प्रविष्टि क्रमांक - 339 अयोध्या बनी लंका ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज' गाँव का प्रतिष्ठित अधेड़ व्यक्ति... नाम- रामलाल उम्र लगभग ५५ वर्ष... ब...
प्रविष्टि क्रमांक - 339
अयोध्या बनी लंका
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
गाँव का प्रतिष्ठित अधेड़ व्यक्ति...
नाम- रामलाल
उम्र लगभग ५५ वर्ष...
बंद कमरे में बिस्तर पर पड़ा तड़प रहा था।
पिछले बीस मिनट में पूरी जिंदगी उसकी दर्द-भरी आँखों में घूम गई थी...
कल की ही तो बात है...
गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गेंदतड़ी, लंगड़ी...आदि न जाने कितने खेलों में मशगूल बचपन...
खेतों में लहराती हरियाली, बाग, खेत -खलिहानों में काम करते बुजुर्ग....
गुड़ और तेल के कोल्हू, किनारे चलती रेलगाड़ी... मेले...विभिन्न त्यौहार...
हर जगह खुशियाँ बिखेरे उसका गाँव...
जैसे रामजी की नगरी अयोध्या।
किशोर से युवा होना..
कानों ने कुछ विशेष शब्दों को सुनना आरम्भ कर दिया है...
पड़ोस से आती स्त्री-पुरुषों की आवाजों का अर्थ बदल रहा था...
पड़ोसी ताऊ का फलाँ-फलाँ लड़के का रिश्ता बताती साथियों की कानाफूँसी....
फेंकू चाचा के परिवार का भयंकर सच.. , बेटी ही बहिन या भतीजी हो सकती है...
दुबकती छिपकती राजू चाचा की दुकान में घुसती हुई सफेदपोश लोगों की बेटियाँ...
कीमती सामान लेकर पड़ोसी ग्यान के साथ भागती हुई मोहन की खरीदी हुई पत्नी..उसका पुलिस द्वारा पकड़ा जाना...फिर चौपाल पर बैठक...सबके सामने उसकी पिटाई...
चोरी और लठैती की कई घटनाएं...
जुआरी, शराबी और ताड़ीबाजों का झगड़ा ...
अपनी शादी का दृश्य...
बलिष्ठ होता पुत्र..
उससे जुड़े अरमान..
और फिर आज का धमाका..
उसी पुत्र को इसी कमरे में माँस, मदिरा और एक लड़की के साथ देखना..
विरोध करने पर चाकू मार कर चले जाना..
ओह! एक एक क्षण नृत्य करते हुए तेजी से निकल रहा था।
अन्तिम दृश्य आते-आते आँख खोली।
कराहते हुए बोला-
"हाय राम! तेरी अयोध्या तो पूरी लंका बन गई।"
कहते कहते गर्दन एक तरफ लुढ़क गई ।
---
प्रविष्टि क्रमांक - 340
यक्ष-प्रश्न
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
“सुनो, इधर तो आओ….!”
टेरेस पर खड़ी सरला ने दिवाकर को आवाज लगाई।
सामने झोपड़-पट्टी की बगल में खाली प्लाट की ओर इशारा किया। पहले हँसी फिर सिर झटका।
"क्या होगा इस देश का....! "
कहते हुए अन्दर चली गई।
दिवाकर ने देखा-
सुअर के बच्चे पीछे चलते हुए माँ की पीठ पर चढ़ने की कोशिश कर रहे थे। पास ही झाड़ियों की ओट में १०-११ साल के तीन अर्धनग्न लड़के बारी-बारी से एक-दूसरे को चूमते हुए असफल सैक्स-क्रिया में व्यस्त थे।
उठी हुई निगाहें काल को भेद तीस-वर्ष पूर्व जा पहुँची थी...
