सम्पादकीय विज्ञान कथाओं पर केन्द्रित हिन्दी की एक मात्र एवं प्रथम त्रैमासिक पत्रिका ‘‘विज्ञान कथा’’ का अवदान* इ स पत्रिका की विकास यात्रा की...
सम्पादकीय
विज्ञान कथाओं पर केन्द्रित हिन्दी की एक मात्र एवं प्रथम त्रैमासिक पत्रिका
‘‘विज्ञान कथा’’ का अवदान*
इ स पत्रिका की विकास यात्रा की चर्चा के पूर्व मैं हिन्दी विज्ञान कथाओं के उद्भव और उसके आधुनिक काल तक आकर, विकसित स्वरूप ग्रहण करने तक के पक्ष पर संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहूँगा।
वैदिक वाङमय, रामायण, महाभारत और पुराणों में वर्णित, विभिन्न प्रकार के आख्यान, कथाएँ भारतीय जन जीवन के संकल्प और संवेगों के प्रमुख बिन्दु हैं। वह आख्यान एवं रोचक विवरण भारतीय शाश्वत संस्कृति की सततता के ऊर्जा केन्द्र हैं। भारतीयता के प्रवाह को अक्षुण्ण रखने के कारक हैं। यह कथाएँ भारतीय मनीषा की उर्वर, सृजनात्मक मेधा के जीवन्त प्रतीक हैं, कथ्यों एवं तथ्यों का रोचक रूप में मानवीकरण, जिसके फलस्वरूप अतीत की स्मृतियाँ आज इस 21वीं शती में भी, जनमानस में रची बसी हैं।
इन पुराकथाओं में निहित चेतनामूलक इतिहास का अशं अलंकारिक होकर, जनमानस में प्रविष्ट होकर एक ओर दुरूह परिस्थितियों में व्यक्ति को, जीवन सम्बल प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर कुशलता से उनका मनोरंजन भी करता है।
इस प्रकार की प्रत्येक कथा की नाभि में मधुयुक्त विज्ञानतथ्य विद्यमान रहता है, जो सूक्ष्म होते हुए भी अपना आभास देता है। जिन कथाओं में यह सूक्ष्म तथ्य विज्ञान सम्मत होता है, उस युग के विज्ञान का आभास देता है, भविष्य दर्शन के बिम्ब प्रस्तुत करता है, जिसके फलस्वरूप कथा विशेष सामान्य कथा से भिन्न दिखती है, उसे विज्ञान कथा कहा जा सकता है। इस प्रकार की कथाओं में भविष्य के बिम्ब दर्शन उन्हें विशिष्टता प्रदान करते हैं, साथ ही साथ कथा की सृजनात्मकता और चिन्तन परकता को दर्शाता भी है।
इस प्रकार की वेदों और पुराणों में बिखरी हुई कथाओं की नाभि में निहित विज्ञानमय तथ्यों की खोज चिन्तनपरक कार्य हैं। पुनः हमारा समस्त प्राचीन वाङमय संस्कृत में होने के कारण यह अधिकांशतः विज्ञान कथा लेखकों के लिए दुरूह है, इसी कारण अधिकांश लेखकों की दृष्टि इस प्रकार की कथाओं पर नहीं पड़ी, और यह कथाएँ चर्चा की प्रतीक्षा में रही हैं।
मेरा इस दिशा में एक विनम्र प्रयास ‘‘वैज्ञानिक पुराकथाएँ’’ के रूप में में विद्यमान है, जिसमें भारतीय वाङमय की अनेक कथाएँ संग्रहित हैं। इसके दो संस्करण निकल चुके हैं तथा डॉ. रवीन्द्र अन्धारिया द्वारा अनुदित, इन विज्ञान कथाओं का ‘‘वैज्ञानिक पुराकथाएँ’’ नामक गुजराती संस्करण भी शीघ्र प्रकाश्य है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रथम है, इसी तथ्य का उद्घोष यजुर्वेद के इस मंत्र ‘‘स प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’’ [यजुर्वेद 7/14] में होता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि विश्व की प्राचीनतम कृति ऋग्वेद है। इसकी अनेक कथाओं में विज्ञान के ज्ञान की झलक मिलती है। उस युग के ऋषियों ने भूगर्भीय परिवर्तन देखे थे। वे इस परिवर्तन के प्रभाव से परिचित थे। उन्होंने धरा उभरते और लोप होते पर्वतों को देखा था जिसको ऋग्वेद के निम्न मंत्र में इस प्रकार वर्णित किया गया है-
