कब तक करोगे प्रतीक्षा (कविताएँ-79-80) बहुत प्रयास करता हूँ मैं यह जानने की क...
कब तक करोगे प्रतीक्षा
(कविताएँ-79-80)
बहुत प्रयास करता हूँ मैं यह जानने की कि जिस युग में मैं जी रहा हूँ, उस युग की प्रवृत्ति क्या है.
चारों तरफ, मैं महसूस कर रहा हूँ कि एक अजीब आलोचना का बाजार गर्म है. राजनीति गिरोहों में मँटी हुई है और साहित्य तथा संस्कृति भी. हर गिरोह दूसरे गिरोह की आलोचना करते नहीं थकता. एक अचंभे की बात यह है कि कोई गिरोह कल तक जिस गिरोह की आलोचना करता था, आज तीसरे गिरोह को नीचा दिखाने में उसे सहयोग देने में संकोच नहीं करता. और यह काम वह बड़ी बेशर्मी से करता है.
एक और बात मैं देखता हूँ कि गिरोहों से भिन्न किसी ऐसे सार्वभौम व्यक्तित्व की कल्पना कठिन है जो संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर मानवीय संदर्भों में सोचता हो. अगर ऐसा कोई सोचने का प्रयास भी करता है तो उसे ऐसा सोचने को बाध्य किया जाता है.
मैं एक ऐसे जनतंत्र में सांस ले रहा हूँ जिसमें व्यक्ति-स्वातंत्र्य की गुंजाइश बहुत है. हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के अधिकार को पूरी तरह जीना चाह रहा है. परिणाम यह हो रहा है कि इस आपाधापी में वह उच्छृंखल हो उठा है. यह उच्छृंखलता यहाँ तक बढ़ चुकी है कि चारों तरफ चरित्र हत्या की नीति सर्वोपरि है. अखबारों में आरोपों को छपवाना और उन आरोपों का खंडन, यह आज की एक आम नियति है.
मजे की बात यह है कि आज जो अत्यधिक शासनाधिकार संपन्न है उसपर कितने भी गंभीर आरोप लगें, भले ही उनमें तथ्य भी हों, पर वह उन आरोपों से आँख मूँद लेने की अपनी नियति बना रखा है.
और यही राजनीति आज साहित्य पर हावी है. कविगण या लेखकगण साहित्य में आगे बढ़ने के लिए राजनीति का सहारा लेने से नहीं चूकते. गोरखपुर के एक विद्वान का कहना भी है कि आज की कविता राजनीति से हट कर नहीं हो सकती. जब पूरा वातावरण राजनीति की धूल से पटा है तो कविता उससे बच कैसे सकती है. लेकिन कविता का प्राण राजनीति या कूटनीति नहीं है. कविता के प्राण हैं करुणा और संवेदना. ये ही वे मूल भाव हैं जो प्रत्येक मनुष्य की धरोहर है जिससे उसका हृदय आवेष्टित रहता है. कविता की पंक्तियों में जीवंत संवेदना हो तो मनुष्य का हृदय झंकृत हो उठता है. उसके रोम रोम से वह झंकार स्फुरित हो उठता है. कहना न होगा कि वह व्यक्ति प्रतिक्रियाविरत एक दूसरा ही व्यक्ति होता है.
कविताएँ मनुष्य को संवेदित करती हैं ताकि वे परस्पर निकट आ सकें. एक ऐसा परिप्रेक्ष्य बना सकें जिसमें विरुद्धों के सामंजस्य का वातावरण हो. जीवन वस्तुतः विरुद्धों का सामंजस्य ही है.
मेरी कोशिश है, इन कविताओं के माध्यम से मनुष्यमात्र को करुणा और संवेदना से पूरित करना, विरुद्धों का सामंजस्य निर्मित करना. कहाँ तक मुझे इसमें सफलता मिली है यह तो पाठक ही बता सकेंगे.
1
कब तक करोगे प्रतीक्षा
सूरज के उगने की
खतरों से खेलनेवालों का कहना है
सबके होते हैं अपने अपने सूरज
उसे उगाना पड़ता है उन्हें
अपने भीतर.
सूरज उगता नहीं
उसे उगाना पड़ता है.
सबमें छिपी पड़ी है
सूरज उगाने की शक्ति
कहते हैं वैज्ञानिक
सूरज तो कबसे उगा हुआ है
अंतरिक्ष में
यह तो पृथ्वी है जो
अपने हर अंगों के लिए
उगाती है अपने सूरज
पृथ्वीवासी भी उगाते हैं अपने सूरज
अपने ढंग से
देखो न
तुम्हारे गिर्द सबने
उगा लिए हैं अपने सूरज
सभी शुरू कर चुके हैं अपनी दैनिक चर्या
एक निष्ठ कर्मी की तरह
हर पल का निश्चित है उनका कार्य
यही उनका सूरज है
और तुम हो कि
जगे तो हो पर पाँवों को सिकोड़
चादर में छिपा टकटकी बाँधे
देख रहे हो सामने
पता नहीं तुम्हारी दृष्टि
खोजी है या ढोंगी
पर सहज नहीं है
उसकी भंगिमा
कर रही है विकृत तुमहारा चेहरा
मैं तुम्हारे तन में बैठी
महसूस कर रही हूँ कि
तुम्हारे हृदय की धड़कनों में
वीणा की झंकार नहीं है
जिसके चढ़ते उतरते तनावोंसे
संगीत फूटने ही वाला होता है
संगीत नहीं करता प्रतीक्षा
हवा में लहराने की
अंतर के आवेगों में झंकृत होकर
स्वयं हवा में लहरा उठता है
कबतक करोगे प्रतीक्षा
अंतरावेगों के उठने की
अंतरावेग उठते नहीं
उठाए जाते हैं इच्छाशक्ति से
2
मैं कोशिश करता हूँ जीने की
आम आदमी के करीब
आम आदमी के जंगल में उभरी
यष्टि जो हूँ मैं.
अपने अजनवीपन को
मिटाने के लिए
अपने अंगों में
उगा लिए हैं पत्ते आम भाषा के
और घोषणा कर रहा हूँ निरंतर कि
मैं करीब हूँ आम आदमी के
जी रहा हूँ आम आदमी को.
पर जब होता हूँ आम आदमी के बीच
मेरे मस्तिष्क से उछली तरंगों को सुन
अवाक से रह जाते हैं वे
कदाचित आरोपित-सी लगती हैं उन्हें
मेरी भाषा
पकड़ नहीं पाते वे संभवतः
मेरी चेतना
विमुख हो जाते हैं वे मुझसे.
कैसी है विडंबना
मैं जीने को आतुर हूँ प्रतिपल
उनकी चेतना, उनका होना
उनकी भाषा को जीकर
और वे हैं कि उनकी भाषा में
बोलने के बावजूद
मेरी बातों को
अपनी चेतना के बूते के
बाहर पाते हैं वे
और रख देते हैं मुझे
घर के एक कोने में
एक अबूझ पहेली की तरह
मैं अवाक् हूँ
उनकी ही विसंगतियाँ, उनका ही त्रास, उनकी ही संवेदना
उनकी ही भाषा में जीने के बावजूद
नहीं पाते हैं वे अपने हृदय के करीब.
क्या मैं नहीं हो पाता उनका हृदय
उनके हृदय की भाषा में
उनके मानसिक संस्पर्श के करीब.
22-02-1979 बच्चन जी को प्रेषित
3
अँखियों के झरोखों से
मैं देखूँ तुझे पल पल
थिरको मेरे आँगन में
पलकों के ईशारे मचल।
तू एक कली-सा खिला
मेरे इस आँगन में
अनुरागमयी माँ की
ममता छलके तुझमें।
ओ लाल मेरे आओ
बाहों में समों लूँ तुझे
यह विश्व सिमट जाए
मेरे लघु पहलू में।
तेरी मुसकान सुघर
जीवन-सा मुझे देती
मैं हर पल जी लेता
भरपूर नियति की श्री। 1979
4
समर्पित हो तुम कृष्ण के प्रति
उर्मिल है मुझमें खोजी प्रवृत्ति
लालसा है तुम्हारी
खो जाना कृष्णत्व में
जिज्ञासु हूँ मैं
कृष्ण हो जाने को
समर्पण तो है
एक ठहरी हुई संस्कृति का अंगीकरण
होने की प्रतीति है
एक उछली तरंग का
आप्रवह व्योमवरण
अंतरिक्ष के विवर में
समर्पण तो है
एक बूँद का सागर में खो जाना
होने में है
मिट जाने का ममत्व
सागर होकर
बूँद का सागर होना
प्रतीति है
आवेगमय चरण-संतरण की
खुले आकाश में-
सृष्टि अस्तित्वमय है जिससे
होने में है
संभावनाओं की दस्तक
न रुकने वाली प्रवह-गति से
अनुबोधित
मुझे होने की क्रांति कुरेदती है
फूलों की पंखुरियों को
विकसित करने वाली
व्योम से आह्वानित
आवेगमय गति की तरह
तुम समर्पित होते रहो
पर
मुझे होने दो, मिटने दो
होना तो बस एक घटना है
क्रांति की तरह 18-01-79
5
(रजनीश साहित्य में रुचि बढ़ने लगी)
नहीं नहीं नहीं
मुझे स्वीकार नहीं
पीढ़ियों को, और
उनके अनुभवों को
अविकल रूप में जीना.
उनसे मैं असहमत नहीं, तो
सहमत भी नहीं
बस जिज्ञासु हूँ.
मैं परखूँगा
जानूँगा
सागर की तली तक पहुँच कर
मैं ढूढ़ूँगा—जीवन-मोती को
मेरा ढूँढ़ना ही मेरा अपना होगा
उसमें मेरे लहू के कतरे होंगे
उसमें
मेरी आकाँक्षा होगी
मेरी प्रतीति होगी
मेरी संभावना होगी
मेरी छलाँग होगी
वहाँ मैं नहीं मेरा स्व होगा.
इस वर्तमान को मुझे जीना है
इसे झेलना है
समस्यायें मुझे कुरेदती हैं.
काल के पल ठहरना नहीं जानते
जबतक मुड़कर देखूँ
वह पकड़ से छूट चुका होता है.
पीढ़ियों की गूँज इतनी प्रखर है
कि मेरा स्वधर्म खो गया है.
मैं सन्नाटा बुनूँगा
सन्नाटे का संगीत उभारूँगा
तभी प्रकृति के संगीत से
समरसता हो सकेगी
तभी सर्जना के फूल ल सकेंगे.
व्यक्तित्व में स्वधर्म-बोध की डाली
होनी आवश्यक है
मैं स्वधर्म की शाखा उगाऊँगा
सन्नाटा बुनकर
तुम मुझे रोक नहीं सकते
मत रोको मुझे
मैं तैयार नहीं सुनने को
पीढ़ियों का चीत्कार. 24-01-1979
6.
