आलेख - भारतीय गणतंत्र और वर्तमान परिदृश्‍य - अशोक व्‍यास

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एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हमारे देश ने सत्तर से अधिक वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। और हम शीघ्र ही हीरक जयंती मनाने की और अग्रसर होंगे। किस...


एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हमारे देश ने सत्तर से अधिक वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। और हम शीघ्र ही हीरक जयंती मनाने की और अग्रसर होंगे। किसी भी राष्‍ट्र के लिये विशेषत: लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाने वाले राष्‍ट्र के लिए सत्तर वर्षों का सफर रोमांचक होता है।

भारत की सांस्‍कृतिक रचना, सामाजिक परिवेश वर्तमान युग की विश्‍व अर्थनीति, सुरक्षा साधन आदि राष्‍ट्रीय आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए संविधानिक प्रावधान पर्याप्‍त है। भारत का संविधान भारतीय समाज व्‍यवस्‍था, अर्थव्‍यवस्‍था और शासन व्‍यवस्‍था की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण और सार्थक है डा. अम्‍बेडकर जी ने संविधान को भारत के परिपेक्ष्‍य में पूर्ण माना है। संविधान की भूमिका में एक शंका अवश्‍य उठाई है कि संविधान की मूल दृष्टि और कार्य में अंतर होगा तो संविधान निर्जीव कागज ही रह जायेगा। संविधान आस्‍था, विश्‍वास और आशा का आधार होता है। संविधान पर से आस्‍था उठने लगे तो देश गंभीर संकटों में फंसने लगता है और भ्रम आस्‍था को सदैव चुनौती देता रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने हमें विश्‍व की सर्वश्रेष्‍ठ शासन पद्धति सौंपी थी जिसके योग्‍य हम अपने आपको साबित नहीं कर पाये।

जब इस प्रजातांत्रिक गणतंत्र की बात करते हैं तो हमारी कल्‍पना एक ऐसे तंत्र की होती है जिसमें देश के समस्‍त गण की इच्‍छाओं, अभिलाषाओं की अभिव्‍यक्ति समग्रता के साथ हो। वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में भारतीय राजनीति की गति, दुर्गति, उपलब्धियां ठहराव और राजनीति की दूरभिसंधियां जन मानस को भ्रमित कर रही हैं। हमारी उपलब्धियों के खाते में गणतंत्र से गड़बड़ तंत्र और गड़बड़ तंत्र से गुंडा तंत्र तक कई असफलतायें दर्ज हैं। इस देश की वर्तमान तस्‍वीर को बनाने में हमने कई रंगों का प्रयोग किया है। लेकिन एक ही रंग है जो ज्‍यादा उभर कर सामने आता है, वह है लाल खून से सना हुआ हिंसा का रंग। यह हिंसा ही थी जिसके खिलाफ महात्‍मा गांधी ने अहिंसक संघर्ष किया था और उसका मूल्‍य उन्‍होंने अपने प्राण देकर चुकाया था। वही लाल रंग अलगाववाद और सीमा पार से जारी छद्म युद्ध हमारे जवानों के खून से पूरे देश के नक्‍शें पर फैल रहा है। जिसका परिणाम यह निकला कि जनता का सरकार पर नेताओं पर और इस तंत्र से विश्वास लगातार टूट रहा है। चुनाव, मतदान, प्रजातांत्रिक शासन पद्धति सब है लेकिन वो उत्‍साह नदारद है जिसकी उर्जा से कोई भी प्रजातांत्रिक देश संकटों का सामना सफलता पूर्वक कर सकता है। प्रजातांत्रिक पद्धति की यही कमी है और विशेषता भी है कि इसमें जिम्‍मेदारी से कोई बच नहीं सकता। न तो वह समान्‍य जन जो चुनावी यज्ञ में अपने वोट की आहुति का होम देकर हाथ जलने का एहसास मन में पाले रहकर भी चुप रहता है।


इस देश का जागरूक बुद्धिजीवी, न सरकार, न ही वह राजनेता जिसकी सारी सोच सत्‍ता की ओर है। जवाबदारी लेने से बचना और सर पर आ जाये तो दूसरे पर डाल देना हमारी कार्यशैली बन गई है। एक जुमला है जो आजादी के बाद से अक्‍सर सरकारी घोषणाओं, बयानों में उछाला जाता है कि देश्‍ इस समय संकट के दौर से गुजर रहा है। या कि यह संक्रमण काल है, पर संकट या संक्रमण काल कभी समाप्‍त नहीं होता है एक ओट है जिसके पीछे हम अपनी असफलता की शुतुरमुर्गी गर्दन छुपा लेते हैं।

