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लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
पिछले अंक यहाँ पढ़ें -
अंक - 1 // 2 // 3 // 4 // 5 // 6 // 7 // 8 // 9 // 10 // 11 // 12 // 13 // 14
दारु ख़त्म होने पर बोतल, फेंक दी गयी..फिर उन ख़ाली ग्लासों को पुन: थैली में रखकर, ठाकुर गिरधारी सिंह बोले “इस चुनाव में, तुम किसके लिए काम कर रहे हो..?”
“सनाढ्य गुट के नेता शिरोमणि विष्णुजी चतुर्वेदी ने बुलाया था, कल।” उनमें से एक भाई बोल पड़ा, और आगे कहता गया “क्या कहूं, ठाकुर साहब ? बेचारे विष्णुजी के हाथ से ट्यूशन छूटती जा रही है..उनका प्रधानाचार्य बड़ा कड़क आदमी ठहरा। अब तो उनके लिए चुनाव ही आसरा रहा, बुरा वक़्त गुज़ारने का।”
“क्या कहता था, वह..? राम रतन पूछ बैठे।
“जी, कहना क्या ? यही कहा, दस हज़ार रुपये दूंगा..बस, यह चुनाव जीता दो।” दूसरा भाई बोल उठा।
अब क्या..? राम रतन बोहरा ने जैसे ही रुपये देने की बात सुनी, और जनाब अपने दिल के अंदर ही अन्दर विष्णुजी के नाम भद्दी सी गाली की पर्ची काट बैठे। फिर कुछ सोचा...आख़िर, अपने श्रीमुख से बोल पड़े “देखो तुम पाँचों को काम करना पड़ेगा मेरे लिए, समझे ? रुपया कुल मिलेगा, पूरे नौ हज़ार। मंजूर है..?”
वे पाँचों भाई धरती पर आधे-आधे झुक गए, फिर एक सुर में बोले “सरकार आप पैसा भी न दें, मगर काम हम आपके लिए करेंगे।”
“शाबास।” राम रतन बोले, फिर नपे-तुले शब्दों में आगे कहा “देखो ठाकुर गिरधारी सिंह मेरे छोटे भाई हैं, और ये जनाब ग्रामीण शिक्षक संघ अध्यक्ष के चुनाव में खड़े हैं। चुनाव के लिए चाहिए, पैसा..इसलिए कल ग्रामीण-क्षेत्र के सारे ज़रूरतमंद अध्यापक हमारी कुटिया पर हाज़िर होने चाहिए। उनसे मैं सीधे तरीक़े से, रुपये मांगना नहीं चाहता। यह काम भी, तुम लोगों को ही करना होगा।”
यह कौनसी बड़ी बात है, सरकार ?” उनका सबसे बड़ा भाई बोला “ आप कहें तो, इसी वक़्त चक्कर चला दें..?”
नहीं कल।” राम रतन बोले “देखो, काम इतनी सफ़ाई के साथ होना चाहिए कि किसी दूसरे को कानो-कान ख़बर न हो।”
“नहीं होगी, सरकार।” दूसरा भाई बोल उठा “आख़िर, चुनाव-क्षेत्र में हमारे हम-प्याला दोस्त ठाकुर गिरधारी सिंह खड़े हैं..उनके लिए तो हमारी जान भी हाज़िर है।”
“इन्हें चार हज़ार रुपये एडवांस में दे दो।” राम रतन ने, ठाकुर गिरधारी सिंह को हुक्म दे डाला। हुक्म सुनकर बेचारे ठाकुर गिरधारी सिंह ने, अपनी ज़ेब में ठूंसे हुए चार हज़ार रुपयों के कड़का-कड़क नोट बाहर निकालकर उन्हें सुपर्द किये। छगन देख रहा था, अपनी ज़ेब से एक पैसा बाहर नहीं निकालने वाले चमड़ी सेठ आज़कल किस-तरह तेज़ी के साथ दूसरों का माल किसी तीसरे को देते हुए दानवीर कर्ण बनते जा रहे हैं..? उनके इस आचरण पर खीज़ उठती थी, उसके दिल में। जब शहर की अन्य स्कूलों को परिचारकों के पद आवंटित हुए, तब उसने राम रतन बोहरा को याद दिलाया कि, ‘साहब, एक पद तो मेरे लिए मंगवा दो आपकी स्कूल में। या फिर बड़े साहब से बात