यः पृथ्वीं व्यथमानाभ दृहं पर्वतान्प्रकुपितां अरम्णात।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तम्नात्स जनास इन्द्रः।। [ऋ.2, 12, 2]
‘‘जिन्होंने आदि काल में हिलती पृथ्वी को दृढ़ किया अस्थिर और कम्पनशील पर्वतों को शान्त किया, जिसने विस्तीर्ण अंतरिक्ष को बनाया, द्युलोक को स्तब्ध किया-वह इन्द्र है।
पृथ्वी पर लघु हिमयुग अनुमानतः 11000 से लेकर 12000 वर्ष पूर्व व्याप्त था। परन्तु तापक्रम की वृद्धि के परिणाम स्वरूप जल हिम से मुक्त होकर धरा पर प्रवाहित होना प्रारम्भ हुआ होगा। आज हम जिस वृत्तासुर के इन्द्र द्वारा वध किए जाने की अलंकारिक कथा से परिचित हैं, वह इसी जल के अवरुद्ध किए हुए हिम को तोड़ने और जल की प्रवाहमान बनाने की कथा है।
पुराकाल में मानव ने नदी के जल के अतिरिक्त पृथ्वी के गर्भ में निहित जल की खोज धरा को खोदने के उपरान्त की होगी। इस प्रक्रिया ने कूप निर्माण विधि को जन्म दिया होगा। इस कूप को दीर्घकालिक बनाने के लिए, इष्टि निर्माण का आविष्कार करने की आवश्यकता ने, यज्ञ-वेदिका निर्माण के साथ-साथ कूप रचना में उसे पारंगत किया होगा। यह कार्य प्रारम्भ में कठिन रहा होगा इसी कारण दीवर कूप में गिर गयी होगी। इसी तथ्य को ऋग्वेद का निम्न मंत्र स्पष्ट करता है-
त्रितः कूपऽवहितो देवोन्हवत ऊतये।
तच्छुश्राव वृहस्पतिः कृण्वत्रं हूरणा दुरुं-वित्तं में अस्य रोदसी।। [ऋ. 1, 105, 17]
इस मंत्र में लम्बवत दीवार का निर्माण न हो सकने के कारण वह त्रितः रूपी असुर बनकर गिर गयी जिसे देवगुरु बृहस्पति ने शुद्ध कर पुर्न निर्मित किया।
संस्कृत भाषा-भारोपीय परिवार की भाषाओं की आदि जननी है, अतः इस प्रकार की ‘‘प्रच्छन्न- विज्ञान कथाओं’’ की जन्मभूमि भारत है, न कि कोई अन्य देश। यहीं से काल प्रवाह के साथ इस प्रकार की कथाएँ [मेसोपोटामिया बैबीलोन] ग्रीस, तुर्की, मिò और यूरोप तक फैलीं। इस संदर्भ में मैं, ऋग्वेद वर्णित [ऋ. 10, 108] देव शुनी सरमा और पणियों से वार्तालाप-सरमा-पणि आख्यान की चर्चा संक्षेप में करना चाहूँगा। इन्द्र की दूती उनकी सरमा नामक [शुनि] कुतिया पणियों के पास जाकर, उनके द्वारा गुफा में छिपायी गयी गायों को मुक्त करने के लिए अनुरोध करती है। यह पणि जन सुदूर की सरिता ‘‘रसा’’ के तट पर वास करते थे।
इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः।
अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसया अतंर पयांसि।। [ऋ. 10ः108, 2]
इस कथा ने समय के प्रवाह के साथ ग्रीस [यूनान] पहुँचने के उपरान्त अपना कलेवर बदल दिया। सरमा का विशेषण है-सरमेय और यह शब्द ग्रीक में हरमेस बन गया और पणिजन अपने परिवर्तित नाम द्वारा ‘‘पान’’ बन गए। यह पान हरमेस का पुत्र बन गया। यह भी गायों को गुफा में बन्द करता है। यही शब्द अंग्रेजी भाषा में Pawn बन गया जिसका अर्थ उधार लेना है। इसी प्रकार का व्यापार निपुण ऋग्वैदिक पणियों से वणिक, वाणिज्य आदि शब्द उद्भूत हुए हैं। अब इस पक्ष के विवरणों को विराम देकर आधुनिक विज्ञान कथाओं की ओर आप का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करूँगा।