मुझे फुल खिलाने हैं
बारूद की छेरी पर
प्रयतम मुझे जाने दो
चढ़ला ही है सूली पर।
मेरे उर की मधु प्रेमल
उर्मियाँ उभर मिट मिट कर
संगीत रच रहीं मधुरिम
जीवन का उमड़ उमड़ कर।
यह धरती सूख गई है
रस-गीत खो गया है
गीता की जीवन-ध्वनि की
मृदु पौध उगानी है।
मैं मिट कर सीख सकूँ यदि
इस भू पर मानवपन को
ये ललक उठेंगे दिक दिक
उर-चक्षु जुड़ने को।
इस ध्वंस-भूमि में जाकर
लोहू की गंध जहाँ है
मुझे प्रेम-बेलि बोनी है
रस गंध जगाने है। 28-01-1979
7
ज्यों ज्यों पल बीत रहे ये
रवि अँकुर रहा क्षिति में ज्यों
अनुराग भरी द्रू प्रियता
हो रही सघन उर में त्यों।
उद्भाषित गर्भ छिपाए
धिर आया था लघु बादल
पथ रोक ज्योति की करुणा
छाई थी त्वचा-सरल कल।
अब क्रमशः छीज रहा है
मदु स्विन्न पारभासकता
संरंध्र हो रही पल पल
आह्वान मधुर सुन पड़ता।
पत्तों की मर्मर ध्वनि में
यह समय बीतता जाता
संगीत मनोहर मधुरिम
अंतरकाश में घुलता।
मन की स्नायु भ्रमित सी
संकुचन रश्मि का बुनती
फंदों केपथ-विचलन में
निज दिशा ढूँढ़ती खुलती।
पल पल मधु सुलझ रही है
ग्रंथियाँ भुलावेपन की
मेरा यह हृदय ग्रहीता
विद्युत गह रहा गगन की।
बाँहें पसार उन्मुख मैं
ध्वनि अंतरिक्ष की सुनने
संवेदन बिंदु हृदय के
आधार भूमि पर बुन के।
पा भूमि घुली लोहू में
मानव-यात्रा की दृढ़ता
परिवर्तन प्रिय मेधा की
द्र क्रांतिमयी सर्जकता। 1979
8
टटके फूलों की मधुमय
पंखुरियों के विकसन में
जीता कलरव-क्षणिकाएँ
पुद्गल की क्रांति रणन में।
धुँधली सी दृष्टि, सुमन की
परिवेशी विरस सुरभि में
आप्लव मैं प्रवह निरंतर
आह्वानित क्षीण उदधि से।
बटनों सा नहीं टँका मैं
कुर्तों में बंधु युगांतर
साहस है मुझमें प्रभु सा
तिरने को नंगा द्वापर।
यदि बैठ रहोगे कुंठित
कुंठा क्या स्वस्थ जनेगी
जी लोगे यपग उत्पीड़न
कैसे उत्क्रांति घटेगी।
जी लेना देह मिलय में
अभिव्यक्ति युगीन घुटन की
सर्वेक्षण उर्वरता का
उर्जा पर नहीं वपन की।
बोना ही क्रांति नहीं है
यदि धरती नहीं गहेगी
धारण तो तभी घटेगा
युग्मों की धार बहेगी।
मैं हार हार घूमूँगा
गा गा प्रभात फेरी में
छींटूँगा बीज रणन का
लेगी जन-चिति संपुट में। 1979
9
कौन हो तुम
मेरे अंतर में बैठे
मौन धवनित
अनुभूति में स्पंदित
जुगनू की क्षणस्थायी
झलक की तरह.
तुम्हारा रूप कायिक नहीं
तुम पराग के उड़ते
परमाऩु भी नहीं
क्योंकि तुम्हारा निमीलन
मुझे तर बतर नहीं करता
वरन् अतृप्ति को ही जगाता है.
तुम बस एक प्रतीति भर हो
वह भी तब, जब
मेरे संस्कार की कोई क्षीण कड़ी
मुरक जाती है
अधुनातन उर्मि-प्रवाह से.
तुम्हारी प्रकृति स्त्रैण है
पर स्वर भास्वर है
दिगंत को कँपानेवाली
तुम्हारे स्पंदन में पौरुष है
पर सुकुमार क्षण तुम्हें गीले करते हैं
राका की करुणा की तरह.
तुम्हारी तरंग-प्रकृति में
संगीत है मौन का
उद्वेलन है सन्नाटे का
अनुकंपन है कलरव का
इन विवादास्गद लक्षणों में जीवंत
तुम कौन हो.
मेरी व्यक्ति से परिचित भी अपरिचित भी
तुम्हारा लियंत्रण है मेरी नीयत पर
मेरी आकांक्षा पर मेरी जिज्ञासा पर
अनियंत्रित है तो
मेरी करुणा मेरी संवेदना
चिथड़ों मे विलखती
कपड़ों की प्रचुरता में घुटती
अतिरंजित वुद्धि से रोमांचित
अनिर्दिष्ट धुँधलका से पारभाषित
मानवता में खो जाती
पर वहाँ भी बल उठता है
तुम्हारा निमीलन
आधुनिकता बोध के अतिरेक की
सीमा परिवर्तित
विखरते बुद्धि-व्यायाम को
अभिलाषित करते
अपरिमित धूप के टुकड़े जैसे
आलोक बिन्दु की तरह.
यह तुम कौन हो
प्रतिपल मेरे बोध को भिंगोते. 1979
10
बड़े परिश्रम से मैंने
लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
तुम्हारे लिए
निचोड़ के रख दी है इसमें
अपनी अनुभूति, अपनी प्रतीति
बटोरा है मैंने
तुम्हारे बोधगम्य शब्दों को
बिखरे हैं जो तम्हारे गिर्द
ऊब-चूब होती है जिसमें तुम्हारी साँसें
निर्मित है जो तुम्हारे लहू के
परमाणुओं से
तुम्हारे अस्तित्व में
अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए
ये ही शब्द उपयुक्त लगते थे मुझे
माध्यम के रूप में
इसमें नहीं हैं प्यार की बातें
रूप वर्णन भी नहीं तुम्हारा
न ही तुम्हारे अश्रु की कहानी
इसमें तो है बस खोज
तुम्हारी अभिव्यक्त घुटती साँसों की
उभरती रही है जो
तुम्हारी भंगिमा में
परिचित, अपरिचित, अहर्निश
मेरा मंतव्य है
तुम्हारे झेलते यथार्थ को जी लेना
एक एक कतरा
पी लेना तुम्हारी संवेदना को
मेरी नियति है
पर तुम हो अवाक्
जैसे मेरे शब्द
तुम्हारी चेतना में उतरते ही नहीं
दरुह है क्या मेरी अभिव्यक्ति
कुछ बोलो न. 1979
11
कुछ लोगों द्वारा
मैं घेर दिया गया हूँ
एक कोष्ठक में-
किसी शब्द की
सांकेतिक विवृत्ति के लिए
अथवा
किसी नाटकीय प्रस्तुति हेतु
रंगमंचीय अनुकूलन के लिए
पता नहीं.
हाँ,
ऐसा करने के पूर्व
ज्यूरी की तरह किए गए वितर्क
मैंने सुने हैं
लोगों की की आकंक्षाएँ ही
इसमें अधिक थीं
मूल में जाने की नियति कम.
12
ये फूल बहुत सुंदर हैं
संगीत उभरता इनमें
इनके सुकुमार पलों की
धड़कन सुनता हूँ उर में.
पर बुझा हुआ आनन है
मरवर इनकी जिज्ञासा
सूनी पलकें सपनों से
इनको क्या नहीं पिपासा.
ये मुकुलित उगे वहीं हैं
बीता कल जहाँ जरा था
ये भूमि वही रस-पोषी
जिसमें जल भरा भरा था.
अब भूमि नहीं उर्वर क्या
जीवन ऊर्जा क्या छीजी
आह्वान नहीं क्या नभ का
या करुणा नहीं पसीजी.
जुगनू-सा दिप जाते थे
आँगन में लिए लुकाठी
परिवेशदहल उठता फिर
पचकर बन जाते थाती.
दोलित अणु वायु कणों के
लगता अब क्रांति घटेगी
अनुवर्तन घट रह जाता
माँ कैसे स्वस्थ जनेगी.
अणु में संसक्ति नहीं क्या
जुणने को कर्षण बल से
यह उष्मा बड़ी बली है
जो बिलगा रही मिलन से.
छोड़ो चलना कुछ ठहरो
परखो निज हृदय भवन को
इस रागभरी रचना की
तुम अंतिम कड़ी नहीं हो.
अँकुरेंगे इसी धरणि में
जीवन के बीज तुम्हारे
धारा अनुरेख चलेगी
संगीत खिलाती न्यारे.
लालसा तुम्हें भी होगी
वीणा झंकृत हो उसमें
बाँसुरी बज उठे मधुमय
नाचें परमाणु पवन में.
खींचो रस यही मिलेगा
बल भी तो इसी प्रकृति में
पल पल तुम घटो अकीर्णित
फैले सुगंधि संस्कृति में. 11-93-1979
13
तुम उगे अंकुर मेरे विधवंस पर
पुत्र यह तेरा समूचा गगन है
मैं नहीं पीछे तुम्हारी प्रेरणा
तुम स्वयं अपने समय की स्योति हो.
मिट गयी कितनी पुरानी पीढ़ियाँ
छोड़ अपना प्रेत हर उन्मेष पर
फोड़कर छाती खिला है अंकुरण
मृत्तिका के के वह निजी आवेग से.
पौध उगनी है तुम्ही में क्रांति की
क्या करेंगे पहर ये संक्रांति के
राह अपनी खुद बनाती बिजलियाँ
तोड़कर कुंठा घटा को चीर कर
फोड़कर छाती चले जो धरणि की
बूँद अगली तुम उसी जल धार की
झेलनी है यातना तन्मय तुझे
दहकते क्षण कुटिल अद्य यथार्थ को.
लो मुदिच थामो तनय इस आग को
आवरण को फाड़ ठुकरा कर्षणा
सक्ति है आवेग है संवेग भी
वयस है तेरी यदपि कैशोर की. 15-94-1979
14
दिन भर की थकान
रख देती है तोड़कर पोर पोर
मेरे तन का
रात कटती है नींद में
बेहोशी की
सपने नहीं उगते पलकों में
चाह नहीं जगती है उड़ान की
दूर दिगंत में
हर सुबह होती है तैयारी
झेल सकने की
सामने पड़े दिन के
कोलाहलपूर्ण आयामों को
अस्तित्व को बाँधे अपने कंधों पर
कोई रात ऐसी नहीं होती जो
हर अगले दिन को
जीने की, होने की तैयारी हो
यात्रा बिंदु हो
मचल कर रह जाता है
हृदय का कोई तंतु
मन की कोई स्नायु
अमुखर पीड़ा से. 14-04-1979
15
ओ मेरे अंतर्यामी
क्या हो गया है मेरी स्नायुओं को
हो रहीं हैं जो
जीवाश्म की लकीरों सी.
क्यों नहीं उभरता संगीत
इन स्नायुओं में.
भरी रहती है एक रिक्तता
आठो पहर
मस्तिष्क से हृदय तक
जीने नहीं देती मुझे
मेरे क्षणों को भरपूर.
18
नहीं चाहिए मुझे यह
कोष्ठक में घिरी जिंदगी
जोड़ गुणा बाकी से जुड़े
गणित-व्यंजक की तरह
गति होती है जिनकी
हाथों में दूसरे के.
व्यंजकों की आजादी
खिलवाड़ है किसी गणितज्ञ का
जोड़ को बनाते हैं बाकी
बाकी को बनाते हैं जोड़ जो
कोष्ठकों को तोड़कर
ऋण होता है जिनके पूर्व
और वह खतरा हो नहीं सकता विफल
विफल भी करना हो तो, अथवा
न भी हो कोष्ठक के पूर्व
तो भी
कोषठक को तोड़ना, और
आजादी देना व्यंजक को
मर्जी पर निर्भर है गणितज्ञ की
जो अपनी ही धुन का
होता है पक्का
नहीं बनना है मुझे
किसी गणितज्ञ का व्यंजक
अथवा समीकरण
मुक्ति मेरा स्वभाव है
मैं भूल ही गया था यह
दुनिया के लोगों जान लो अब से
घोषणा करता हूँ
मैं मुक्त होकर ही जीऊँगा
यह जीवन मेरी संपत्ति है
अब तुम लोग
मुझे अपना खिलवाड़ बनाने की
हिम्मत मत करना. 24-01-1980
19
मेरी स्थिति है
बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में
नयी कल्पना, नए प्रयोग, नए अभियान का
युग है जो
नयी संभावनाओं के द्वार
खोल रखे हैं जिसने
पर, मैं नया मनुष्य नहीं हूँ
नया मनुष्य-
जिसकी पलकों में बसता हो
इतिहासबोध
हिलोरें लेता हो वर्तमान
दृष्टि में खुलते हों
संभावनाओं के द्वार
मेरे अंतस्तल में
रेंगता है एक मनुष्य अवश्य
उग आते हैं पंख कभी कभी
उसकी पीठ पर
छलाँगे लगाने को उमगता है
खुले आकाश में
ससे प्राप्त करना चाहता है वह
आवेग
चिपक जाते हैं उसके पैर
सहसा
कुंभला जाता है स्यात
अंकुरण
सूख जाता है हृदय का रस और
खोकर अपनी संपूर्ण सहजता
रह जाते हैं बस
मैं और मेरा मैंपन
एक अबूझ बोझ से दबा, एक आयामी
होना ही गड़ता है एक अंग
परिवेश की बोध-दृष्टि का
अपना परिवेश-बोध खोकर
कितना कठिन है मेरे लिए
एक वृक्ष की तरह
अपने पीले पत्तों को झाड़ देना
नई संभावनाओं के द्वार खोल
सहज और समरस हो जाना
प्रकृति के साथ. 06-01-1980
20
छिन गया है मेरा कुछ
रीत गया हूँ मैं
उसके अधर-विचपंबन का रस
रोमावलियों की थिरकन
सुबह सुबह के धूप खंड की
तन मन में रिसती धड़कन
सपने सी लगती स्मृतियाँ
छीज रहा हूँ मैं
तनी हुई ये नसें अहर्निश
अवचिति उकड़ूँ हुई पड़ी
कटुता उगल रही चेतनता
जल में रेखा खींच रही
स्थिर नहीं क्रिया प्रति भी
बीत रहा हूँ मैं. 13-12-1979
21
कल मैंने सोचा
मैं एक शरीर हूँ
अभी कुछ क्षण पहले समझा
नहीं, चेतना हूँ, शरीर नहीं
किंतु अब
जब होना पड़ा है परिवेश का
न रह गया हूँ शरीर न चेतना
अब मैंने जाना कि
मैं बस एक गेंद हूँ
वालीवाल का
जो ही चाहता है उछाल देता है मुझे
आकाश में
अदृश्य सूत्र होता है उनके हाथ में
अभी बीच में ही
लोक लेते हैं दूसरे हाथ
सूत्र अपने हाथ में थामते
मेरे अनजाने ही
निमित्त हूँ मैंमात्र
दो हाथों के खेल का
उनके जीतने हारने की दिशा
निश्तित होती है मुझसे ही
पर हाय री मेरी नियति
भूमिका मेरी
और मेरी ही अस्मिता नदारद
मेरे हिस्से में पड़ा है बस
दो पाटों का संत्रास,
घुटन, कुढ़न, कुंठा
हवा में टँगी
मेरी अस्मिता की रटन
लुप्त हो जाती है हवा में फैल कर. 1712-1979
22
नहीं है पहुँच उन तक मेरी
कोशिश भी नहीं की कभी
पहुँचने की उन तक
और बहुत घाटे में रहा
किसी से सहमत या असहमत होना
हठात
कठिन है मेरे लिए
मेरे मन की
बनावट ही है कुछ ऐसी
सहसा निर्णय लेना भी
जोखिम है
कोई असंतुलन घट जाता है
मन की परतों में उस पल.
