लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर - योगराज प्रभाकर

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लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में "लघु" है और उसमे "कथा&q...

लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में "लघु" है और उसमे "कथा" तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है।  जिस प्रकार उपन्यास खुली आँखों से देखी गई घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या कई घटनाओं का वर्णन होती है। इसके विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति के एक विशेष और महीन से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है। किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाईलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। इसे और आसानी से समझने के लिए शादी के एल्बम का उदाहरण लेना समीचीन होगा।
शादी के एल्बम में उपन्यास की तरह ही कई अध्याय होते है; तिलक का, मेहँदी का, हल्दी का, शगुन, बरात का, फेरे-विदाई एवं रिसेप्शन आदि का। ये सभी अध्याय स्वयं में अलग-अलग कहानियों की तरह स्वतंत्र इकाइयाँ होते हैं।  लेकिन इसी एल्बम के किसी अध्याय में कई लघुकथाएँ विद्यमान हो सकती हैं। कई क्षण ऐसे हो सकते हैं जो लघुकथा की मूल भावना के अनुसार होते हैं।  उदहारण के तौर पर खाना खाते हुए किसी व्यक्ति का हास्यास्पद चेहरा, किसी धीर-गंभीर समझे जाने वाले व्यक्ति के ठुमके, किसी नन्हे बच्चे की सुन्दर पोशाक, किसी की निश्छल हँसी, शराब के नशे से मस्त किसी का चेहरा, किसी की उदास भाव-भंगिमा या विदाई के समय दूल्हा पक्ष के किसी व्यक्ति के आँसू। यही वे क्षण हैं जो लघुकथा हैं। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंग देख-गिन लेने की कला का नाम है। स्थूल में सूक्ष्म ढूँढ लेने की कला ही लघुकथा है।  भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हँसी को साफ़ साफ़ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूँढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।
लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नही कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब  एक लघुकथा का खाका तैयार होता है।
लघुकथा एक बेहद नाज़ुक सी विधा है। एक भी अतिरिक्त वाक्य या शब्द इसकी सुंदरता पर कुठाराघात कर सकता है । उसी तरह ही किसी एक किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द की कमी इसे विकलांग भी बना सकती है। अत: लघुकथा में केवल वही कहा जाता है, जितने की आवश्यक होती है। दरअसल लघुकथा किसी बहुत बड़े परिदृश्य में से एक विशेष क्षण को चुरा लेने का नाम है। लघुकथा को अक्सर एक आसान विधा मान लेने की गलती कर ली जाती है, जबकि वास्तविकता बिलकुल इसके विपरीत है।  लघुकथा लिखना गद्य साहित्य की किसी भी विधा में लिखने से थोड़ा मुश्किल ही होता है। क्योंकि रचनाकार के पास बहुत ज़्यादा शब्द खर्च करने की स्वतंत्रता बिलकुल नहीं होती। शब्द कम होते हैं, लेकिन बात भी पूरी कहनी होती है। और सन्देश भी शीशे की तरह साफ़ देना होता है। इसलिए एक लघुकथाकार को बेहद सावधान और सजग रहना पड़ता है।
लघुकथाकार अपने आस-पास घटित चीज़ों को एक माइक्रोस्कोपिक दृष्टि से देखता है और ऐसी चीज़ उभार कर सामने ले आता है जिसे नंगी आँखों से देखना असंभव होता है। दुर्भाग्य से आजकल लघुकता के नाम पर समाचार, बतकही, किस्सा-गोई यहाँ तक कि चुटकुले भी परोसे जा रहे हैं। उदहारण के लिए किसी व्यक्ति का केले के छिलके पर फिसलकर गिर जाने को, सड़क के किनारे सर्दी के कारण किसी की हुई मौत को, या किसी ढाबे पर काम करने वाले बाल श्रमिक की दुर्दशा को घटना या समाचार तो कहा जा सकता है, किन्तु लघुकथा हरगिज़ नही. कथा-तत्व ही ऐसी घटनाओं को लघुकथा में परिवर्तित कर सकता है।  श्री सुदर्शन वशिष्ठ ने कथा तत्व के महत्त्व को कुछ यूँ वर्णित किया है: "जब हम कहानी की बात करते हैं तो दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली लोककथाओं का स्मरण हो आता है। लोककथा में सरल भाषा में एक कथा-तत्व रहता है जो बच्चे और बूढ़े, दोनों को बराबर बांधे रखने की क्षमता रखता है। यही कथातत्व कहानी में भी अपेक्षित है। कहानी में यदि कथा-तत्व नहीं है तो वह संस्मरण, रिपोर्ताज, निबन्ध कुछ भी हो सकता है, एक अच्छी कहानी नहीं हो सकती। कथा-तत्व कहानी का मूल है।"
लघुकथा लेखन प्रक्रिया
मैं लघुकथा लेखन प्रक्रिया को भवन-निर्माण शिल्प की तरह ही देखता हूँ। भवन-निर्माण में सबसे पहले किसी भूमि खंड का चुनाव किया जाता है, उसी तरह लघुकथा में भी सबसे पहले कथानक (प्लॉट) चुना जाता है। फिर उस भूमि खंड की नींवों को भरा जाता है। लघुकथा में इस नींव भरने का अर्थ है उस कथानक को अगले कदम के लिए चुस्त-दुरुस्त करना। नींव भरने के पश्चात उस भूमि खंड पर भवन का निर्माण किया जाता है। यह भवन-निर्माण लघुकथा में रचना की रूपरेखा अर्थात शैली कहलाता है। जिस प्रकार भवन का ढाँचा तैयार होने के बाद उसकी साज-सज्जा होती है, बिल्कुल उसी तरह से ही लघुकथा में काट-छील करके उसको सुंदर बनाया जाता है। समृद्ध भाषा एवं उत्कृष्ट संप्रेषण लघुकथा में इसी रूपसज्जा का हिस्सा माना जाता है। भवन पूरी तरह बन जाने के बाद अंतिम कार्य होता है, उसका नामकरण। नये घर को सुंदर और सार्थक नाम देने हेतु हम लोग ज्योतिषियों तक की सलाह लेते हैं। बिल्कुल यही महत्व लघुकथा के शीर्षक का भी है। शीर्षक, दुर्भाग्य से लेखन व्यवहार में लघुकथा का सबसे उपेक्षित पक्ष हुआ करता है। दस में से नौ शीर्षक बेहद चलताऊ और साधारण पाये जाते हैं। जबकि लघुकता मे शीर्षक इतना महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग हुआ करता है कि बहुत बार शीर्षक ही लघुकथा की सार्थकता को अपार ऊंचाइयाँ प्रदान कर देता है। अत: शीर्षक ऐसा हो जो लघुकथा में निहित संदेश का प्रतिनिधित्व करता हो, या फिर लघुकथा ही अपने शीर्षक को पूर्णतय: सार्थक करती हो।

