहीं करना चाहता था. उसने मीनल से कहा हम कल सुबह ही चलकर "आशा संस्था" में बात करने चलेंगे.फिर आगे सोचेंगे क्या करना है ...
परी सोचने लगी उसने कितनी देर लगा दी पापा से बात करने में। कई बार परिस्थतियाँ बदलना उतना मुश्किल नहीं होता जितना हम सोचते हैं। संवाद बंद करके हम सारे रास्ते खुद ही बंद कर देते हैं.
अचानक परी बोली पापा एक बात और....
समीर फिर चिंता में पड़ गए और बोले ... अब क्या हुआ ?
परी ने शैतानी से कहा पापा मम्मी समाज सेवा करेंगी तो आपको घर पर मिलने वाली सेवाओं में कुछ कमी आ सकती है ...
समीर ने मुस्करा कर मीनल का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा चलो तैयार हो जाओ आज हम डिनर करने बाहर चलते हैं और...कल से हम घर के काम मिल जुल कर करेंगे ...
समीर ,मीनल और परी आज बहुत लम्बे समय बाद एक साथ खुल कर हंस रहे थे।
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वीना करमचन्दाणी
9 /913 मालवीय नगर ,जयपुर
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कहानी
सेफ्टी वाल्व
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अमित कुमार मल्ल-युवा कहानीकार
छोटी गोल, बड़ी गोल करते करते आठवीं पास होने तक , मैं गांव के प्राइमरी पाठशाला और जूनियर हाई स्कूल में पढ़ता रहा । प्राइमरी पाठशाला में पटिया , नरकट की कलम , दूधिया की दवात तथा किताब लेकर जाता था। यह माना जाता था कि निब वाली पेन से लिखने में , हैंडराइटिंग खराब हो जाती है। इसलिये मैं पाठशाला में कभी निब वाला पेन लेकर नहीं गया। प्राइमरी पाठशाला के हर क्लास का मैं टापर था । प्राइमरी पाठशाला के हेडमास्टर साहब ने क्लास डकाने के लिये , बाबूजी से कई बार कहा था लेकिन बाबूजी का कहना
था -
-बिना मजबूत नींव के ,इमारत अच्छी नहीं बनती है।
इसलिये , उन्होंने मुझे क्लास नहीं डकाया। फिर उस समय क्लास पांच में बोर्ड परीक्षा होती थी । यू पी बोर्ड नहीं , जिले वाला बोर्ड। मैं क्लास 5 में ब्लॉक के सभी प्राइमरी पाठशालाओं में टॉप किया।
जूनियर हाई स्कूल में बैठने के लिये बोरा नही ले जाना पड़ता था। वहाँ पर टाट मिलती थी । पाटिया , नरकट की कलम से पीछा छूटा। अब निब वाली पेन , स्याही वाली दावत, कॉपी , लेकर जाना होता था । इन सभी को बस्ता कहा जाता था। आठवीं में भी स्कूल टॉप किया । खुशी में घर वाले लड्डू बाटे।
बाबूजी मेरी पढ़ाई से खुश थे। वो मुझे डिप्टी कलक्टर बनाना चाहते थे। सोच विचार कर मुझे नवी में पढ़ने के लिये ,पास के कस्बे में नहीं , दूर के शहर में भी नहीं ,बल्कि बहुत दूर के, बहुत बड़े शहर में भेजा गया।
बड़े शहर में खर्चा बहुत पड़ता , इसलिये तय किया गया कि मैं स्कूल व बस अड्डे के पास ,किराये का क्वार्टर ले लूं। गांव से , रोज एक बस , सुबह इस बड़े शहर आती और शाम को गांव लौट जाती । इसी बस से सब्जी आदि हर दूसरे तीसरे दिन आ जाया करेगा।
गांव के एक चाचा ,जो पट्टीदारी में थे ,का , इस बड़े शहर में बस अड्डे के पास मकान खाली पड़ा था । उन्होंने बाबूजी से कहा -
-अपने बेटे को मेरे मकान में रख दो , उसका किराया बच जाएगा और मुझे घर को रखाने के लिये ,किसी को रखना नहीं पड़ेगा।
सभी के लिये यह फायदे मंद था। मैं बड़े शहर में , पट्टीदार के मकान के एक कमरे में जम गया। गांव से आटा, चावल , दाल , तेल तो मैं ही लाता था ।हर तीसरे दिन , साइकल से , बस अड्डे जाकर , गांव की हरी सब्जी और कभी कभार दूध दही भी लाता था, जो बाबूजी से बस के ड्राइवर चाचा के हाथ से भेजते थे । 12 से 5 बजे तक स्कूल चलता अर्थात दूसरी पाली का स्कूल था।
धीरे धीरे मैं बड़े शहर व पढ़ाई में रम रहा था ।एक दिन जब सब्जी लेने बस अड्डे पहुँचा तो बस ड्राइवर चाचा ने कहा ,
- तुम्हारे बाबू जी ने कहा कि कोई पेट का डॉक्टर पता कर लो। बालेन्द्र की दुल्हन को दिखाना है।
बालेन्द्र मेरा भाई था और मुझसे बड़ा था। मैंने दो तीन दिन तक सायकिल से घूम घूम कर डॉक्टर का नाम पता किया। सोमवार को गांव वाली बस से बालेन्द्र भइया व भाभी आये। मैं सायकिल से बस अड्डे पहुंच था ।मैंने बताया ,
- डॉक्टर दोपहर और शाम को देखते है । सुबह 10 से डेढ़ और फिर शाम को 4 से 8 बजे तक।
- यहाँ से कितनी दूर है ?