फिर भी दी है उन्होंने दावत
(विश्वास की पंखुरियाँ उगा कर
अपने चित्त में)
सम्मिलित होने को उस मेशन में
जिससे
उनका व्यक्तित्व निखरे
वे पैर जमा सकें उस जमात में
जो हामी हैलोकतंत्र का
वस्तुतः भीड़तंत्र ही है जो. 26-03 79
23
कहाँ पहुँच गया मैं,
यह तो एक वियावान है
अजीब ध्वनियों से भरा है
इसका वायुमंडल
अंतर्निमेय है
इन ध्वनियों की अर्थसंहति
जो गूँज कर हो रही है
अस्पष्ट, अपरिचित
परेशान हूँ ढूँढ़ निकालने को
उन आकृतियों को
उत्स हैं जो इन ध्वनियों के
पर ये धुँधलाई आकृतियाँ
क्षण भर में ही
इतने रूप और रंग धारण कर लेती हैं
कि
इन्हें भेद कर
इनकी अंतर्गुहाओं में प्रवेश करना
दुर्लभ है, दुस्तर है, दुर्लंघ्य है
धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक यात्राओं के
अंत में
अस्वीकृति और विरोध का नारा लगाते
पहुँचा हूँ यहाँ जिस रंगस्थल पर
दंग हूँ मैं इनके रंग देख कर
पल पल परिवर्तित प्रकृति के
वेश की तरह
बाध्य होना पड़ रहा है मुझे भी
इस रंग में रंग जाने को
जो विरुद्ध है मेरे स्वभाव के
पड गया हूँ मैं
अंतर्विरोधों के तनाव में
छीज रही है देह,
छीज रहा है नेह
अब मैं मुक्त होकर नहीं कर सकता
अट्टहास
परिहास सिद्ध होने लगे हैं वे ही
खोती जा रही है मेरी स्वाभाविकता. 19-12-1979
24
तुम्हारे पलकों पर तिरते सपने
कर सकेंगे नए महुष्य का निर्माण
मुझे शक है.
झाँक कर देखा है मैंने
तुम्हारी आँखों की गहराई में
उत्ताल तरंगें हैं वहाँ बाँसों छलती
उद्घोषणा-सी पौरुष की
उदधि की जड़ता से आबद्ध.
हलचल मचाए है वह
सोई तरंगों को उकेरती
जैसे बेचैनी हो उसमें सृजन की
एक आसन्नप्रसवा की तरह.
यह आंदोलन
मेरी अनुभूति में समाता है
वह मात्र सतह की प्रतिक्रिया है
तुम्हारे प्रणों का विस्फोट नहीं.
वह प्रतिक्रिया ही रेंग रही है
तुम्हारी पलकों पर
सपनों का अहसास जगाती
वो बस अहसास भर है
तुम्हारे प्राणों का जागरण नहां.
इनमें झरनों का संगीत नहीं
जो बूँदों का उत्सव मनाए
खो गई हैं जीवन की राहें
ये तो ठहरे हुए जल के
बोझिल आंदोलन है
जो बाध्य है पर्यवसित होने को
किनारों में
नए निर्माण के लिए चाहिए
उच्छल प्रवाह
किनारों से इतर जीवन से भरा
जो तुम्हारे पास नहीं है. 17-01-80
25
एक ध्वनि गूँजती सी चिदाकाश में
तोड़ती-सी है अनुपल
मेरे अस्तित्व को
अनुवर्तित या अंतर्वतित पता नहीं
पर यह जगा जाती है
मेरे अंतस् को
प्रतिफलित परिवेशों के प्रति
प्रतिध्वनि की तरह
--- अधूरा
26
विशव-मंच पर उपस्थित
महानुभावों!
आज मेरे पुत्र का जन्मदिन है
मोमबत्तियाँ बुझाई जा चुकी हैं
केक काटा जा चुका है
अब इस पियानो के स्वरों के माध्यम से
जो विख्यात है गद्यमय संगीत के लिए
मैं कुछ माँगता हूँ
हालाँकि आज ही जन्मदिन मेरा भी
पर यह माँग मेरे लिए नहीं
मेरे पुत्र के लिए है
आपके संघर्षपूर्ण जीवन में
रहें होंगे कुछ क्षण तनावमुक्त
पत्नी पुत्र या सुदृद को
प्यार करते समय
विद्रोह कर उठा होगा आपका मन
किसी क्षण
किसी प्रतिकूल नीयत के प्रति
मुट्ठियाँ भिंच आईं होंगी आकाश में
क्रांति के स्पंदन से.
घिर उठे होंगे कभी आप
अपने ही प्रश्नों के घेरे में
दीख नहीं पड़ रही होगी राह
बेचैन हो उठे होंगे
अनिर्णय के क्षण में
क्रुद्ध हो उठा होगा कभी परिवेश
आपके वितर्कों से
कट रहे प्रतिमानों से क्षुब्ध हो
उछला होगा मन कभी
अंतरिक्ष की ओर
प्रकृति की उघड़ती परतों में
और गहरे उतरने को
ललक उठा होगा कभी आपका जी
पी लेने को प्रकृति की श्री
मुग्ध हो उठे होंगे कभी
उसकी लुभावनी ह्री पर.
गुजरे होंगे कभी आप
द्वंद्व के क्षणों से भी
पस्त हो उठी होगी आपकी हिम्मत
उत्पीड़क हो उठी होगी टूटन की संवेदना
जन्मी होगी कुंठा किसी क्षण
तोड़ती-सी पोर पोर तन-मन की
पर उबाल खा गई होगी
मन के किसी कोने में
दुबकी जीने की उत्कंठा.
जाग उठे होंगे जीवन के अवयव
अपराजित
बुजबुजी की तरह अंतरावेग से
आपके जीवन में उद्भासित इन क्षणों को
मैं माँगता हूँ आपसे
रचने को अपने पुत्र के क्षण
प्रश्नाकुल जिज्ञासु चेतना के संकटों से
आपन्न
उसे तरना है
मूल्यवान विशाल सागर को
उसके उत्ताल तरंगों को नापते
नापा था जैसे कृष्ण ने
वकसुकी के फणों को. 03-04-1979
27
मेरे कवि
बहती थी स्रोतस्विनी
प्रेम की करुणा की, एक समय
तुम्हारे अंतर्प्रवाह में
तुम्हारा अस्तित्व प्रखर था
पड़ने लगी जब चोटें
तुम्हारी सीमा पर
बजाई थी रणभेरी, तुम्हारी वाणी ने
जाग हड़ते थे लोग नींद से
सुनकर तुम्हारी रणी प्रभात फेरी
तुम जन-कवि थे
तुम्हारी स्रोतस्विनी की आप्रवह बूँदों नै
तय किया फिर
भक्ति, रीति, छाया के मील-पत्थरों को
और म्हारी आँखों ने देखा एक दिन
म्हारे अथक परिश्रम से खिला मुक्ति-प्रसून
राममयी थी सुबह उस दिन की
उत्सव मनाए थे तुमने
लोगों के साथ पढ़, अपढ़, छोटे, बड़े
लोगों के दुख दर्द तुम्हारे थे
तुम्हारे लोगों के थे
जिया था तुमने
अपनी इस काल यात्रा में
लोगों की वृत्तियाँ
उनके भोगे यथार्थ को
अन्य पुरुष में
कभी भेरी की झंकृति में
कभी भक्ति की करुणा में, और
कभी भावों के थिरकन में
उत्तम पुरुष में सीधी टकराहट
कभी नहीं हुई तुम्हारी
जिंदगी से.
मुक्त होते ही टकरा गे तुम
सीधे जीवन से
मुखर हो उठा तुम्हारा ‘मैं’
अपने भोगे यथार्थ की अभिव्यंजना में
यह यथार्थ तुम्हें सालने लगा
पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगा
उघाड़ कर रख दिया इसने
तुम्हारे बौनेपन को
तुम्हारे लुंज पुंज रुग्ण आक्रोश को
उद्घाटित हो उठा
तुम्हारे जीवन का दुहरापन
मुखौटे की विवृति ने तुझे टोका
मुड़ गई पूरी कविता-धारा
कई नारों के मेड़ों में अँटाती खपाती
फिर तोड़कर नई भूमि को घेरती.
तुम्हें भी क्या सूझा
खोल दिया एक नहर विभाग शहरों में
ऑफिस हुए कॉफी हाउस के कोने
होने लगे अन्वेषण
ग्रामीण अर्थसंहतियों के सातुल्य
शब्द-ईंटों के
जो बना सके पुल
तुम्हारे और आमलोगों के बीच.
बनने लगे पुल के नक्शे
कॉफी के प्यालों में
फूँक से बनती बिगड़ती उर्मियों से.
पर तुम्हारे बनाए पुल
उन्हें रास नहीं आए
ये पुल उन्हें अपरिचित लगे, संदिग्ध लगे
उनहें यह लगा
ये पुल हवावों में टँगा है
इन पूलों को छूना उन्हें गवारा न हुआ
आज भी वे तुम्हारे पुलों को नहीं छूते
तुम उनके दुख दर्द लेकर चीखते हो, पर
पर तुम उनके दुख दर्द नहीं बन सके
मस्तिषक के खुरचन से विनिर्मित
आज की प्रभात फेरियाँ
उनहें लगती हैं बस एक चीख
स्पंदनहीन, अपरिचित
मुँह से चादर हटाकर
उनींदेपन में उठकर
वे सामने देख लेते हैं, और
मुँह बिचका कर
सो जाते हैं फिर
कौन सी कड़ी टूट गई है तुम्हारी वीणा की
तुम्हारे शब्द
क्यों नहीं उत्पन्न कर पाते
संगीत
यथार्थ के भोग और
भोग के यथार्थ में
क्यों नहीं बन पाता ऋजु तरल संबंध. 10-04-1979
28
थक कर अब तुम
करने लगे हो व्यंग्य.
तुम्हारे हिसाब से
मुझे होना चाहिए हिस्सा
हर उस आंदोलन का
जो छेड़ा जाता है हर रोज
इस शहर में.
तुम्हारी दृष्टि में
यही है पहचान आंदोलनकारी की
मैं ऐसा नहीं करता
अतः व्यंग्य हूँ तुम्हारे लिए.
