‘‘अच्छा आदि, अब कल सुबह स्कूल में ही मिलेंगे.’’ स्कूल बस में बैठे जतिन ने अपना स्कूल बैग सँभालते हुए अपने साथ बैठे आदित्य से कहा. ‘‘स्कूल ...
‘‘अच्छा आदि, अब कल सुबह स्कूल में ही मिलेंगे.’’ स्कूल बस में बैठे जतिन ने अपना स्कूल बैग सँभालते हुए अपने साथ बैठे आदित्य से कहा.
‘‘स्कूल में क्यों? बस में क्यों नहीं?’’ आदित्य पूछने लगा.
‘‘यार, आज मेरे पापा आ रहे हैं न छह दिनों की छुट्टियाँ लेकर! कल उन्हीं के साथ जाऊँगा स्कूल के गणतन्त्र दिवस के फंक्शन में और वापिस भी आऊँगा उन्हीं के साथ!’’ जतिन ने उत्साहभरी आवाज़ में उत्तर दिया.
‘‘तुम्हारे पापा मिलिट्री की ड्रैस में आएँगे क्या स्कूल में?’’ आदित्य ने एक और सवाल किया.
‘‘नहीं आदि, वे आम कपड़ों में ही आएँगे. मिलिट्री ड्रैस तो वे तब पहनते हैं जब ड्यूटी पर होते हैं.’’ जतिन यह सब कह ही रहा था कि उसका स्टॉप आ गया और वह जल्दी से आदित्य से हाथ मिलाकर सीट से उठ खड़ा हुआ.
स्कूल बस से उतरकर वह तेज़ी से अपने घर की ओर चल पड़ा. घर की घंटी बजाने पर जैसे ही मम्मी ने दरवाज़ा खोला, वह पूछने लगा, ‘‘पापा आ गए हैं क्या?’’
जतिन का प्रश्न सुनकर मम्मी मुस्कुरा पड़ीं और फिर कहने लगीं, ‘‘बेटू, तुम्हारे पापा ने तो शाम के पाँच बजे तक आना है न. अभी तो दो ही बजे हैं.’’
जतिन घर के अन्दर आया तो उसे रसोई से आती खुश्बू महसूस हुई.
‘‘बेसन के लड्डू बना रही हो न मम्मी!’’ वह पूछने लगा.
‘‘हाँ बेटू. तुम्हारे पापा को बड़े अच्छे लगते हैं न बेसन के लड्डू!’’ कहते हुए मम्मी रसोई की ओर चली गईं.
‘‘हाँ बेटू. तुम्हारे पापा को बड़े अच्छे लगते हैं न बेसन के लड्डू!’’ कहते हुए मम्मी रसोई की ओर चली गईं.
तभी रसोई से मम्मी की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘बेटू, कपड़े बदलकर मुँह-हाथ धो लो. मैं खाना लगा रही हूँ डाइनिंग टेबल पर. अभी तुम्हारे दादू ने भी खाया नहीं है.’’
जवाब में जतिन कुछ कहता कि तभी दादा जी अपने कमरे से बाहर आते हुए नज़र आए. जतिन ने बड़े जोश से उन्हें फौजी सैल्यूट मारा. जवाब में उन्होंने भी जतिन को उसी तरह सैल्यूट किया.
दरअसल जतिन के दादा जी ने क़रीब तीस सालों तक सेना में नौकरी की थी. इसलिए वे लाड़-लाड़ में जतिन को फौजी सैल्यूट मारा करते थे. धीरे-धीरे जतिन ने भी फौजी स्टाइल में सैल्यूट करना सीख लिया था.
‘‘आ गया मेरा शेर स्कूल से?’’ दादा जी ने पूछा. वे जतिन को प्यार से शेर कहकर बुलाया करते थे.
‘‘हाँ, दादा जी, मगर आपने अभी तक खाना क्यों नहीं खाया? आप तो ठीक एक बजे खा लेते हैं न खाना!’’ जतिन ने सवाल पूछा.
‘‘आज पुरानी एलबमों को देखने लगा तो उनमें लगी तस्वीरों को देखते हुए पुरानी यादों में बिल्कुल ही खो गया. ऐसे में खाना खाने का मन ही नहीं हुआ. तुम्हारी मम्मी ने तो कई बार खाने के लिए पूछा, मगर मैंने ही कह दिया कि आज शेर के साथ ही खाएँगे दोपहर का खाना.’’ दादा जी ने कहा.
‘‘दादू, खाना खाकर मैं भी देखूँगा सारी एलबमें.’’ जतिन बोला.
‘‘हाँ-हाँ, ज़रूर देखना. तुम्हारे पापा की बचपन की कई फोटो भी हैं एलबम में.’’ दादा जी अभी यह सब कह ही रहे थे कि ड्राइंगरूम में रखा फोन बजने लगा.
‘‘मोबाइल के ज़माने में यह लैंडलाइन पर किसका फोन आ गया?’’ कहते हुए दादा जी फोन की ओर बढ़ने लगे.
‘‘मैं देखता हूँ किसका फोन है.’’ कहते हुए जतिन भागकर फोन की तरफ़ गया और फिर उसने तिपाई पर रखे फोन का रिसीवर उठा लिया.
रिसीवर को कान से लगाकर जतिन ने जैसे ही ‘हैलो’ कहा, उधर से एक गम्भीर-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘दीनानाथ जी से बात करनी है.’’
