- राजेश माहेश्वरी परिचय राजेश माहेश्वरी का जन्म मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में 31 जुलाई 1954 को हुआ था। उनके द्वारा लिखित क्षितिज, जीवन कैसा ह...
- राजेश माहेश्वरी
परिचय
राजेश माहेश्वरी का जन्म मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में 31 जुलाई 1954 को हुआ था। उनके द्वारा लिखित क्षितिज, जीवन कैसा हो व मंथन कविता संग्रह, रात के ग्यारह बजे एवं रात ग्यारह बजे के बाद ( उपन्यास ), परिवर्तन, वे बहत्तर घंटे, हम कैसे आगे बढ़ें एवं प्रेरणा पथ कहानी संग्रह तथा पथ उद्योग से संबंधित विषयों पर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
वे परफेक्ट उद्योग समूह, साऊथ एवेन्यु मॉल एवं मल्टीप्लेक्स, सेठ मन्नूलाल जगन्नाथ दास चेरिटिबल हास्पिटल ट्रस्ट में डायरेक्टर हैं। आप जबलपुर चेम्बर ऑफ कामर्स एवं इंडस्ट्रीस् के पूर्व चेयरमेन एवं एलायंस क्लब इंटरनेशनल के अंतर्राष्ट्रीय संयोजक के पद पर भी रहे हैं।
आपने अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, सिंगापुर, बेल्जियम, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड, हांगकांग आदि सहित विभिन्न देशों की यात्राएँ की हैं। वर्तमान में आपका पता 106 नयागांव हाऊसिंग सोसायटी, रामपुर, जबलपुर (म.प्र) है।
1- नवजीवन
सूर्योदय की पहली किरण
मन में कर रही
नई आशाओं का संचार
प्रभु कृपा से क्षितिज से
आई एक नई पहचान
हृदय में कल्पनाओं का
हुआ जागरण
प्रतीक्षा का जीवन में हुआ पदार्पण
संसार को बांहों में भर लेने
बढें दो नन्हें हाथ
आकाश के तारों के समान
टिमटिमा रही आँखें
कलम के समान
सुंदर स्वरूप
गुलाब सी महकतीं साँसें
जीवन के यथार्थ से
हो रहा साक्षात्कार
दुनिया के उजाले में
जीवन की पहली साँस
मिल रहा सबका आशीर्वाद
तेरे शुभागमन से
जाग उठा है आशाओं का
एक नया संसार
जीवन में
धीरता, वीरता और गंभीरता का
समन्वय रहे तेरी प्रतिभा में
जिससे पुख्ता हो
तेरे भविष्य की बुनियाद
हमारी सभ्यता और संस्कृति
तेरे भावी जीवन का हो आधार
यही है हम सभी का आशीर्वाद
बेटी तुम हो लक्ष्मी का स्वरूप
सरस्वती की हो तुम पर कृपा
दोनों दिखलाएँ तुम्हें
जीवन की सही राह
और तुम बनो
औरों के लिए
सही राह दिखलाने वाला
प्रकाश स्तम्भ।
02- माँ
माँ की ममता और त्याग का मूल्य
मानव तो क्या
परमात्मा भी नहीं चुका सकता।
वह स्नेह व प्यार
वे आदर्श की शिक्षाएँ
जो उसने दी
और कौन दे सकता है ?
जननी की शिक्षा में ही छिपी है
हमारे जीवन की सफलता।
हमारी कितनी नादानियों को
वह करती है माफ।
हमारी चंचलता
हमारा हठ और
हमारी शरारतें
वह करती है स्वीकार।
वह है सहनशीलता की प्रतिमूर्ति
उसकी अंतर आत्मा के ममत्व में
प्रकाशित होती है अंतर ज्योति।
जीवन के हर दुख में
वह रही है सहभागी
लेकिन जब सुख के दिन आए तो
वह चलने लगी
प्रभु की तलाश में
एकांत प्रवास में।
हम उसे नहीं रोक सके
लेकिन उसके पोते पोतियों ने
कर दिया कमाल
जाग उठी उसकी ममता
और दादी रूक गई।
दादी के फर्ज ने उसे रोक लिया
और वह रूक गई।
संसार का नियम है
एक दिन तो उसे भी जाना है
अनन्त में
पर वह जाएगी
हमें अपने पैरों पर खडा करके
हमें स्वावलंबी बनाकर
हेागी वह अलविदा।
03- मैं और तुम
मैं और तुम
समुद्र का किनारा
लहरों में जीवन की कल्पना
मन में उमडते नए नए विचार
क्षितिज में उगता हुआ सूर्य
उसे हो स्वीकार
हमार नमस्कार
कोलाहल का प्रारंभ
प्रतिदिन
जीवन की यही है शुरूआत।
एक दिन तुम भी नहीं
बस वही तुम्हारी बातें,
तुम्हारी यादें,
जीवन की दिनचर्या
