स्मार्टफोन छोडो आज स्मार्टफोन , कुछ अपनी एप बनाएं । सम्बंधों की डोर को, इस तरह मज़बूत बनाएं । मायूस बैठा हो गर कोई, तो बात करके उसे मना...
स्मार्टफोन
छोडो आज स्मार्टफोन , कुछ
अपनी एप बनाएं ।
सम्बंधों की डोर को,
इस तरह मज़बूत बनाएं ।
मायूस बैठा हो गर कोई,
तो बात करके उसे मनाएं ।
क्षणिकाएँ , हर्ष, किल्लोल, की
एक मिक्सिंग एप बनाएं ।
गूँगे – बहरे हो गए हैं ,
इस चार इंच के फोन से ,
अब तो बधाई भी मिलती है
एक क्लिक के फोन से ।
दिन भी अँगूठे से शुरु
अँगूठे पर ही खत्म हो , और
जी. एम. से जी. एन. पर ही इसका अंत हो ।
पल – पल बदलता चेहरा फोन
कभी हर्ष तो कभी अवसाद का
संसार भर का पिटारा लिए
क्षीण कर रहा एकाग्रता ।
बुद्धि ने वृद्धि पर कहीं प्रश्न चिन्ह लगा दिया,
और इंसान को एक खिलौना बना दिया ।
कर रहा है काम आज वो , हर एप की चाल पर,
सोच – समझ सब इस पर निर्भर है,
नाचे वो इसकी ताल पर ।
सुकून तो कहीं खो गया,
अज्ञात कोठरी में जा सो गया ।
न चाहकर भी इसका बोझ उठाए इंसा चल रहा ,
मदिरा बन, पहले हम इसे और अब ये हमें छल रहा ।
नीलम कुमार नील
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अभिलाषा
अभिलाषा है ,
जानूँ हृदय की गहराई,
कल्पना की उडान की ऊँचाई ।
कोई तो मापक होगा ,
चक्षु से रिसते अश्रु का।
कहीं तो सीमा होगी ,
लोपोन्मुख होने की ।
अभिलाषा है,
दृष्टि निर्निमेष हो जाती कब,
आह्लाद से सराबोर होने पर या,
स्थूल विषाद की पंक्ति बिछी हो तब।
अभिलाषा है ,
कली का मर्म जानने की ,
पुष्प की वेदना ,
कब पंखुरी से अलहदा हो जाए ।
अभिलाषा अपरिमित , नि;सीम
अंतहीन अपार , अगाध ,
काश कि छोर हाथ में होता
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आज भी याद है
आज भी याद है
वो बिजली का कौंधना
और डरकर माँ के आंचल में छुपना ,
फिर बारिश में भाग जाना और गीला होना ,
आज भी याद है
भोर में वो टटीरी के स्वर
कानों का मधुर संगीत बन
पाठ को तोते की भांति रटना
आज भी याद है ,
भाई- बहनों से नोंक –झोंक होना ,फिर रूठना मनाना
सुरों की महफिल सजाना , गाना, बजाना ।
आज भी याद है ,
बचपन पीछे छोड
ज़िंदगी आगे बढ चुकी
यादों की इमारत धराशायी हो चुकी
पर
नींव अभी भी पडी मुस्कुरा रही है ।
स्कूल जाते हुए इमली की कटारे खाना
अमरूद और जामुनों से नाश्ता करना
अभी भी याद है ,
माँ का दिया खाना रास्ते में ही खा लेना
और ब्रेक में स्टापू खेलना
आज भी याद है ,
समय के साथ रिश्ते संकुचित हो गए
पुराने के साथ नए जुड गए ।
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एक जहाँ और भी हो
आसमां से आगे एक जहाँ और भी हो
जहाँ खगों का कलरव ,
तरुओं पर बसेरा हो ,
जहाँ मलय पवन पर ,
राग बसंत का डेरा हो ।
पुष्प पल्लवित होते जहाँ
संगीत की झनकार पर ,
निर्झर जहाँ झरते रहते
लोरियों की तान पर।
आज़ाद पंछी की तरह,
उडती फिरूं हर डाल पर ।
कुहुक – कुहुक का गीत सुनाकर,
विदा करूँ इस क्लांत को ।
उम्मीद का एक घर बनाऊँ,
आशा की दीवारें ।
खुशियों से भरी छत हो जिसकी ,
बगिया में बहती बहारें।
दुख कभी न छूकर जाए ,
होठों पर मुस्कान हो ।
दिन सुगंधित रात पुष्पित ,
एक मदभरा संसार हो ,
आसमां से आगे एक जहाँ और भी हो ।
श्रीमती नीलम कुमार
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श्रमिक
कहते हैं श्रमिक निर्माण की पहली कड़ी है,
पर क्या आज तक उसका निर्माण कभी हुआ है ?
