संदर्भ- पांच जनवरी से दिल्ली में शुरू हो रहे विश्व पुस्तक मेले पर विशेष पुस्तक संस्कृति विकसित करने की जरूरत प्रमोद भार्गव हर साल की तर...
संदर्भ- पांच जनवरी से दिल्ली में शुरू हो रहे विश्व पुस्तक मेले पर विशेष
पुस्तक संस्कृति विकसित करने की जरूरत
प्रमोद भार्गव
हर साल की तरह इस बार भी भारत पुस्तक न्यास द्वारा दिल्ली के प्रकृति मैदान में विश्व पुस्तक मेला आयोजित है। मेले की मुख्य थीम दिव्यांगजनों की पठन आवश्यकताएं होगी। मेले की थीम ऐसे विषय पर रखी जाती है, जिससे समाज में जागरूकता आए। इससे पहले पर्यावरण, महिला सशक्तीकरण और भारत की सांस्कृतिक विरासत जैसे थीम विषय रहे हैं। मेले में अमेरिका समेत 20 देश और यूनेस्को जैसी कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भाग ले रही हैं। करीब 800 प्रकाशक भाग लेंगे। बावजूद हिंदी पुस्तकों को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद रहेगा। दरअसल बड़ी संख्या में हिंदी भाषी होने के बावजूद अधिकांश में पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं है। इस दृष्टि से पुस्तक पाठक तक पहुंचाने और पढ़ने की संस्कृति विकसित करने की जरूरत है। हालांकि बदलते परिवेश में जहां ऑनलाइन माध्यम पुस्तक को पाठक के संज्ञान में लाने में सफल हुए हैं, वहीं ऑनलाइन बिक्री भी बढ़ी है। इसके इतर गीता प्रेस गोरखपुर ने दावा किया है कि उनकी प्रत्येक दिन 61,000 पुस्तकें बिकती हैं। इससे यह पता चलता है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के खरीददारों की कमी नहीं हैं, बशर्तें पुस्तकें धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हों। यही वजह है कि इस समय देश में पौराणिक विषयों पर लिखी पुस्तकों की बिक्री में तेजी आई हुई है।
पुस्तक मेले का उद्देश्य जहां विविध विषयों की पुस्तकों को बिक्री के लिए एक जगह लाना है, वहीं पाठकों में पठनीयता भी विकसित करना है। इसीलिए पुस्तक जगत से जुड़ी सरकारी व अर्द्धसरकारी संस्थाएं और प्रकाशक संघ पिछले 62 साल से सक्रिय हैं। पठनीयता को बढ़ावा मिले, इसी दृष्टि से मेले में बढ़ी संख्या में पुस्तकों का विमोचन और विचार-गोष्ठियों का आयोजन होता है। इन आकर्षणों के बाद भी साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री उतनी नहीं हो रही है, जितनी अपेक्षित है। इसलिए पूरा पुस्तक व्यवसाय सरकारी थोक व फुटकर खरीद पर टिका है। इस कारण पुस्तकों का मूल्य भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहा है। लिहाजा सामाजिक बदलाव व संस्कृति से जुड़ी पुस्तकें आम आदमी की मित्र नहीं बन पा रही है। जबकि पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान, इतिहास-पुरातत्व तथा संस्कृति व सभ्यता से जुड़ी होने के साथ पूर्व पीढ़ियों के अनुभव व उनके क्रियाकलापों से भी जुड़ी हुई होती हैं। साहित्य के पठन-पाठन का कारण अवमूल्यन और अराजकता बन रहे है। इधर तकनीकि पढ़ाई और दैनिक जीवन में उसके बढ़ते प्रभाव ने भी मनुष्य की संवेदनशीलता का क्षरण किया है। इसलिए जरूरत है कि पुस्तकें सरकारी खरीद से बाहर निकलें।
