शरीफो, तुम प्रेम कर लो क्यूँ मर नहीं जातीं क्यूँ खप नहीं जातीं क्यूँ जिन्दा हो शरीफो कि ना लड़ती हो...ना झुकती हो... बस..,समय से तक़रार करती ह...
शरीफो, तुम प्रेम कर लो
क्यूँ मर नहीं जातीं
क्यूँ खप नहीं जातीं
क्यूँ जिन्दा हो शरीफो
कि ना लड़ती हो...ना झुकती हो...
बस..,समय से तक़रार करती हो
भाग्य को फटकारती हो
और
छुप-छुप के रोती हो...
सीती हो बे-पर के मंसूबे
बांधती रहती हो,
बिस्मिल डोंगियॉ
कि किस पार जाओगी शरीफो
जो डोंगी डाल दी है बीच धारा
में,
बनिस्बत इसके
खंजर उठाओ शरीफो
मोह का खंजर
दुनिया को एक-मेक कर दो
शरीफो,
तुम प्रेम कर लो
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जब ‘पिता‘ नहीं थे मेरे पिता
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
जब ‘पिता‘ नहीं थे मेरे पिता....
तो हुआ करते थे
चन्दन-वट
इन्द्रदेव...
भरा-पूरा फिरोजी आकाश
सजे रहते तब कमनीय प्रेयसियों से
अटे पड़े थे स्वप्निल-कामनाओं से
दुनिया
नहीं लगती थी गोल
वंशी की धुन पे नचाते थे
तितलियों को
झूमता था सारा जंगल
अभावों, विरक्तियों से करते थे दो-दो
हाथ।
ललकार सकते थे भाग्य को
भाग्य-विधता को
सुना देते थे जली कटी सृस्टा को
धीमे से मुस्काता सृस्टा
झिटक देता था गर्दन
धत्
‘‘मेरी नैसर्गिक अनुकृति
तू भी ना‘‘
अब पिता हो गए हैं,सूनी अटारी
नून-तेल का हिसाब रखने वाला खूसठ
बनिया
बेटियों के लिए जोड़ते पाई-पाई
मॉ की साड़ियों के रंगों के साथ
उड़ गया है पिता के चेहरे का रंग
बेटों की बेकारी और
खाली कनस्तर के बीच निरन्तर
पिस रहे पिता होते जा रहे हैं
सूक्ष्म से सूक्ष्म
रेशों जैसे
मटमैलै कपड़ों में दीन-हीन
पिता को देख
स्मरण हो आते हैं वो
लकदक परिधानों में किरचियों के प्रति
नितांत सावधान पिता
अब कितने असावधान हो चुके अपने
प्रति
वर्ना...
कैसे आह्लाद और जिजीविसा से
भरे रहते थे पिता
तब,
जब‘‘पिता‘‘ नहीं थे,मेरे पिता
--
इन्सान बनने की कोशिश में ईश्वर
इन्सान तो आध्यात्म जीने से रहा,
सृष्टि ने भी हाथ समेट लिए
जीवन तो वहाँ है जहाँ सौंदर्य है, संगीत है,
सर्वहारा है
गांव के खलिहान में बैठा है ईश्वर
खरही से पीठ सटाए
और झूम रहा है किसी ओर से आती हुई
वंशी की धुन पर
उठ कर जाता है, सरोवर में दो-चार डुबकी
लगाता है...छप...छप तैरता है
गांव की संझा-सभा में शामिल होता है
पथिक बनके, फिर श्रोता बनता है, फिर
चलता बनता है
निकल जाता है खेतों में,
हरी-भरी सुगंध से रमे खेतों में बैठाई जा
रही है धान की फसल, गाई जा रही हैं
रोपन-लहरियां
धीमे से मुस्काता है ईश्वर, चलता होता है
शहर की ओर
सांवली संझा ने शहर को लपेट रखा है
मुलायम मखमल में
जल्दी की हौपड़ में सड़कें भागी जा रही हैं
इधर-उधर
जगमगाने लगी हैं नन्हें बल्बों से घरौंदों सी दुकानें
एक पान की दुकान पे दो-चार लोग
मस्ती में सिगरेट फूंक रहे हैं
चमत्कृत ईश्वर ने खुद बनाई है सिगरेट
पीने की मुद्रा और हठात्
मुस्कुरा उठता है,
आगे बढ़ के नल के पानी को छू के देखा
.....वा‘ह...
