समीक्षित पुस्तक : 'गुमनामी के अंधेरे में' लेखक : से . रा . यात्री विधा : उपन्यास प्रकाशक : अमन प्रकाशन, 104-ए/80, रामबाग कानपुर—...
समीक्षित पुस्तक : 'गुमनामी के अंधेरे में'
लेखक : से. रा. यात्री
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : अमन प्रकाशन, 104-ए/80,
रामबाग कानपुर—208012 (उ प्र),
फोन नं 0542-254 34 80;
मोबाइल-8090 4536 47, 9839 2185 16
प्रकाशन वर्ष: 2017 (प्रथम संस्करण)
गुमनामी से वापसी--एक संस्मरणात्मक समीक्षा (समीक्षा)
--डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
कोई साल भर से सोच रहा था कि इस पुस्तक के बारे में कुछ लिखूँ। हाँ, समीक्षा जैसा लिखूँ। उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि जिस लेखक द्वारा लिखी गई यह पुस्तक है, उससे मेरा एक भावनात्मक संबंध बन चुका है—कोई सोलह वर्षों से। यह संबंध भी कुछ ऐसे बना है जिस पर टिप्पणी करना उचित लगता है; उस लेखक ने किसी साहित्यिक सम्मान हेतु प्रथम स्थान के लिए चयनित मेरी एक कहानी (‘अरे, ओ बुड़भक बंभना’) पर अपनी बेबाक टिप्पणी देते हुए शत-प्रतिशत अंक दिए थे। मैं उनका तभी से तहे-दिल से शुक्र-गुज़ार रहा हूँ क्योंकि उन्होंने मेरी कहानी में अंतर्भूत अंडरटोन को भलीभाँति समझा। तदनंतर, कई सालों तक उनके घर पर उनसे मिलकर आशीर्वाद लेने की योजना बना रहा था। अनेक बार अपने घर से कोई तीन किलो मीटर की दूरी पर स्थित उनके घर के आसपास पहुँचकर भी अपने संकोची स्वभाव के कारण उनका दरवाज़ा खटखटाए बग़ैर ही वापस चला आया—कुछ ऐसा अलपटप सोचते हुए कि कहीं लोग यह न समझें कि उन जैसे लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार से मिलकर मैं दुनिया के समक्ष अपना लेखकीय क़द ऊँचा प्रदर्शित करना चाहता हूँ। आख़िरकार, दिनांक 20 सितंबर 2017 को उनसे मुलाक़ात करने का अवसर बन पाया। वह मुलाक़ात भी अप्रत्याशित था। मैं उनके घर का पता पूछते हुए इधर-उधर भटक जा रहा था। इस भटकाव में तनिक अधीर मन से अपनी खोज को विराम देते हुए वापस लौटने के लिए कदम बढ़ा चुका था। तभी यक-ब-यक एक रहगुज़र से उस लेखक का ठिकाना पूछते हुए मैं ठिठक गया क्योंकि वह आदमी उसी लेखक का सुपुत्र निकला। उसने मुझे बताया कि बाबूजी (अर्थात वह लेखक) अत्यंत रुग्णावस्था में हैं और किसी भी शख़्स से मिलने की स्थिति में नहीं हैं, ‘फिर भी मैं उनसे पूछकर आपको बताता हूँ कि वे आपसे मुलाक़ात कर सकेंगे या नहीं।’
मैं कुछ देर तक उनके घर के बाहर खड़ा इंतज़ार करता रहा। जब वे वापस आए तो मुझे लेखक के कमरे में ले गए। मैं तो मन ही मन उस लेखक-पुत्र का धन्यवाद करता रहा—यह सोचते हुए कि यह लेखक-पुत्र भी अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा रहा होगा। हाँ, येन-केन-प्रकारेण बढ़ा ही रहा है—प्रति माह एक कहानी-गोष्ठी का आयोजन करके जिसमें मैं भी एक लंबी कहानी “नया ठाकुर” का आधा-अधूरा पाठ कर चुका हूँ। हाँ, कहानी लंबी और जटिल कथावस्तु पर आधारित होने के कारण मुझे अपना कहानी-पाठ बीच में ही छोड़ना पड़ा। दरअसल, ग्रामीण पृष्ठभूमि में उस कहानी की सारगर्भिता, बहूद्देशीय प्रासंगिकता और नग्न यथार्थ के चित्रण से सारा पाठ श्रोताओं के सिर के ऊपर से निकल जा रहा था। वहाँ उपस्थित जुगाड़बाजियों से प्रतिष्ठित कहानीकार बन चुके एक लेखक को भी उस कहानी का निहिताशय समझ में नहीं आया।
अस्तु, विषयांतर से बात न करके उस पुस्तक और उस लेखक के बारे में बताता हूँ। पुस्तक का शीर्षक है ‘ग़ुमनामी के अंधेरे में’ जो निरपवाद तौर पर लेखक का कमोवेश संस्मरणात्मक आत्मकथ्य होते हुए एक उपन्यास है तथा लेखक का नाम—से. रा. यात्री है।