करके मुझे पाली शहर की उस स्कूल में भेज दो जहां परिचारक का पद स्वीकृत हो..!” तब उसकी बात अनसुनी करके, ज़बान पर शहद घोलकर बोल पड़े थे “छगनिया, तू तो मेरा बेटा बराबर। तेरी फ़िक्र मुझे हर-वक़्त रहती है, तू धीरज रख प्यारे। तेरे लिए मैं इसी स्कूल में पोस्ट लाऊंगा, तूझे किसी दूसरी स्कूल में भेजकर मैं मेरे कलेज़े के टुकड़े को अलग कैसे करूँ ?” उस वक़्त, वह बेचारा चुप हो जाता। दिल में आ रहे उनके खिलाफ़ हर शब्द को, वह बाहर निकाल बैठता। वह जानता था, इस महान विभूति के कारण ही वह इन दफ़्तर के बाबूओं के चंगुल में फंसने से बच जाता...ताकि वे इसे दफ़्तर में डेपुटेशन पर बुलाकर, इसकी रगड़म पट्टी नहीं कर पाते।
अब पाँचों भाई जाने लगे, तब छगन भी उनके साथ चला गया। इनके जाने के बाद गिरधारी सिंह के मुरझाये मुखारविंद पर दृष्टि डालते हुए, राम रतन बोहरा उनसे पूछ बैठे “क्यों अभी से घबरा गए, प्यारे ? इसी में...”
“नहीं, यह बात नहीं है।” गिरधारी सिंह बोले “सोच रहा था, यदि हार गया तो मेरी जमी-जमाई पूरी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जायेगी..?”
“कैसे हारोगे..?” राम रतन बोहरा ने ज़र्दा और चूना अपनी हथेली पर फैलाते हुए कहा, फिर उसे अंगूठे से उस मिश्रण को मसलते हुए आगे बोले “अरे रणबाँकुरे कुम्पावत ठाकुरों के वंशज मिस्टर गिरधारी सिंह, इतनी जल्दी तलवार अपनी म्यान में रख ली..? यार भूलो मत, तुम्हारे पूर्वजों ने इसी तलवार के ज़ोर पर जवाली, टेवाली आदि गाँवों की जागीर क़ायम रखी। जानते हो ? गाँव टेवाली जाने के रास्ते में तुम्हारे किसी पूर्वज के नाम की छतरी बनी है, उनका सर कटने के बाद उनका धड़ उनके शत्रुओं पर, झुंझार बनकर जूंझता रहा। और, तुम अभी से मायूस हो रहे हो..? उठो मेरे रणबांकुरे, चुनावी रणभेरी सुनों..केसरी सिंह नाहर की तरह गरज़कर. अपने शत्रुओं के रोम-रोम खड़े कर दो। चाहे तुम्हारे सामने विष्णुजी चतुर्वेदी आयें, या महिला अभ्यर्थी सुरेन्द्र कौर जोशी। अब तो चुनाव लड़ना ही, तुम्हारा धर्म है।” फिर इस धारा-प्रवाह भाषण को विश्राम देकर, राम रतन ने अपनी हथेली ठाकुर गिरधारी सिंह के सामने रखी। हथेली से सुर्ती उठाकर, गिरधारी सिंह ने उसे होंठ के नीचे दबाई..फिर उन्होंने राम रतन के वीर-रस से भरे वक्तव्य को सुनने के लिए, अपने कानों को दिशा दी। राम रतन बोहरा वीर-रस से ओत-प्रोत होकर, बोलते जा रहे थे “फ़िक्र मत करो, यदि मुझे कुछ गड़बडियां नज़र आयी तो तुम्हें बिठाने के लिए बीस-चालीस हज़ार झड़वा लूँगा इन मूर्खों से। आख़िर, इन मूर्खों में अक्ल है कितनी ? ठाकुर साहब, यह चुनाव आख़िर एक तरह से व्यापार ही है। जीते तो पौ-बारह, और बैठे तो पौ-बारह।” इतना कहकर, राम रतन ने ज़मीन पर पीक थूकी। संध्या होने लगी, डूबते सूरज को देखकर गिरधारी सिंह ने कहा “भा”सा, ये तुम्हारे पाँचों भाई ज़रूरतमंद मास्टरों को आपके पास कैसे भेजेंगे, और आप उनको कैसे दूहोगे ? मेरी अंटी में, अब माल ज़्यादा नहीं है।” उनका कथन