बालेंदु भइया पूछे।
- रिक्शे से करीब आधा पौन घंटा लगेगा।
मैंने बताया ।
-इस समय साढ़े 10 बज रहे हैं। पहुंचते पहुंचते साढ़े ग्यारह बजेंगे। ... यह बस पकड़ने के लिये , सुबह 5 बजे से जगे है। बीच में .. स्टेशन पर ,एक एक प्याली चाय ही पिये हैं। और तुम्हारी भाभी भी वही चाय पी है।
भइया बोले।
- बस अड्डे पर कैंटीन है। आप मेरे साथ चलकर कुछ खा लीजिये। भाभी के लिये, वही से नाश्ता लेते आएंगे , या हम तीनों कैंटीन चलते हैं ,वही नाश्ता कर लेंगे।
मैंने निदान बताया ।
भाभी पहली बार रिएक्ट करते हुए ,भइया की ओर देखी।
- तुम तो जानते हो ,इस बस से गांव के बहुत से लोग आते हैं। अगर उन्होंने तुम्हारे भाभी को कैंटीन या शेड में खाते देख लिया , तो गांव में जाकर बात का बतंगड़ बनाएंगे।
भईया ठंडेपन से बोले।
- यह बात तो सही है ।... तो क्या भाभी को भूखे ही दिखाने ले चलना है ।
मैं ने पूछा।
भइया कुछ पल सोचते रहे । फिर बोले ,
- तुम्हारे कमरे चलते हैं। ... वही कुछ खा लिया जाएगा और तुम्हारी भाभी भी कमर सीधी कर लेंगी। फिर डॉक्टर को दिखाएंगे।
- अच्छी बात है ... आप लोग रिक्शे पर बैठे। मैं साईकल से आगे आगे चलता हूं।
मैं बोला।
रिक्शे में भइया , भाभी और उनका समान रखा गया। रिक्शे के आगे आगे मैं साईकल चला रहा था । आधे घंटे में हम लोग ,मेरे क्वार्टर पर पहुंचे। समान भीतर रखकर बगल की दुकान पर जाकर इमरती, समोसा ,चाय लाया ।
- कुँवर साहब , इतना कुछ बेकार में लाये । परेशान हुए । ... अभी आपके भइया जाते तो ले आते।
पहली बार भाभी बोली।
- आप पहली बार यहाँ आई है।
मैं बोला।
फिर भाभी मेरा हाल चाल पूछने लगी । जैसे ही मैंने बताया कि मेरे क्लास 12 बजे से है।
भाभी बोली,
- आप स्कूल जाइये ...कुँवर साहब की पढ़ाई का नुकसान न हो , हम लोग शाम को डॉक्टर को दिखा लेंगे।
मैंने पास का खाने वाला होटल ,भइया को दिखा दिया ,और होटल वाले से कह दिया कि टिफिन भिजवा देना।
शाम को क्वार्टर पर लौटने पर देखा, तो भइया भाभी घर वाले ड्रेस में , आराम से बातें कर रहे थे। मैंने पूछा,
- अभी तक आप लोग तैयार नहीं हुए ... डॉक्टर को दिखाने चलना है न?