‘खेतों से आते हुए गाँव के किनारे बनी झोपड़ी में १०-११ वर्षीय हमउम्र कुछ साथियों ने उसे आवाज देकर बुला लिया था। वह एक-दूसरे के साथ छेड़खानी कर रहे थे। उल्टे-पाँव लौटकर ठंड में घंटेभर नहाया और रात-भर भूखा पड़ा रहा था।
वह शिक्षित-परिवार का मेधावी लड़का था। शिक्षकों से मिली सराहना और माँ-बाप की प्रतिष्ठा ने उसे पथ-भ्रष्ट होने से बचा लिया था। वह तो इंजीनियर बन गया। किंतु वह साथी भूख-प्यास, बीमारी और गरीबी से असमय ही मर गये। उसकी निगाहें शून्य में उन सफेदपोश लोगों को ढूँढ रही थी जो उन बच्चों से एकांत में मिलते थे.. ।’
"अब वही देखते रहोगे क्या...?"
सुनकर चौंका और अन्दर चला गया।
माँ-बाप, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक-व्यवस्था , न्याय-प्रणाली, बलात्कार, आत्महत्या.... से सम्बन्धित प्रश्न जेहन में घूम रहे थे।
किन्तु यक्ष-प्रश्न जस का तस खड़ा था....
"जिम्मेदार कौन।"
---
प्रविष्टि क्रमांक - 341
परिणति
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
ट्रिंग-ट्रिंग....फेस बुक मैसेंजर पर महेश की काल थी। महेश गोयल इंजीनियरिंग कालेज का सहपाठी था, महेश गोयल, रमेश शर्मा और मैंने साथ-साथ एक ही कम्पनी में नौकरी ज्वाइन की थी। फेसबुक पर ढूँढते हुए आज मुझ तक पहुँचा था।
मैं पूछ बैठा था-"शर्मा का कुछ अता-पता है?"
मैसेंजर पर बात करते-करते आँखों में ३४ वर्ष पूर्व की घटना किसी फिल्म की तरह घूम गई--
"ओए! साले अभी तक तेरी कविता पूरी नहीं हुई?"
रमेश शर्मा कदम ठसकाते हुए हाल में घुसा था, चेहरे पर दर्प के साथ एक तरफ झुकी व्यंग्य मिश्रित मुस्कान थी। और किसी विजेता की भाँति छाती फूली हुई। बैडरूम में झाँकते हुए मुझे राइटिंग टेबिल पर झुके देख बोला था।
मेरी प्रतिक्रिया न पाकर सोफे पर बैठे महेश गोयल की ओर मुखातिब हुआ-
"ये साला 'नपुंसक' सुबह से एक कविता भी पूरी नहीं कर पाया।"
उसने नपुंसक का पर्याय प्रयोग किया था।
महेश- "तो तूने क्या कर लिया वे?"
रमेश-"मैं तो कई कविता सविता लिख आया।"
बेशर्मी से हँसते हुए गहरी साँस लेकर छोड़ी थी उसने।
दोनों गुफ्तगू में व्यस्त हो गये..और मैं अपने लेखन में।
कविता-सविता से उसका आशय कलकत्ता के बहू बाजार की बदनाम गलियों में अभागी, कम-उम्र मजबूर बच्चियों की ओर था। जहाँ का वह अक्सर चक्कर लगाता था। एक बार मुझे भी साथ ले गया था। मैं भी एक स्वस्थ सुदर्शन युवा था, तन और मन में हिलोरें लेती तरंगें उन मासूमों की स्थिति देख उफन कर बैठते दूध की तरह शान्त हो गईं। उनकी अश्लील हरकतों और शब्दों से शर्मिंदा हो उल्टे पाँव लौट आया था..
उसे भी कई बार समझाया, पर वह नहीं माना था।
शादी के बाद पत्नी को भी उसी तरह प्रताड़ित किया तो वह उसे छोड़कर चली गई।
सुना था बुरी मौत मरने की बद्दुआ दी थी उसने।
सुरेश-"वो कई साल पहले ही गुजर गया।"
"कैसे?"- अकस्मात मेरे मुँह से निकला था....
"तुझे तो सब पता ही है यार...साला कब तक बचता!"
शर्मा की शादी में भी वही पहुँचा था और उसकी सम्बन्ध-विच्छेद की प्रक्रिया से बहुत नाराज था।
एक क्षण रुककर बोला-
"सिफलिस.. एड्स और न जाने क्या क्या!! यह तो होना ही था।"---कहकर विषय ऐसे बदला जैसे मुँह कसैला हो गया हो।
सच है...कुकर्मों और बद्दुआ की यही 'परिणति' है।
---
प्रविष्टि क्रमांक - 342
दो भूत
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
"उन्हें कब बुला लें?"
