यौवन जीवन का है बसंत । भैरवी तान की तरह मधुर, उज्जवल प्रभात की यह उमंग । जो स्निग्ध सांध्य की छटा लिए,कण-कण में भर देता अनंग।। यह प्रथम म...
यौवन जीवन का है बसंत ।
भैरवी तान की तरह मधुर, उज्जवल प्रभात की यह उमंग ।
जो स्निग्ध सांध्य की छटा लिए,कण-कण में भर देता अनंग।।
यह प्रथम मल्लिका कलिका सी ,कर्ता जीवन को दिग दिगंत
यौवन जीवन का है बसंत ।।
यह शरत चंद्र का मधुर रूप ,मध्याह्न ग्रीष्म उत्ताप विकल।
भूकंप भयंकर अवनी का ,ज्वाला के मुख सा उच्छ्रंखल।।
मातंग, मदान्ध ,निरंकुश यौवन प्रबल ,प्रभंजन सा प्रचंड ।
यौवन जीवन का है बसंत।।
यदि उन्नति का सर्वोच्च शिखर तो अधः पतन का भी खंदक।
यदि त्याग तपस्या कीर्तिमान , तो कर सकता है विश्व त्रस्त।।
यश दुन्दुभि का यह तुमल नाद, जय वैजयंती का सुदृढ़ दंड।
यौवन जीवन का है बसंत ।।
रणचंडी की ललाट रेखा , रावण का निर्भय अहंकार ।
प्रहलाद भक्त का सत्याग्रह, कर सकता सत्ता तिरस्कार।।
पाकर यौवन नर मतवाला , भर देता जीवन में उमंग।
यौवन ही जीवन का बसंत ।
रस परिभाषा विहीन कविता का कुशल चितेरा ,स्वयमसिद्ध।
हो छंद शास्त्र अनभिज्ञ भले,प्रतिभाशाली कवि यह प्रसिद्ध।।
भगवदरचना के कौशल का उत्कृष्ट नमूना है यौवन ।
यौवन जीवन का है बसन्त ।
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बंजारा सा, आवारा सा फिरता था मन सांझ सकारे ।
बिना बताए तुमसे हमने सिर्फ चुराए भाव तुम्हारे ।।
उन गीतों को चूम-चूम कर अपनी रात रँगीली कर ली ।।
अपनी चाल नशीली कर ली ।।
सदा अनिद्रा की स्थिति में इन गीतों को दोहराता हूं ।
छंद छंद में बंद बंद में केवल मैं तुमको पाता हूं ।।
लगती हो प्रत्यक्ष हमारे और मुझे सान्निध्य मिल रहा ।
मधुर कल्पनाओं के द्वारा अपनी रात रंगीली कर ली ।।
अपनी आंखें गीली कर ली ।।
जब-जब लगा उनींदे मन को तेरे चरणों की है आहट ।
मृग शावक से चकित नयन यह अंतर्मन में थी घबराहट ।।
जरा देह रस पीकर मन का हर कोना मदमस्त हो गया ।
तुमको छूकर लगा कि जैसे स्वप्निल आंख नशीली कर ली ।।
अपनी रात रँगीली कर ली ।।
मन में था तूफान कि तुम को छूकर- पाकर सब पा लूंगा ।
युगों- युगों का प्यासा मन, भूखा ,अतृप्त सब कुछ खा लूंगा।।
लक्ष्मण रेखा की मर्यादा और विवशता केवल तन की ।
संयम की देहरी पर मन की गोपन कथा हठीली कर ली ।।
अपनी आंखें गीली कर ली।
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**** इन आँखों में वृन्दावन है*******
जितना भी प्रिय तुम्हें देखता,उतनी प्यास और बढ़ जाती ।
इन आँखों में वृन्दावन है ,इन आँखों में मथुरा-काशी ।।
सुमनों की कोमलता इनमें,सागर जैसी है गहराई ।
इनमें जीवन की खुशियाँ हैं ,इनमें यौवन की तरुणाई ।।
इनकी है निस्सीम मधुरता, इस मृदुता की दुनिया प्यासी ।
इन आँखों में वृन्दावन है ,इन आँखों में मथुरा-काशी ।।
सुख का प्रतिबिंम्बन है इनमें और प्रीति का आलम्बन है।
निश्छल भावों का उद्दीपन ,सहज प्रेम का अभिनन्दन है।।
करुणा,इनमें ममता, इनमें कितनी भरी उदासी।।
इन आँखों में वृन्दावन है ,इन आँखों में मथुरा-काशी ।।
इनको शब्दों से क्या लेना, बिना शब्द के अर्थ बताते।
शब्दों की सीमा से आगे, अंतर्मन तक ए पढ़ जाते।।
हर भाषा के विज्ञ नयन ए, चाहे जो हो भाषा-भाषी।।
इन आँखों में वृन्दावन है ,इन आँखों में मथुरा-काशी ।।
अनुगूँज-----
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गुलामी की निशानी है, नया यह वर्ष कैसे है।
गुलामी की कहानी है, नया यह वर्ष कैसे है।।
वही इंसान जिंदा है ,जिसे इतिहास मालूम है।
जिसे पुरखों के गौरव गान का एहसास मालूम है।।
जिन्हें मालूम है कीमत ,कि आजादी किसे कहते।
गुलामी की करुण गाथा,शहादत जिनको मालूम है।।
दुखद इतिहास यादों का नया यह वर्ष कैसे है।।
गुलामी की निशानी है, नया यह वर्ष कैसे है???