भइया सोचते हुए , भाभी से बोले,
- यह स्कूल से थका हारा आया है...कुछ खिलाओ ।
- डॉक्टर 7 बजे उठ जाएगा। आज दिखाना है .. तो आप लोग जल्दी तैयार हो जाओ।
मैं बोला।
- 6 घण्टे से आप बिना कुछ खाये पियें है। पहले आप कुछ खा लीजिये..... अगर आज देरी हो गयी है , कल दिखा लेंगे। कौन हम लोग सड़क पर है ?हम लोग तो कुँवर साहब के क्वार्टर पर है।
भाभी बोली।
भाभी ने मेरे लिये , शाम को भइया द्वारा लाये गए समोसे में से 2 बचा कर रखे थे , जो मुझे दिए। नाश्ते करने के बाद क्या किया जाय - यह हम लोग विचार विमर्श कर रहे थे कि, भाभी बोली ,
- अब ,इस समय डॉक्टर को तो दिखाना नहीं है , फिर घूम ही लेते हैं ।
भइया और मैंने सहमति जताई ।फिर हम तीनों रिक्शे में बैठकर बाजार घूम आये।
रात में तय हुआ कि अगले दिन जल्दी उठकर,
डॉक्टर को दिखाने चलेंगे ।लेकिन रात में देर तक इधर उधर की बाते हुई- रिश्तेदारों की , गांव की , भाभी के मायके की , मेरे यहाँ रहने की । लगभग 3 बजे सब लोग सोये तो सबेरे उठते उठते 9 बज गया।
- भइया ! आप लोग जल्दी तैयार हो लीजिये, डॉक्टर को दिखा दिया जाय ।
मैंने कहा।
- तुमने सिनेमा कब देखा था?
भइया पूछें।
मैं समझ नहीं पाया , यहां सिनेमा की बात कहां से आ गयी। जवाब तो देना ही था।
- दो महीने पहले।
- तुम्हारी भाभी भी शादी होने के बाद से , कोई पिक्चर नहीं देखी है... न कही घूमने गयी , .. तुम भी पिक्चर नहीं देखे हो ।
भइया , हम दोनों की ओर देखकर बोले,
- आज , तीनो साथ सिनेमा देखेंगे , होटल में खाना खाएंगे।
फिर हम तीनों रिक्शे पर बैठकर सिनेमा देखने गए और खाना भी होटल में खाये। बाजार घूमें । भाभी के लिये खरीददारी हुई। शाम तक क्वार्टर पर , हम लोग लौटे ।
अगले दिन गांव वाली बस से सब्जी , दूध आना था । भईया ने अनुमान लगाया कि डॉक्टर को दिखाकर अभी तक , गांव न लौटने पर पूछ ताछ संभव है । इसलिए भइया ने कहा,
- यदि बस वाले ड्राइवर चाचा पूछे कि क्यों हम लोग डॉक्टर को दिखा कर , गांव नहीं लौटे ? तो क्या बताओगे ?
- जो , बताइये।
मैं बोला।
-तुम कहना कि , डॉक्टर के यहाँ बड़ी भीड़ थी , दिखाने का समय ही नहीं मिला । आज डॉक्टर साहब से समय मिला है। डॉक्टर को दिखा कर कल तक लौट आएंगे।
भइया के सिखाये - बताये पर मैंने हामी भरी।
अगले दिन बस अड्डे पर पर , गांव वाली बस के ड्राइवर चाचा ने दूध सब्जी देते हुए पूछा,
-तुम्हारे भइया भाभी डॉक्टर को दिखा कर गांव काहे नहीं लौटे।.... तुम्हारे बाबूजी पूछ रहे थे।
- डॉक्टर के यहाँ बड़ी भीड़ थी । नम्बर नहीं लग रहा था । आज दिखा कर , भइया भाभी कल तक गांव पहुँच जाएंगे।
मैंने जवाब दिया।
शाम को भाभी को डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने दवाइयां लिखी और दो महीने बाद फिर चेकअप के लिये बुलाया । अगले दिन , दिन में शहर के मंदिर में , भइया भाभी ने दर्शन किये ,और शाम वाली बस से, वापस गांव लौट गए।
यह चार दिन मेरे पढ़ाई के लिहाज से खराब थे। मैंने केवल एक दिन ,स्कूल अटेंड किया, बाकी दिन भइया भाभी के साथ सिनेमा देखा , कुल्फी खाई, चाट खाया , नॉन वेज खाया , बाजार घूमा -, ऐश ही ऐश। भइया भाभी के जाने के बाद मन लगा कर फिर पढ़ाई में जुट गया।
एक महीना बीता होगा कि , एक दिन बस अड्डे पर , ड्राइवर चाचा बोले,
- तुम्हारे बाबूजी ने कहा है कि इंद्रजीत (यह हमारे सगे पट्टीदार थे , हमारे चाचा लगते थे । इनके पिताजी और हमारे बाबा एक ही थे )के बहू को दिखाना है। बढ़िया डॉक्टर पता कर लेना तथा एक ठीक ठाक होटल भी रुकने के लिये देख लेना।
- मेरे क्वार्टर पर नहीं रुकेंगे क्या ?