व्यंग भी अनूठे हैं-
देखो बैठे हैं वह कविर्मनीषी
सोचते हैं पढ़ते हैं लिखते हैं गुमसुम
व बघारते हैं आदर्श विवादों में.
पर
शहर की हलचलों से
शिकन भी नहीं आताइनके
इनके चेहरे पर.
तुम्हारा यह व्यंग मुझे
कचोटता नहीं कोंचता नहीं
क्योंकि तुझमें और मुझमें
दृष्टि का (दृष्टिकोण का नहीं).
तुम पढ़ते हो चेहरे का शिकन
जो अभिनेय है
मैं गुनता हूँ हृदय की टूटन
जिसकी ध्वनि
मचाती नहीं शोर
होती है बस मौन संक्रमित.
तुम्हारी रुचि है
भंगिमाओं के सजीव अभिनय में
आंदोलन के हिलकोरों में
रोज रोज दिखना
मेरी रुचि है
तुम्हारे चेहरे पर अभिनीत
विस्थापित भंगिमाओं की गहराई में
धूप के टुकड़े की तरह उतर
यथार्थ को उघाड़ने में
हो जाएँ आंदोलित जिससे
हृदय के तंतु तंतु, और
घट जाए एक समूची क्रांति.
बंधु मैं आंदोलन में नहीं
आंदोलन मुझमें है. 12-04-1979
29
तुम्हारे आंदोलन
अब मुझे कुरेदते नहीं
मैंने तुम्हारे आंदोलन का राज
जान लिया है.
तुम्हारे आंदोलन में हैं
मुखौटे ही मुखौटे चारो तरफ
तुम्हारे आयातित मुखौटा-निर्माता ने
अपने निर्माण कौशल से
मिटा ही दिया है लगभग
स्वांग और स्वांग्य का फर्क
पर मेरी मूर्तिभंजक दृष्टि
बड़ी पैनी है निर्मम है
तार तार करके रख देती है
तुम्हारे सारे आयोजन को.
दाद देनी पड़ती है
तुम्हारी अभिनय कुशलता की
कभी तुम होते हो प्रस्तोता
विफल हो जाने पर
बन जाते हो प्रस्तुति
किसी अन्य प्रस्तोतो के
जुड़े हैं सपने जिसके
जन जन की आहों से.
पर खूब
उसके सत्ता-निर्वेद से उत्साहित हो
दबोच लेते हो पद प्रस्तोता का
अब फिर तुम्हारी प्रस्तुतियों के
उतरे हुए मुखौटे लग जाते हैं.
विवादों तकरारों दोषारोपणों एवम
छीना झपटी की तुम्हारी प्रस्तुतियाँ
बेमिशाल हैं
रोते रहे वे जिसने तुझे जना है
परवाह नहीं तुझे.
पर अब तुम्हारी भूमिका
अधिक सतर्क है
परेशान करने लगी हैं तुम्हें
मेरी तीखी नजर
भेद जाती है जो एक्स-रे की तरह
तुम्हारे रक्त मांस को.
अब मेरी नजर तुम्हारी शत्रु है
प्रयत्न में हो तुम
फोड़ देने को इसे
कोई सहारा लेकर –
सहारा कानूनी भी हो सकता है
भान है इसका मुझे
पर मैं वींधता रहूँगा आठो पहर
तुम करते रहो उपेक्षा मेरी
मेरी बला से
अब आंदोलन नहीं होंगे सड़कों पर
आंदोलन होंगे
इस देश के नौनिहालों के
मस्तिषक में
मैं क्रांति बोऊँगा
अंकुर उगने में लगे चाहे
जितनी भी देर.
30
दुबारा जने जाने की याचना
माँग होगी चरित्र के दुहरापन की
रोक देना होगा इतिहास का प्रवाहएक घाट पर.
प्रिये,
हम जने जा चुके सो जने जा चुके
दुबारा जने जाने की याचना
नहीं करेंगे हम
एक ही घड़े को यदि
कुम्र बनाए और
घडे के पुनः पुनः अनुरोध पर
उसे ही बनाता रहे, तो
रुक जाएगी संभावनाएँ विकास की
एक यात्रा की.
जनी गई बहुत सारी आकृतियाँ
हमारे जन्म के समय
विभिन्न तेवरों की धनी
नए आंदोलन के सपने सँजोए
पर
सब होके रह गईं उन्हीं आंदोलनों की
होती आ रही थीं जो पहले से.
हाँ युग संक्रांति की मार ने
उनके चित्त को तोड़ा जरुर
टूटन की तड़फन से बिलबिला उठीं वे
कुंठित अहसास हो उठे घनीभूत
कलम की नोंकों में
स्याही की संवेदना में उर्मिल
जगा नहीं सके पर उर्मियाँ वे
हृदय के समुद्र में.
दीए की झकोर मारती लौ से
लिकली नहीं कोई चिंगारी
झुलसा सके जो खरों को जड़ तक
उगाने की आकाँक्षा हो जिनमें
संभावित स्वस्थ कोंपलों को.
प्रिये,
माना नहीं गया तथ्यपूर्ण तत्समय
हमारा गर्भ प्रवेश
भरे नहीं गए कोई सपने
प्यारी पलकों में जन्मना
हम जाने नहीं गए विश्व में
अधूरे सपने की पूर्ति हेतु
हमारा जनमना तो बस
हो गया नपेक्षित
प्रक्षिप्त हैं हम मौज की राहों से.
पर हमारे परिवेश की रगों में गुँथी
कुछ पुरा थातियाँ
हमें जोड़ती हैं अविच्छिन्न उस प्रवाह से
अनजाने
तत्पर हैं जो समुद्र यात्रा में
राहों के यथार्थ से छिलते, उसे झेलते
मैं रुकने नहीं दूँगा उस प्रवाह को
मेरा संकल्प है
आओ प्रये मेरा साथ दो
हम अब जड़ेंगे मिटेंगे
जनने को कुछ थोड़े मनुष्य
(आकृतियाँ नहीं)
फौलादी आत्माओं और पुषट बाँहों वाले
हम भरेंगे उनकी पलकों में
सपने जीवन के
उगाएँगे उनकी आँखों में
रक्ताभ डोरे जीवट के
संकल्पों से बुनेंगे उनका चित्त
अडिग सविकल्प
अवधारणओं से युक्त. 22-04-1979
31
विखेर दिए हैं मैंने अपने अस्थि-फूल
तुम्हारे सामने
लो कर लो इसका इसतेमाल
जैसा तुम चाहो
यदि कर सको तो.
करना चाहा था तुमने इसतेमाल
अपने अनुकूल तब भी
शरसज्जा पर था मैं जब
डायलिसिस की
हाबी हो गया था किंतु
मेरा क्रांतदर्शी पुरुष तुम पर
छिटक निकले थे तब तुम
नीम के बीये-सा
घोषित करके मुझे
एक अनपेक्षित बाहरी आदमी
क्या खूब विकसी तुम्हारी अवधारणा
मेरी ही कोख से जन्में
मुझसे ही कर गए म्याऊँ.
सुनते थे तुम मेरी
जनसमूह की ताकत थी जब
मेरे पीछे
मैं ही निमित्त था जनोद्बोधनों का
कर रहे थे स्यात तुम मेरा उपयोग
मेरी दिशा-व्यथा
मेरे इतिहासबोध से अनभिज्ञ
कितने कच्चे थे तुम
मैं ठहरा हुआ जल नहीं था
बाँध लेते जो मुझे किनारों में
मैं एक प्रवाह था
समय के कूलों से
अनथक अजस्र बहता
मैं एक प्रवाह ही हूँ आज भी
यह है एक क्रांति यात्रा
कभी न रुकने वाली
मेरे बंधु
वह तो एक प्रक्रिया है
जात्याभिक्रम के
निरंतर गतिशील अविचछिन्न.
मेरा कूल तुम्हारे सामने है
पर वह ठहरा नहीं है
बाँध नहीं सकते तुम इसे
किनारों में
कर नहीं सकते तुम इसका
उपयोग सहेतुक.
इनके उपयोग के लिए
होना पड़ेगा तुम्हें इंद्र
इंद्र में निष्ठा थी पराक्रम था अनन्यता थी
तभी कर सका था वह उपयोग
दधीचि की हड्डियों का
वृत्र-बध के निमित्त.
शून्य हो तुम इससे
विभ्रम में मत पड़ो
नहीं हूँ मैं भीष्म घेरकर जिसे
कर दिया था निर्वीर्य कौरवों ने. 30-10-1979
32
मैं नहीं अर्पित करुँगा अब
पूजा के फूल
तुम्हारे चरणों पर.
मैंने अपने शरीर के पोर पोर से
निचोड़कर क्रांति-तरल संवेदना
सौंप दिया तुम्हें.
लो छिड़क दो इसे
दिशा दिशा में जन जन में
जिससे
घट जाए रचनात्मक विस्फोट
भर जाए सारा वातावरण
उष्मा से अंकुरण की.
पर तुमने
किया उसका दुरुपयोग भरपूर
एक भँचे संस्मारक-शिला के शीश पर
जचवा जेने को एक आकृति
करुणापरक
पत्थरों में खुदवाकर.
अब तुमने माँगी है मेरी हड्डी
बनाने को हथियार
तोड़ देने की घोषणा के साथ
सर वृत्रासुर का
खूब फला फूला है जो
तेरी बाँहों की छत्रछाया में
मेरे गतश्रद्धेय
मैं नहीं हूँ मूर्च्छा में अब.
मैं नहीं दूँगा अपनी हड्डी
(बच रही है मेरी
यही एकमात्र संपत्ति).
मैं स्वयं बनाऊँगा शस्र
इस हड्डी से और
खड़े होकर सरे बाजार में
फूँक मारूँगा हड्डी की सूराखों में
हड्डी का शस्र उठाकर
मिट सकने में हैं जो सक्षम
आएँ मेरे साथ
संघर्ष-प्रयाण में.
अपनी अपनी ह़्डी लेकर
मैं चल पड़ा हूँ खम ठोंक
पथ पर संघर्ष के. 24-04-1979
33
मैं भूमिका-सा हूँ किसी यात्रा की
अनजानी अपरिचित अदृश्य
जगते हैं अहसास प्रतिपल
जुड़ती कटती विद्युत धारा की
यात्रा स्थल है जिसका गेह देह-सा.
आलोक की लुका छिपी की पीड़ा
घर को घर के स्वामी को
झेल रहा हूँ मैं भी मेरी देह भी
इस अहसास की पीड़ा.
अस्तित्व की कठोर लड़ाई में
कोशिकाओं की वलि देकर
हो गए हैं असंवेद्य मेरे संवेदनशील विंदु
कुढ़ती संवेदना को परतों में छिपा कर.
फिर भी
कुछ घटने की
कुछ टटका खिलने की पुलकनविखर सी जाती है
मेरे चोट खाए मर्मों पर
कुछ कुछ सी
मेरे झुलसे चेहरे पर
हरियरी सी उगाती 09-05-1980
34
मेरी आँखें फटी की फटी रह गईँ
जब देखा
एक विशाल जन-समुदाय को
नारा लगाते
एक बुत के सामने.
सुना वह बुत
संस्थापित है इसी समुदाय के द्वारा
उस चौराहे पर.
वह समुदाय घेरे हुए है उस बुत को
चारो दिशाओं से
और नारा लगा रहा है
माँगें हमारी पूरी हों.
यह भी सुना
इस जुलूस में
देश के कोने कोने से आए हैं प्रतिनिधि
विभिन्न संगठनों के
गोया सारा देश सिमट आया हो
इस चौराहे पर.
इस प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं
एक से एक स्वप्नशील
अपनी शक्ति झोंक कर
करना चाहते हैं जो देश का निर्माण
भीख में ही झोली भर जाए तो
क्या गरज पड़ी है
खून जलाने की.
कभी यह देश
माँगता रहा है भीख
स्वानुभूत ईश्वर से
आज माँग रहा है
स्वनिर्मित प्रतिमूर्तियों से
बनाता बिगाड़ता है जिसे
अपने वोटों से
यह बुत भी उन्हीं में से एक है.
यह देश गुजर रहा है
एक संक्रमण काल से
एक क्रांति हो रही है यहाँ
माँगने की
जनता द्वारा नेताओं से
नेताओं द्वारा जनता से.