सुनकर, राम रतन बोहरा गुप्फा फाड़कर जोर से हँसे, फिर बोले “अभी तुम्हारे दूध के दांत टूटे नहीं है, तुम तो निरे बच्चे ठहरे। जानते हो..? ये पांचों भाई ग्रामीण-क्षेत्र के ज़रूरतमंद मास्टरों के कान भरेंगे कि, ठाकुर साहब की जीत निश्चित है। वे यक़ीनन ज़िलाध्यक्ष बन जायेंगे, ज़िलाध्यक्ष बनते ही वे हर पंचायत-समिति के कार्यालयों में धरना देकर आप लोगों के कई सालों से अटके एरियर बिलों का भुगतान करवाएंगे। इन बाबू और अफ़सरों की नाक में नकेल डालकर, उन्हें ऐसे नचाएंगे जैसे मदारी अपने बन्दर को नचाता हो। फिर क्या ? वे इनको कहेंगे इधर बैठ, वे इधर ही बैठेंगे। सालों, यह विष्णुजी नहीं है..ये ठाकुर साहब है जो उनकी तरह अफ़सरों की चमचागिरी करने नहीं जाते। बस, फिर क्या ? सारे मास्टर लोग अपने-अपने काम करवाने के लिए, तुम्हारी शरण में आ जायेंगे। फिर जैसी मुर्गी होगी, वैसे ही उसे हलाल किया जाएगा।”
“मगर यार भा”सा, अभी तो कुछ बना नहीं।” सकपकाकर, गिरधारी सिंह बोले।
“ख़बरदार। जो उनके सामने, ऐसी हल्की बात कही।” राम रतन बोहरा ने डपटकर, उनसे कहा “याद रखो उनके सामने तुम्हें यह दिखाना है कि, अभी से तुम ज़िलाध्यक्ष बन गए हो।” और फिर राम रतन उनको बताने लगे कि, आज़ का आधुनिक शिक्षक नेता अध्यापकों के सामने कैसे अभिनय करता है ? फिर क्या ? वे ठाकुर साहब को, नए-नए अभिनय करने के तरीक़े सिखाने लगे। उनको यह विश्वास दिलाने लगे ‘अच्छा नेता वही होता है, जो अच्छा अभिनेता हो।’ फिर वे समझाने लगे, भाषणों में जनाब को क्या-क्या बकना है ?
आसियत का अँधेरा फ़ैल चुका था। अब दोनों राष्ट्र के कर्णधार नाले के पाल से उठे, शेष कार्य को दिशा देने का वायदा देते हुए।
राम रतन बोहरा का बंगला, सूरज पोल से काफ़ी क़रीब था। जो पाली शहर के धनाढ्य व्यापारियों की ‘दुर्गा दास नगर’ कोलोनी के बीचो-बीच में था, जिसका नाम था ‘बृज-कुटीर’ रखा गया। इस कुटीर के बाहरी हिस्से का कमरा यानी डाइनिंग रूम में टेलीफ़ोन की व्यवस्था होने कारण, इस कमरे को उन्होंने चुनाव-कार्यालय हेतु गिरधारी सिंह को किराए पर दे दिया। और कमरा देते वक़्त, वे उनसे एडवांस किराया लेना नहीं भूले..उस वक़्त, वे उनसे कहते गए “भय्या, मैं तो सेवक हूँ। मकान के असली मालिक तो मेरे ताऊजी है, वे रुपये को ही धरम मानते हैं..दोस्ती को नहीं।” भले गिरधारी सिंह ने, उनके ताऊजी के कभी दर्शन न किये हो..? अगर वे होते तो, कभी तो यहाँ दिखाई देते।
पौ फटी ही थी कि, फ़ोन की घंटी टनटनाई।
“गिरधारी सिंहजी को जल्द उठाओ..” छगन कमरे के अन्दर आते ही, बोला “रामपुरिया मिडल स्कूल के हेडमास्टर कपोत लालजी का फ़ोन है, वे फिक्सेशन एरियर बिल के बारे में बात करना चाहते हैं ।”
“कह दे, ठाकुर साहब अभी सो रहे हैं..बाद में फ़ोन करें।” राम रतन बोले।
“अरे साहब, उन्हें जगाओ नहीं तो मैं जाता हूँ उनके पास।” छगन बोला। फिर राम रतन की टेबल पर फैले बही-खाता जैसे काग़ज़ को घूरता हुआ, वह पूछने लगा “यह क्या लिखा जा रहा है ?”