जिन्होंने दर्द देकर के , गुलामी को जगाया था ।
जिन्होंने छद्म व आतंक से सत्ता बनाया था।।
जिन्होंने भारती के भाल को श्रीहीन कर डाला।
जिन्होंने क्रूरता से इस जमी को नर्क कर डाला ।।
यही हैवानियत का पर्व यह नववर्ष कैसे है ।
गुलामी की निशानी है,नया यह वर्ष कैसे है ??
ये भारत वर्ष , पूरे वर्ष हम उत्सव मनाते हैं।
ये पूरा विश्व अपना है, यही सबको जताते हैं।।
मगर इतिहास अपना किस तरह से भूल जाएं हम।
जो है अपकर्ष संस्कृति का,उसे हम क्यों मनाते हैं।।
बड़ी दारुण कहानी है ,नया यह वर्ष कैसे है??
हमें है गर्व भारत पर हमारी शान भारत है।
हमारी आन भारत है, हमारी जान भारत है।।
हमें प्राणों से प्यारी देश की माटी व थाती है।
ये भारत की कहानी है, भला नववर्ष कैसे है??
गुलामी की निशानी है नया यह वर्ष कैसे है??
मनाने में बुराई क्या, कि हम तो उत्सवधर्मी हैं।
गुलामी की कहानी के ए गोरे रचनाधर्मी हैं।।
कि जिससे भारती की शान में कुछ दाग लग जाये।
उन्हीं गुस्ताख़ के वंशज यही काले कुकर्मी हैं।।
ये शास्वत देव् वाणी है , नया यह वर्ष कैसे है??
गुलामी की निशानी है नया यह वर्ष कैसे है??
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नदी बह गई ..............
क्षण-क्षण, कण-कण बहता जाता ।
समय नहीं फिर से दोहराता ।।
जल प्रवाह अस्तित्व नदी का,
जल बह जाता ,तट रह जाता ।
प्रतिपल बहना ही जीवन है ।
चुपके से यह बात कह गई ।।
नदी बह गई ..................
ज्वार लिए कुछ ऋतुएँ आती ।
कुछ ऋतुएँ भाटा दे जाती ।।
कुछ वैभव देकर इतराती ।
कुछ जैसे घाटा दे जाती है ।।
है निर्व्याज प्रवाहित रहना ही जीवन ,
यह बात कह गई ।।
नदी बह गई ...................
सदियां ,दिवस ,मास ,दिन बीते ।
मन का आंचल कभी न रीते ।।
हरी-भरी हो धरती सारी
इसी भाव में जीवन बीते ।।
जीवन झंझावातों का संगम है
इतनी सी बात कह गई ।।
नदी बह गई................
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मन मे मधुमास हम लिखे।
जीने की आस हम लिखे ।।
बदल गए बालों के रंग ।
वक्त लूट ले गया मकरंद ।।
लुट गई प्यार की तरंग ।
मीठी मीठी यादों के संग ।।
बुझे हुई जीवन की आस हम लिखे ।।
मनका मधुमास हम लिखे ।।
घुंघराले बालों का प्यार ।
पावस की पहली फुहार।।
चेहरे पर काल की कटार ।
वैसे ही झुर्रियों से प्यार ।।
डूब मरी प्यास ऐसे पनघट के पास ।
चाट चाट होठों को बुझी नहीं प्यास ।।
दर्पण को देखने की आस हम लिखे ।
मन का विश्वास हम लिखे ।।
थके हुए पंखों की चाह ।
बुझे हुए मन का उत्साह ।
अपनों से अपनों की चाह ।
रिश्तों की किसको परवाह ।
आर्त्त वेदनाओं की आह ।
एकाकी राहों की चाह ।
जीने का फिर नया उत्साह हम लिखे।
मनका मधुमास हम लिखे ।।
अनुगूंज से
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पीर भी जवान हो गई ।
धीरे-धीरे शाम हो गई ।।
कामना की राह में
लोभ की ही चाह में
याचना की छांव में
दर्द की पनाह में ...