पुस्तकों के विस्तार के लिए निरक्षर लोगों को साक्षर करना भी जरूरी है। साक्षरता के तमाम अभियान चलाने के बावजूद बमुश्किल सत्तर प्रतिशत आबादी ही साक्षात हो पाई है। हालांकि आजादी के पहले जब देश की बड़ी आबादी निरक्षर थी, तब पुस्तकों की 25-25 हजार प्रतियां छपती थीं, जबकि अब पहले संस्करण में 250 से एक हजार पुस्तकें ही छपती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पाठक संख्या सीमित हो रही है। ऐसा टीवी चैनलों पर धारावाहिकों का सिलसिला 24 घंटे चलने और सोशल मीडिया के हस्तक्षेप से भी हुआ है। इनमें ज्यादातर ऐसी सामग्री है जो समाज को कुंठित और हृदयहीन बना रही है। शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी प्रभाव के चलते भी हिंदी पुस्तकों की बिक्री प्रभावित हो रही है। हिंदी का प्रश्न राष्ट्रीयता से जुड़ा है, इसलिए इसे अकेली सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता। समाज को पुस्तकें पाठक तक पहुंचाने के लिए निजी स्तर पर प्रयत्न करने होंगे। इस लिहाज से जरूरी है कि जन्मदिन, शादी समारोह और अन्य मांगलिक अवसरों पर लोग पुस्तकें भेंट करने का सिलसिला शुरू करें। इस दृष्टि से गायत्री परिवार के सदस्यों ने शादी-समारोहों में पुस्तकों के स्टाल लगाना शुरू कर दिए हैं।
हिंदी पुस्तकों की स्थिति प्रकाशकों की उदासीनता के चलते भी निराशाजक रही है। ज्यादातर प्रकाशक पाठक तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते हैं। उनका भरोसा बड़े सरकारी संस्थानों की खरीद पर ही टिका है। इस कारण संसधानों में सेवारत विद्वान और अधिकारियों की पसंद की पुस्तकें छापने में भी प्रकाशक दिलचस्पी लेते हैं। किंतु ये पुस्तकें रुचिकर नहीं होती हैं। इसके उलट बांग्ला, मराठी और गुजराती भाषाओं की स्थिति आज भी हिंदी से बेहतर है। इन भाषाओं में पहला संस्करण आज भी 5000 की संख्या में छापे जा रहे हैं। हालांकि अंग्रेजी के अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के हिंदी में आने के बाद स्थिति बदली है। इन प्रकाशकों ने साहित्य की गंभीर पुस्तकों के अलावा लोकप्रिय साहित्य भी छापने का सिलसिला शुरू किया है। साथ ही अंग्रेजी के लोकप्रिय भारतीय साहित्य के हिंदी अनुवादों का भी प्रकाशन किया है। मिथक माने जाने वाले पौराणिक साहित्यिक कृतियों को ये प्रकाशक खूब छाप रहे है। इनकी बिक्री भी खूब हो रही है। यह वही पुराण और इतिहास से जुड़ा साहित्य है, जो आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गुरूदत्त, डॉ वृंदावन लाल वर्मा, नरेंद्र कोहली, रामकुमार भ्रमर और मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘, मनु शर्मा ने लिखा है। इस कालजयी साहित्य को वामपंथियों ने स्वीकारने के बजाय नकारने का काम किया। इस कुटिल मानसिकता के चलते हिंदी के कई नामी प्रकाशक केवल वामपंथ से जुड़ा नीरस और अपठनीय साहित्य छापते रहे। जबकि विदेशी प्रकाशकों ने इन्हीं पौराणिक किरदारों पर देवदत्त पटनायक, अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत, आनंद नीलकंठ, प्रमोद भार्गव और अशोक बैंकर की किताबों को छापा और कई-कई संस्करण बेचे। हालांकि इनका अनुकरण करते हुए हिंदी प्रकाशकों को बुद्धि आई और उन्होंने भी तमाम लेखकों की पुस्तकों के पेपरबैक संस्करण निकाले। इन किताबों में मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘ की ‘लंकेश्वर‘ महंगी होने के बावजूद खूब बिक रही है। दरअसल अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक पेंगुइन, हार्पर कॉलिंस, वेस्टलैंड पुस्तक के सुदंर कलेवर के साथ विक्रय की प्रचार संबंधी रणनीतियों के चलते ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित कर रहे है। लोकप्रिय लेखन और उसे पाठक तक पहुंचाने का फायदा यह है कि बाद में पाठक गंभीर साहित्य पढ़ने में भी रुचि लेने लगते हैं। अस्सी के दशक तक हिंदी में ऐसा ही था। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, रेणु और भ्रमर की लोकप्रिय पुस्तकों की लत पाठक को लग जाती थी, तो फिर वह प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु, भगवतीचरण वर्मा, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि साहित्यकारों को भी पढ़ने लगते थे।