अब पार्क भी तो देखने थे, देख के हतप्रभ
कसमें वादे खाते हुए कितने सारे जोडे़
आदम-हव्वा की अनुपम अनुकृतियां
..क...कमाल है
मैं कहाँ था...?
कैसी सुखद अनुभूतियाँ
कैसी नैसर्गिक भंगिमाएं
सच है सर्वोच्चता निहंग कर देती है हमें
क्यूं ना कुछ दिन के लिए, इन्सान बन के
देखा जाए......!!!
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होंठों के फूल
धानी होते जंगलों में
उतरती है सांझ दबे पांव जब-जब
डसके मौसमी गीत बहुत याद आते हैं
बेतरह और बेतरफ, बहुत
बेतरतीब हो के रह जाते हैं अंतस के
उजाले तब,
थोड़ी देर के लिए ठहर जाते हैं
सन्नाटे,
आँखों के सूने पन में झूम उठता है
गुलमोहर
जिसपे पंछी पांव रखते हैं
भर-नजाकत से
और मैं,
देर तक देखती रहती हूँ
अपने हिस्से में आती हुई
उसके हिस्से की गुलमोहरी धूप
और
नाजुक टहनियों से लिपटे हुए
हमारे नारंगी-नारंगी
होंठों के फूल।।
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जुबैदा का सपना
जुबैदा ने देखा था सपना कि
एक घर बनाएगी
नितांत अपनी सांसों और धड़कनों वाला
अंगने में रोपेगी गेंदा/गुलाब और एक
नीम का बिरूआ/जिसपे सावन के सावन
पड़ा करेगा झूला
बौर बरखा भर आँगन में झूम-झूम के भींगेगी
फिर रातों में नीम बुखार में तपक र
हौले-हौले बड़बड़ाएगी
या अल्लाह....या अल्लाह....ह
और सुबह चंगी होके तलेगी पकौड़े
फिर-फिर सावन मनाएगी
किंतु/ एक कव्वे ने सब कर दिया गुड़गोबर
ऐसा कड़कड़ाया कि सपनों की चिंदियाँ
उड़ गईं।
ये कैसा सावन था आखिर जिस पे
सरी दुनिया करती रही आपत्ति
चहे अम्मा थीं या पति।
जब भी सपनों की जमीन पर कुछ लिखा
किसी ना किसी के हाथों ने आगे
बढ़ के मिटा दिया
चाहे अम्मा हों या पति।
शादी की सलीब पे चढ़ाया अम्मा ने
चीत्कारों वाला घर मिला
यहाँ ना जुबैदा है ना जुबैदा की सांसों
धड़कनों वाला घर,
न नीम का बिरूआ/ना गेंदा ना गुलाब
और तो और सावन भी नहीं,
है तो बस किच-किच से भरी बदबूदार
बारिश भर।।
जमीन के रंग के लिबास में वह
वह चूल्हा सुलगाती
बच्चे को गोद में सुलाती
अल्लाह.....अल्ला....ह सो जा...
की मीठी लोरी सुनाती सोचती जाती है वह
इत्ते बदसूरत तो नहीं थे उसके सपने
तसव्वुर में गुहारते हैं अब्बा-
‘‘बिटिय!
सपने देखना कभी बंद मर करना
जिस दिन ख्वाब मर जाते हैं,
आदमी मर जाता है‘‘
वह पुनः ढूंढने लगती है
किसी सपने का सिरा खुद को
जीवित रखने के लिए
इस बार सपने में वह घोड़े के मुँह वाले
अपने पति को
दीवार में चुनवा रही है।।
उजाला
और मैं हो गई शर्म से
पानी पानी,
जब पिता तुल्य हाजी जी ने
टटोलीं मेरी पिंडलियाँ
और में सकपका कर जम्पर
बराबर करने लगी।
इत्तेफाकन या दुभाग्य
बिजली गुल
उन्हें बल मिला
गदेलियाँ टहलने लगीं जम्पर के
आर-पार
फिर थिरकने लगीं उंगलियाँ
तक-धिन....धिन....
मैं कसमसाती देह लिए
उठ भागना चाहती हूँ
कि जकड़ लेती हैं उनकी
बाँहें...
चीखना चाहती हूँ कि मुँह पे
थप्पड पड़ते है
तभी खड़ाक से खुलते हैं
किंवांड़,
सामने मोमबत्ती लिए
आ खड़ी हुई हैं अम्मा
हाजी जी उछल के गिरते हैं
सोफे पर...