“वायदों की लिस्ट बना रहा हूँ।” छगन को बिठाने के लिए, स्टूल आगे करते हुए राम रतन बोले।
स्टूल नज़र आते ही, छगन फ़ोन की बात भूल गया। उसने झट स्टूल को पकड़ लिया, ज़ोर से। उसे भय था, कहीं उससे यह स्टूल छीन लिया गया तो वह किस पर बैठेगा ? उसे मालुम था, राम रतन बोहरा जैसे आदमी कभी मेहमान को बैठने के लिए आसन नहीं देते..अरे जनाब, आसन देना तो दूर..! वे उसे बैठने के लिए भी, अपने मुख से नहीं कहते। अगर वह बैठ गया तो, जनाब के दिल में यही डर समाये रहता..कहीं उनको, उसे चाय न पिलानी पड़े..? इस कारण, वह उस स्टूल को पकड़े खड़ा रहा।
“तुम तो जानते ही हो..” राम रतन बोले “ठाकुर साहब के भाषण, कल से शुरू हो जायेंगे। इन भाषणों में ठाकुर साहब क्या-क्या आश्वासन देंगे, इन अध्यापकों को ? उसकी लिस्ट, क़रीब-क़रीब मैंने बना बना दी है। इसमें मैंने गिरधारी लाल भार्गव, मोहन लाल जैन, विशन सिंह शेखावत और उदय सिंह राठौड़ के भाषणों का निचोड़ ले लिया है।”
तभी राम रतन को चाय पीने की तलब हुई, उन्होंने सोचा ‘अगर कमरे में चाय मंगवाई तो, इस छगनिये को भी चाय पिलानी होगी। अत: वे उसकी ख़ुशामद करते हुए, बोले “तुमने यही कहा था ना कि, तुम विष्णुजी के साथ चुनाव का काम कर चुके हो। इस प्रकार १/४ लीडरी सीख ही ली, तुमने। अब तू यहाँ बैठ, और ज़रा मदद कर हमारी।” छगन को वहां बैठाकर, राम रतन बोहरा चल दिए चाय पीने। छगन ने काग़ज़ों में लिखना प्रारम्भ किया “हर ग्रामीण मास्टर को ग्रामीण-भत्ता दिया जायेगा, जिन स्कूलों में चपरासी की पोस्ट नहीं है वहां मास्टरों को झाडू-भत्ता, पानी-भत्ता, घंटी लगाने का भत्ता वगैरा-वगैरा मिलेंगे।”
थोड़ी देर बाद ठाकुर गिरधारी सिंह नींद से उठे, और दोनों हाथ ऊपर ले जाकर उन्होंने अंगड़ाई ली। फिर उन्होंने चहकना प्रारंभ किया “छगनिया, कहाँ मर गया रे..? अभी-तक, चाय नहीं लाया रे..?”
हुज़ूर अन्नदाता, आपका चुनावी कार्य कर रहा हूँ।” छगन वहीँ से बोला, मगर वह उठा नहीं। राम रतन बोहरा ने उसकी ख़ुशामद करके उसे इतने ऊंचे आसमान पर चढ़ा दिया कि, अब वह अपने-आपको छुटपुटिया नेता समझने लगा। अब उसने मन में ठान ही ली, अगले साल सहायक कर्मचारी युनियन के चुनाव में खड़ा होकर पुख सिंह और मोहनिये जैसे लीडरों की छुट्टी कर डालेगा।
“छगन, तुम यहाँ बैठे क्या कर रहे हो ? उठो, भागो यहाँ से। राम रतनजी को यह काम करने दो।” चाय आती न देख, ठाकुर गिरधारी सिंह का मूड उखड़ने लगा। वे उसके पास आकर, बोले।
“मैं ख़ुद मेरी इच्छा से यहाँ काम करने नहीं बैठा हूँ, मुझे बैठाया गया है..आश्वासन-भाषण बनाने में उनकी मदद कर रहा था।” छगन सकपकाया, और लिस्ट गिरधारी सिंह को थमा दी।