दीनानाथ दादा जी का नाम था. जतिन ने रिसीवर उन्हें पकड़ा दिया. दादा जी ने रिसीवर को कान से लगाकर ‘हैलो’ कहा और फोन सुनने लगे. तभी उनके मुँह से ज़ोर से निकला, ‘‘क्या? कब? कैसे?’’
तब तक मम्मी भी रसोई के दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गई थीं.
उसके बाद दादा जी काफ़ी देर तक फोन का रिसीवर कान से लगाए दूसरी ओर से कही जा रही बात सुनते रहे. फिर उन्होंने ‘अच्छा’ कहते हुए रिसीवर फोन पर रख दिया और धीरे से चुपचाप सोफे पर बैठ गए.
‘‘क्या बात है, पापा जी?’’ मम्मी ने रसाई के दरवाज़े पर खड़े-खड़े पूछा.
जवाब में दादा जी कुछ नहीं बोले, बस उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं और सिर पीछे टिका लिया.
‘‘क्या बात है, दादा जी.’’ जतिन ने दादा जी के पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.
दादा जी कुछ देर वैसे ही खामोश बैठे रहे. फिर धीरे-से उन्होंने अपनी आँखें खोलीं, सिर सीधा किया और धीमी आवाज़ में बोले, ‘‘मेरा बेटा शहीद हो गया है.’’
‘‘क्या?’’ यह सुनते ही जतिन को मानो चक्कर-सा आ गया. वह धम्म-से सोफे की कुर्सी पर बैठ गया. सैनिक परिवार में होने के कारण वह शहीद होने का मतलब अच्छी तरह समझता था.
‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ तभी मम्मी ने धीमी-सी बुझी हुई आवाज़ में पूछा.
‘‘कल शाम को एक मिलिट्री कैम्प में कुछ आतंकवादी घुस आए थे. उन्हीं का मुक़ाबला करते-करते शहीद हो गया मेरा बेटा, मेरा विपिन. मगर जाते-जाते उसने दो आतंकवादियों को मार गिराया.’’ दादा जी बता रहे थे.
यह सुनते-सुनते जतिन हिचकियाँ लेकर रोने लगा. उसे लग रहा था मानो सारी दुनिया ही ख़त्म हो गई हो.
यह देख मम्मी जतिन के पास आईं और उसके पास बैठ गईं. फिर उन्होंने एक हाथ से उसका सिर अपने कंधे से लगा लिया और दूसरे हाथ से उसकी कमर सहलाने लगीं.
‘‘यह क्या हो गया, मम्मी!’’ जतिन रोते-रोते बोला.
‘‘रोओ मत बेटू. सब्र करो.’’ मम्मी ने अपनी हथेली से जतिन को आँसू पोंछते हुए कहा.
‘‘शेर भी कभी रोता है? अरे बेटा, तुम्हारे पापा शहीद हुए हैं! अपने देश के लिए शहीद! साथ ही, शहीद होने से पहले दो आतंकवादियों को भी ख़त्म किया है तुम्हारे पापा ने!’’ कहते-कहते दादा जी थोड़ी देर के लिए रूके और फिर कहने लगे, ‘‘मैंने भी अपना बेटा खोया है पर मुझे तो गर्व है कि मैं शहीद का पिता हो गया हूँ.’’
तभी मम्मी भी कहने लगीं, ‘‘हाँ बेटू, देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देना तो बहुत बड़ी बात है. मैं भी सिर उठाकर गर्व से कह सकती हूँ कि मैं शहीद की पत्नी हूँ.’’
‘‘तुम्हारे पापा की बॉडी कल दोपहर तक यहाँ पहुँचेगी. फिर पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार होगा. कितने लोगों को मिल पाता है ऐसा सौभाग्य?’’ दादा जी की आवाज़ की बुलन्दी लौट आई थी.
जतिन का रोना थमा नहीं था. हिचकियाँ लेते हुए वह अब भी बुरी तरह रो रहा था.
‘‘बेटू, अपने पापा के जाने का दुःख न करो. इस बात का गर्व करो कि वे देश के लिए शहीद हुए हैं.’’ मम्मी ने जतिन को ढाढस बंधाते हुए कहा.
‘‘कल सुबह स्कूल के गणतन्त्र दिवस के फंक्शन में जाना और साथ में वे लड्डू भी ले जाना जो तुम्हारी मम्मी बना रही थी तुम्हारे पापा के लिए. अपनी टीचर्स और क्लास के बच्चों को वे लड्डू देना और गर्व से कहना कि मैं शहीद मेजर विपिन कुमार का बेटा हूँ. शहीद का बेटा!’’ कहते-कहते दादा जी सोफे से उठ खड़े हुए और फिर बोले, ‘‘आओ शेर, पुरानी एलबमों को देखते हैं. पहले तो उनमें मेरे बेटे विपिन की तस्वीरें थीं, मगर अब वे तस्वीरें शहीद मेजर विपिन की हो गई हैं. आओ.’’ कहते हुए उन्होंने जतिन की बाँह पकड़कर उसे सोफे से उठा दिया.
सोफे से उठते हुए जतिन को लगा कि उसका सिर तना हुआ है - गर्व के कारण - शहीद मेजर विपिन कुमार का बेटा होने के गर्व के कारण.
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संक्षिप्त परिचय
नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 800 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, एक विज्ञान उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित
एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित
प्रसारण लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,
2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिष्द (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत
(¥) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत
(ट) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता 304, एम.एस.4 केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
ई-मेल harishkumaramit@yahoo.co.in
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