मैंने पूछा।
ड्राइवर चाचा बोले,
- तुम्हारे बाबूजी जो कहे थे , बता दिये। परसो इसी बस से दोनों लोग आएंगे।। पता कर लेना। मैंने उसी दिन डॉक्टर और होटल के बारे में पता कर लिया।
परसो दोनों लोग -,चचेरे भाई व भाभी ,आए। रिक्शे में बैठकर होटल गए। उनके रिक्शे के आगे आगे सायकिल से मैं रास्ता दिखाता रहा। जब होटल के रूम में समान रख गया तो मैंने भइया से पूछा,
- कब डॉक्टर को दिखाने चलना है।
भइया बोले ,
- आज ,तो .... हम लोग थक गए है। कल चलेंगे। ..... लेकिन .. आज शाम को जब तुम स्कूल से छूटना , तो इधर ही आना । .. साथ में बाजार चलेंगे , शहर घूमेंगे । .. देखेंगे।
-ठीक है ।
बोलकर मैं क्वार्टर पर चला आया ।
क्वार्टर से स्कूल गया और शाम को स्कूल से लौटकर , मैं होटल पहुँचा । फिर हम तीनों बाजार निकले । भाभी ने खरीदारी की और हम लोग खाते हुए होटल लौटे। तय हुआ कि अगले दिन शाम को डॉक्टर को दिखाना है। रात्रि 10 बजे होटल से अपने रूम पर पहुँचा।
शाम को भाभी को डॉक्टर को दिखाना था , अतः मैं कालेज नहीं गया। शाम को भइया के साथ भाभी को डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने बताया ,डेढ़ माह बाद ,फिर आना है।
अगले दिन शाम को भइया भाभी को गांव वाली बस में छोड़कर क्वार्टर आ गया। जाते जाते दोनों ने उसकी बहुत तारीफ की । इस बार उतनी ऐश तो नहीं हुई, लेकिन दो बार मुर्गा खाने ,दो बार चटपटा खाने को मिला और 2 दिन का क्लास छुटा।
फिर मैंने पढ़ाई में मन लगाया। डेढ़ दो माह बाद , फिर मेरे ममेरे भाई , भाभी आये। उन लोगों ने बताया कि उन दोनों लोगों को डॉक्टर को दिखाना है। मैंने पूछा ,
-भइया , आपको क्या रोग हुआ है ?
भइया बोले ,
-तबीयत ठीक नहीं रहती है।
भाभी बोली,
- चाहे यह जो , खा ले , इनके शरीर को लगता नहीं।
फिर वही हुआ, जो पहले भी हुआ था। ममेरे भाई भाभी 4 दिन रहे । मैंने इन लोगों के साथ पिक्चर देखा, नॉन वेज खाया, घूमा आदि।
उनके लौटने के बाद , मैंने पढ़ाई में मन लगाया।
इस बार मेरा 4 दिन क्लास छूटा।
मुझे एक बात , अब , परेशान करने लगी थी कि हम लोगों के परिवार में इतनी बीमारियां क्यों है? सारे भइया भाभी युवा है , फिर इतनी बीमारियां क्यों? क्या खान पान में गड़बड़ी है या रहन सहन में या कोई अन्य बात? लेकिन किससे पुछूं? जो जवाब भी दे दे और बुरा भी न माने। उसने जब नज़र दौड़ाई तो सगी भाभी नज़र आई , जो उसकी बात , पूरे ढंग से सुनती है और उसका उत्तर भी देती है , सुलझे ढंग से देती है।
अगली बार की छुट्टी में , जब मैं घर गया तो इस ताक में रहता था कि खुशनुमा माहौल में भाभी से बीमारी वाली यह बात पूछ पाऊँ। एक दिन अवसर मिल गया। दोपहर में भाभी खाना परोस रही थी, उस दिन बाकी लोग किसी काम से बिलंब से खाने वाले थे।
मैंने पूछा,
- भाभी ! एक बात पूछूँ , नाराज तो नहीं होंगी?
- पूछिये ।
भाभी बोली।
- मुझे शहर में रहते करीब 10 महीने हुआ। इस बीच करीब 6 लोग डॉक्टर को दिखाने शहर आये । ... मुझे लगता है कि हम लोग के खान पान में गड़बड़ी है ...या रहन सहन में ...,। क्या कारण है?