वह आज तक भी नीव के पत्थर की तरह गड़ा हुआ है|
जिसने अनगिनत इमारतें खड़ी की
जहाँ से उसका उदभव हुआ,
ज़मीन के नीचे दबा ,
खुली सांस लेने को बाध्य ,
आज का श्रमिक
वह आतुर है इमारत पर चढ़ने को ,
लालायित है उसके स्पर्श को ,
पर क्या उसे छू सका ?
उसका गेह तो वही पत्थर
जिसे –
बिना नीव के खड़ा किया गया ,
जिसने गर्मी – सर्दी के थपेड़ों को ,
झूम –झूम कर सहा है|
वो छोटे –छोटे मासूम बच्चे ,
झोंपड के आस – पास , रेत में खेलते
कब नीव के पत्थर की पंक्ति में आकार खड़े हो गए ,
पता ही नहीं चला |
जाने –अनजाने ,
उनकी संख्या का आकार बढ़ गया
और श्रमिक, निर्माण की कड़ी को जोड़ते जोड़ते ,
खुद एक कड़ी बन कर रह गया |
नीलम कुमार नील
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वैश्विक ताप
प्रकृति का आज जमकर हो रहा दोहन
और वैश्विक ताप रूपी नाग डस रहा
इस पृथ्वी को अपनी फुंकार से ,
यह धरा , जो संजोए हुए अपनी छाती पर
अपरिमित , अक्षुण भार
जिसके कर्ज़ तले हम दबे हुए ,
हम एहसान – फरामोश , माँ के आँचल को हल्का करने के बजाए
आतुर हैं उस पर ताप रूपी तलवार भोंकने हेतु ,
सदियों से माँ ने सम्भाला हमारा वज़ूद
परंतु आज -
जब माँ को बचाने की बारी आई तो
विज्ञान की ओट में खडा मानव ,
निर्निमिष बर्बाद होते देख रहा माँ को
या फिर इंतजार कर रहा उन पलों का
जहाँ मौसम दम तोडते नज़र आएंगे
या प्रकृति का बाढ रूपी सैलाब
अपने आँसुओं को समेटे ,
बेबस धरा की कहानी लिख रहा होगा ।
जनसंख्या का विकराल पिशाच श्वासँ विहीन ,
स्थूल सा, कंक्रीट करता इसकी सतह को
एक डरावने स्वप्न की तरह परेशान करता है ।
मुझे प्रतीक्षा है उस माँ की ,
जिसमे श्वासँ हो पर ताप न हो ,
जिसका सीना हरा हो पर पतझड न हो
जिसनें जल हो , बाढ न हो ,
आओ इन समस्याओ का समाधान निकालें
और अपनी पृथ्वी को गर्त में जाने से बचाएं ।
श्रीमती नीलम कुमार
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नारी की व्यथा
क्या आज भी नारी का वही स्थान है
जो बरसों पहले हुआ करता था,
परिभाषा शायद बदल चुकी है ।
प्राचीन व आधुनिकता के बीच,
सिमटकर रह गई है नारी ।
अधिक परिश्रमी,
अधिक थकी,
दोहरे बंधन में बंधी–बंधी ,
कभी सकुचाती, कभी दबंग ,
दोनों ही रूपों में सामंजस्य बनाए,
इस समाज के साथ
कदम दर कदम मिलाए।
परंतु क्या सभी का हाल एक है ?
नहीं,
आज भी इस समाज मे मुस्कान का लबादा ओढे़
प्रताड़ित हो रही है नारी ।
कभी बेटी , कभी माँ
तो कभी वधू के रूप में ,
सम्मानित है स्थान पाने को ।
आज आवश्यकता है उस समाज की
जो उसे तनाव रहित आनंद्मयी , ममतामयी,
छाया की ओर उड़ाकर ले चले ,
और बैठा दे ऐसे सिंहासन पर,
जहां चरितार्थ हो
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता: ।
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निर्धन
सिसकती है साँसे , रोती है कराहें
कहती है क्या ?
कहाँ जन्म ले लिया हमने ,
निर्धनों दरबार में ।
एक लहू सा रिस रहा है
गरीब आज पिस रहा है ।
शोषण करना है मुश्किल
धरती का दिल घिस रहा है ।
बोलती हैं आंखें , लेकिन सब कुछ मूक है ।
क्या भाषा नही उनकी ?
या भाव पास नहीं तुम्हारे ?
क्यों नही पूछता ये युग
क्या पास नहीं तुम्हारे ?
मन हो चुका मिट्टी , तन भी मिट्टी में पला ,
उपहास कर रहा धनी वर्ग , संसार आज मूक है ,
अपमान का नग्न चोला, क्यों पहना है तू ,
आत्म्सम्मानित हो शपथ ले, क्युं हिम्मत हार बैठा है तू ।
- श्रीमती नीलम कुमार
पी. आर. टी
केंद्रीय विद्यालय सिख लाइन्स , मेरठ कैंट
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