हम जहाँ हैं
हमारा देश नहीं है वह
हम उसे अपना देश मान लें तो
अपनी शक्ति खर्च करनी पड़ेगी हमें
उसके विकास में
खून जलेगा, पसीना गिरेगा
विकसित करनी पड़ेगी अपनी क्षमता भी
जो परिश्रमसाध्य है
अतः स्थानान्तरित कर दिया है हमने
अपने देश को इस चौराहे पर
कर दिया है नियुक्त एक रखवाला भी
धीर गंभीर.
रख लेंगे हम माँगें इसके सामने
सारी ताकत लगा देंगे
मनवाने को अपनी माँगें
अगर वह मुकरा
प्रतिस्थापित कर सकते हैं उसे
माँगें रखना
संविधान सम्मत अधिकार है हमारा
यही मबलाधार है जनतंत्र का. 14-05-1980
35
झाँकता रहा हूँ मैं
तुम्हारे मन की गहराई में
अथ से ही
पा नहीं सका हूँ किंतुओर छोर उसका.
तली के संवेदना-जल में
बनती बिगड़ती उर्मियों के स्पंदन से
अनुस्वरित ध्वनि निस्पंदों के
तुम्हारी भंगिमाओं में उभरते
आघात-बिम्ब
बीतते क्षणों के साथ
बदलते गए हैं अपनी अंतर्कथा
तुम्हारे चेहरे के विकार में टँके हैं
तुम्हारी अनुभूति के कौन से पहलू
आसान नहीं पढ़ना उन्हें
सिंधु लिपि की तरह.
कभी ये लगे हैं
चेहरे के अभिव्यक्ति शिल्प
बाह्य संवेदना के द्वारा
उरेहे गए ग्रहण वृत्त
कभी इनसे फूटे हैं वेदना के छींटें
बनते गए हैं जो
कुछ स्पष्ट कुछ अस्पष्ट
कविता की पाँतें
भींग गया है मेरा मन उन्हें पी के
सहज नहीं हो पाई हैं पर
आप्रवह अथांत पंक्तियाँ
मस्तिष्क को खुरचने पर भी
रही हैं दुर्बोध.
समय के हस्ताक्षर
हो नहीं सके उनपर.
प्रयत्नशील हूँ बाँध लूँ उन्हें
अपनी शब्द श्रृंखला में.
पता नहीं चलता
पीड़ा की छिटकन हैं ये या
हैं सृजन की कशमसाहट या
यथास्थिति का एक सिल्पगत छलावा
पुरानी रिक्तता पर
नए बोध का लेबल है अथवा
रीत रही संवेदना पर
छिटके हैं धूप के टुकड़े
मगर जानकर रहूँगाइनका मर्म
एकाग्रता है मुझमें अर्जुन की
लक्ष्यभेद हो सकेगा एक दिन
उद्घाटित हो सकेगा जीवन का सत्य
मनु-पुत्रों के. 10-06-1979
36
ओ री नदी!
वक्र आप्रवह अधिभारित!
देखता हूँ एकटक
तुम्हारी धारा का संकुचन विरलन
उठती रही हैं जो बाँसों उँची
ज्वार तरंगें
भाटे के आंदोलनों से अभिताड़ित.
कोई बल कुरेदता रहा है
मुझे मेरे अंतर को
एक ही वृत्त में नाचते पहिए को
आगे ठेलने को प्रयासरत
पिस्टन की तरह.
इस बल की नोक पर टिका मैं
ऐर कुछ न कर
निरखा किया है मैंने
तेरे प्रवाह की उभरती मिटती
रेखाओं को
एक निरापद खोज की
अभिलाषा से.
मैंने ढूँढ़ा है इनमें
क्रांति की गाँठें
मार्ग में बिखरे ढूहों को ठेलकर
वृत्त बनाने वाली बूँदों के समवाय में
मैं खिंचा हूँ उस चेतना के प्रति
उठे हैं ज्वार कंठ तक
दूध के ऊफान की तरह.
कभी कदा कौंधी है तड़ित चिदाकाश में
झलकी है संक्रांति
ढूहों के गिर्द चक्कर काटते
जलवृतेत में.
पर
टुकड़ों की समग्रता
छूट नहीं सकती है फिर भी
कितना कठिन है मेटना
इन टपकड़ों की इयत्ताएँ.
ओ री जन्म ले रही
प्रवाह की अगली बूँदों!
मैं ही तुम्हारा यात्रा-बिंदु हूँ
शोधना होगा तुम्हें आधार-नियति
झेलने हेतु दुर्द्धर्ष पड़ावों की यात्रा-पीड़ा
संकल्प लेकर लोक यात्रा का. 12-06-1979
युवाक संकलन में प्रकाशित
37
मैं जब भावाकुल होता हूँ
मेरा कंठ करुणाद्र हो जाता है
उमड़ते सिंधु तरंगों की तरह
एक संसार रच जाता है.
मेरे चित्त में तनावों के क्षण हैं
अंतस में द्वन्द्वों के व्रण हैं
फिर भी कोमल संस्पर्सों के
प्रत्यक्षीकरण से
एक स्वर-समीकरण बन आता है.
जन्म होता है एक संगीत का
आविर्भूत होता है
एक संवेदनशील वातावरण
एक अतिक्रमण घटता है अपरिचित
स्थानांतरित हो जाता है मनोजगत
हृदय की भूमि तक
और बरस पड़ता है
एक अनुभूतिमय आनंद
एक क्षण के लिए
उससे जुड़ कर हो जाता हूँ मैं
एक अविच्छिन्न प्रवाह. 19-05-1980
38
मेरे दरवाजे पर
नियमित रूप से
प्रतिदिन दस्तक देने वाले
उस भिखारी की आर्द्र याचना
पिघला नहीं सकी मेरे अंतर को
आज तक.
मैं जुड़ नहीं सका उसकी याचना से
मेरी संवेदना जुड़ नहीं सकी
उसकी कातरताओं से.
उसकी याचना जारी है अब भी
हर अगले दिन
घनी होती जी है
उसकी कातरता.
इधर मैं अवाक् हूँ
अपने हृदय की
इस अनोखी नियति पर.
हर अगले दिन
और अधिक बल से
ढेलता ही जाता है वह
इस याचना की कारुणिकता को
मस्तिषक के कोटर में
जहाँ पहले से ही टँका प्रश्न
गहराता जाता है प्रतिपल.
यह प्रश्न है-
सूख ही गई है क्या
मेरे हृदय की तरलता, जो
बीचियाँ भी नहीं लहरातीं
जुड़ जाने को
उस याचक की संवेदना से.
अथवा
चुक गई है करुणा इस याचना की
जो कर नहीं पाती आमंत्रित
बीचियों को
उछल कर आ जुड़े जो
याचना अथवा याचक से
अथवा
ब्यर्थ हो गए हैं दोनों
याचक अथवा याचना
मेरी अनुभूति के लिए. 27-05-1980
39
रोज दिन मैं एक सन्नाटा बुनता हूँ
रात की मूर्च्र्छना के टूटने पर
सुबह की धूप में जब आँखें खुलती हैं
बुरी तरह चुभने लगता है परिवेश
मेरी रगों में.
रोमों से रिसती विसंगतियाँ
मेरे मस्तिष्क के तंतुओं में
तनावों के क्षण उगाती हैं
टूटने टूटने को हो जाता है संतुलन
असहज हो आता हूँ मैं.
पर
कोई अंतस्थ उर्जा है अंतस्थ
मेरी काया में अलजान
तत्पर हो जाती है उसी क्षण
बिखरते संतुलन को संभालने में
और रचने लगती है एक अंतरिक्ष.
तब बुनने लगता हूँ मैं
एक सन्नाटा
होने लगता हूँ रिक्त अपने तईं
उस वर्षा को अपनी कोख में
समेटने को
जन सके जो एक दिन
नए मनुष्य को.
मेरी इस सायास चेष्टा में
सुबह से हो जाती है शाम
फलितार्थ को पाते पाते
धेर लेती है मूर्च्छना नींद की
सो जाती है मेरी चेतना बेखबर
फिर अगली सुबह
शुरु हो जाता है वही क्रम
और प्रति दिन की तरह
मैं एक सन्नाटा बुनने लगता हूँ. 03-06-1980
40
यह कौन है जो
मेरी त्वचा के नीचे
चुपके से रेंग जाता है.
पल भर को मैं
रोमांचित हो उठता हूँ
मेरी बहिर्मुखी चेतना
अंतर्मुखी हो जाती है
संवेदना की एक करुणाभरी लहर
बह उठती है पोर पोर में.
शांत जल पर
मुखरित सिहरन-सी
खिल उठती हैअंग अंग में पुलकन.
मेरा मस्तिष्क
डुबकी लगाने लगता है
हृदय की गहराई में.
कौन है .यह
जो अपने अतींद्रिय संस्पर्श से
घटा जाता है कीमिया
अंतरानुभूति की. 07-06-1980
41
तुमने मेरी आलोचना की
करो और करो
मैंने तुम्हारी आलोचना नहीं की
करुँगा भी नहीं
तुम मेरे आलोच्य नहीं हो.
आलोचना ही तुम्हारा प्राण है
यह युग की मानसिकता से
मेल खाती है
आज के संदर्भ में
इसकी प्रखरता से
बाजी जीती जा सकती है
प्रतिद्वंद्विता की.
मैं तो इस मानसिकता के ही
विरोध में हूँ.
बाजी जीतना मेरा अभिप्त नहीं
इसके लिए
एक ही प्रतियोगिता का
प्रतियोगी होना होता है
मैं तुम्हारी इस प्रतियोगिता का
सहभागी नहीं.
जो कुछ भी चल रहा है
उसे क्रांतिकारी बातचीत की छाया में
चलने देना तुम्हारा अभीष्ट है
विचारों की तरंग
तुम्हें तोड़ती है
तुम्हारे होने की सार्थकता को
चुनौती देती है.
मेरे व्यक्तित्व में
विचार-तरंगों के लिए आमंत्रण है
मस्तिष्क और हृदय के बीच
इन तरंगों के अभिसरण से
मेरे अंदर कुछ टूटे कुछ छँटे
जो अवांछित हो
यह है मेरा अभीष्ट
इन्हीं क्षणों में
कुछ जगता है कुछ घटता है
कुछ अंकुरित भी होता है
अनोखा
प्रकृति से संवाद रचने को.
सागर की छाती पर संतरण
उसकी लहरों पर नर्तन
तुम कर सकते हो
अंतरिक्ष का खुलापन
तुम्हारा साथी हो सकता है
मपझे तो डुबकी का रसास्वाद चाहिए
गहराई की
लहरों का मूल वहीं है
सागर का जल-स्तंभ संभाले.
मूल को खोजना ही
मेरा लक्ष्य है
मूल गहराई में ही होता है
सत्य भी वहीं हो सकता है
मुझे बस सत्य पाना है
तुम्हारी आलोचना से
मेरा कोई सरोकार नहीं. 09-06-1980
42
मैं एक संकट में हूँ
मेरा संकट
अभिव्क्ति का संकट तो है ही
अनुभूति के अनुवर्तन का भी है.
अपने परिवेश के
उसी के क्रोड़ में पनप रहे, पल रहे,
उसी की कोख में उगे
लोक-स्वीकृत शब्दों, व्यवहारों को
बीन बीन कर
मैंने अपनी प्रस्तुति को सजाया
उसे वाणी दी
पर यह वाणी उसे रास नहीं आई.
बड़ी मिहनत से रचे मेरे सृजना को
हाथ में उठा
बिना सूँघे, परखे अलगाता रहा
मैं जबरदस्ती उससे जुड़ता रहा
पर उसके पसीने तक में रेंग नहीं पाया
खून में रेंगना तो अलग रहा.
लोक-संवेदना का ढिंढोरा पीटता मैं
लोक-मानस से अलग होता गया
आज मेरा संकट मुझे खाए जा रहा है.
लोक-चेतना की नोंकों पर टिका मैं
उसकी रक्त वाहिनी से मैं
अलग थलग हूँ
उसकी युग समायोजन की प्रवृत्ति
मुझे स्वीकार नहीं
मेरी संक्रांति-चेतना
उसे पचती नहीं.
कैसे रचे संवाद-सेतु
हम दोनों के बीच
अपनी इयत्ताएं तोड़ने को
हम सहमत नहीं. 09-06-1980
43
मेरी काया के साथ
रोज दिन निकल पड़ती है
एक धँधली आकृति
दिन की यात्रा पर.