लघुकथा लेखन प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग

1. जिस प्रकार भवन निर्माण हेतु सबसे पहले भू-खंड (प्लाट) का चुनाव होता है बिलकुल वैसे ही लघुकथा लिखने के लिए कथानक या प्लाट का चयन किया जाता है। लघुकथा लेखन में यह सब से महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो रचनाकार के अनुभव, उसकी समझ और विश्लेषणात्मक दृष्टि पर निर्भर करती है। संक्षेप में कहें तो सबसे पहले लघुकथाकार को यह निर्णय लेना होता है कि वास्तव में उसको "क्या कहना है।" इसका तात्पर्य है - कथानक (प्लाट) का चुनाव।
(2). जैसे पहली प्रक्रिया है "क्या कहना है", वहीँ दूसरी महत्वपूर्ण प्रक्रिया है "क्यों कहना है", अर्थात लघुकथा कहने का उद्देश्य वास्तव में क्या है।  यह भी भवन निर्माण कला की प्रक्रिया के एक हिस्से की ही तरह है जिसमे निर्माण करने वाला भवन बनाने का उद्देश्य तय करता है। अक्सर लघुकथा के अंत से ही उसके उद्देश्य का पता चल जाता है।
(3).  अगला पड़ाव है,  जो कहना है वह "कैसे कहना है", इस बात का सम्बन्ध लघुकथा की भाषा से है। भाषा जितनी सरल और अक्लिष्ट होगी शब्दों का चुनाव जितना सटीक होगा, रचना उतनी ही प्रभावशाली बनेगी । भारी भरकम शब्दों एवं अस्वाभाविक बिम्बों का उपयोग रचना को उबाऊ बना सकता है।  भाषा का प्रयोग यदि पात्रानुकूल या परिस्थतिनुकूल हो तो रचना जानदार हो जाती है। जबकि चलताऊ, खिचड़ी एवं कमज़ोर शब्दावली रचना को कुरूप बना देती है। एक लघुकथाकार किसी भाषा-वैज्ञानिक से कम नहीं होता। अत: उससे यह अपेक्षा की जाती है कि उसका भाषा पर पूर्ण नियंत्रण हो। जहाँ बेहद क्लिष्ट शब्दावली रचना को बोझिल बनाती है, वहीं आम बाज़ारू भाषा रचना में हल्कापन लाती है। भाषा में सादगी, स्पष्टता एवं सुभाषता किसी की लघुकथा में चार चाँद लगाने में सक्षम होती हैं।
(3). लघुकथा लेखन में अगला सबसे अहम कदम है इसका शिल्प।  शिल्प चुनाव भी बिलकुल भवन निर्माण के दौरान शिल्प निर्धारण करने जैसा ही है जिससे भवन का चेहरा-मोहरा निश्चित होता है। शिल्प की कोई निजी प्रामाणिक परिभाषा नहीं होती है। एक स्वतंत्र इकाई होते हुए भी वास्तव में यह बहुत सी अन्य इकाइयों पर निर्भर होती है। अगर भवन निर्माण के हवाले से देखा जाये तो ताज महल का अपना शिल्प है, क़ुतुब मीनार का अपना, तो संसद भवन का अपना। इसलिए शिल्प इस बात पर निर्भर करता है कि उसे किस चीज़ के लिए उपयोग किया जा रहा है। अर्थात भवन में कमरे दो हों या दो दर्जन, चारदीवारी ४ फ़ीट ऊंची हो या ७ फ़ीट, फर्श साधारण हो या कि संगमरमर का, छत की ऊंचाई कितनी हो, घर में पेड़-पौधे हों कि गमले, मकान स्वयं रहने के लिए बनाया गया है या किराये पर देने के लिए - ये सब बातें मिल कर शिल्प निर्धारण का कारण बनती हैं। उदाहरण के लिए किसी आवासीय भवन या इकाई में पर्याप्त मात्रा में हवा एवं धूप का आवागमन अति आवश्यक माना जाता है, लेकिन वह किस दिशा से और कितने समय के लिए आने चाहिए, यह देखना भी अति आवश्यक होता है। बेरोकटोक ठंडी हवा गर्मियों में तो शीतलता देगी किन्तु जाड़े में इसका प्रभाव बिलकुल विपरीत हो जायेगा। अत: शिल्प भी भवन की संरचना और उपयोग पर निर्भर करता है। लघुकथा के आलोक में भी शिल्प को बिलकुल ऐसे ही देखा जाना चाहिए।
(4) लघुकथा लेखन का एक और अति महत्वपूर्ण पहलू है इसकी शैली। उत्कृष्ट शब्द-संयोजन एवं उत्तम भाव-सम्प्रेषण लघुकथा शैली की जान है। मेरा मानना है कि बहुत बार सशक्त शैली कमज़ोर कथानक और ढीले शिल्प को भी ढक लिया करती है। शैली भी लघुकथा के चेहरे-मोहरे पर ही निर्भर होती है, जिसका चुनाव बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए। मुख्य तौर पर लघुकथा वर्णनात्मक, वार्तालाप शैली अथवा मिश्रित शैली (जिसमे कथन के इलावा पात्रों के मध्य संवाद / वार्तालाप भी होता है) में लिखी जाती है। यदि कथानक की आवश्यकता हो तो मोनोलॉग शैली (स्वयं से बात) में भी लघुकथा कही जा सकती है। हालाँकि निजी तौर पर मुझे इस शैली में लिखना पसंद नहीं। क्योंकि इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। 

