सृष्टि के अन्य जीवों की तुलना में मानव सभ्यता की उन्नति तथा स्थायित्व का कारण ध्वनि को आत्मसात कर स्मरण रखना, ध्वनि से अर्थ ग्रहण कर सं...
सृष्टि के अन्य जीवों की तुलना में मानव सभ्यता की उन्नति तथा स्थायित्व का कारण ध्वनि को आत्मसात कर स्मरण रखना, ध्वनि से अर्थ ग्रहण कर संप्रेषित करना, ध्वनि का नियमबद्ध प्रयोगकर भाषा तथा ध्वनि को चिन्ह विशेष के माध्यम से अंकित-लिपिबद्ध कर लिख-पढ़-समझ पाना है। इस प्रक्रिया ने आदिकाल से अब तक मानव मात्र को हुए अनुभवों की अनुभूतियाँ संचयित-संरक्षित तथा संप्रेषित किया जाना संभव किया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सृजित-संकलित ग्यान राशि सर्वकल्याण की कामना से संयुक्त की जाकर साहित्य कही गई। न्यूनाधिक लयात्मकता तथा सरसता के आधार पर साहित्य को गद्य तथा पद्य में वर्गीकृत किया गया।
विश्ववाणी हिंदी में पद्य साहित्य की रचना संबंधी आचार संहिता को प्रथमाचार्य महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल शास्त्र कहा गया है। पिंगल शास्त्र के तीन प्रकोष्ठ पद्य रचना, पद्य समझना तथा पद्य सिखाना हैं। ऋषि-आश्रमों तथा गुरु-शिष्य परंपरा को यवन-अँग्रेज पराधीनता काल में सुविचारित ढंग से नष्ट कर क्रमशः अरबी-फारसी आधारित उर्दू व अंग्रेजी को राज-काज की भाषा बनाकर भारतीय साहित्य विशेषकर पिंगल के स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन को हतोत्साहित कर उस पर अरबी-फारसी छंदशास्त्र को आरोपित किया गया।लगभग दो सदी पूर्व जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ रचित छंद' प्रभाकर ने अपभ्रंश व संस्कृत से हिंदी को विरासत में मिले छंदों के विधान का वर्णन किया। रस-छंद-अलंकार विषयक अधिकांश पुस्तकें विविध पाठ्यक्रमों पर आधारित रहीं। ओमप्रकाश बरसैंया कृत 'छंद-क्षीरधि' तथा रामदेवलाल ‘विभोर’ कृत 'छंद-विधान' छंद प्रभाकर की छाया से मुक्त न हो सकीं। नारायणदास व सौरभ पांडे नवरचनाकारों की सुविधा के लिए कुछ छंदों की रचना प्रक्रिया तक सीमित रहे। इस पृष्ठ भूमि में विवेच्य कृति भानु जी के पश्चात मौलिक दृष्टि से हिंदी पिंगल के आकलन का महत्वपूर्ण स्वतंत्र प्रयास कहा जा सकता है।
राजेन्द्र वर्मा जी बैंक अधिकारी रहे हैं, भिन्न ध्रुवों के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करने की कला में निपुण हैं। अत: विषय के वर्गीकरण, अपनी मान्यताओं के अनुरूप चयनित विषय सामग्री के चयन तथा 'पिंगल' एवं 'उरूज' के मध्य सेतु-स्थापन करने का पुष्ट प्रयास कर सके हैं। कृति के प्रत्येक अध्याय में विषयवस्तु के विस्तार को सीमित पृष्ठों में समेटना और अपनी मान्यताओं की पुष्टि करना नट कौशल की तरह कठिन है, तनिक संतुलन डगमगाते ही सँभालना दुष्कर हो जाता है, किंतु राजेन्द्र जी कहीं डगमगाये नहीं।
उर्दू छंद-शास्त्री पिंगल-लेखन में उर्दू तक ही सीमित रहते हैं जबकि हिंदी छंद-शास्त्री उर्दू-पिंगल के महिमा मंडन का मोह नहीं तज पाते। यह प्रवृत्ति नव रचनाकारों को हिंदी का क्रीड़ांगण छोड़ उर्दू की तंग गली में खड़ा कर देती है। राजेन्द्र जी ने एक पग आगे रखते हुए वर्तमान में प्रचलित हिंदी और उर्दू छंदों को एक साथ रखकर छंद की बारीकियां सोदाहरण देने का सफल प्रयास किया है, साथ-ही उन्होंने अंग्रेजी और जापानी के भी कुछ छंदों को काफी हद तक स्पर्श किया है।