रात के अंधेरे में
सिमटने लगती है जब मेरी चेतना
मेरे अकेलेपन को दबोचती वह
एक बोझ सी लगती है
यद्यपि पृथकता भाषित होती है
पर वह मुझे ओढ़े है
अथवा मैं उसे
स्पष्ट भान नहीं होता
मैं फर्क नहीं कर पाता.
दिन के उजाले में
वही होती है प्रमुख
मैं खो जाता हूँ, खो जाती है पृथकता
दिन के व्यापारों को सरकाती
परिवेश के कोढ़ों को पीती
बदरंग हुई वह
बिठाई जाती है उच्चासनों पर
जहाँ पल भर को आभासित पृथकता
दब जाती है मार खाकर.
कौन है यह आकृति
जिसकी नियति झेलने को
मैं बाध्य हूँ
जिसे उतार फेंकने की कोशिश में
और चिपकती जाती है वह
मेरी अस्मिता से.
वह तो मर गया है भाव भी
अस्मिता का.
गली में, चौरस्ते पर, रेस्त्राँ में
लोगों मे चर्चा है
यही मनुष्यता है समसामयिक
कुछ के अनुसार
मानसिकता है यह.
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ
प्रश्नाकुलता को पीता
इसे ढोता या ढोया जाता हुआ
इसकी पहचान से अनभिज्ञ. 05-06-1980
44
मुझे ठीक ठीक पता तो नहीं
पर लगता है
मैं किसी संवेदनशील उर्जा की
एक उछली कनी हूँ.
अपने आधार से टूट कर
आकाश के एक बिंदु पर
अपनी ही अभिव्यक्ति की लालसा से
अनुप्रेरित
अस्थिर हूँ.
अपनी अभिव्यक्ति के आयामों के
छोर मापना
मेरे बस में नहीं
मेरी इयत्ता
असीमित संभावनाओं की
ढूह-सी लगती है.
यद्यपि मेरा होना
किसी क्षण
एक काली छाया के प्रसव का
परिणाम लगता है
पर झिझक, दुविधा के
टूटने के क्षणों में
किसी उर्जा का विस्फोट घटता है
काया में
किसी व्यापक उर्जा की तरफ अनुलूलित.
मेरे बदरंग परिवेश की
कड़वाहट के आचमन से विकृत
चित्त की खोह में
वासनाओं की आग में झुलसी
त्वचा के भीतर
अक अविरल जीवन-प्रवाह
होता है प्रतिभासित
अदृश्य विद्युत-तरंरों के द्वारा
जुड़ने को किसी व्यापक सत्ता से. 07-06-1980
45
मैं रोज अग्रसर हूँ
तुम्हें पी जाने को
तुम्हें पी ही जाउँगा.
मैं भीड़ के कंधों पर चढ़ा
भीड़ को ही ढोता रहा हूँ
भीड़ में डूबता उतराता
भॉ को ही जीता रहा हूँ
तुम्हारे होशियार हाथों में
अपनी जीवनधारा को सौंपकर.
मैं गलतफहमी में था
कि तुम मेरी प्रसूति हो
नहीं, मैं मैं तुम्हारा प्रसव नहीं हूँ
तुम तो जस्ते पर चढ़े पारे की तरह
युग-मानसिकता को जीती घुलाती
एक काली आकृति हो
मैं किसी काली आकृति का प्रसव
कैसे हो सकता हूँ.
मैं तो एक प्रक्षिप्त कनी हूँ
किसी उत्स की
झरने के जल-बिंदु की तरह
हाँ वह उत्स क्या है
स्पष्ट नहीं.
पर वह तुम नहीं हो,
यह निश्चित है
क्योंकि यांत्रिक प्रतिक्रिया जैसी
तुम्हारी लुभावनी विकृतियाँ
वहाँ नहीं है.
आधारहीन विश्व में टँगी
अपनी अस्मिता को संभाले
प्रपात की छिटकन की तरह
व्याकुल मैं भी
अपने उत्स से तार जोड़ने को
नाना तनावों को झेलते
विभिन्न आयामों में प्रसरणशील.
टेलीफोन के दो छोरों कोबीच
संवाद हो सके
तभी हो सकूँगा सहज
अनुभूति समान स्वयंस्थ.
ऐसा हो सकेगा तभी
जब तुम्हें पी सकूँ पूरा का पूरा
चेतना के समस्त द्वार खोल कर
भले ही कंठ पड़ जाए नीला
शंकर की तरह. 07-06-1980
46
मेरा प्रत्येक पल
तर्कना और संवेदना के पाटों से
घिरे
एक दरार को जीने में
गुजर जाता है.
अक्सर कुछ स्वप्नशील उमंगें
प्राणों के आवेग से अग्रसारित
उर्मियों-सी उठ उठ कर
पाटों को जोड़ती
रह जाती है उलझ कर
मकड़ी के जाले में
कुछ उसे तोड़ती कुछ स्वयं टूटती.
दरारों के फासले
भीतर की तरफ कम होते होते क्रमशः
तिरोहित हो जाते हैं एक उत्स में
बस एक मूल रह जाता है निस्पन्न
सार गर्भित अस्तित्व संपन्न.
इस दरार को मुझे जीना पड़ता है
अंतर्मन के प्रत्येक पोरों में
नित्य दिन.
मेरे चित्त में जन्म लेते हैं अनेकों प्रश्न
यह दरार भी जन्मती है वहीं
कुछ ठीक निश्चित नहीं
क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति
कत्तई वहाँ से नहीं उभरती.
वह तो मुखर होती है
मेरे होने को चुनौती देने वाली
मेरे बाहर घटती कुछ घटनाओं से
शब्द और संप्रेषणीयता छीन कर.
इस दरार के दोनों किनारे
एक त्रिभुज की नोंक की तरह
मेरे अंतस्तल के किसी कोने में
मिलते हैं आकर
पर अभीतक उसके बोध से
मैं अपरिचित हूँ. 19-06-1980
47
उस चौराहे पर कल तुमने
ठोक दिया मुझे हथौड़े से
मैं आसमान से गिरा
और अँटक कर रह गया खजूर में.
पेट भरा होने पर
मैं जब भी
उड़ानें भरने को होता हूँ
दिंमंडल में
तुम टकरा जाते हो मेरे मानस से
और मैं गिरकर
अँटक जाता हूँ खजूर में.
पेट खाली होने पर
भूख की पीड़ा से उत्तेजित हो
जब संघर्ष छेड़ता हूँ अपने गिर्द से
और
परिवेश से मार खाकर जब
अप्रासंगिक हो जाता हूँ युग-धारा में
तुम गिल्ली की तरह उछाल देते हो
मेरी अस्मिता को
मैं फिर अँटक जाता हूँ
खजूर की उसी पत्र-नोंक पर.
खजूर में अँटकना
जैस मेरी नियति हो गई है
अनेकों तनाओं को जन्म देती
लेकिन तब भी तुम्हारे आघात
बंद नहीं होते
एक ठेस लगे व्यक्ति की
चोट खाई चेतना की तरह
--जिसकी आँखों के आगे अंधेरा हो जाता है
मैं राहों को हवा में टटोलने लगता हूँ
प्रतिपल खड्डों में गिर पडने के भय से. 20-06-1980
48
लाठी टेकती वह कृश आकृति
पथ की सभी आकृतियों के सामने
कटोरा झनझनाती
फिर मेरी तरफ सरकती आ रहीं हैं
यह, और इसी तरह की
कई आकृतियां
अक्सर गुजरी हैं मेरे सामने से
पर इनकी आर्द्र वाणी और
कटोरे की झनझनाहट
जो पीठ से लगे पेट में
कष्टकर कंपन उत्पन्न करती हैं
पिघला नहीं सकी हैं मेरा हृदय.
साफ कहूँ तो
जब भी ये मेरे सामने हुई हैं
बहुत टटोलने पर भी
रिक्तता ही पाया हूँ स्पंदनहीन
हृदय की उपस्थिति तो जैसे
ना होकर रह गई है उस क्षण.
मैंने सुना है
कुछ क्षणों में लगा भी है कि
अनुभूतियाँ, इगितें
आविर्भूत नहीं होतीं मस्तिष्क में
ये तो जगती हैं
हृदय की संवेदना में
त्वचा के रंध्रों से अभिसरित
किसी विद्युत-तरंग से जुड़कर.
यह आकृति
अब फिर मेरे सामने है
पर वैसा कुछ नहीं जगता मेरे अंदर
आज फिर मेरा हृदय अनुपस्थित है
हाँ मस्तिष्क के उलझे तंतुओं में से दो एक
प्रश्नों के प्रहार से सुलझते प्रतीत होते हैं
पर यह सुलझना
फिर भी नहीं जोड़ रहा मुझे उस आकृति से
क्या यह आकृति
सी ही गुजरती रहेंगी मेरे सामने से
और मेरा हृदय अनुपस्थित होता रहोगा हर बार
तो फिर उससे जुड़ने की
मेरी आकांक्षा का क्या होगा. 27-06-1980
49
उस दिन अस्मात
एक अनुभूति कौंध गई
क्षण भर को
पर एक परत उघाड़ गई
अंतर्जगत की.
हर दिन की भाँति
एक सहज घटना ही देखी थी
उस दिन-
वही
एक सेल के दोनों पोलों के बीच
तार से जुड़े बल्ब का जलना.
एक क्षण के लिए
इस तरह बल्ब का जलना
बहुत अनोखा लगा था
सहसा कुछ उद्घाटित करता
प्रस्फुटन की तरह.
मुझे लगा
दोनों ध्रुवों के जुड़ते ही
सेल के अंतर्गर्भ से
स्वतःस्फूर्त बहिर्मुखी धारा
आकाश में
एक निश्चित आयाम में बह कर
जब पुनः उसी अंतर्गर्भ के
अंतर्मुख हो जुड़ी
तो सेल का आंतरिक प्रकाश ही
बल्ब के प्रकाश
में रुपांतरित हो उठा.
या कहें
अपनी अभिव्यक्ति का
सही आयाम पाकर
जब वह अपने स्व से जुड़ी
तो उसका जीवन खिल उठा.
यह कौंध मुझमें
एक जिज्ञासा उकेर गई
मैंने भी आदतन
अपने चिदाकाश में
एक प्श्न ही तैरा दिया
कहीं जीवन से मेरे जुड़ने का
रहस्य भी यही तो नहीं. 30-06-1980
50
ओ री मेरी करुणा!
मैं पल पल
तुम्हारे करीब आना चाहता हूँ.
कैसी विडंबना है
तुम मेरे ही भीतर मेरी स्नायुओं में
पिधल कर रची बसी हो
पर तुम्हारे हमारे बीच
मीलों का फासला है.
मेरी चेतना
मस्तिष्क से प्रवाहित होकर
परिवेश के बिंदु बिंदु पर फिसलती
अनुभव इकट्ठी करती
अभिव्यक्ति का द्वार ढूँढ़ती है.
तुम्हारी चेतना
हृदय में बंद है
जो किसी किसी क्षण में
पिघल कर
रक्त की तरह
स्नायुओं में बह उठती है
किसी मूल्यवान अनुभूति को
उद्भासित करती क्षणिका की तरह.
ऐसे क्षणों में
पल भर के लिए ही सही
मैं जुड़ जाता हूँ तुमसे
अपने आप से भी
मेरी आँखें मेरी त्वचा
हो जाती हैं द्वार-
नई संवेदना का प्रवेश द्वार.
परिवेश के
एक एक कण से जुड़ना
हो उठता है संभव
तुम्हारी कारुणिकता के सूत्र से
और फिर रह जाती है
मात्र अंतर-संप्रेष्य अनुभूति.
कैसे यह क्षण लंबा हो कि
तुमसे कभी कभी का जुड़ना
हमेशा का जुड़ना हो जाए
और मैं
अपने उसी स्रोत से जुड़ सकूँ
जो मेरा उत्स है. 10-07-1980
51
यह रात के अंधेरे में
रौशनी की तरह तू
नहीं,
तम्हारी अनुपस्थिति में
अंधेरा हुआ यह
नहीं, यह भी नहीं
यह तो
अपने ही प्रतीति क्षणों को
जीता हुआ मैं
किसी जुगनू की तरह
अंधेरा और उजाला करता हुआ
नहीं,
कुछ ठीक नहीं खुलता
जो घट रहा है इस क्षण
उसकी अभिव्यक्ति कठिन है.