हाल ही में एक समाचार एजेंसी की सुखद खबर आई है कि हिंदी पुस्तकों की मांग ऑनलाइन भी खूब बढ़ रही है। अभी तक इस संदर्भ में अंग्रेजी पुस्तकों का ही बोलबाला था। यह शायद पहला अवसर है जब हिंदी पुस्तकों की ई-खरीद में बढ़त दर्ज की गई है। पिछले छह माह में यह वृद्धि 60 प्रतिशत दर्ज की गई है। इससे ज्ञात होता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व और प्रौद्योगिकी के बीच भी हिंदी खूब फल-फूल रही है। कहना नहीं होगा कि हिंदी के वास्तविक हित चिंतकों के लिए यह खबर सुखद आश्चर्य के साथ गौरवांवित करने वाली है। ऑनलाइन अमेजन और फ्लिप कार्ड के जरिए खूब हिंदी पुस्तकें खरीदी जा रही हैं। अप्रैल 2014 में ऑनलाइन हिंदी बुक स्टोर की स्थापना करने वाले अमेजन का दावा है कि यह मांग आगे भी और बढ़ने वाली है। पुस्तकों की ई-बिक्री से फायदा यह हुआ है कि कस्बा और तहसील व जिला मुख्यालयों के पाठक भी अपनी रुचि की पुस्तक आसानी से मंगाने लगे हैं। ज्ञातव्य है कि शिक्षा से लेकर कैरियर के हर क्षेत्र में अंग्रेजी के बोलबाले के बीच हिंदी पुस्तकों की यह मांग उसकी प्रासंगिकता और महत्व को रेखांकित करती है। इसका सीधा सा अर्थ है कि पाठकों की रुचि और जरूरतों के अनुसार पुस्तकें हिंदी में आएं तो पुस्तकों की बिक्री सुनिश्चित है। इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए भारतीय ज्ञानपीठ, राजकमल, राधाकृष्ण, वाणी, प्रभात प्रकाशन, राजपाल एंड संस और प्रकाशन संस्थान जैसे प्रकाशको ने साहित्य की शीर्ष पुस्तकों के अलावा भरतीय भाषाओं की अनुदित पुस्तकों के साथ साहित्येतर पुस्तकें भी बढ़ी संख्या में छापना शुरू कर दी हैं।
दरअसल भारतीय संस्कृति इसलिए अनूठी व अद्वितीय है क्योंकि इसमें धर्म और भाषा के साथ खान-पान, रहन-सहन और पर्यावरण संबंधी विविधताएं भी मौजूद हैं। आदिवासी जनजीवन से जुड़ी सांस्कृतिक बाहुलता भी है। इसलिए भारत में आधुनिकता का ढोल चाहे जितना पीटा जाए, उसका अतीत कभी व्यतीत नहीं होता। वैसे भी हमारी संस्कृति में वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण और महाभारत ऐसे ग्रंथ हैं जो दुनिया की किसी भी साहित्य और संस्कृति में नहीं है। इनके किरदारों की गाथाएं पाठक नए संदर्भों और शब्दावली में पढ़ना चाहते है। नरेंद्र कोहली की रामकथा और मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘ का लंकेश्वर इसीलिए लोकप्रिय बने हुए हैं। पुरातन भारतीय साहित्य की एक विलक्षण्ता यह भी है कि उसमें अनेकता के रूप विद्यमान है। ऐसा दुनिया के अन्य किसी देश और भाषा के साहित्य में नहीं है। इसीलिए गीता प्रेस की यदि प्रतिदिन 61000 पुस्तकें बिक रही हैं, तो इस दावे को संदिग्ध दृष्टि से देखने की जरूरत नहीं है। गोया, यह जरूरी है कि पौराणिक भारतीय चरित्र नए-नए रूपों व संदर्भों में सामने आते रहें। पुस्तक मेले, ऐसे साहित्य के प्रचार-प्रसार और बिक्री में उल्लेखनीय योगदान देते हैं।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक, वरिश्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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