राजनीति का पेटर्न बन गया है एक गोल दायरा जिसमें जनता, नेता और सरकार सब गोल-गोल घूम रहे हैं। जनता की प्रतिक्रिया ज्‍यादातर यही होती हैं, हमें क्‍या करना है ? या उसे नेता बयानों, घोषणाओं और विवादों, से उकसाता है। विवाद राजनीति की खुराक है। राजनीति करने के लिये नेता विवादों का ढूँढता है न मिले तो पैदा करता है, हिटलर ने अपनी आत्‍मकथा में लिखा है कि अगर बड़ा नेता बनना हो तो बड़ी लड़ाई की जरूरत है। असली न हो तो नकली (कोल्‍ड वार) चलने दो। लोगों को भयभीत रखो क्‍योंकि भयभीत हालत में लोग नेता को पकड़ते हैं। भय किसी भी तरह का हो सकता है। जाति, धर्म, क्षेत्र, संस्‍कृति, एकता, अखंडता आदि। किसी को अपनी संस्‍कृति नष्‍ट होने का भय है, तो किसी का धर्म खतरे में, किसी को अपने क्षेत्र का ठीक से विकास नजर नहीं आता तो कहीं नदी के पानी का संकट है। सबके पास अपने-अपने मुद्दे हैं अपने-अपने संकट हैं। नेता इन्‍हीं मुद्दों के आधार पर जनता को बांटेंगे फिर खुद ही छाती पीट कर रोयेंगे कि देश की एकता खतरे में है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कौन सी पार्टी या नेता ऐसा करता है, माहौल को गरमाने के लिये बंद, हड़ताल, हिंसक प्रदर्शन का सहारा लिया जाता है सारे राष्‍ट्र की ऊर्जा इसी में खर्च हो जाती है। सरकार के कानों पर भी बंद, हिंसक प्रदर्शन आदि के बाद ही जूं रेंगती है। उसके पहले तो टालने वाली प्रवृत्ति होती है। सरकार की तरफ से भी बयान आता है कि बंद शांति पूर्ण ढंग से सम्‍पन्‍न हो गया है , छुटपुट घटनाओं को छोड़कर किसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है। सुनकर ऐसा लगता है जैसे किसी गरीब की कन्‍या का विवाह बिना दहेज के सम्‍पन्‍न हो गया और बारात शांति से विदा हो गई हो।

भारतीय राजनीति में प्राचीन काल से वर्तमान काल तक कोई न कोई गुरू, स्‍वामी, ज्‍योतिषी, बाबाओं की उपस्थिती हमेशा रही है। एक अजीब सा घालमेल हो गया है। बिल्‍कुल हवाई राजनी‍ति हो गई है। जमीनी राजनीति से तो नेताओं का नाता ही टूट गया है। हवाई जहाज में सफर, हवादार कोठी में बसर, हवाई बातें और वादे, कुल मिलाकर यही चेहरा हमारे गणतंत्र का हो गया है। आज का युग आर्थिक युग है इस क्षेत्र में भी हम ऊंचे कीर्तिमान स्थापित कर रहें हैं। निजीकरण के इस दौर में सब कुछ निजी हो गया है, सार्वजनिक हित हमारे लिये सपना हो गया है निजी हित को साधने के लिये सार्वजनिक बैंकों और सार्वजनिक संस्‍थाओं को बिना डर के लूटा जा रहा है। सच पूछिए तो यह घोटालों का दौर है। पहले सार्वजनिक जीवन में करप्‍शन (भ्रष्‍टाचार) एक मुद्दा हुआ करता था। आजकल कारपोरेट हो गया है। संसद के अंदर और बाहर भी कारपोरेट युद्ध लड़ा जा रहा है। भारतीय अर्थव्‍यस्‍था की कहानी घाटे से शुरू होकर घोटाले पर समाप्‍त होती है।

वर्तमान दशक घोटाले और चुनाव के कारण बहुचर्चित रहा। सी.बी.आई. की जांचों ने जनमानस के हृदय पर राष्‍ट्र नेताओं की छ्वीयों को धूमिल किया है। घोटालों का हिसाब केवल शिक्षित ही नहीं, अशिक्षित जनता में भी चर्चित हो रहा है। अखबारी सुर्खियों और टी.वी. की ब्रेकिंग न्‍यूज ने जनता को चौंकाया और चिंतित किया। आश्‍चर्य है कि कोई भी प्रतिष्ठित राजनीतिक दल भ्रष्‍टाचार के लांछन से अछूता नहीं रहा। राम और गांधी के नाम तथा राजनीतिक नारे जनता के मनोबल को उठाने में कितने सहायक होंगे कोई नहीं जानता ? इस सबके बावजूद स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं है, क्‍यों कि यहां के सामान्‍यजन में गजब की जिजिविषा है। वह सही वक्‍त आने पर सबके अनुमानों को ध्‍वस्‍त करता हुआ अपना फैसला सुना देता है।

बस एक ही कमी है उसमें कि वह फिर सो जाता है। प्रजातंत्र की पहली शर्त ही यही है सतत् जागरूकता में हर नागरिक रहें। अपने हितों के लिये सजग और सतर्क रहे। वो सपना जो हमारे नेताओं ने देश का संविधान देश की जनता को समर्पित करते समय एक संप्रभुसत्‍ता सम्‍पन्‍न गणराज्‍य का देखा था सच हो सके, और भारतीय गणराज्‍य सही अर्थों में विश्‍व का सबसे बड़ा और महान लोकतांत्रिक देश कहलाने का अधिकारी बन सके।
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अशोक व्यास
सी-79, क्रिस्‍टल केम्‍पस, अवधपुरी
खजूरी कलां भोपाल (म.प्र.)
ई-मेल akvyas1404@gmail.com

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: आलेख - भारतीय गणतंत्र और वर्तमान परिदृश्‍य - अशोक व्‍यास
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