कुछ घट रहा है वह पृथक
कोई देख रहा है वह पृथक
रोजमर्रे की संपन्न होती
अबाधित क्रियाएँ अलग
पर इस संपूर्ण घटना में
किसी किसी क्षण
किसी फूल के
खिल उठने का अंतर्बोध
फूलों लदी डाली सा रच देता है
मुझे मेरे अस्तित्व को.
यह क्या हो जाता है मेरे क्षणों को
चलते चलते
कुछ अतींद्रिय घट जाता है
यद्यपि मेरी यात्रा नहीं रुकती इससे
पर उस क्षण
वही नहीं रह याता जो पहले था
कोई और हो जाता हूँ. 25-07-1980
52
उस दिन का सपना
कितना अनूठा था.
मैंने देखा
एक रुपक श्री
मुझसे जुड़ने को आतुर
भागी आ रही है बेतहासा
मेरी तरफ.
मैं स्वयं भी
उससे जुड़ने की
वैसी ही ललक
वैसी ही उत्कंठा लिए
भाग रहा हूँ उसकी तरफ
आँखों में एक लौ भरी
जिज्ञासा सँजोए
किसी अनिर्दिष्ट दुविधा की
ठिठकन ओढ़े.
जागरुक था मैं उस क्षण
सपने में भी
चेतना के किसी स्तर पर.
इस प्राकृतिक अस्ति की गति
यद्यपि मुझसे बाहर थी
पर उसके होने के क्षण
मेरे ही अस्तित्व का
कोई होना लगते थे
स्यात वह
मेरे ही अंतर की समुद्भूत
मेरी ही अंतःश्री थी.
चूकता रहा हूँ अबतक
मेरा सूक्ष्म शरीर भी चूक गया
प्रबलेतर आकाँक्षा की ठिठकन जीकर
अपनी ही भूल से
मैं अपने स्व से नहीं जुड़ सका. 20-07-1980
53
जब भी मैं
अपनी निजता की गहराईयों में
उतरता हूँ
वे सारे कुछ-
वस्तुतः जो संतुलन-सूत्र हें
परिवेश के
बुना है जिसे मैंनें
मकड़ी के जाले सा
सावधानतापूर्वक
अस्त व्यस्त हो जाते हैं
असंतुलन का खतरा ओढ़ कर.
एक भय समा जाता है
अतल गहराईयों में
गिरने का,
मेरी रचना का एक एक अणु
आंदोलित हो उठता है.
बस एक ही खूँटी दिखती है
मेरी स्वीय की
आकाश में टँके नक्षत्र सा
जहाँ टँग कर
अंदाजा लगा सकता हूँ
गहराईयों के विस्तार का.
पर उस संकेत साहाय्य को
पूरी तरह जी लेना
अस्तित्व के रोमों द्वारा
मेरे बस की बात नहीं लगती
हालाँकि
कुछ थोड़ा भी खतरा मोल लेने पर
मेरी चेतना के अवरुद्ध
उर्जा-प्रवाह
खुलते-से
आभासित होते हैं 17-11-1980
54
कल रात भर मैं
अपनी जड़ें खोजता रहा
मगर नहीं मिली.
यह खोज
नित्य रात में ही चलती है
क्योंकि
रात के अंधेरे में ही
मैं अक्सर अपने करीब होता हूँ.
दिन में तो
मूर्च्छना घेरे रहती है
जीवन के भाग दौड़ की
मैं घटना में होता हूँ
घटना मुझमें होती है
दोनों बस
अंतर्निमेय संज्ञाएँ भर
होती हैं.
जैसे किसी ने
लगा दी हो पलीते में आग
और मैं
एक छुड़छुड़ी की तरह
अपनी ही उर्जा को
जाया करता हुआ एक दिशा में
विपरीत दिशा में प्रचालित होऊँ
यह जानते हुए भी कि
राह में अपने ही अंतर्विस्फोट से
मैं नष्ट हो सकता हूँ.
रौशनी का जीवन
जन्म से मृत्यु तक
एक भाग दौड़ होकर रह गई हो.
रात मेंही तो
एक क्षण ठहर कर
अपने पर निगाह फेर लेने का
कुछ अवसर मिलता है
किंतु
जड़ों के दिखने के लिए
किसी बिजली की कौंध चाहिए
जो मेरे पास नहीं है. 18-12-1980
55
कल रात भर मैं बेचैन रहा
प्रश्नों की बौछार से
लेकिन
न तो प्रश ही गहराए
न बेचैनी ही.
यों तो शैशव से ही
मैं गूँथ रहा हूँ
प्रश्नों की लड़ियाँ
मगर इन प्रश्नों में
मेरे आमंत्रण नहीं रिसे
न ही मुझमें
इन प्रश्नों के आमंत्रण.
हआँ खभी कभी
परिवेश से कट कर
अंतर्प्रवेश की प्रक्रिया में
टुकड़े टुकड़े
बिजलियाँ कौंधती रही हैं.
प्रश्नों के अंतर्गर्भ में
कोई जड़ हुई धारा
पिघल कर बह बह उठी है
क्षण भर को ही सही
पर पूरी की पूरी
और मेरा रोम रोम पुलक उठा है.
पर यह पुलकन
खोती रही है अपना नैरंतर्य
एक स्मृति खोए रोगी की तरह.
निपट अबोधता में भी
ली जा सकती हैं
पर बोध से भींगने की स्मृति
जीना दूभर किए दे रही है.
मैं बेचैन हूँ
प्रश्नों के रेले लगे हुए हैं
मगर
न तो प्रश्न ही गहराते हैं
न बेचैनी ही
न क्षण भर का बोध ही
असीम हो जाता है. 23-11-1980
56
मैं एक दुविधा में था.
मुझमें आवर्तित चेतना
परिवेश के शोरगुल से
दिग्भ्रम थी अबतक
अब नहीं है.
बात यह थी कि
नयी चेतना ने
नए अंदाजों को अंगीकारा
पुरानी नेपुराने को दृढ़ता से पकड़ा
और दैनों में कहा सुनी हो गई.
मेरी दुविधा थी
इन दोनों में से
मैं किसको वरुँ
मगर यह प्रश्न
अब बेकार हो गया है.
अब जो नया प्रश्न
मुझे चुभता है
वह है-
मैं अपने होने के
कितना निकट हूँ
यह प्रश्न मुझे
रोमोंचित कर जाता है
क्योंकि
मेरे होने में
पुराने सूर्यों का
अवतरण भी है
नए सूर्यों कीसंभावना भी है
किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण
इन दोनों पाटों के बीच
मेरा क्षण क्षण का होनो भी है
जो पर्त दर पर्त घना होकर
मेरा निर्माण करती है. 09-12-1980
57
कई बार ऐसा हुआ कि
कविता की एक पंक्ति
उमग कर कंठ तक आई
पर बोल नहीं फूटे.
कई बार ऐसा भी हुआ कि
करुणा की कोई प्रतीति
मेरी अनुभूति में तिर गई
पर स्नायुओं में पिघल कर
लकीरें नहीं बन सकी.
कभी ऐसा भी हुआ कि
जब कभी मैं
अपनी आत्यंतिक निजता में
उतरा
कोई किरण बेध गई
मेरे अंधेरे के एक स्याह टुकड़े को
पर मेरे आपाद रंध्र
एक नहीं हो सके
रोशनी में नहा कर.
हर बार ऐसे क्षणों में
मैंने महसूस किया है
मेरा होना ठहर गया है होतो होते
और एक अंतराल की निर्मिति के बाद
मैं लौट आया हूँ इसी दुनिया में
चक्की का उपरी पाट होकर
जो महड दूसरों का खेल है. 09-12-1980
58
मुझे कुछ बीज बोने थे
सो मैंने
थोड़ी मिट्टी तोड़ी
और बीज बो दिए.
वह मिट्टी अभिसिंचित थी
फिर भी वहाँ
बीज नहीं अँकुरे.
मैंने इस मिट्टी को
एक विश्लेषक के पास भेजी
उसकी उर्वरता जाँचने को.
फिर सोचा
गाँव देहात के सरल लोगों के
अनुभवों को भी
क्यों न परखूँ.
उनके परामर्श से
थोड़ा हट कर
थोड़ी और मिट्टी खोदी
और वहाँ बीज बो दिए.
वह मिट्टी सरस थी
वहाँ बीज अँकुरे
फसल लहलहा उठी.
अब यह कैसी बिडंबना है
एक ही धरती के
इन दोनों मिट्टियों में
जिनमें एक पलक की दूरी है
कोई संवाद नहीं है
कोई अंतर्धार नहीं है
टीक समकालीन मस्तिष्क
और हृदय की तरह.
उधर उस मिट्टी का
विश्लेषण हो रहा है
इधर यह मिट्टी
फूल किला रही है
और जीवन
इस द्वैत के संतुलन में
विद्युत रच रहा है. 10-12-1980
59
एक दिन
रात के अंधेरे में
मस्तिष्क ने
हृदय को धर दबोचा.
हृदय के नरम तंतु
थर्रा उठे
और मैं भी काँप गया.
मैंने देखा
मस्तिष्क की मार से
वह बेहाल हो गया
पर अगले ही क्षण
वह विस्तृत भी हो गया.
मस्तिष्क ने तो
मारों की बौछार कर दी
मगर हृदय का थर्राना
और विस्तृत होना
जारी रहा.
मस्तिषक यह देख कर
हतप्रभ-सा था
न तो इसके नरम तंतु
मोटे होते
न ही इसका पैलाव बढ़ता
फिर भी इसका विस्तृत होना
जारी ही है.
हाँ प्रत्येक ताड़न के बाद
कुछ तरल बह उठता था अवश्य
जिसमें उसकी थर्राहट
धीरे धीरे सो जाती
हवा के सरकने पर
पत्तियों के मर्मर की तरह.
आखिर हाल यह हुआ
मस्तिषक को
उसके विस्तार में खो जाने का
भय पैदा हो रया.
वहीं हृदय
अवही व्यपकता को
बढ़ाता रहा.
सहमा मस्तिष्क
आज भी डंक मारने को तत्पर है
पर उसे अब यह चिंता सवार है
इसमें विस्तार ही नहीं
गहराई भी है.
विस्तार में भटकने को रास्ता
मिल भी सकता है
मगर गहराई की थाह में
उसके अस्तित्व के
खो जाने का ही खतरा है..
फिर भी मस्तिषक अभी
हिम्मत नहीं हारा है
और हृदय अपना स्वभाव
नहीं छोड़ा है.
हाँ, अवबत्ता मैं
इस द्वैध में
असंतुलित अवश्य हूँ. 11-12-1980
60
मुझे जितना समाप्त होना था,
हो चुका.
अब मेरे और
नई कोंपलों के बीच
महज एक सूखी पत्ती की दूरी है.
मेरी डाली में
बसंत का तरल संवेग
पहुँच चुका है.
अंकुरण की खुजलाहट से
पूरी डाली
रोमांचित हो उठी है.
समकालीनों की टोह में
मर्माहत होकर
यह पत्ती अब गिरने वाली है.
मुझमें
संभावनाओं के बंद द्वार
पूरा का पूरा खुलने में
अब देरी नहीं है.
यह नहीं कि मैं प्रतीक्षारत हूँ
मैं तो
अपनी ही उर्जा के आमंत्रण से
आपूरित हूँ
उड़ानें भरने को
अकुलाने लगा हूँ, 12-12-1980
61
अभी अभी मेरे भीतर
कुछ जन्मा.
लगा जैसे पोर पोर में
कोई विद्युत तिर गई.
कितनी अद्भुत
कितनी प्रीतिकर थी
यह अनुभूति
क्षण भर के लिए
मेरा अणु अणु
जैसे जाग उठा.
वह क्या था
कुछ पता नहीं
पर जो भी था
मेरे अस्तित्व का ही
कोई हिस्सा रहा होगा
जो पूरा का पूरा ही जन्मा होगा
मेरे अस्तित्व में, मेरा अनजाना
उसका पल भर का जन्मना
मेरे आभास में
मुझे धन्य कर गया.
उसके जन्मने के साथ ही
मेरे अंदर कुछ पिघला
कुछ क्षण के लिए
गुनः जन्मने की मेरी आकांक्षा
कुछ छीज सी गई
जिसका व्यामोह
कितनी ही बार जन्मने के बावजूद
अभी भी मेरे रंध्रों मे
रचा बसा है. 12-12-1980
62
आज पहली बार
तुमसे मेरा
कोई संवाद बना.