फिर भी वही
पर साथ नहीं है
मैं और तुम।
नियति के पास
सिर्फ मैं और तुम नहीं हो।
मै यहाँ, तुम वहाँ
दिनचर्या वही
जीवन में एकाकीपन की अनुभूति
समय की मार।
स्थान रिक्त नहीं
कोई दूसरा वहाँ
कर रहा दिनचर्या का प्रारम्भ
जीवन का यह क्रम
अनवरत चल रहा
जब तक सृष्टि है
ऐसा ही चलेगा
हमारा स्थान
कोई दूसरा लेता रहेगा
है प्रभु तेरी माया को
शत शत नमन।
04- तुम और मैं
तुम हो कल्पनाओं की रानी
मैं हूँ हकीकत का राजा।
तुम हो रूप की महारानी
मैं हूँ धन का महाराजा।
तुम हो चांदनी सी शीतल और उज्जवल
मैं हूँ धूप सा ऊर्जावान
तुम सिखाओ मुझे जीने की कला
मैं दिखाऊँ तुम्हें अपेक्षा और प्रतीक्षा।
जीवन में सब कुछ पाया
लेकिन एक दिन मिट जाएगी
यह सुंदर काया।
शेष रहेंगी बस
धर्म और कर्म की स्मृतियाँ।
आदमी
लोभ, मोह, काम, क्रोध
और माया में है लिप्त।
इसीलिए उसका
जीवन है अभिशप्त।
अपने पुरूषत्व और भाग्य को
समझ नहीं पाता है
इसलिये पछताता है
भाग्य है दर्पण
पौरूष है उसका प्रतिबिम्ब।
दोनों का हो जीवन में सामंजस्य
तभी मिलेगी सफलता
और तब मिलेगी
जीवन को संपूर्णता
और फिर होना है
अनन्त में विलीन।
05- कवि और कविता
कवि हूँ
संवेदनशील व सृजनात्मक
सृजनकर्ता हूँ।
समय परिवर्तित हुआ
पर मैं
पुरातनपंथी ही रहा,
अब सृजन कम
उसका गुंजन ज्यादा हो गया।
कवि की संवेदना
और उसका प्रेम
आधुनिकता में
कही खो गया।
अब कविता
सृजन का नहीं
मनोरंजन का साधन है।
जो कर रहे है
इस समय से समझौता,
साहित्य, संस्कृति और सभ्यता को
दे रहे है धोखा।
डिस्को की थिरकन नहीं है
वह श्रोता या पाठक को
चिंतन मनन और अनुभूति की
दायिका है
युवा अन्तरमन में करती है
भावनाओं का संचार।
राष्ट्रीयता के हित में हो
कवि का सृजन,
ऐसा हो उसके हृदय में
मंथन, चिंतन और मनन।
06- तेरा मेरा
कीचड़ में कमल और
काँटों में गुलाब खिलता है
तेरा-मेरा का मनन और चिन्तन
करता है विश्वास पर आघात और
दिखलाता है अपना विकराल स्वरूप।
मानव सोचता है
यह भी मेरा
वह भी मेरा
सब कुछ मेरा।
जितनी भी अच्छाइयाँ हैं
वह सब मेरी
जितनी भी बुराइयाँ हैं
वे सब दूसरों की।
यही है विवाद की पृष्ठभूमि और
यही है सुख को दुख में
परिवर्तित करने की दास्तान।
यदि हो जाए हमारी सेाच में परिवर्तन
जो मेरा वह तेरा भी
आ जाए यह दृष्टिकोण
तो विवाद होंगे समाप्त
जीवन होगा कमल सा सुन्दर और
गुलाब सा खुशबूदार।
आओं हम प्रण लें
तेरा-मेरा में उलझकर
समय बर्बाद नहीं करेंगे।
जो वास्तव में मेरा है
वही मेरा है
बाकी सब तेरा है।
इस भावना का उदय करेंगे
अपना संसार
खुशियों से भरेंगे।
दूसरों के लिए
प्रेरणा के स्त्रोत बनेंगे।
07- अहिंसा परमो धर्मः
अहिंसा परमो धर्मः
कभी थी हमारी पहचान
आज गरीबी और मँहगाई में
पिस रह इंसान
जैसे कर्म करो
वैसा फल देता है भगवान।
पर कब, कहाँ और कैसे
नहीं समझ पाता इंसान।
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, चर्च
सभी बन रहे हैं आलीशान।
कैसे रहें यहाँ पर
प्रभु स्वयं है परेशान
वे तो बसते है
दरिद्र नारायण के पास।
हम उन्हें खोजते है वहाँ
जहाँ है धन का निवास।
पूजा, भक्ति और श्रद्धा तो
साधन है
हम इन्ही में भटकते है।
परहित, जनसेवा और
स्वार्थरहित कर्म की ओर
कभी नहीं फटकते है।
काल का चक्र
चलता जा रहा है।
समय निरंतर गुजरता जा रहा है।
दीन दुखियों की सेवा
प्यासे को पानी
भूखे को रोटी
समर्पण की भावना
घमंड से रहित जीवन से होता है
परमात्मा से मिलन
अपनी ही अंतर्रात्मा में
होते है उसके दर्शन।
जीवन होगा धन्य तुम्हारा
प्रभु की ऐसी कृपा पाओगे
