जैसे आपके सामने यह प्रश्न है ठीक वैसे ही मेरे सामने भी है। एक समय था जब सोचता था न ही दूं तो भी क्या फरक पड़ता है ? पर अब वह धारणा बदल गई ह...
जैसे आपके सामने यह प्रश्न है ठीक वैसे ही मेरे सामने भी है। एक समय था जब सोचता था न ही दूं तो भी क्या फरक पड़ता है ? पर अब वह धारणा बदल गई है। इसलिये नहीं कि मेरे एक वोट से किसी की जीत हार का क्या निर्णय हो सकता है, अपितु इसलिये कि यदि मेरी ही तरह अनेकों व्यक्ति सोच कर वोट नहीं देंगे तो बिना सोचे समझे वोट देने वालों के कारण अवांछित तत्त्व जीतते ही चले जायेंगे। जो लोग अपनी योग्यता पर नहीं भीड को लुभाने की कुशलता के बूते पर जीत रहे हैं उन्हें मनमानी करते रहने से रोक पाना असंभव हो जायेगा। इसी कारण आज सचमुच गंभीरता से सोच रहा हूं कि वोट किसे दूं ? आप भी अगर अभी तक नहीं सोचते तो सोचना आरम्भ कर दीजिए।
मेरे मुहल्ले, मेरे शहर, मेरे प्रान्त और मेरे देश की हालत यदि किसी भी क्षेत्र में खराब होती है, तो उसमें मेरा भी बहुत बड़ा हाथ है; इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। मैं यदि योग्य और उपयुक्त व्यक्ति को नहीं चुन सकता तो भाग्य और परिस्थिति को दोष देकर अपनी समस्याओं के उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता। क्योंकि अन्ततः देश में जो कुछ भी होता है अथवा होगा उसका मेरे जीवन पर भी तो असर पडेगा। मुझे देखना है कि ऐसी कौन-सी बातें हैं जो मेरे तथा मेरे जैसे असंख्य सामान्य व्यक्तियों के जीवन में बाधा बन जाती हैं। और तब मुझे चुनना है ऐसे व्यक्ति को जो मेरे और आपके साथ कदम मिलाकर उन बाधाओं से जूझ सके।
थोडे समय की सुविधाओं से समझौता कर यदि ऐसे व्यक्ति को चुन लिया जो मेरे आपके लिये संघर्ष के नाम पर अपनी जमात के लाभ के लिये ही दुरभिसन्धियां करता रहे तो हम कभी अपने सपनों को साकार नहीं कर सकेंगे। विघटनकारी तत्त्वों के हाथों खेल कर हम आने वाली पीढियों की राह में कांटे बिछाते ही रहेंगे। मात्र आश्वासनों के बल पर कब तक जीते रहेंगे हम। हमें तो चाहिये ठोस काम करने वाले हाथ और हमारे साथ चलने वाले कदम। हमें चाहिये अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक और ईमानदार प्रतिनिधि।
मैं सोचता हूँ तो पाता हूं कि हमने जो सबसे बडी भूल की वह यह थी कि हमने व्यक्ति को नहीं टटोला। हमने केवल सुनीं पार्टियों की घोषणायें। हम बह गये उन घोषणाओं की चमकदार भूलभुलैया में। आश्वासनों की मृगतृष्ण में इतने अधिक खोये रहे कि हर बार ठोस जमीन पर कदम रखने की जगह सूने आसमान की ओर चलते रहे। गिरते रहे यथार्थ की ठोस जमीन पर लेकिन उठकर फिर दौड़ पडे आसमान की ओर।
हमारी इसी प्रवृत्ति का फल भुगत रहा है हमारा समाज, हमारा देश। पार्टियों ने जब देखा कि हम वोट उनके नाम और घोषणापत्र को देते हैं, उनके कार्यकर्ताओं की योग्यता ईमानदारी और कर्मठता को नहीं, तो धीरे-धीरे उनकी ईमानदारी और कर्मठता भी मिटती चली गई। पार्टियों में ईमानदार एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं के स्थान पर आने लगे बेईमान मदारी। हम तमाशबीनों की तरह उनकी चटपटी बातों से कुछ देर प्रसन्न हो खाली जेब और भूखा पेट लिये घर लौटने लगे। तमाशे का चस्का सा लग गया और मदारियों की बन आई। ईमानदार और योग्य व्यक्ति राजनीति की मूल धारा से कट गए। हम भूलने लगे उनको और वे भूलने लगे हमको। यह किसी पार्टी विशेष की बात नहीं इसमें तो प्रत्येक स्तर के सभी नेता शामिल हैं।
अपनी मनमानी करने में वे बहुत साहसी और उद्दण्ड हो गए। भ्रष्टाचार को अपना अधिकार समझ बैठे। और आलोचना करने पर यह उत्तर देने के आदी हो गए कि जनता ने चुना है, आपका बस चले तो चुनाव में हरा दीजिए। इसका सीधा अर्थ यह है कि वे चुनावी हथकंडों के बल पर जीतते हैं जनता की सेवा के बूते पर नहीं।