“आश्वासनों के लिए कभी किसी की मदद ली जाती है, या ज़रूरत पड़ती है ? उठो, यहाँ से भगो...और, जाओ बाहर केन्टीन से चाय लेकर आओ।” ठाकुर साहब ने, ज़बरदस्ती उठा दिया उस बेचारे छगन को। और उसके हाथ में केतली और पांच रुपये के तीन नोट थमा दिये। फिर क्या ? बेचारा छगन मन-मसोसकर, नोट और केतली लिए चल दिया केन्टीन की तरफ़। उसके जाने के बाद चाय का कोटा पूरा करके राम रतन बोहरा कमरे में आये, और अपना सर खुज़ाते हुए कहने लगे “सभी पंचायत समितियों के अध्यापकों में ख़लबली मच गयी है कि ‘ठाकुर साहब ही ज़िलाध्यक्ष बनेंगे, युनियन के। ज़्यादा असर उस बात का रहा कि ठाकुर साहब दबंग है, वे चमचागिरी में विश्वास नहीं करते..वे विष्णुजी की तरह अपने दीवानख़ाने में अफ़सरों को दावत नहीं देते। वे तो ग़रीब अध्यापकों के मसीहा हैं। इन पाँचों भाइयों ने बस मालिकों और कंडक्टरों से बात करके, रोज़ अप-डाउन करने वाले शिक्षकों को बस-किराए में रिहायत दिलवाना प्रारम्भ कर दिया। और इन शिक्षकों से उन्होंने यही कहा कि, यह रिहायत उनको ठाकुर गिरधारी सिंह ने दिलवाई है। इनमें कई बस-मालिक तो इन पाँचों भाई के रिश्तेदार ठहरे, कोई इनका ताऊ लगता तो कोई चाचा, तो कोई मामा। इस तरह इन पाँचों भाइयों ने, चुनावी-युद्ध का हरावल संभाल लिया।” आगे राम रतन बोहरा ने गिरधारी सिंह को हिदायत देते हुए, यह भी कह दिया “तुम याद रखना, इस टेलीफ़ोन के हाथ मत लगाना। और दूसरी बात यह है कि, तुम किसी से कोई हल्की बात न करोगे..समझे ?”
तभी चाय लिए, छगन आ गया। उन दोनों को चाय का कप देकर अपना कप लेकर वह स्टूल पर बैठ गया, और चुस्कियों के साथ चाय पीने लगा। तभी चाय की चुस्की लेकर, राम रतन पुन: चहकने लगे “छगन याद रहे, टेलीफ़ोन की घंटी जब भी बजे, तुम ठाकुर साहब से फ़ोन पर बात नहीं कराओगे। उन्हें टाल देना व कह देना, ‘उनकी डिप्टी डायरेक्टर साहब से बात चल रही है, या कह देना जयपुर से उदय सिंह का फ़ोन आया है..वे फ़ोन पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ ऐसे कई बहाने बनाकर, टाल देना..समझे ?”
“भा”सा, थक गया यार तुम्हारा भाषण सुनते-सुनते। अब तो हिम्मत रही नहीं, इस बदन में..अब क्या, ख़ाक भाषण दूंगा ? अब समझ गया भा”सा यार, इस सियासत में इज़्ज़त नाम की कोई चीज़ नहीं होती। सिंहासन पर पेशाब-घर की ईट लाकर रख दोगे, तो भी लोग उसे दंडवत करेंगे। यह सारा खेल, तुम जैसे लोग प्रचार-प्रसार में करवा देते हो।” गिरधारी सिंह ने, अपनी ज़ब्हा पर छाये पसीने को पोंछकर कहा। तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजी। राम रतन बोहरा ठाकुर गिरधारी सिंह को रोके उससे पहले ही, वे तीर की तरह जा पहुंचे फ़ोन के पास और चोगा क्रेडिल से उठाकर जनाब कहने लगे “कौन हो,भाई ?” फ़ोन के चोगे में, फुफकारकर कहा।
“मैं हूँ भगोड़ा। दस साल से...” फ़ोन से आवाज़ आयी।
“यहाँ हमने कोई पुलिस-स्टेशन खोल रखा है..आ गए फ़ोन लगाने..? जाओ, किसी पुलिस-स्टेशन पर फ़ोन लगाओ।” चोगे को क्रेडिल पर रखकर, नाराज़गी के साथ गिरधारी सिंह बोले “आ गए, रामपुरिया के भगोड़े। इन पाज़ी लोगों ने इस चुनाव कार्यालय को, गुम-शुदा लोगों की तलाश करने का पुलिस स्टेशन समझ रखा है ?”