वहाँ कथा-विधा के महान शिल्पकार या यूं कहें कि कथा के वास्तुकार ‘विश्वकर्मा’ सरीखे शख्सियत को रोग-शैय्या पर अत्यंत कृशगात दशा में देखकर मैं बड़ा विचलित हो रहा था। वार्तालाप में पूर्णतया असमर्थ यात्रीजी के संकेत पर मैं उनके बगल में बैठ गया। जो कहना चाह रहे थे, उसे बड़े प्रयत्नलाघव से बोलते हुए यात्रीजी ने मुझसे बार-बार कहा कि ‘अब इस भौतिक पीड़ा से ऊब चुका हूँ और इस वृद्धावस्था को नहीं झेल पा रहा हूँ; मेरे लिए प्रार्थना करो ताकि मैं इस शरीर का परित्याग कर सकूं।’ तदनंतर, उन्होंने अपने उपन्यास की एक प्रति यह कहते हुए मुझे भेंट की कि ‘मोक्षेंद्र, यह उपन्यास अभी-अभी छपकर आया है—जिसकी पहली प्रति मैं तुम्हें दे रहा हूँ।’ कुछ बातचीत के पश्चात, मैंने अपना सद्यःप्रकाशित कहानी संग्रह ‘संतगिरी’ भेंट की और उन्हीं के आग्रह पर पूर्व में ‘समकालीन साहित्य’ में प्रकाशित अपनी एक कविता ‘डिठौना’ भी सुनाई जिसे उन्होंने मुक्त कंठ से सराहा।
यात्रीजी से मिलकर लौटते हुए मैं यह सोच रहा था कि इस उपन्यास पर, जिसके बारे में यात्रीजी ने कई बार कहा कि इसमें मुद्रण संबंधी अनेक त्रुटियाँ हैं और दूसरे कई तरह के दोष भी हैं, शीघ्र ही एक समीक्षा लिखूंगा जिसे मैं कार्यालय और घर-गृहस्थी संबंधी अनेक व्यस्तताओं के कारण अब जाकर पूरे एक वर्ष बाद पूरा कर पा रहा हूँ—अत्यंत खेद है। मैं जहाँ तक समझता हूँ, यात्रीजी का यह संस्मरणात्मक उपन्यास है और इसमें उनका जीवन पूर्णतया झाँकता दिखाई दे रहा है। कहानी कहने वाले श्रीधर में लेखक का अपने अतीत का जीवन झाँकता हुआ परिलक्षित होता है। उपन्यास स्वातंत्र्योत्तर के तत्काल बाद से आरंभ होता है जबकि जवाहर लाल नेहरू जी का राजनीतिक वर्चस्व चरम सीमा पर था। वर्ष 1932 में जन्मे यात्री जी में साहित्यिक लेखन के प्रति रुझान कोई बाईस वर्ष की उम्र में ही पैदा हो गया था। पर, प्रथम कहानी संग्रह 'दूसरे चेहरे' वर्ष 1971 में प्रकाशित हुआ। बेशक, वह समय ऐसा था जबकि पुस्तकों के प्रकाशन हेतु लेखक को कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते थे; उसे लेखक बनने की प्रक्रिया में कितनी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसके अलावा, श्रीधर की बेरोज़ग़ारी की हालत हृदय-द्रावक है।
राजनीति से हमेशा तौबा करने वाले यात्रीजी ने राजनीति से विरत रखने की कोशिश में इस उपन्यास के कथानक को बुनने का श्लाघ्य प्रयास किया है। यात्रीजी की विचारधारा समाजवादी रही है जो बेशक समाजवाद के सिद्धांतों से अनुप्राणित रही है; पर, राजनीति से कतई प्रेरित नहीं रही है। जाति और वर्ण-व्यवस्था, कुछ ख़ास वर्गों के लिए अत्यधिक सुविधाओं का सृजन, समाज में असमान धन-वितरण, राजनेताओं द्वारा जन-धन का शोषण, अधिकारी-वर्ग द्वारा भ्रष्टाचार जैसी बातें उन्हें हमेशा सालती रही हैं। भारतीय राजनीति का सतत भ्रष्टाचारोन्मुख होना उन्हें देश के उज्ज्वल भविष्य के प्रति हमेशा निराश करता रहा है। चुनांचे, राजनीतिक ढकोसलों की बखिया उधेड़ने वाला इस उपन्यास का निहिताशय गहरा है तथा यह सियासी चालबाजियों की जमकर नंगाझोरी भी करता है। स्वयं लेखक इस बाबत कहता है—
“प्रस्तुत उपन्यास हमारी सत्ता-केंद्रित राजनीति की दिशाहीन भटकन और अनेक विध विद्रूपों को रेखांकित करता है। समस्त आदर्शों और मूल्यों को तिलांजलि दिए बिना इसे मंत्र-विद्ध करना अशक्य है। सब ओर विचित्र आपाधापी और उच्चाटन का साम्राज्य है। सब दौड़ रहे हैं किंतु कहाँ पहुँचना है तहा लक्ष्य क्या है, इसकी किसी को सुधि नहीं है।”