हँसते हँसते अनंत में विलीन हो जाओगे।
08- जननी और जन्मभूमि
सूर्योदय की बेला में
जननी और जन्मभूमि को
हम करें याद।
हम पर है इनके अनमोल अहसान
जिन्हें कभी नहीं चुका सकते
हम और आप।
इनकी अपेक्षाओं को पूरा करने का
हम करें प्रयास।
मानवीयता को करें अंगीकार
और फिर गुँजाएँ
विश्व-शांति का पैगाम।
इतनी ही है इनकी अपेक्षा
हम कब इसे करेंगें पूरा
वही है इनकी प्रतीक्षा।
यह शाश्वत सत्य है कि
इनका आशीष
जीवन की धुरी है
और है सफलता का आधार।
इसे करें स्वीकार
तब जीवन होगा
सूर्य सा प्रकाशवान।
सरिता के बहते जल सा
निरन्तर गतिवान।
यह है सृष्टि का नियम
इसे करें अंगीकार
सही दिशा में
सही राहों पर
चलते रहे।
बढ़ते चलें।
पूरी करते रहें
जननी और जन्मभूमि की अपेक्षा।
09- जीवन और हम
जीवन में
असफलताओं को
करो स्वीकार
मत होना निराश
इससे होगा
वास्तविकता का अहसास।
असफलता को सफलता में
परिवर्तित करने का करो प्रयास।
समय कितना भी विपरीत हो
मत डरना
साहस और भाग्य पर
रखना विश्वास
अपने पौरूष को कर जाग्रत
धैर्य एवं साहस से
करना प्रतीक्षा सफलता की
पौरूष दर्पण है
भाग्य है उसका प्रतिबिम्ब
दोनो का समन्वय बनेगा
सफलता का आधार।
कठोर श्रम, दूर दृष्टि और पक्का इरादा
कठिनाईयों को करेगा समाप्त
होगा खुशियों के नए संसार का आगमन
विपरीत परिस्थितियो का होगा निर्गमन
पराजित होंगी कुरीतियाँ
होगा नए सूर्य का उदय
पूरी होंगी सभी अभिलाषाएँ
यही है जीवन का क्रम
यही है जीवन का आधार।
10- जीवन ऐसा हो
विसंगतियों और कुरीतियों का
हो विध्वंस
व्याभिचार एवं अनीतियों का
हो मर्दन
स्वविवेक और स्वचिंतन से हो
नूतन सृजन।
सभी के प्रति हो स्नेह और
सभी से मिले प्यार
श्रम से परिपूर्ण हो जीवन
हृदय और आत्मा में हो
प्रभु के प्रति विश्वास और समर्पण
नदी में प्रवाहित जल के समान
जीवन में
नित नई उपलब्धियाँ हों।
सदाचार, सदभावना और सद्बुद्धि
चिंतन और मनन से निर्धारित हेा
जीवन का लक्ष्य।
जीवन में हो
सुख, समृद्धि, वैभव और मान-सम्मान।
प्रभु की अनुकम्पा से पूरा हो
लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प।
परपीडा केा दूर करने के लिए
खुले रहे दोनो हाथ।
समाज के हर वर्ग
की प्रगति में हमारा
तथा हमारी प्रगति में
समाज के हर वर्ग का
येागदान हो।
तन, मन व मस्तिष्क में हो
राष्ट्र प्रथम की भावना।
कर्तव्य के रूप में यह भावना
हमारे जीवन में समाहित हो।
ऐसा जीवन हमारा हो।
11- दर्पण और प्रतिबिम्ब
सत्य एवं ईमानदारी
मानवीयता के दर्पण है।
असत्य और बेईमानी
कालिमा के प्रतिबिम्ब है।
दीपक के प्रकाश में
प्रकाशित होता है दर्पण।
दीपक तले अंधेरे सा
होता है प्रतिबिम्ब।
दर्पण मानवीयता को गौरवान्वित करके
मानव के मस्तिष्क को
करता है ऊँचा
और उसे दिलाता है
मान सम्मान व गौरव।
प्रतिबिम्ब हमेशा
दर्पण के पीछे रहकर
चाहकर भी
आगे नहीं बढ पाता।
बदल सकता है
दर्पण का स्वरूप
पर प्रतिबिम्ब
वह नहीं बदल सकता।
दर्पण है नवविकसित पुष्प सा
प्रतिबिम्ब है मुरझाया हुआ फूल
भावनाओं का प्रतीक है दर्पण
वासनाओं का प्रतीक है प्रतिबिम्ब।
जीवन हो दर्पण सा उज्जवल
वह प्रतिबिम्ब सा ना हो
यही है जीवन का सत्य
इसे करें स्वीकार
और करें अंगीकार।
12- धर्म, कर्म और भाग्य
धर्म और कर्मं
कर रहे हों विश्राम।
तभी अचानक
आ जाए वहाँ भाग्य,
धर्म और कर्म का
न जाए उसकी ओर ध्यान।
भाग्य को अनुभव हो
अपना अपमान
वह कुपित होकर
कर्म को फल प्राप्त होने से वंचित कर
उसे स्थिर कर दे।
धरती पर तब मच जाएगा
ळाहाकार
जीवन हो जाएगा
अस्त-व्यस्त,
धर्म, कर्म एवं भाग्य में,
कौन है महान ?