‘रामपुरिया गाँव के भगोड़ा’ नाम सुनते ही राम रतन चमक उठे, वे झट उठे और गुस्से में बोल उठे, जिससे गिरधारी सिंह के गाली-संभाषण पर रोक लग गयी।
“क्या बक रहे हो, ठाकुर साहब ? जबसे तुमने नामांकन भरा है, तभी से मैं बराबर तुमसे कह रहा हूँ कि अपनी ज़बान पर लगाम लगाना सीखो। इसके आलावा तुम मर्ज़ी आये जो करो, चाहे तो क़ुतुब मीनार को उठाकर अपने किचन की चिमनी शौक से बना डालो। ताज़महल का संगमरमर का भाटा उतरवाकर, अपनी कोठी में लगवा लो। मगर जो करो, जो सोचो....मुंह से, कभी न बोलो। बोलो वही जिसकी जगह न दिमाग़ में हो, न दिल में हो। डाक्टर का नुस्खा वह होता है, जिसकी लिखावट किसी के समझ में न आवें। लीडर की बात वह होती ही, जिसका मतलब तरह-तरह से निकल सके। मगर जो भी निकले, बेहद प्यारा और मीठा लगे। तुमने सुना है कभी, किसी लीडर को सरे-आम गालियाँ बकते ? अरे...कोई उनकी बिटिया को भगाकर ले जाए, तो भी वे सरे-आम ऐसी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करेंगे, जैसी तुम कर रहे हो। वे जो बोलते हैं, सो करते नहीं..जो करते हैं, सो बोलते नहीं, समझे..? इस समय जीतना है, चुनावी युद्ध..सो तुम्हें हर गधे को बाप बनाना ही पड़ेगा..! अब बताओ, किस पर बिगड़ रहे थे..?”
गिरधारी सिंह ने, ज़ोर से फुफकारकर “हूँ” कहा। फिर, आगे कहने लगे “कोई साला रामपुरिया गाँव का भगोड़ा बोल रहा था, फ़ोन पर। वह कमबख़्त कह रहा था, ‘दस साल से गायब हूँ..’ हमने कह दिया “यह गुम-शुदा लोगों की तलाश करने का पुलिस-स्टेशन नहीं..” तो वह कमबख़्त, मुझे गाली बकने लगा।”
“ओह तुमने तो बेड़ा गर्क कर डाला, ठाकुर साहब।” राम रतन घबराकर, बोले “अरे यही एक आदमी था, जिस पर चुनाव का दारोमदार है। तुम हर बात में, अपनी खोपड़ी का इस्तेमाल करना ही छोड़ दो..पूरी तरह। हर लीडर की खोपड़ी को चलाने वाले, सदा दूसरे ही लोग होते हैं। लीडर हमेशा अपनी खोपड़ी का इस्तेमाल या तो उखाड़-पछाड़ में करते हैं, या फिर अपनी कुर्सी बचाने और दूसरों की कुर्सी गिराने में...यदि तुमने इधर ध्यान देना शुरू कर दिया तो, बच गयी तुम्हारी कुर्सी..मूर्ख कहीं के।” इस विशेषण के मिलते ही, गिरधारी सिंह का चेहरा फूलकर थोबड़ा बन गया। मगर राम रतन बोहरा को, जैसे उनके चेहरे-मोहरे से कुछ मतलब नहीं..वे फ़ोन की और बढ़े। चोगा क्रेडिल से उठाया और नंबर मिलाया, और दरवाज़े का सहारा लेकर खड़े हो गए।
“कौन भगोड़ाजी..?” तभी फ़ोन से आवाज़ आयी और राम रतन ने पूछा “नमस्कारजी...नमस्कार। क्याजी..? ...हाँ ..हां हम सब खाना खा रहे थे। फ़ोन हमारे बेवकूफ़ जमादार ने, उठा लिया था।” कहकर, वे हंसने लगे।
धत तेरे की लीडरी जो न करवाए, थोड़ा है। लीडरी जो न कहलाये, थोड़ा है। स्वर्ग-धाम के अधिष्ठाता देवता-स्वरूप हमारे ठाकुर साहब गिरधारी सिंह, लीडरी के ख़ातिर उतार दिए गए जमादार तक..? इनका मुख बंद था और उनकी आँखें राम रतन बोहरा के फूलती-पटकती नाक पर कुछ इस तरह गड़ी हुई थी, जिस तरह ईदी अमीन की आँखें लोगों के कानों पर गड़ी रहती थी।