और कुर्ता तहमद बराबर करते
हुए रखते हैं रद्द-
‘‘अच्छा हुआ खातून,
ले आईं उजाला
अंधेरे में बड़ी दमस हो रही थी।
बड़ी समझदार है आपकी
बिटिया,
खूब बतियाती है
खूब पढाना इसे...
अभी इसकी उम्र ही क्या है।।
नजूमी
नजूमी मेरी गदेली देखते हुए
मुस्काया
‘‘तुम्हारी और संयोगों की तो
दांत काटी रोटी है।
इत्तेफाकन
तुम पे फूटेगा
ठींकड़ा आपदाओं का
जब सियोगी शलवार /सूट
तो कतर डालोगी उंगलियाँ
सांतवें आसमान से जब उतरेगा सूर्य
इजहार-ए-मुहब्बत के लिए
तो काट डालोगी कलाई की बारीक नसें
बुनोगी जब नन्हों की टोपियाँ, मोजे
और दास्ताने
तो बुन डालोगी सपनों के नर्म, मुलायम
दुशाले....
तुम्हारी आँखों पे पटटी बांध के जब
घुमाया जाएगा सरे राह
तुम कसम खा खा के कुबूल करेगी
अपने अनकिए गुनाह
कुछ भी नहीं करोगी ठीक ठाक
तुम्हें तो जन्म लेते ही
कत्ल कर देना चाहिए था।।
---
मेरे महबूब मुझे खत लिक्खा कर
नहीं, नहीं, फोन नहीं,
एस ए एस नहीं
ई मेल भी नहीं
हो सके तो खत लिक्खा कर
मेरे महबूब मुझे खत लिक्खा कर
कोई सबूत भी तो हो तेरी
चाहत का/कोई सामां तो हो
रूह ए जां की राहत का
मुझे कासिद की बाट जोहना अभी
भाता है
मुझे ओदी प्रतीक्षाओं का संबल दे दे
कितना सुख है गुलाबी रूक्के पे
बिखरे हुए नगीनों का
जैसे आकाश में छुवा छू खेलते
तारे नीले
बुरा हो साईंस का कि नोच डाले
जज्बे सब
कहाँ कि चूम चूम सौ बार पढ़े जाते थे खत
कहाँ कि सातों पहर फोन घनघनाता है
जरा सी देर में उड़ जाते हैं भाप बनके
हर्फ/या फिर सस्ते लफ्जों में एस एम एस
फड़फ़ाता है।/बाकी, ई मेल तो कल्चर ही
बिगाड़ जाता है/दिल की दुनियांओं के गुलशन
उजाड़ जाता है/
अपनी बेशकीमती रातों से कुछ लम्हे चुन कर
अपने बोसे उतार कागज पे
प्रेम पत्र लिखते हुए बा‘ज अच्छे लगते हैं लोग
और मुझे भाता है मन ही मन मुस्काना उनका
इसलिए
ऊदे कागज पे तारों का हाल लिक्खा कर
चाँद ओ अब्रों की शरारतें सारी/रात के तीसरे
पहर का कमाल लिक्खा कर
ना....ना
फोन नहीं, एस एम एस नहीं
ई मेल भी नहीं
मेरे महबूब मुझे खत लिक्खा कर
---
हम प्यार में हैं
प्रायः समय नहीं होता साथ
उस एक समय में
जब तुम होते हो साथ
चॉद की हर तारीख से पहले
धूल जाता है आसमां
और फैल जाता है फिरोजी रंग
उकड़ू बैठ के सितारे
छेड़ देते हैं अन्त्याक्षरी
कि तभी मस्त छैला सा टहलता
हुआ चाँद दिखाई दे जाता है
बर्फ की सिगरेट फूंकता
और हमारे चेहरे पे फूंक देता है
ठण्ठे यख़ छल्ले
फिर हँसता है हँसता जाता है
उसे कैसे पता कि
हम प्यार में हैं...!
---
एक असमानी दोस्त के नाम...
तू जरूर कोई फरिश्ता है
जो भोर से पहले ही फैल ही फैल जाता है
खयालों के फलक़ पे............
तू जरूर कोई फरिश्ता ही होगा
जो मृत्यु को जीवन कर देता है छू कर..
तू जरूर होता होगा पिछले जनम में
मेरा सूर्य............
हो ना हो,तू जरूर नफ़ा है मेरी की गई
नेकियों का..
तू महक है मेरे खोए हुए मौसम की,
कि रफ्ता-रफ्ता उतरा है रग़ ए जां में,
तू जरूर कोई दुआ है छूटी हुई ...
जो अब हुई है बा-असर......