यह तथ्य है, कि आधुनिक विज्ञान का जन्म यूरोप में हुआ अतः इस विज्ञान कथा के जन्म के उषा काल में, वहाँ पर विज्ञान दृष्टियुक्त कथाओं का प्रणयन डैनियल डीफो की फन्तासी ‘‘द कंसालिडेटर’’ जो 1705 ई. में सृजित की गई थी, में देखा जा सकता है। इसके उपरान्त 1818 ई. में यूरोप के प्रसिद्ध रोमान्टिक कवि पी.बी. शैली की पत्नी मेरी रोली की लेखनी से प्रसिद्ध विज्ञान कथा ‘‘फ्रैंकेस्टाइन’’ सृजित हुई।
अमेरिका में वास्तविक विज्ञान कथा लेखन का शंखनाद प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक, कवि एडगर एलनपो द्वारा रचित ‘‘बैलून होक्स’’ [1844] के द्वारा हुआ। इस कथा के कारण प्रख्यात विज्ञान कथा लेखक एवं अमेरिका की प्रसिद्ध विज्ञान कथा पत्रिका ‘‘अमेजिंग स्टोरीज’’ के संपादक ह्यूगो गर्न्सबैक ने उन्हें ‘‘फादर ऑफ साइंटिफिक्शन’’ माना। कालान्तर में यह शब्द ‘‘साईंस फिक्शन’’ में परिवर्तित हो गया।
इस कथा के लगभग 40 वर्ष बाद, प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु द्वारा उनकी मातृ भाषा बंगला में लिखित बंगला भाषा की प्रथम विज्ञान कथा ‘‘पालातक-तूफान’’ 1897 ई. में प्रकाशित हुई इस कथा का अनुवाद ‘‘विज्ञान कथा’’ त्रैमासिक के अंक 4, पृष्ठ 2-3, पर इसी नाम से हुआ था।
पश्चिमी गोलार्ध में सृजित हो रही विज्ञान कथाओं की चर्चा ‘‘विज्ञान कथा’’ के अंक 49, वर्ष 15, जनवरी-मार्च 2016 के पृष्ठों पर की गयी है। इन कथाओं का प्रभाव बंगला, मराठी, गुजराती तथा हिन्दी में सृजित हो रही कथाओं पर पड़ा।
हिन्दी के स्वनामधन्य कवि, लेखक पं. अम्बिका दत्त व्यास, जिन्हें हिन्दी के उन्नायक भारतेन्दु जी ने ‘‘साहित्याचार्य’’ की उपाधि से विभूषित किया था, की लेखनी से हिन्दी की प्रथम दीर्घ कलेवर की विज्ञान कथा ‘‘आश्चर्य वृत्तान्त’’ का प्रकाशन उन्हीं के समाचार-पत्र ‘‘पीयूष-प्रवाह’’ में 1884 से 1888 तक के अंकों में हुआ था। भारतीय परिवेश में होते हुए भी यह कथा प्रसिद्ध फ्रेंच विज्ञान कथा लेखक जूल्सन्वर्न के उपन्यास ‘‘जर्नी टू द सेन्टर ऑफ अर्थ’’ पर आधारित थी।
इसी प्रकार बाबू केशव प्रसाद सिंह द्वारा हिन्दी में विरचित ‘‘चन्द्रलोक की यात्रा’’ जो उस युग की प्रसिद्ध पत्रिका ‘‘सरस्वती’’ के भाग 2 संख्या 6, 1900 ई. के अंक में प्रकाशित हुई थी, भी जूल्सवर्न के उपन्यास ‘‘फाइव वीक्स इन ए बैलून’’ के प्रभाव से मुक्त नहीं थी। इस कथा के लेखक ने इसे भारतीय परिवेश में प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास किया था।
इस प्रकार हिन्दी में विज्ञान कथाओं का सृजन चलता रहा औरर समय-समय पर साहित्यकारों ने इस विधा पर लेखनी चलाई। महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन का बहुचर्चित उपन्यास ‘‘बाइसवीं सदी’’ [1921], ज्योतिष की गणनाओं पर आधारित डॉ. सम्पूर्णानन्द का ‘‘पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल’’ [1953] तथा आचार्य चतुप्सेन का चर्चित उपन्यास ‘‘खग्रास’’ [1960] इस विज्ञान कथा लेखन विधा के ज्योति स्तम्भ हैं। इसी प्रकार डॉ. नवल बिहारी मिश्र का विज्ञान कथा की वल्लरी को लेखनी द्वारा सिंचित करने अवदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