उपन्यासकार जिन पात्रों का विवरण इसके शुरुआत में ही करता है, वे पंडित नेहरू के अत्यंत निकट थे। ये पात्र रफ़ी अहमद किदवई, खानचंद्र गौतम जैसी शख़्सियत हैं जिन्हें लेखक ने मौकापरस्त व्यक्तियों के रूप में चित्रित किया है जबकि इनके निकट रहने वाला श्रीधर को अपनी विपन्नावस्था से उबरने के लिए इन जैसे लोगों से किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिल पाता है। श्रीधर निःसंदेह मौज़ूदा पढ़े-लिखे बेरोज़ग़ारों की शृंखला का स्वातंत्र्योत्तर काल के चुनिंदा सालों के तुरंत बाद के शुरुआती युवक के रूप में मुख़ातिब होता है। वह बेकारी की हृदय-विदारक गाथा के जिस केंद्र में है, उससे निःसृत पीड़ा आज भी कर्णस्फ़ोटक लगती है। बहरहाल, भौतिक विपन्नता से भले ही वह टूटा हुआ है; पर, उसकी मानसिक उदात्तता और भावनात्मक तथा बौद्धिक सोच हम जैसे बुद्धिजीवियों के मन को गहरे से प्रभावित कर जाती है। पाठक बार-बार श्रीधर में ख़ुद यात्रीजी के अक्स को देखने की ज़ुर्रत ख़ुद ही कर जाता है। उसके बारे में यात्रीजी स्वयं कहते हैं-
“उपन्यास का केंद्रीय पात्र नितांत संवेदनशील व्यक्ति है तथा महत मूल्यों को जीवन के सभी क्षेत्रों में प्राथमिकता देता है। वह सत्ता के केंद्र में रहकर भी तंत्र के मायावी चेहरे नहीं पहचान पाता है और अंततः घेरे से बाहर फेंक दिया जाता है। भटकते-भटकते उसकी उज्ज्वल वैचारिकता भी दंशित होने लगती है और एक दिन वह ग़ुमनामी के अंधेरे में दम तोड़ देता है।”
कथानक की पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश के निकटवर्ती स्थानों जैसेकि दिल्ली, खुर्जा शहर या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कुछ इलाकों में अवस्थित है जहाँ युवा आज़ादी के बाद से ही रोज़ग़ार या अपने स्वर्णिम भविष्य के लिए आते रहे हैं। पर, यहाँ भी ऐसे ही लोग बेहतर ज़िंदग़ी के लिए जुगाड़ बैठा सकते हैं जिनकी राजनीतिक पैठ हो या बड़े लोगों से गहरा परिचय हो। श्रीधर के पास ऐसा कुछ भी नहीं है; इसलिए वह ठोकरें खा रहा है। उसकी आपबीती आप स्वयं सुन लें—“मेरे सामने बेरोज़ग़ारी है और भयावह वर्तमान है। कुल मिलाकर दिग्भ्रम की ही दशा है।”
यहाँ ध्यान देने वाली बात “भयावह वर्तमान” है जिसे स्वर्णिम बनाने के लिए यह उपन्यास एक साकार रूप ले सका। मैं समझता हूँ कि अच्छे वर्तमान की तलाश के परिप्रेक्ष्य में ही इस उपन्यास का कथानक बुना गया है। पर, राजनेताओं के हथकंडे इस वर्तमान को “स्वर्णिम” में कभी रूपांतरित नहीं होने देंगे। वे “गांधीवाद” के सहारे जनता ही नहीं पूरे राष्ट्रीय समाज को छलते रहेंगे। “गांधीजी के आदर्शों और मूल्यों की हर क्षण हत्या” वे करते रहेंगे जबकि “गांधी उनके लिए एक अत्यंत मूल्यवान हुंडी है जिसे वे हमेशा भुनाते चले जाएंगे।”
राजनीतिक स्वांग और छलपूर्ण गतिविधियाँ कहाँ नहीं है? हमारे समाज का कोई भी अंग इनसे अछूता नहीं है। इसके चंगुल में सभी फँसे हुए हैं। उपन्यास में काशी जाकर शिक्षार्जन के लिए जिन कठोर संघर्षों का विवरण दिया गया है, वे निःसंदेह, लेखक के अपने जीवन के संघर्षों की ओर इशारा करते हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोधछात्र के रूप में दाखिला लेने की एक युवक की निरुद्देश्यता पर पाठक तो खीझ ही जाएगा, क्योंकि वह जीवन की जिन कठोर वास्तविकताओं को देखता है, उनसे उसका जी उचट जाता है और विश्वविद्यालय में प्रवेश लिए बिना वापस लौट जाता है। उसकी मानसिक उहापोह की स्थिति का जायज़ा लेखक बखूबी लेता है—“बनारस से गाड़ी में सवार होने के बाद मैं बराबर बेचैनी महसूस करता रहा। मुझे बराबर यह अफ़सोस होता रहा कि जब मुझे वहाँ दाख़िला लेना ही नहीं था तो गया ही क्यों था? यह निहायत बचकाना खयाल था कि मैं आचार्य हजारी प्रसाद की छत्रछाया में एम ए तथा शोध करना चाहता था। मेरी आयु भी परिपक्व नहीं थी और बनारस जाते समय मैं सहज भावुकता की झोंक में था फिर मिश्रा जी ने मेरे लिए जो कष्ट उठाए। निरंतर भाग-दौड़ की उसका बदला मैंने किस रूप में चुकाया, घोर कृतघ्न बनकर ही न।”