तू मेरा टूटा हुआ सपना हो शायद...
जो लांघ आया है समन्दर....
तू जरूर कोई फरिश्ता ही होगा कि बातें
करता है सब
आसमानी.............
और
लारा-लप्पा करता करा लाता है
मुझे
किसी और दुनिया की सैर।।।
---
उड़ानें
कभी कभी
स्थगित कर देनी पड़ती हैं
तमन्नाएं, ख्वाहिशात और
आकांक्षाएं....
हत्ता कि प्रेम भी
तब,
जब नियतियाँ करने लगती हैं
हमारे होने की तफतीश
और
निरस्त कर दी जाती हैं
हमारी अग्रिम उड़ानें
दिखता है तो बस्स
हमने देखा है दरीचों से
उगता हुआ पीला सूरज
देखते जाना है डूबना इसका
हौले हौले....
दिखता जाता है खुदा नभ से
झुक के सरोवर में पानी पीते
हुए....
दिखती जाती हैं सदियाँ रेल की
मानिंद सामने से गुजरती हुई....
चलते जाते हैं बंजारों के झुंड
गाते-गाते जीवन के गीत
दिखते जाते हैं परिंदे हवाओं से
एक मेक होते हुए...
बस,
दिखते जाते हैं सब
मौसम-वौसम, चाँद-वाँद
पर्वत-वर्वत, धूल-वूल
घाम-वाम
बस्स,
नहीं दिखते हैं तो बस्स...
प्रीत-व्रीत, मीत-वीत
सांझ-वांझ, सपने-वपने
पीर-वीर, रतियाँ-वतियाँ
छाँह-वाँह.....
--
ये शहर
दिन भर छनती हैं नंगी तलवारें
दिन भर नंगी सड़कों पे चटकती हैं जूतियाँ
दिन-दिन भर भभके आते हैं जिस्मों की सड़ांध के
हर रोज भाग खड़ी होती हैं युवतियाँ
लंपट प्रेमियों के साथ और हर रोज पिछवाड़े
बजती हैं संदिग्ध सीटियाँ
हर रोज रोटियों के हिसाब में कम पड़ जाती है एक
और
भूखी रह जाती है माँ
हर रात चाँदनी में लोग चुनते हैं उदे फूल
जिनके रंग उड़ जाते हैं सुबह होते-होते
यहाँ भी किशोरियाँ सपने में बुनती हैं
रेशमी राजकुमार
जो सुबह की लौ के साथ रह जाते हैं भक़् से
कुछ बेरोजगार लड़के आए रोज करते
रहते हैं खुदकुशी
कुछ झोंपडियों पे रातों रात खड़ी हो गई हैं
ठोस इमारतें
हठात सब घटता है एक उद्वेग के साथ
यहाँ सूर्य उगना भी एक साजिश है
और अस्त होना भी एक वारदात
फिर भी, शुक्र है यह शहर
अपनी जगह है।
---
तुम हो
तुम हो
या नहीं हो
इतना ही है भ्रम,
भ्रम को दूर करने की
कोशिश भी नहीं,
अभी चमक रहा है सूरज
तो भी अंधेरा है कमरे में,
जब छत पर होंगे हम
चाँद भी होगा आसमान पर
तो भी खोजते हुए कुछ
कट जाएगी रात
ऐसे ही रात दिन....
पूरा करेंगे एक युग
हमारा और तुम्हारा समय
कौन खोजेगा?
हाँ, एक दूब उगेगी धरती के
किसी एक बिंदु पर,
एक मद्धिम तारा टिमटिमाएगा
इतने बड़े आकाश में,
अभी या कभी.....
एक दूब होना धरती के लिए
एक तारा होना आकाश के लिए
अच्छा है एक समय होना
इस पूरे युग के लिए।।
शेष
न रहेगी बांसुरी
न हृदयों के तिलस्म
ना सुनामी, ना चक्रवात
न मीठी मीठी बातें
न जुल्फों की छांव
न हिरणी के पांव
कुछ भी ना रह जाएगा
शेष....
न जलसों की श्रंखलाएं
न युद्धों का अह्वान
न इंद्रधनुषी पर्व
न मेघों की पद्चाप
भूख रहेगी ना तृप्ति
न वासनाओं के वरूण
न ईष्टों की जय जयकार
ना ऋतुओं के सिंगार
अंततः
कुछ ना बचेगा शेष कवि जी
इस भूमि पर बस...
प्रेम ही रह जाएगा.