“और सुनाइये..” ख़ूब हंसने के बाद राम रतन बोहरा बोले, और काफ़ी देर तक उनकी फ़ोन पर बातें होती रही.. जिसका मुख्य विषय था ‘आप अध्यापकों के वोट, कितने पटकायेंगे ?’ भगोड़ाजी रामपुरिया मिडल स्कूल के अध्यापक थे, जिन्होंने दस साल बम्बई में रहकर अपने पुश्तेनी धंधे को जमाया। बाद में, वे पुन: स्कूल में तशरीफ़ लाये। मगर स्कूल का हेड मास्टर ज़िला शिक्षा अधिकारी की इज़ाज़त बिना, इन्हें स्कूल में कार्य-ग्रहण कैसे करवाता..? क्योंकि, एलिमेंटरी दफ़्तर में उनके विरुद्ध, स्वेच्छिक अनुपस्थिति का प्रकरण चल रहा था। इस प्रकरण की इनको कोई फ़िक्र नहीं थी, जिसका कारण यह था ‘बम्बई के पुश्तेनी धंधे से, उन्होंने बहुत धन-दौलत कमा ली थी..और पूँजी के रोटेशन के क्रम में, उन्होंने ग्रामीण-रुट पर अपनी कई प्राइवेट बसें चला रखा थी। इनकी बसों से रोज़ अप-डाउन करने वाले अध्यापकों को, भगोड़ाजी अक्सर रिहायती दर पर बस-किराया लेकर उन्हें अनुग्रहित करते थे। एक प्रकार से अपने क्षेत्र के अध्यापकों के प्रति भगोड़ाजी की तन-मन और धन से की गयी सेवा, अनुकरणीय थी। अत: राम रतन बोहरा की दृष्टि में, भगोड़ाजी एक काम के आदमी ठहरे। जो चुनाव के दिन अध्यापकों को अपनी बसों में ढोकर, मतदान-केंद्र पर लाने व वापस उनके गंतव्य स्थल पर छोड़ने का महत्त्वपूर्ण काम सफलता पूर्वक कर सकते थे..! इसलिए, उन्होंने फ़ोन पर कह दिया “यहीं आ जाओ, रात को। पीना-पिलाना भी हो जाएगा..और साथ में हम तुम्हारे दस साल सर्विस ब्रेक के प्रकरण को सोल करने के बारे में भी सोचेंगे..ठीक है, मैं आपका इन्तिज़ार करूंगा..आ जाना।”
फ़ोन क्रेडिल पर रखकर, राम रतन बोहरा ठाकुर साहब को देखते हुए बोले “भाई, किस सोच में पड़ गए ?”
“भा”सा सब हो सकता है, मगर आपने भगोड़ाजी से वायदा करके अच्छा काम नहीं किया। जानते हैं, आप ? विधि प्रकोष्ठ में वो क़ानून का कीड़ा, सुदर्शन है ना..वह कमबख़्त एल.एल.बी. पास इस काम को होने नहीं देगा। उस कमबख़्त को छोडो, भा”सा। उसके बाद यह संस्थापन प्रभारी बाबू गरज़न सिंह, कहाँ कम है..?” गिरधारी सिंह ने, खट्टा सा मुंह बनाकर कहा।
“हमने पहले भी कह दिया आपको, नेता का काम आश्वासन देना है, काम करना नहीं। समझे, अब ऐसी सस्ती बात मुंह से निकालना मत।” राम रतन बोहरा ने, ठाकुर साहब को डपटते हुए कहा....और फिर, उनको एक दार्शनिक की तरह सोचने के लिए छोड़ दिया। फिर, वे कमरे से बाहर चले गए। उनके बाहर जाने के बाद, बाहर से किसी की आवाज़ सुनायी दी। कोई ज़ोर से कह रहा था “पोस्टर छपकर आ गए हैं।”
“आ जाओ, अन्दर। पहले मुझे दिखला दो, क्या छापा है तुम्हारी प्रेस ने....?” ठाकुर साहब ने सोचना छोड़कर, ज़ोर से कहा। ज़वाब में एक गुज़राती छोकरा हाथ में पोस्टरों का पुलिंदा लिए कमरे में आया, और ठाकुर साहब के चरण-स्पर्श करके बोला “डेडीजी ने आठ तरह के बीस हज़ार पोस्टर छपवाकर आपके चरणों में अर्पित किये हैं।”