विज्ञान कथा की लोकप्रियता समाज में वैज्ञानिक सोच के अनुपात पर निर्भर करता हैं यह योरोपीय विज्ञान कथाकारों और अमेरिकी विज्ञान कथाकारों की विज्ञान कथाओं की लोकप्रियता से समझा जा सकता है। हिन्दी में विज्ञान कथा का विकास 1980 के दशक के उपरान्त अवरुद्ध सा हो गया। इस अवरूद्ध हुई विज्ञान कथा को गति देने, पुर्नप्रतिष्ठित करने, पुर्नजीर्वित करने हेतु मेरे नगर फैजाबाद में सन् 1995 में, भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति की स्थापना की गयी। इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य था- विज्ञान कथाओं के सृजन और उन्हें लोकप्रिय बनाने का प्रयास। इस विज्ञान कथा संवर्धन रूपी ज्ञान यज्ञ में-डॉ. अरविन्द मिश्र, श्री हरीश गोयल, श्री अमित कुमार, श्री मनीष गोरे, डॉ. जाकिर अली रजनीश, डॉ. जीशॉन हैदर जैदी, डॉ. मीनू पुरी, श्रीमती कल्पना कुलश्रेष्ठ, श्री विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी, श्री कमलेश श्रीवास्तव, डॉ. सुबोध महन्ती, डॉ. मेघना शर्मा, श्री विजय चितौरी आदि का अप्रियतम योगदान था। इन पंक्तियों के लेखक पर इस समिति की अध्यक्षता तथा ‘‘विज्ञान कथा’’ त्रैमासिक प्रकाशित करने सम्पादित करने गुरुतर दायित्व था।
‘‘विज्ञान कथा’’ त्रैमासिक का प्रथम अंक सितम्बर-नवम्बर 2002 में प्रकाशित हुआ। इस पत्रिका के सदस्यों के शुल्क से प्रकाशित होने के कारण प्रारम्भ में इसकी सौ प्रतियाँ मुद्रित होती थीं, जो डाक द्वारा सदस्यों को भेजी जाती थीं। अनेक प्रयासों बाद इस पत्रिका में कुछ विज्ञापन तो मिले परन्तु वह संसाधन की दृष्टि से पर्याप्त न थे। चाहते हुए भी पत्रिका की मुद्रित संख्या बढ़ाई नहीं जा सकती थी। इस समस्या से मुक्ति सन् 2007 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग संचार परिषद, नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग संचार परिषद, नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग प्राप्त होने पर समाप्त हुई।
प्रारम्भ में पत्रिका श्वेत श्याम रंग की थी, जिसके मुखपृष्ठ पर भारतीय विज्ञान कथा लेखकों-यथा स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, पं. अम्बिका दत्त व्यास, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, दुर्गा प्रसाद खत्री, डॉ. सम्पूर्णानन्द, आचार्य चतुरसेन आदि के चित्र प्रकाशित होते थे तथा उनकी और अन्य लेखकों की विज्ञान कथाएँ भी।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद-नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहयोग के कारण पत्रिका का मुख पृष्ठ चार रंगों में हो गया और सन् 2007 में पत्रिका का वर्ष 6, अंक 21, सितम्बर-अक्टूबर का अंक प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार जार्ज ओरबेल के मुखपृष्ठ पर चित्र के साथ प्रकाश में आया।
अब पत्रिका के ग्राहकों की संख्या में वृद्ध ही नहीं हुई वरन् नवीन लेखक भी इस पत्रिका से जुड़ गए। इनमें प्रमुखतः डॉ. रमेश सोमवंशी, डॉ. अरविन्द दुबे, डॉ. रचना भारतीय, स्वप्निल भारतीय, बुशरा अलबेरा, शैलेष वाणी, अभिषेक मिश्र, प्रज्ञा गौतम तथा डॉ. किसलय पंचोली आदि हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद का आर्थिक सहयोग मात्र 5 वर्षों के लिए था और वह 2012 में समाप्त हो गया। इसके उपरान्त पत्रिका सीमित संसाधनों तथा निज आर्थिक सहयोग से इन्टरनेट संस्करण वर्ष 13, अंक 43, जुलाई-सितम्बर 2014 के रूप में आया। फलस्वरूप पत्रिका भारत, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन आदि देशों में जाने लगी।