काव्य क्या है?, रस गुण रीति और वृत्ति, अलंकार, छंद विधान, काव्य दोष तथा प्रमुख काव्य विधाएँ शीर्षक अध्यायों तथा परिशिष्टों के माध्यम से राजेन्द्र जी ने जटिल तथा गूढ़ विषय को वर्गीकृत कर सरलता से समझाया है। प्रथम अध्याय में संस्कृत, हिंदी व अंग्रेजी काव्याचार्यों के अनुभवों का संकेतन वरिष्ठों के चिंतन-मनन के लिए उपयुक्त है किंतु नवोदित इतने मतों को एक साथ देखकर भ्रमित हो सकते हैं। रस की निष्पत्ति, तत्व, उत्पत्ति, प्रकार, गुण, रीति व वृत्ति आदि की चर्चा 'कम लिखे को अधिक समझना' की लोकोक्ति के अनुसार है। रसों के वर्णन में परंपरागत छंदों का प्रयोग किया गया है, लेकिन प्रस्तुति में नवीनता है। रसों के विश्लेषण से विषयवस्तु आसानी से स्पष्ट हो जाती है। ऐसा लगता है कि लेखक ने अलंकार को अधिक महत्त्व दिया है, तभी उसने शब्द-अर्थ तथा चित्र अलंकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है, लेकिन प्रस्तुति को सारणीबद्ध कर देने से वह बात नहीं आ पायी जो सामान्य विवेचन से आती।।
छंद-विधान अध्याय के अंतर्गत लगभग ९० प्रकार के वर्णिक और ५० प्रकार के मात्रिक छंदों का सारणीबद्ध विवेचन संभवत: पहली बार किया गया है। वर्णिक छंदों में उर्दू छन्दविधान में प्रचलित बहरों को भी शामिल किया गया जो हिंदी के छंदों के प्रतिरूप हैं, जैसे- पीयूषवर्ष, भुजंगप्रयात, गीतिका, विधाता। लेकिन प्रस्तुति की सारणीकरण पद्धति ने वाक्य विन्यासकृत विस्तार की संभावना ही समाप्त कर दी। इससे छंदों का तुलनात्मक साम्य और वैषम्य देख पाना तो सहज साध्य हुआ, किंतु विषय की जटिलता और नीरसता नहीं घटी।
कृति का वैशिष्ट्य काव्य दोषों को भी महत्व देना है। राजेन्द्र जी जानते हैं कि हिसाब तब तक ठीक नहीं होता जब तक दोष समाप्त न हों। आचार्य मम्मट की अवधारणा पर आधारित चार प्रकार के काव्यदोषों- पदगत, वाक्यगत, अर्थगत, और रसगत, पर चर्चा की गयी है। लेखक ने शिल्प, तुकांत, समांत, पद, अर्थ, रस आदि से संबंधित दोषों का सोदाहरण निरूपण सारणीबद्ध ढंग से किया है। इससे कृति की उपादेयता बढ़ी है।
प्रमुख काव्य विधाएँ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत दोहा, सोरठा, कुंडलिया, पदावलि, सवैया, कवित्त, नवगीत, ग्राम्य गीत, फिल्मी गीत, गजल, हिंदी गजल आदि की उत्पत्ति, प्रकार, गुण-दोष आदि का विवेचन पूर्व ग्रंथों की अपेक्षा अधिक साफगोई व विस्तार से किया गया है। नयी कविता या समकालीन कविता को भी ग्रन्थ में समेटा गया है। हिंदी-प्रेमियों और उर्दू-पक्षधरों की नाराजगी का ख़तरा उठाकर भी ग़ज़ल-रुबाई आदि से सम्बंधित सामग्री के प्रस्तुतीकरण में राजेन्द्र जी ने गंगो-जमुनी परंपरा का पालन करने की कोशिश की है। हाइकु, ताँका, सदोका, चोका आदि जापानी छंदों तथा सॉनेट जैसे अल्प प्रचलित छंद को समेटनेवाले राजेन्द्र जी ने गिद्दा, अभंग, ककुभ, जनक छंद आदि की अनदेखी की है।
ग्रंथांत में परिशिष्टों के अंतर्गत शोधछात्रों के लिए उपयोगी साहित्य के उल्लेख ने कृति की उपादेयता बढ़ाई है। एक परिशिष्ट के अंतर्गत हिंदी कवियों और उनकी प्रमुख कृतियों की सूची दी गयी है जिसमें प्राचीन कवियों से लेकर वर्ष १९५० तक जन्मे १८५ कवियों को सम्मिलित किया गया है। यह कार्य संभवत पहली बार देखने में आया है। सारत: राजेन्द्र वर्मा रचित विवेचित कृति रचनाकारों, अध्यापकों तथा विद्यार्थी वर्ग के लिए समान रूप से उपयोगी है।
-- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१ (ई-मेल: salil.sanjiv@gmail.com.)
पुस्तक विवरण
पुस्तक का नाम रस-छन्द-अलंकार और काव्य-विधाएँ
लेखक राजेन्द्र वर्मा (मो. 80096 60096)
प्रकाशक साहित्य भण्डार, चाहचन्द ( जीरो रोड), इलाहाबाद – 211 003
(मो. 93351 55792, 94152 14878)
संस्करण प्रथम, 2018
पृष्ठ संख्या 351
मूल्य रु. 375 (पेपरबैक)
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