भाई से जबाव न पाकर सवालिया निगाहें दूसरी ओर मोड़ दी थी उसने। प्रश्न बेटे राजू की शादी से सम्बंधित था।
घर में पड़ोसियों और रिश्तेदारों की भीड़ थी। सभी भाई-बहिन सुदूर शहरों से अभी-अभी पहुँचे थे।
गमगीन माहौल था। माँ का पार्थिव-शरीर आँगन में रखा था।
नाम को चरितार्थ करता हुआ दुर्जन अनपढ़ ही रहा। अन्य भाई-बहिन पढ़-लिखकर अच्छी पोस्ट पा गये थे।
कुंठा ने महत्वाकांक्षा को और सुदृढ़ कर दिया था। माँ-बाप उसकी हीनता देख अन्य बच्चों के पास भी कम ही रहते थे।
अत्येष्टि-क्रिया पूरी हुई, परिवारी लोगों के अलावा सभी चले गये।
रात्रि का तृतीय-प्रहर...
छोटी-सी कोठरी...
माँ-बाप का आश्रय-स्थल....
उसमें हल्की रोशनी इधर-उधर घूम रही थी।
भाई-बहिनों में फुसफुसाहट शुरू हुई...
"कौन हो सकता है! माँ की आत्मा? ...."
रोशनी बुझ गई, सब सो गये।
कोठरी में माँ की आत्मा नहीं, गहने ढूँढते हुए दो भूत थे।
एक दुर्जन और दूसरी उसकी पत्नी।
---
प्रविष्टि क्रमांक - 343
काला चेहरा
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
दीनानाथ अपने छोटे पुत्र प्रकाश से बोले-
"बेटा अपने बड़े भाई-बहिनों की तरह तुम भी पढ़ाई में मन लगाया करो।"
कुन्ठा-ग्रसित प्रकाश सुनकर चला गया।
दीनानाथ और बड़े भाई ठाकुर श्यामसिंह तीन पीढ़ियों पूर्व एक ही जमींदारी खानदान से अलग हुए थे। दोनों परिवारों की मान्यताओं में काफी भिन्नता आ चुकी थी। एक ने उसी रुआब को बरकरार रखा था जबकि दूसरे ने बदकिस्मती से पिटते हुए सामयिक लचीला रवैया अपना लिया था।
मास्टर दीनानाथ क्षेत्र के सबसे अधिक शिक्षित और ख्याति प्राप्त व्यक्ति थे। उनके दो पुत्र डाक्टर और प्रोफेसर बन चुके थे। किंतु छोटा बेटा श्यामसिंह के बहकावे में आ गया था। वह ताश खेलने और आवारागर्दी करने में मस्त रहता।
श्यामसिंह ने जमींदारी-रुआब में रह अपने बच्चों को पढ़ने नहीं दिया था। जब तक पढ़ाई की महत्ता पता लगी देर हो चुकी थी। परिणामतः दीनानाथ से ईर्ष्या कर बैठा और उनके बच्चों को गलत आदतों की ओर प्रेरित करने लगा। अन्य बच्चे तो नहीं फँसे पर प्रकाश पर उसका दाँव चल गया।
श्यामसिंह ने प्रकाश को यों जाते देखा तो हँसकर दीनानाथ पर कटाक्ष किया-
" दीना, प्रकाश को तो मैंने कलक्टर बना दिया।"
न जाने कहाँ से आकर प्रकाश ने यह सुन लिया।
दीनानाथ के पैर पकड़कर फूटकर रो पड़ा-
" बापू माफ करो। अब मैं कलक्टर बनकर ही दिखाऊँगा।"
उसने आग उगलती आँखों से श्यामसिंह को देखा।
उसका सर सहलाते हुए दीनानाथ के हाथ ऊपर की ओर उठ गए।
श्यामसिंह का चेहरा काला हो गया था।
--
ऋतुदेव सिंह 'ऋतुराज'
गाजियाबाद
COMMENTS