मैंने पूछा।
- लगता है , हम लोगों का आना ,आपके यहाँ रुकना , आपको अच्छा नहीं लगा?
भाभी ने मुस्कराते हुए पूछा।
- ऐसी बात नहीं है। इसीलिये मैं किसी से यह नहीं पूछ नहीं रहा था।... नहीं बताना है तो छोड़िए।
मैंने कहा।
- छोड़ ही दीजिये। ... जब बीमार होता है , तभी दिखाने शहर जाता है। .. खाना जल्दी खत्म करिये। अभी बहुत काम है। अभी घर के आधे से अधिक लोगो को खिलाना है। फिर , रात के खाने के लिये आटा चावल दाल सब्जी सब निकालना है...
बोलते हुए भाभी ने अधूरे स्थल पर बात खत्म कर दी।
मुझे उत्तर तो नहीं मिला , लेकिन मालूम नहीं क्यों मेरे मन में यह आशंका हो गयी कि मेरे प्रश्न से कहीं भाभी को ऐसा तो नहीं लगा कि मुझे, भइया भाभी का शहर के मेरे क्वार्टर पर आना,रुकना मुझे बुरा लगा। इसलिये, भाभी को ऑब्जर्व करने लगा कि जब भी अवसर मिले , मैं अपनी स्थिति साफ कर दूं कि केवल जिज्ञासा वश मैंने यह प्रश्न पूछा था , मेरा अन्य कोई मकसद नही था।
ऑब्जरवेशन करने पर ,मुझे मालूम हुआ कि , भाभी की दिनचर्या अत्यन्त कठिन व दुरूह है। भाभी सुबह 4 बजे उठती है , जब बैलों को खिलाने वाले खली और चोकर लेने घर के बड़े लोग भीतर आते और रात में सबको खाना खिलाकर, जब घर का दरवाजा बंद करती तो रात के 11 बज रहे होते । सुबह से उठने के बाद , दिन भर वह आराम नहीं कर पाती। दिन भर कुछ न कुछ काम रहता। संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों को चारों टाइम खाना , नाश्ता , खरमेटाव परोसना, उसकी तैयारी कराना, कपड़ों का हिसाब रखना , बच्चों से खेलना , अम्मा चाची के सिर में तेल लगाना , गांव के लोगों से यथोचित व्यवहार करना ,नेवता का हिसाब रखना ,और न जाने क्या क्या। जब जब मौका मिला, मैंने भाभी से अपनी बात कही। और शहर आते आते ,मैं भाभी से यह आश्वासन ले आया कि वे नाराज नहीं है और जब भी अगली बार डॉक्टर को दिखाने , भइया के साथ आएंगी , मेरे क्वार्टर पर ही रुकेंगी।
गांव से लौटकर , मैं अपनी दिनचर्या में लग गया। एक माह बाद , भइया भाभी आये , डॉक्टर को दिखाने। इस बार भइया ने बस अड्डे पर बुलाया नहीं । सीधे भइया भाभी क्वार्टर आये। गांव की घटना से, मैंने अपने को थोड़ा और समेट लिया। मुझे लगा कि मुझे नहीं पूछना चाहिये कि कब दिखाना है? जब भइया कहेंगे , तब मैं डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लूंगा।
फिर पहले की भांति घूमना , पिक्चर देखना , खाना शुरू हुआ। भइया को तो नहीं लगा , लेकिन भाभी को यह जरूर लगा कि इस बार ,मैं संभल कर बोल रहा हूँ।
जब भइया बाथरुम गए तो भाभी ने पूछा ,
- कुँवर साहब कुछ कम नहीं बोल रहे हैं?,
- नहीं भाभी । ऐसी बात नहीं है।
मैंने उत्तर दिया।
बात खत्म हो गयी । तीसरे दिन हम लोग ,भाभी को डॉक्टर को दिखा लाये। चौथे दिन सुबह भइया को , शहर में ही किसी से मिलना था, इसलिये वह निकल गए।
भाभी ने फिर पूछा,
- लगता है , कुँवर साहब को बीमार पड़ने वाली वही बात खाये जा रही है, इसलिये संभल कर बोल रहे हैं।
- भाभी , आपको गलतफहमी है।.. ऐसी बात नहीं है। उस समय मन में एक प्रश्न उठा तो पूछ लिया। और आपसे इसलिये पूछ लिया कि क्योंकि आप सबसे सुलझी है।
मैंने उत्तर दिया।
- जब आपकी शादी हो जाएगी और,.. . आपकी बीबी गांव के घर आ जायेगी , तब पता चल जाएगा कि क्यों हम लोगों के क्षेत्र में बीमारियां ज्यादे हैं?