अपने अपने खुदा
अपने अपने खुदाओं को
कांधे पे उठा के
चलो कहीं दूर छोड. आएं
यही मूल है सारी
नफ्सियात की
इसी के इशारे पे तमंचे
आग उगलते हैं
इसी के इशारे पे
बेवजह
खडे हो जाते हैं
फसाद
’
आम आदमी
’
आग की कलम से लिखी जा
रही हैं हवाओं की तकदीरें
लिखने वाले हाथ शाखाओं में
उग रहे हैं...
और किस्तों में दफ्न होता जा
रहा है आम आदमी
उसकी भूखी...नंगी चमडी पे
लिखा जा रहा है
सवा सवा दिन का हिसाब
और
अंगुल-अंगुल नापी जा
रही है
आए दिन उसकी औकात
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
रंग-शाला
रंगशाला में
कितने प्रकार के
रंगों में,कितने आकार-प्रकार में
कठपुतलियों की परछाईयां
ट्रे में परोस परोस
बडे सलीके से
पेश कर रही हैं जीवन
येल्लो...
येल्लो....
पिओ आब-ए-हयात
और
अमर हो जाओ
हमारे साथ
हमारे ही साथ
’’’’’’’’’’’’’’’’
कवि
कवि ,
तुम कब लिखोगे
सुरमई रातों वाली कविता
कब लिखोगे भींगते
आकाशों का सुख
और सिर झुकाए खडी
दीन-हीन धरती
की पीडा,
कब लिखोगे सूर्य की
परास्त-विजय
कब रचोगे
कवि,
मेरे अन्तस का
संसार
--
आजादी
धर्मों के नागपाश में
छटपट करते लोग
मुक्ति चाहते हैं अपने असमानों की
उन्हें /उनका
आकाश दे दो
हवा दे दो
ताप दे दो
और कुछ नहीं तो इतना
ही दे दो
अपनी तिरोहित
चाँदनियों में मुँह छुपा के
विलुप्त हो जाने की
आजादी
--
आँखें
नेपथ्य में
चँद्रमा उगते हैं
जब,
मुस्काती हैं
तुम्हारी आँखें
बादल
मौसमों, बताओं जरा
किसको
याद करके
रो देते हैं
बादल..?
--
नदियों....
नदियों......
क्यूँ पुकारती रहती हो
अमलताश के
रंगों को .....
वो नहीं सुनेंगे
नहीं सुनेंगे
नहीं सुनेंगे।।
--
झरने
जब....,
फालसायी असमान से-
फूटते हैं
झरने
ते
कैसा कैसा
होता है!
--
खुदकुशी
खुदकुशी करने की
वहिद
चार वजहें हैं
डिग्री बेमतलब गई,
मेहबूब ने दामन
झिटका,
आत्मियों ने धिक्कारा
या...
वक्त ने दो हत्था
मारा।।
--
सुंदरियों
सुंदरियों!
मत देखो ख्वाबों में
रेशमी राजकुमार
देखती हो
तो देखो
पसीनों से सने
किसान
जिनकी महक
हवाओं में
वल्लाह.....!
वल्लाह....!
क्रती है।।
--
उड़ानें
कभी कभी
स्थगित कर देनी पड़ती हैं
तमन्नाए, ख्वाहिशात और
आकांक्षाएं....
हत्ता कि प्रेम भी
तब,
जब नियतियाँ करने लगती हैं
हमारे होने की तफतीश
और
निरस्त कर दी जाती हैं
हमारी अग्रिम उड़ानें
---
दिखता है तो बस्स
हमने देखा है दरीचों से
उगता हुआ पीला सूरज
देखते जाना है डूबना इसका
हौले हौले....
दिखता जाता है खुदा नभ से
झुक के सरोवर में पानी पीते
हुए....
दिखती जाती हैं सदियाँ रेल की
मानिंद सामने से गुजरती हुई....
चलते जाते हैं बंजारों के झुंड
गाते-गाते जीवन के गीत
दिखते जाते हैं परिंदे हवाओं से
एक मेक होते हुए...
बस,
दिखते जाते हैं सब
मौसम-वौसम, चाँद-वाँद
पर्वत-वर्वत, धूल-वूल
घाम-वाम
बस्स,
नहीं दिखते हैं तो बस्स...
प्रीत-व्रीत, मीत-वीत
सांझ-वांझ, सपने-वपने
पीर-वीर, रतियाँ-वतियाँ
छाँह-वाँह.....
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हुस्न तबस्सुम ‘निंहाँ‘
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय
गांधी हिल्स, वर्धा महाराष्ट्र
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