छिड जाएगा इसका विवाद।
सभी शक्तिशाली है
हार और जीत का फैसला
हो नहीं सकता।
पर इस विवाद में
होगा विध्वंस
इसीलिए सृष्टि में
तीनों के बीच है
समन्वय और सामंजस्य
इनमें कभी नहीं होता विवाद
जिस दिन ऐसा हेागा
वह दिन इस वसुधा पर
प्रलय का दिन होगा।
13- मार्गदर्शक
गुरू बिना ज्ञान नहीं
माता-पिता के आशीर्वाद के बिना
सही राह की पहचान नहीं।
हम कर रहे कठोर परिश्रम
लेकिन नहीं मिल रहे अपेक्षित परिणाम
व्यर्थ जा रहा है समय
क्योंकि हम नहीं पहचान पा रहे हैं
सही समय,
नहीं है हममें
सही निर्णय लेने की क्षमता
मन में उपज रही है कुंठा।
अपनी बौद्धिक क्षमता को
धनुष समझें,
धैर्य को धारण कर
कर्म के तीर चलाएँ
सफलता अवश्य मिलेगी।
जीवन में होगा नई ऊर्जा का संचार
समाज को मिलेगी नई दिशा
तभी मिलेगी
हमारे गुरू और माता पिता को
पूर्ण संतुष्टि।
14- धर्म और कर्म
धर्म और कर्म में
कौन है महान ?
प्रश्न है जटिल
समाधान भी नहीं है आसान।
धर्म से कर्म या
कर्म से धर्म
सच क्या है ?
सोच रहा इंसान
धर्म नहीं होता तो
कर्म होता
अनियन्त्रित और अव्यावहारिक।
मानव का कर्म
सद्कर्म है या दुष्कर्म
अंतर समझ में नहीं आता।
धर्म देता है इसका ज्ञान
धर्म ही है वह राह
जिस पर चलकर
कर्म बनता है सद्कर्म।
धर्म के बिना
मानव होगा दिग्भ्रमित
और उसे नहीं हो सकेगी
सही दिशा की पहचान।
सभी धर्मों का
एक ही है मूलाधार
जो बतलाता है
मानवता है धर्म
और मानवीयता है कर्म
इसीलिए
धर्म और कर्म
दोनो ही है महान।
एक के बिना दूसरा
सिर्फ और सिर्फ
रह जाता है अज्ञान।
15- सच्चा प्रेम
प्रेम एक अनुभूति है
जिसका कोई स्वरूप नहीं
जिसका कोई विकल्प नहीं
एक ज्योति है
हृदय में हेाता है जिसका प्रकाश
एक अहसास है
एक कल्पना है
जो वास्तविकता में परिवर्तित हो
बनती है जीवन का आधार
एक तपस्या है
भावनाओं का समर्पण है
एक ऐसी भक्ति है
जिसका ना हो प्रारम्भ है
और ना ही अंत है।
यह तिरस्कार नहीं है
इसमें है सुख और शांति
इसमें है जीने की कला
यह देता है
तन और मन को बल
आत्मा को चेतना।
विपरीत परिस्थितयों में भी
समर्पण होता है
हाँ हाँ यही तो है
सच्चा प्रेम।
--
RAJESH MAHESHWARI
106, NAYAGAON CO-OPERATIVE
HOUSING SOCIETY, RAMPUR,
JABALPUR, 482008 [ M.P.] CONTACT DETAIL :-
Email-authorrajeshmaheshwari@gmail.com
COMMENTS