पोस्टर के नमूनों का पुलिंदा, ठाकुर साहब को थमा दिया गया। ठाकुर साहब गर्दन हिलाकर पोस्टरों को देखने लगे, उनको पोस्टर की भाषा व शैली की जांच करते देख..उस गुज़राती छोकरे ने सोचा, अब उसका यहाँ क्या काम ? बस, फिर क्या ? वह गुज़राती छोरा झट उनके चरण छूकर, कमरे से बाहर निकल गया। पोस्टर क्या थे..? ‘न तो भूतो न भविष्यति।’ ठाकुर साहब देखने लगे कि, इन पोस्टरों में क्या छपा है..? पढ़ने लगे इनमें, अपनी छवि। मगर ढूंढ न सके, तो उन्होंने ऊंट की तरह अपनी गर्दन ऊँची की और छगन को आते देखकर बोले “किसने बनाया था, पोस्टर का मेटर..?” बेचारा छगन चाय के ख़ाली कप केन्टीन पर देकर जस्ट आया ही था, उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी..उसके वापस आते ही, कोई ऐसा सवाल दाग देगा ? बेचारा डरता हुआ, कहने लगा “हुज़ूर, क्या ग़लत बना है ?”
“हाँ।” ठाकुर साहब गंभीरता से बोले “इस पोस्टर में मेरे नाम के अलावा सब-कुछ ग़लत है। न तो मैं पोलिटिकल साइंस में एम.ए. हूँ, और न मैंने घर-बार बेचकर धर्मशाला खुलवाई है।”
“गुरु, आप तो इतना जल्दी भूल गए..? गाँव की ज़मीन बेचकर, सूरज-पोल पर किसने तीन-मंजिला गेस्ट-हाउस बनाया ? आपने, और किसने ? लोग मेहमान यानी गेस्ट बनकर इस दुनिया में आते हैं, चार दिन बिताकर चले जाते हैं। ऐसा ही आपकी इस धर्मशाला में होता है, मुसाफ़िर यानी गेस्ट आते हैं और चार दिन बिताकर चले जाते हैं। वेदों की वाणी सुनकर ही हमने, इसी धर्मशाला का नाम ‘गेस्ट-हाउस’ रखा है..आख़िर ठाकुर साहब, अंग्रेजी का ज़माना है ना..?” छगन अपना दर्शन-शास्त्र बांचता हुआ बोला।
ठाकुर साहब को आश्चर्य होने लगा..एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी राम रतन बोहरा जैसे चाणक्य के साथ रहकर, इतना अक्लमंद हो गया है तो अब-तक इसका उन्होंने फ़ायदा क्यों नहीं उठाया..?
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(क्रमशः अगले अंक में जारी...)
पाठकों। दिनांक ०१ जनवरी. २०१९
इस अंक १५ “पांच भाई का कारनामा” पढ़कर आपको ‘शिक्षक संघ के नेताओं की सियासत’ के बारे में कुछ जानकारी हो गयी होगी ? आप जान गए होंगे “हर लीडर की खोपड़ी को चलाने वाले, सदा दूसरे ही लोग होते हैं। लीडर हमेशा अपनी खोपड़ी का इस्तेमाल या तो उखाड़-पछाड़ में करते हैं, या फिर अपनी कुर्सी बचाने और दूसरों की कुर्सी गिराने में...” और आख़िर, आपको यह भी मालुम हो गया होगा..? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी राम रतन बोहरा जैसे चाणक्य के साथ रहकर, इतना अक्लमंद हो गया था...तो अब-तक इसका फ़ायदा ठाकुर साहब ने क्यों नहीं उठाया..? अब आप पढेंगे, पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक १६ “भाषण बनाना सुदर्शन बाबू का, जीतना ठाकुर साहब का।”
अब आप बेसब्री से इन्तिज़ार कीजिये, शीघ्र ही यह अंक १६ आपके सामने प्रस्तुत किया जाएगा।
आपके ख़तों की इन्तिज़ार में
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक – पुस्तक ‘डोलर-हिंडा’]
राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, अँधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने जोधपुर [राजस्थान].
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