भाभी ने बात को समझाने की कोशिश की।
- जी।
मैं बोला।
- अच्छा , कुँवर जी , बताइये। इस बार तो , आपने ध्यान से देखा । गांव में ,मेरी दिनचर्या क्या रहती है?
भाभी ने पूछा।
- आपकी दिनचर्या बहुत कठोर है। सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक ,आप घर के कार्यों में लगी रहती है। वो भी घूंघट निकालकर। कहने को तो बर्तन मांजने के लिये भी कामवाली है ,, सब्जी काटने के लिये भी कामवाली है - फिर भी आप 15- 16 घंटे चूल्हे चौके में लगी रहती है। अनाज रखवाना , कपड़ों का काम , और न जाने कितने काम करने की आपकी दिनचर्या थी। कितने लोगों को अटेंड करती है। मेहमानों की खातिरदारी में भी लगी रहती है। संयुक्त परिवार के सभी बच्चों , महिलाओं का ध्यान रखना।
मैंने अपना ऑब्जरवेशन बताया।
- अब बताओ , ऐसे दिनचर्या में आराम कहाँ है , फुर्सत कहाँ है , मनोरंजन कहाँ है , कब है?
भाभी ने पूछते हुए , बात आगे बढ़ाई,
- आराम मिलता नहीं ।इसका असर शरीर पर ,तो पड़ता ही है ।मनोरंजन के नाम पर ,घूमने के नाम पर क्या घर वाले छुट्टी देंगे?, ..... इसीलिये, हम डॉक्टर को दिखाने के निमित्त पति पत्नी निकलते हैं। डॉक्टर के नाम पर छुट्टी मिल जाती है। .., तभी हम लोग जब यहाँ आते हैं तो डॉक्टर को दिखाने के साथ साथ ,दो तीन दिन घूमते ,टहलते, खाते, पिक्चर देखते है खरीददारी करते हैं। तुम्हारे लिए , हो सकता है यह गैर जरूरी हो या न समझ आ रहा हो ,लेकिन मेरे लिये , और मेरे जैसे अन्य लोगों के लिये यह तनाव का सेफ्टी वाल्व है।
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अमित कुमार मल्ल
जी 1
वंशी वट अपार्टमेंट
3 ए / 187
आज़ाद नगर ,कानपुर -2080001
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सिन्धी कहानी
वासदेव मोही – प्रसिद्ध सिन्धी कथाकार अनुवाद भगवान अटलानी-मीरा पुरस्कार से सम्मानित कथाकार
वापसी
सती ने मां को साफ़-साफ़ कहा कि वह पीताम्बर सेठ के घर काम नहीं करेगी। मां के बार-बार कारण पूछने के बाद भी सती ने इतना ही कहा कि बस, मन नहीं मानता। उसकी मां कुछ समझ नहीं पा रही थी। इस नौकरी के लिये सती इतनी उतावली थी कि एक सन्देश मात्र से, पैसे उधार लेकर वह पीताम्बर सेठ के घर पहुंच गई थी। नौकरी मिलते ही वह मानो उड़ने लगी थी और अब मन की आड़ लेकर जाने से मना कर रही है!