(5) लघुकथा लेखन का एक और महत्वपूर्ण (किन्तु दुर्भाग्य से अति उपेक्षित) हिस्सा है "शीर्षक", वास्तव में शीर्षक को लघुकथा का ही हिस्सा माना जाता है। शीर्षक का चुनाव यदि पूरी गंभीरता से किया जाये तो अक्सर शीर्षक ही पूरी कहानी बयान कर पाने में सफल हो जाता है या फिर लघुकथा ही अपने शीर्षक को सार्थक कर दिया करती है। जिस प्रकार किसी भवन का नामकरण बहुत सोच समझकर किया जाता है, लघुकथा का शीर्षक भी उसी प्रकार चुनना चाहिए। सुन्दर और सारगर्भित शीर्षक भी लघुकथा की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है।
6. लघुकथा का अंत करना एक हुनर है। लघुकथा का अंत उसके स्तर और क़द-बुत को स्थापित करने में एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिकतर सफल लघुकथाएँ अपने कलात्मक अंत के कारण ही पाठकों को प्रभावित करने में सफल रहती हैं। विद्वानों के अनुसार लघुकथा का अंत ऐसा हो जैसा लगे अचानक किसी ततैया ने डंक मार दिया हो, जैसे किसी फुलझड़ी ने आँखों को चकाचौंध कर दिया हो, जैसे किसी ने एकदम सुन्न और सन्न कर दिया हो ! एक ऐसा धमाका जिसने बैठे बिठाये हुओं को हिला कर रख दिया हो, जो इतने प्रश्न-चिन्ह छोड़ जाए की पाठक एक से अधिक उत्तर ढूँढने पर मजबूर हो जाए। जो विचारोत्तेजक हो, जो पाठक के विचारों को आंदोलित कर दे। जो किसी भी सूझवान व्यक्ति को मुट्ठियाँ भींचने पर विवश कर दे। 

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कहा-अनकहा

लघुकथा में जो कहा जाता है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है, किन्तु उससे भी महत्वपूर्ण वह होता है जो "नहीं कहा जाता". लघुकथाकारों के लिए इस "जो नहीं कहा जाता" को समझना बहुत आवश्यक है। दरअसल इसके भी आगे तीन पहलू हैं  जिन्हें आसान शब्दावली में कहने का प्रयास किया है :


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रचनाकार: लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर - योगराज प्रभाकर
लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर - योगराज प्रभाकर
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