कोई भाषा नहीं
कोई ईशारा नहीं
हमारे अस्तित्वों में
कोई तरल बह गया.
वर्षों मैं प्रयत्नशील रहा
अपनी चेतना की आँखें
तुझ पर टिकाए रहा
तर्क के साथ
तुम्हारी निपट गहराई में
उतरता रहा.
पर परमाणु भर का
अंतर्भेदन
कितना कठिन था.
तुम्हारी दस्तकें
मैंने सुनी
मगर उसके बोध
मेरे रंध्रों में रिसे नहीं.
और आज
जो वर्षों में नहीं घटा
पल भर में घट गया
तुम तो जैसे तैयार ही बैठे थे
संवाद जोड़ने को.
यह मेरी ही भटकन थी
जो मैं अपनी ही आंतरिकता से
अबतक अपरिचित रहा.
मत टेरे कोई
मेरे आपे को
आज तो धूप ने भी मुझसे
बातें की हैं. 22-12-1980
63
अभी अभी फिर
मेरी अंतर्गुहा में
कुछ खरका.
यह कुछ टूटने जैसा नहीं
कुछ जन्मने जैसा है.
क्या जन्मा
मेरे दैहिक भूगोल के
संवेदना-द्वारों में सरसराती
ओ री धुँधली, स्फूर्त किरणों!
कुछ बोलो न!
कुछ दिनों पूर्व
एक वर्तुल सा बना था
मेरे अंतराकाश में
ठीक वैसा ही
जैसा सद्यःजात काया के
अंग संचालन में
चेतना का टटका काव्य
वर्तुल बनाता है.
मेरे नासापुट तब
आंदोलित हो उठे थे
एक नई उष्मा के संस्पर्श से.
कुछ वैसा ही स्पर्श-संगीत
गंधों पर तिरता
तरंगायमान है
मेरी त्वचा के रंध्र-द्वारों में
यह किसी नयी बोध-उर्जा का
सन्नाटा तोड़ने जैसा
मेरे तन को क्या बेध गया.
यह
किसी दबी उर्जा के विस्फोट ने
कोई अंकुर तो नहीं उभारा
जिससे मेरे होने की
धकियाई गई
आत्मविस्मरण की
कुनमुनाहट है. 31-12-19808
64
घने घहराते काले बादलों के कारण
दिन में ही घिर आया अँधियारा
तड़कती क्षणिकाओं की लुका छिपी
साम्य के लिए लड़ते
घटकी. बादलों का कर्णभेदी शोर
अभी बरस पड़ने का नाटकीय घनगर्जन
और चौराहे पर खड़ा मैं
बौराहे शंकर की तरह अभीत
शीश पर जटानुमा विग लगाए
रबर की खोखली नली पर बुने
अनगिनत कुंडलियों वाला
(जिसका नुकीला सिरा आकाश की और खुला)
धारण कर लेने को
धन-प्रभुओं की वादों से छलक पड़ने वाली अनुकंपा
वादों से घनीभूत
पर कई वर्षों से मैं
वैसे का वैसा ही खड़ा हूँ
वैसे ही बादल घिर रहे हैं
हालाँकि जलद होने का भुलावा अब अधिक है
गर्जन-तर्जन अधिक है
पर बूँदों का कहीं पता नहीं
जो प्यास बुझाती है
मेरी जटा रिक्त की रिक्त ही है
खोखला हो चला हूँ इस प्रयास में
पर खोखला होने की इस प्रक्रिया में
कुछ उग रहा है
हृदय के किसी कोने में
कहीं वह मेरा सूरज तो नहीं
तो क्या सूरज को अकुरित होना है
मेरी हृद-भूमि में
अब महसूस होने लगा है.
मेरे तन से मेरे विग का अलगाव
प्रश्न उठने लगे हैं
यह विग मेरे तन से संवेदना से
नहीं जुड़ा क्या
संवेदना की स्फुर दीप्ति ही
क्या लड़ते बादलों को रससिक्त कर
एकान्वित कर सकती है
तब क्या मुझे
अपनी इतिहास-भूमि से रस खींच कर
अपनी अधुनातन वायु के
परमाणुओं से संघर्षरत
विभिन्न मिशनों में संल्गन
नाड़ियों को रससिक्त करना होगा
नए अंकुर उगाने के लिए
धरती से रस खींचते बीज की तरह
पुरानी पीढी पुराने पूल तो नहीं
जिसे अब झरना है
नए अंकुर भी तो नहीं उगते हैं
जहाँ पुराने फूल झर जाते हैं
वहाँ नए वायुमंडल का
खाद पानी ही तो नया होता है. 07-03-1979
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रेल के डिब्बा में बैछा मैं
रुबरुँ हो गया एक दिन जंदगी से.
संग्लग्न था मैं
इधर उधर की बातचीत में
कुछ राजनीति की चर्चा
हर नुक्कड़ होती है जिसकी
सुबह शाम.
कुछ संस्कृति की
ढल रही है जो अकेली
संसद के अनुशासन में
कुछ साहिय की
उफनता रहता है जो
आठों पहर
मेरे लहू में....
बात आ पहुँची
आज के परिवेश में
साँस ले रही जीवन-स्थिति की
साहित्यिक प्रतीति पर
तभी मेरी दृष्टि थिर हो गई
अचानक
कोने में सिमटी क्षीण काया
चीथड़ों की सीमा में देह को सिकोड़े
साबुत जगह के लिए रिरियाती
उस तरुणी पर
जिसकी गोद में
दो फूल जैसे दुधमुहे बच्चे
मआँ के मटमैले स्नेह को
पी रहे थे सुखपूर्वक
उसकी समूची दुनिया
सिकुड़ी सिमटी
हमारे तमाम विचिंतनों से अनभिज्ञ
यथार्थ की धरती में अधखिली
जी रही थीं जमाने की
घुटन, कुढ़न, थकन
भूख और फटे वसन की सीमा में
हाथ भर जगह को नापती
इस फटे यथार्थ की प्रतीति को
संवेदना के माध्यम से
द्रवणीय भावना में
जीने वाला मैं
भोगता रहा हूँ शहर की कुर्सी पर
आसीन
खोज खोज कर चिथड़ों के निकटस्थ शब्द
ति रहे थे उच्छ्वास
कुछ पल पूर्व उसी जिए यथार्थ के
संवेदित था मैं करीबी प्रतीति के
आविष्कृत अपशब्दों की
संप्रेषण क्षमता पर
किंतु वह जिसती पीड़ा को बाँट कर
उसीके शब्दों को मोड़ कर
उसी की खड़ा कर प्रतिकृति सजीव
अवाक् थी मेरी पीड़ा चेतना पर. 20-03-1979
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नहीं है पहुँच उन तक मेरी
कोशिश भी नहीं की कभी पहुँचने की
और
मैं बड़े घाटे में रहा.
किसी से सहमत होना हठात
या सहमत होना
कठिन है मेरे लिए
मेरे मन की
बुनावट ही है कुछ ऐसी
सहसा निर्णय लेना भी
जोखिम है
कोई असंतुलन घट जाता है
मन की परतों में
उस पल.
फिर भी उन्होंने दावत दी है मुझे
(विश्वास की पंखुरियाँ उगा कर
अपने चित्त में)
सम्मिलित होने को उस मिशन में
जिससे उनका व्यक्तित्व
निखर सकेगा
वे पैर जमा सकेंगे
उस जमात में
जो हामी है लोकतंत्र का. 26-04-1979
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ये फूल बहुत सुंदर हैं
संगीत उभरता इनमें
इनके सुकुमार पलों की
धड़कन सुनता मैं सृति में.
पर बुझा हुआ आनन है
मरवर इनकी जिज्ञासा
सूनी पलकें सपनों से
इनको क्या नहीं पिपासा.
ये मुकुलित उगे नहीं हैं
बीता कल जहाँ जरा था
यह भूमि वही रसपोषी
जिसमें जल भरा भरा था.
अब भूमि नहीं उर्वर क्या
जीवन ऊर्जा क्या छीजी
आवाहन लहीं गगन का
या करुणा नहीं पसीजी.
जुगनू-सा लिए लुकाठी
परिवेश दहल उठता पर
पच कर बन जाते थाती.
दोलित अणु वायु कणों के
लगता अब क्रांति घटेगी
अनुवर्तन घट रह जाता
माँ कैसे स्वस्थ जनेगी.
अणु में संसक्ति नहीं क्या
जुड़ने को कर्षण बल से
या उष्मा बड़ी बली है.
छोड़ो चलना कुछ ठहरो
परखो निज हृदय भुवन को
इस राग भरी रचना की
तुम अंतिम कड़ी नहीं हो.
अँकुरेंगे इसी धरनि में
जीवन के बीज तुम्हारे
धारा अनुरेख चलेगी
संगीत खिलाती न्यारे
लालसा तुम्हें भी होगी
वीणा झंकृत हो उसमें
बाँसुरी बज उठे मधुमय
नाचें परमाणु पवन में
खींचो रस यहीं मिलेगा
बल भी तो इसी विकृति में
पल पल तुम घटो अनिर्णित
फैले सुगंधि संसृति में. 11-03-1979
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मैं हूँ एक अंकुर
बीज के गर्भ से फूटा
उसके अस्तित्व का विस्फोट.
मेरा विकास
हुआ है संभव
उसकी काया में संगुणित
जीवनमयी आग एवम्
केंद्र में संपुटित
उर्ध्वग आवेग से.
बड़ा सुहाना
चिन्नमय संसार था वहाँ
उल्लास की वेलें लटकी थीं
चतुर्दिक.
सर्जना का
एक स्वप्न सजा था
मेरे मन प्राण में
कुछ इन्हीं क्षणों को साथ लपेटे
द्वंद्वमय आवेग से धक्का पाता
मैं उभर आया
बीज को फोड़ कर
उसकी सतह पर.
विदीर्ण बीज के ध्वंस पर
उगा में
नयी सोंधी मिट्टी का
संस्पर्श पा कर
मुकुलित होता हुआ
संसंध्रों से परिलक्षित
खुले व्योम की ओर अग्रसर
एक अतींद्रिय
मौन आह्वान से आंदोलित.
तभी एक सिहरन हुई
और मैंने सुनी
निरंतर घनी होती जा रही
मंद्र टपकनों की संचरित ध्वनि
और थोड़ी देर बाद
मैंने अनुभव किया
एक तरल पदार्थ का मृदु स्पर्श
माँ की उन थपकियों की तरह
जो अपने रक्त को
दूर यात्रा पर भेजने के लिए
उसके आवेगमय प्राण के
होते हैं अनुकंपन.
मैं गद् गद् था
मैं होने लगा अपने स्वप्न में
ऊब चूब
तभी
अभी कुछ पल ही बीते थे
कि यह संगीत बंद हो गया
और कुछ क्षण बाद
मुझे एक उष्मा महसूस हुई
मेरे अंगों को तपाती
मैं विचलित हुआ
यह मेरा पहला
एक इतर अनभ्यस्त अनुभव था.
मैं इस जलन की पीड़ा का समीकरण
अपने लहू से बिठाने में लग गया
अभी ये समीकृत हो भी नहीं पाए थे
कि
मेरे शीश पर एक शिला-सी
आकर अँटक गई
यह नयी मुसीबत थी
मैं समझ नहीं पाया
यह क्या है कहाँ से आ गई
मैं तो मिट्टी की गोद में था
यह गोद शिला कैसे बन गई
मैं आज तक
शिला को ठेल कर
उपर निकलने के प्रयत्न में हूँ
पर यह शिला टस से मस नहीं होती
अब तो इसे ठेलने की
सारी सामर्थ्य मुझे ही जुटानी है.
संघर्ष में मैं अकेला हूँ
मेरे प्राणों के आवेग ही मेरे अपने हैं
यह बीज निर्जीव पड़ा है
मेरे आधार में
पर मेरे आवेग थके नहीं हैं
अभी कुंठा का संक्रमण नहीं हुआ है
वह संभावित भी नहीं है
भय के परमाणु मुधे सिहराते नहीं
हालाँकि इस संघर्ष की एक परिणति
मेरी मृत्यु भी हो सकती है
किंतु मेरा निश्चय है
मैं अंतिम क्षणों तक संघर्षरत रहूँ
कामना है
मैं मरुँ भी तो
मेरी मृत्यु से संघर्ष के अंकुर फूटें. 15-03-1978
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