नतीजा सामने है। किसी भी दिन का समाचारपत्र पढ़ लीजिए एक ही चित्र सामने आता है। आज धन-जीवन की सुरक्षा नहीं, आजीविका के साधन चंद हाथों में सिमटते चले जा रहे हैं, भ्रष्टाचार सर्वव्याप्त हो गया है, नारी की इज्जत सुरक्षित नहीं है, महंगाई चरम पर है और यह सूची दिन प्रति दिन लम्बी होती चली जा रही है।
पार्टी से जुड़ना कोई बुरी बात नहीं है। पर पार्टी से जुड़ने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि अपने सोचने समझने और निर्णय लेने की स्वतन्त्रता ही त्याग दें। यदि कोई ऐसा करता है तो वह अपने आपको गिराता है और अन्ततः पार्टी को भी। यदि किसी भूल भ्रान्ति के कारण पार्टी ने अयोग्य व्यक्ति का चयन किया है तो उसे हारना ही चाहिये। यदि उसको हम मात्र इस कारण जिताते हैं कि संसद में अपनी पार्टी की गिनती बढाने के काम आयेगा तो हम मात्र अवश्यम्भावी को टाल रहे हैं और अपने तथा देश के भविष्य को दाव पर लगा रहे हैं।
उससे अच्छा तो यह होगा कि पार्टी से इतर कोई योग्य व्यक्ति चुना जाय। इसी में देश का भला है और अंततः पार्टी का भी क्योंकि इस सबक के बाद वह योग्य व्यक्ति को ही टिकिट देने लगेगी। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अकेला चना भाड़ फोड़ सके या नहीं, अकेली मछली तालाब को गंदा अवश्य कर देती है। अभी तो हालात ये हैं कि तालाब में गंदी मछलियों की ही बहुतायत है। क्यों न इस सियासत के तालाब में अच्छी मछलियां डालने की ओर थोडा ध्यान दें।
आइये जरा सोचें कि ये जो चंद व्यक्ति हमारा वोट मांग रहे हैं उनमें कौन-सा ऐसा है जो यह कहता है कि स्वयं उसने हमारे लिये कुछ प्रयास किए हैं और करेगा। ऐसे व्यक्तियों को हमें भूल जाना होगा जो मात्र यह कहते हैं कि उनकी पार्टी ने यह किया है और यह करेगी। काम न होने पर ऐसे लोग निरंतर यह बहाना दोहराते आए हैं कि ’मैंने तो बहुत कोशिश की पर पार्टी नहीं मानी।‘
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह दुहाई देंगे कि उनके चाचा या मामा ने जनता के लिये क्या-क्या किया। थोथी लगती हैं ये दुहाइयां, पर फिर भी हम उनसे बडे प्रभावित होते रहे हैं। अन्यथा क्या यह कभी हो सकता था कि जो व्यक्ति पिछले अनेक वर्षों से हमारे क्षेत्र के पड़ोस में भी नहीं फटका वही हमसे वोट मांगने का दुस्साहस करे। हम योग्यता को चुनने के आदी होते तो ऐसे व्यक्ति हमसे दूर ही रहते।
एक ओर अजीब सा नारा है जो हर चुनाव में सुनाई पड़ता है। अमुक व्यक्ति ने या पार्टी ने आपका नुकसान किया है इसलिये आप उसे नहीं हमें वोट दीजिए। जरा शांत होकर सोचें तो लगेगा कि ऐसे लोग हमें मूर्ख की संज्ञा दे रहे हैं। वे किसी दूसरे ने क्या नहीं किया इसकी आड़ में स्वयं उन्होंने क्या नहीं किया यह बात छुपा रहे हैं। पर हम हैं कि उनकी लच्छेदार बातों के बहकावे में आ जाते हैं और फिर वही भेड़िया धसान आरंभ हो जाती है।
यदि आपने सचमुच गंभीरता से इस प्रश्न पर सोचना आरम्भ कर दिया है तो आइये इन घोषणाओं की गहराई में उतरें। आरोपों प्रत्यारोपों के पीछे जा उनका सच्चा मुखौटा देखने का प्रयत्न करें। और तब निर्णय करें कि वोट किसे दें। यदि हम योग्य, ईमानदार और कर्मठ प्रतिनिधि चुनेंगे तो हमारा और देश का भला होगा अन्यथा वही ढाक के तीन पात।
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सुरेन्द्र बोथरा, 3968, रास्ता मोती सिंह भोमियान, जयपुर- 302003
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Surendra Bothra
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