यहाँ यह इंगित करना रोचक होगा कि यह पत्रिका ई-मेल देने वाली प्रथम पत्रिका थी, जिसका अनुसरण विज्ञान लेखन से जुड़ी अन्य पत्रिकाओं ने किया।
इस पत्रिका से गुजराती भाषा के विज्ञान लेखक डॉ. रवीन्द्र अंधरिया और अन्य कथाकार तो जुड़े ही, इन्हीं के साथ अमेरिकी विज्ञान कथा लेखिका पामेला सारजेन्ट, डॉ. वन्दना सिंह, फ्रैंक राजर्स, एलेक्जेन्डर लिलियाक आदि की कथाएँ इस पत्रिका में प्रकाशित हुईं।
गुजराती विज्ञान कथाओं पर केन्द्रित विज्ञान कथा का अंक 45 जनवरी-मार्च 2014 चर्चित रहा है।
इस पत्रिका में विज्ञान कथा संबंधित शोध पत्रों चाहे वे हिन्दी अथवा अंग्रेजी में रहे हों, को प्रकाशित किया गया है। इनमें से प्रमुख शोध पत्र डॉ. मनीष मोहनगोरे तथा डॉ. अन्वेषा माइती के रहे हैं। पत्रिका सहर्ष शोध पत्रों को अंग्रेजी एवं हिन्दी में प्रकाशित करती है।
इस पत्रिका में अनेक विश्व विख्यात कथाकारों का मुखपृष्ठ पर उनका चित्र प्रकाशित करने के साथ-साथ उनकी मूल रचनाओं का हिन्दी अनुवाद, पाठकों के मनोरंजन हेतु देने का प्रयास रहा है। अधिकांशतः अनुवाद मुझे ही करने पड़े। परिणामस्वरूप मेरी वोल्सटोन क्राफ्ट शेली की फ्रेंन्केस्टाइन, रूसी विज्ञान कथाकार अलेक्जेन्डर रोमानोनिच वेलीईव, जार्ज ऑरवेल, आर्थर क्लार्क, आइजक आसीमोव, रार्बट हाइन लाइन, जुरासिक पार्क के कथाकार माईकेल क्रिकटेन, कैरोल चेपक, जापानी विज्ञान कथाओं के जनक यूनो-जुजा, प्रसिद्ध फ्रेंच साहित्यकार फ्रैक्वा मेरी आरुएट वाल्तेर की विज्ञान कथाएँ ‘‘प्लेटो का स्वप्न’’ एवं ‘‘माइक्रोमेगस’’ प्रथम बार हिन्दी में अनुवादित होकर पाठकों के सम्मुख आयीं। विज्ञान कथा के अंकों में साइबर पंक के पुरोधा विलियम गिब्संन आदि की विज्ञान कथाएँ प्रकाशित की जा चुकी हैं। विज्ञान कथा पत्रिका में श्री हरीश गोयल, इन पंक्तियों के लेखक, श्रीमती कल्पना कुलश्रेष्ठ तथा स्वर्गीय विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर केन्द्रित अंक प्रकाशित हुए हैं। यह क्रम भविष्य में सतत् रहेगा।
यदि भारतीय भाषाओं - मराठी, कन्नड़, तेलगू, तमिल और मलयालम् में प्रकाशित कथाओं के हिन्दी अनुवाद प्राप्त हो सकें, तो उन्हें विज्ञान कथा में प्रकाशित करने में मुझे हर्ष होगा।
विज्ञान लेखन की तुलना में विज्ञान कथा लेखन चिन्तनपरक कार्य है। इसमें लेखक को कथा शिल्प, उसने निहित आगत के बिम्बों, के साथ पात्रों की विशेषता के अनुरूप उनकी भाषा शैली, आदि सभी पक्षों पर ध्यान देना होता है-इस कारण विज्ञान कथा लेखन एक गम्भीर शोधपरक कार्य है। इसी कारण से विज्ञान कथा लेखकों की तुलना में विज्ञान लेखक अधिक हैं।
अन्त में मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि हिन्दी की विज्ञान कथा विधा जो मुरझा गयी थी, ऊर्जावान हिन्दी विज्ञान कथाकारों के अवदान के परिणामस्वरूप प्रतिष्ठित हो गयी है। इसका श्रेय त्रैमासिक ‘‘विज्ञान कथा’’ के लेखकों को जाता है। मेरी कामना है कि आगामी वर्षों में विज्ञान कथा की ध्वजवाहक, इस पत्रिका का सम्पादन मैं अपनी पूर्ण क्षमता के साथ करता रहूँ।
(डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय)
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