चुनांचे, यह उपन्यास अंत तक बेकारी से लड़ते हुए एक युवक के जीवन में दुर्दांत आपाधापी की मर्मस्पर्शीय कहानी है। कहीं वह अपनी रिकार्डिंग के लिए रेडियो स्टेशन के चक्कर लगाता है तो कभी किसी पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर देता है। पर, ठोस कुछ भी नहीं कर पाता है। बीच-बीच में गौतम के साथ उसकी मुलाक़ात कथोपकथन को अत्यंत रुचिकर बना देती है। पर, उपन्यास में अनेकानेक स्थलों पर सरकारी कार्यालयों के दिलचस्प वातावरण को रूपायित किया गया है। यह भी ध्यातव्य है कि लेखक अपने जीवन में भोगे गए अनुभवों की हाट लगाते हुए जीवन के सभी पहलुओं को बड़ी सिद्धहस्तता से प्रस्तुत करता है। सारी घटनाएं श्रीधर और खान चंद गौतम के इर्द-गिर्द घटित होती हैं। पर, उपन्यास के अंत में कनॉट प्लेस के एक चौराहे पर गौतम की हृदयाघात से हुई मौत न केवल श्रीधर को द्रवित कर जाती है अपितु पाठक को भी शोक-सागर में डुबो देती है। यह उपन्यास स्वातंत्र्योत्तर काल से आरंभ होकर वर्तमान तक के बीच की कालावधि को स्वयं में समेटे हुए है।
आख़िर में हम यह पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इस उपन्यास को यात्रीजी की आत्मकथा के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। बेशक, उपन्यास आत्मकथात्मक होने के कारण पाठकों के लिए विशेष तौर पर जिज्ञासापूर्ण होगा। यद्यपि इस उपन्यास का शीर्षक ‘ग़ुमनामी से वापसी’ है; पर, इसे ‘ग़ुमनामी से वापसी’ होना चाहिए। से रा यात्री कोई ऐसा नाम नहीं है जिसे ग़ुमनामी के अंधेरे में खो जाना चाहिए। ऐसा तो कतई सही नहीं होगा।
(समाप्त)
जीवन-चरित
लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लेखन}
वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव
पिता: (स्वर्गीय) श्री एल.पी. श्रीवास्तव,
माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव
जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)
शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से
पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज़: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन
लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक़्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इंक़लाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6.एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; 7-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 8. अदमहा (नाटकों का संग्रह) ऑनलाइन गाथा, 2014; 9--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 10.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास); 11. चार पीढ़ियों की यात्रा-उस दौर से इस दौर तक (उपन्यास) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; 12. महापुरुषों का बचपन (बाल नाटिकाओं का संग्रह) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018
संपादन: “महेंद्रभटनागर की कविता: अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति”
संपादन: “चलो, रेत निचोड़ी जाए” (साझा काव्य संग्रह)
--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित
--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन
--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन
--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा ‘साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान’ (मानद उपाधि); प्रतिलिपि कथा सम्मान-2017 (समीक्षकों की पसंद); प्रेरणा दर्पण संस्था द्वारा ‘साहित्य-रत्न सम्मान’ आदि
"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक
"वी विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक
'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक
हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमोक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, इ-कल्पना, अनहदकृति, ब्लिज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित
आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत
इ-मेल पता: drmanojs5@gmail.com
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