सती को मां के पास आये चार महीने हुए हैं। शादी के बाद चार सालों में उसे एक दिन भी याद नहीं आता जब वह खुश रही हो। बिल्कुल साधारण विवाह के बाद वह आबू, अपने ससुराल पहुंची थी। जो नहीं के बाराबर मेहमान आये थे, वे भी दूसरे दिन लौट गये थे। रोज़ाना रात को हून्दल बाण की चारपाई पर साथ होता था मगर उसका सारा दिन कहां गुज़रता था, यह जानकारी शायद किसी को नहीं थी। एक दिन सती ने पूछ लिया तो झन्नाटेदार चांटे ने उसके होश उड़ा दिये थे। उसने केवल इतना सुना, “अपने काम से काम रख। जासूसी करना तेरा काम नहीं है।” गाल पर उभरी अंगुलियों के ऊपर अपनी अंगुलियां रखकर वह बहुत देर तक सहलाती रही थी। जल्द ही सती को समझ में आ गया कि हून्दल पूरी तरह पिता पर निर्भर था। पैसों की बात पर पिता के ताने सुनना उसका रोज़मर्रा का काम था। कमाने की कोशिश उसने कभी नहीं की थी। विचित्र स्वभाव और विचित्र व्यवहार था उसका। अधिकतर चुप रहता था और कभी बोलता था तो चीखते-चिल्लाते हुए।
चार वर्षों में दो बेटियां, मीना और दीपा। बाण की चारपाई वही रही। चारपाई के पास जमीन पर एक पुरानी चादर बिछाकर, चुन्नी से तकिये का काम लेकर सती सो जाती थी। उसके चेहरे पर मुस्कान शायद ही कभी दिखाई देती थी लेकिन मीना और दीपा की मुस्कराहटों और ठहाकों पर उसका मन ख़ुश ज़रूर हो जाता था। ससुर के देहान्त के बाद ऐसे अवसर घटते-घटते नहीं के बराबर रह गये। अब हून्दल का चीखना-चिल्लाना बढ गया था। उसका हाथ भी जल्दी उठने लगा था। सती ख़ुद तो भूखी सो जाती थी मगर मीना और दीपा की भूख उससे सहन नहीं होती थी। आख़िर एक शाम को, चेहरे और शरीर पर मार-पीट की अनेक निशानियों के साथ वह मां के एक कमरे वाले घर में अहमदाबाद पहुंच गई, कभी आबू वापस न लौटने के दृढ़ निश्यच के साथ।
मीना को स्कूल भेजना था। सिन्धियों की इस छोटी सी कालोनी में एक ही नर्सरी-प्राइमरी स्कूल था, वह भी अंग्रेजी माध्यम का। भारी फीस। सती का पक्का फ़ैसला था कि अपनी तरह बच्चियों को अंगूठा छाप नहीं रहने देगी। मेहनत करके उन्हें पढायेगी। उसने सिलाई और कशीदे का काम शुरू किया, मगर सिलाई मशीन न होने के कारण विशेष आमदनी नहीं होती थी। कालोनी की पुरानी सहेलियों को उसने कहीं भोजन बनाने का काम दिलाने का आग्रह किया था। एक दिन उसकी सहेली रत्ना ने पीताम्बर सेठ का पता दिया था। यह भी कहा था कि नौकरी ज़रूर मिलेगी क्योंकि पहले काम करने वाली दूसरे शहर चली गई है और घर में खाना पकाने के लिये, माई की उन्हें सख्त ज़रूरत है।
सती को सेठ और सेठानी दोनों ही ईश्वर स्वरूप लगे। मां के सामने उनकी प्रशंसा करते थकती नहीं थी। सेठ तो जल्दी दुकान पर चला जाता था मगर सती के घर में घुसते ही सेठानी भी गुरुद्वारे चली जाती थी और दो-ढाई घन्टे के बाद भोजन के समय लौटती थी।
नौकरी शुरू करने के कुछ दिनों के बाद ही वह घर में अच्छी तरह घुल-मिल गई थी। गुरू बाबा के अहसान मानने लगी थी कि फ़ीस भले ही ज़्यादा हो, मगर अब वह मीना को स्कूल में प्रवेश दिला सकेगी।
अपने आप में खोई ऐसे ही सपने देख रही थी कि अचानक खुशी से चहकते हुए मदन ने रसोईघर में घुसकर सती को पीछे से बाहों में भर लिया। अधकचरी ज़ुबान से, खुशी में झूमते हुए वह पहले नम्बर पर आने की बात बताने की कोशिश कर रहा था। उसकी बात अधूरी रह गई क्योंकि सती ने मदन को ज़ोर से पीछे धक्का मारा। तेजी से उसकी ओर पलटकर सती ज़ोर से चिल्लाई, “यह क्या कर रहे हैं, छोटे सेठ?”
सुनी-अनसुनी करके मदन ने एक बार फिर पूरी ताकत से सती को बांहों में भरकर चूम लिया। छटपटाते हुए सती पूरी तरह लाचार हो गई थी।
बड़ी कठिनाई से खुद को छुड़ाकर रोनी हालत में वह उसी समय बाहर निकल आई थी। घर पहुंचकर वह सिसकियां भर कर ज़ोर-ज़ोर से रोती रही थी। मां बहुत देर तक पूछती रही, “क्या हुआ, क्या हुआ” मगर सती केवल रोती रही। इसके बाद भी तीन दिन लगातार मां उससे रोने का कारण पूछती रही लेकिन न जाने क्यों, सती कुछ बता नहीं सकी। केवल नौकरी न करने की बात कहती रही।
आज पन्द्रह दिन हो गये हैं। शुरू में कुछ दिन पीताम्बर सेठ के घर से सन्देश आते रहे। उलाहने भी मिले कि कम से कम बताना तो चाहिये। चुपचाप चली आई। यह भी नहीं सोचा कि भरा-पूरा घर जिस पर भरोसा करके छोड़ा था, उसे यह सब करना चाहिये या नहीं? यह कोई तरीका है क्या? खैरियत है कि उस दिन मदन कालेज से जल्दी आ गया था, वरना चोर एक तिनका भी नहीं छोड़ते। सेठानी नाराज़ थी फिर भी कहलवाया था कि और कुछ नहीं, तो अपना हिसाब ले जाओ। हमें किसी ग़रीब का पैसा नहीं रखना है। सती फटे हुए ब्लाऊज़ को टांका लगा रही थी कि दीपा आकर गोद में बैठ गई। उसके नन्हें हाथ बार-बार सती के गले के नीचे कुर्ती को खींच रहे थे और उसकी छाती निर्वस्त्र हो रही थी। सती का ध्यान पहले तो नहीं गया लेकिन बाद में जैसे ही देखा तो कुर्ती को ऊपर खींच लिया। दीपा ने फिर कुर्ती को नीचे खींचा तो उसकी दृष्टि अपनी छाती पर पड़ी। स्तन कुछ अधिक भारी लग रहे थे। शरमा गई। दीपा को जमीन पर बैठाकर वह उठी और स्नानागार के बाहर लगे पुराने मगर काफ़ी बड़े आईने के सामने आकर खड़ी हो गई। मां नज़र नहीं आ रही थी। संभव है, किसी पड़ोसी से कुछ उधार लेने गई हो। उसने अपने आप को आईने में अच्छी तरह देखा। शायद पहली बार। गाल ज़्यादा भरे हुए तो नहीं थे, परन्तु पिचके हुए भी नहीं थे। शरीर हृष्ट-पुष्ट नहीं था, लेकिन इकहरे से कम भी नहीं था। भले ही रंग गोरा नहीं था, मगर नक्श किसी हीरोइन से मिलते-जुलते लगे। हीरोइन का नाम याद करने की कोशिश की। याद नहीं आया। फ़िल्म देखे एक ज़माना हो चुका है। नहीं, कई ज़माने हो चुके हैं। हल्की मुस्कान चेहरे को अधिक आकर्षक बना गई। धीरे-धीरे अपने स्तन सहलाने लगी। थोड़ा जोर से। और ज़्यादा जोर से। न जाने क्यों, उस समय सती को मदन याद आ गया। मदन ने उसे पीछे से बाहों में भरकर चूमा था। धक्का देने पर उसने सामने से पकड़कर आलिंगन में लिया और चूमा था। उसके स्तन मानो पिस गये थे। वह अपने स्तनों को और ज़ोर से रगड़ने लगी। उसकी सांसें तेज़ हो गईं।
मां की आवाज़ सुनकर वह चौंक गई। बोलती बन्द हो गई। मां के निकट आने के बाद कठिनाई से ‘जी’ निकला। धीरे, बहुत धीरे। उसकी गर्दन झुकी हुई थी।
बेटी, बाहर पीताम्बर सेठ का आदमी खड़ा है। कह रहा है, सेठानी ने हिसाब ले जाने के लिये बुलाया है। अपने साथ रिक्शा भी लेकर आया है। और हां, मुए हून्दल का यह चौथा पोस्टकार्ड आया है। ख़ुशीराम से पढवाने गई थी। बहुत चिरौरियां की हैं, वापस घर आने के लिये। पान की थड़ी अच्छी चल रही है। बच्चियों को बहुत याद किया है। यह उलाहना भी दिया है कि हमने उसके चाचा को लौटा दिया।”
सती को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसने पोस्टकार्ड हाथ में लिया ही था कि दरवाज़े को खटखटाने की आवाज़ आई। दहलीज़ पर पीताम्बर सेठ का आदमी खड़ा था।
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मूल सिन्धी कहानी हिन्दी अनुवाद
वासदेव मोही, भगवान अटलानी,
ए-355, नयन नगर, डी-183, मालवीय नगर,
सहिजपुर बोधा, जयपुर - 302017
अहमदाबाद - 382345
साहित्यम मासिक इ पत्रिका -केवल फेस बुक पर प्रकाशित –संपादक यशवंत कोठारी ,86,लक्ष्मी नगर ,ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर-३०२००२ ,ykkothari3@gmail.com,संपादन -व्यवस्था –अवैतनिक
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