जिंदगी की चाह में
मोह के उछाह में
प्यार के प्रवाह में
व्यर्थ के ही चाह में
लोभ मोह संकलन के
ऊंचे ऊंचे हैं महल ।
इस महल की एक दिन
मिटेगी ये चहल पहल ।।
तिनका तिनका जोड़ जोड़ शाम हो गई ।
पीर भी जवान हो गई ।।
चार पल की जिंदगी
धीरे धीरे चल रही ।
जिंदगी के रात दिन की गांठ
कैसे खुल रही ।।
क्या पता है कल का
कौन साथ छोड़ जा उड़े ।
जिंदगी में कौन कब कहां
स्वयं ही आ जुड़े ।।
वक्त की शिला पे जो
लिखे थे लेख मिट गए ।
शेर थे जो लोमड़ी के हाथ
आज पिट गए ।।
जन्म मृत्यु की कथा
पुरान हो गई ।।
पीर भी जवान हो गई
धीरे धीरे शाम हो गई ।।
रात दिन की छांव धूप का
अता-पता नहीं ।
एक एक पल नियत है
वक़्त की खता नहीं ।।
जिंदगी के यक्ष प्रश्न
का जवाब मिल गया ।
गर्दिशों में खो चुका सुमन
स्वयम् ही खिल गया ।।
लोभ मोह के हिमालय
आज तक गले नहीं ।
चेतना के दृग हमारे
आज तक खुले नहीं ।।
मन का मैल प्यार पा के
आज तक धुले नहीं ।
धोते-धोते चीर भी पुरान हो गई ।
पीर भी जवान हो गई ।।
अनुगूंज से
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मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया इसीलिए है राह बदल ली ।
मैं दुर्लक्ष्य हमेशा ही संधान लगाता रहा अकेले ।
देखा बहुरूपिए आखेटक छल-प्रपंच के थे अलबेले ।।
वह ही चोर , सिपाही खुद ही फिर कैसे अपराधी पकड़े ।
झूठ सत्य पर भारी देखा तो अपनी परवाह बदल ली ।।
मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया इसीलिए है राह बदल ली ।।
शिक्षण जैसे श्रेष्ठ कार्य को करने का दायित्व हमारा ।
मानव की रचना करने का सुंदरतम है कृत्य मारा ।।
कुछ तो अर्थ पिशाचों को है पता नहीं दायित्व स्वयं का ।
इन लोगों की सिर्फ उपेक्षा करके अपनी चाह बदल ली ।।
मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया तो फिर अपनी राह बदल ली ।
इस समाज की राजनीति के कितने हैं विचित्र हथकंडे ।
जिन हाथों में फूल कभी थे आज लिए हैं लाठी-डंडे ।।
जन्म जन्म के वैरी देखा कैसे है गलबहियां डाले ।
अवसरवाद स्वार्थ के अंधों ने भी अपनी चाह बदल ली ।
मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया तो फिर अपनी राह बदल ली।।
जिनको जनादेश था जनता के विकास का कार्य करेंगे ।
स्वार्थसिद्धि को छोड़ हमेशा जनता का उपकार करेंगे ।।
उन बेचारों को मैंने हाथों की मैल चाटते देखा ।
इसीलिए इन नेताओं से मैंने परवाह बदल ली ।।
मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया इसीलिए है राह बदल ली ।।
शिक्षा ही वह साध्य हमेशा मानव संसाधन रचता है ।
मानवता के सृजन हेतु शिक्षक तिल-तिलकर के जलता है ।।
जब चाणक्य , वशिष्ठ, द्रोण ही लोकतंत्र के दास बन गए ।
संकट में अस्तित्व हुआ तो मैंने भी परवाह बदल ली ।।
मैं पथभ्रष्ट नहीं हो पाया इसीलिए है चाह बदल ली ।
अनुगूंज
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सब कुछ टूटे स्वप्न न टूटे ।
जीवन कुछ भी नहीं सिर्फ यह आशाओं का रूप क्रमागत ।
सुख-दुख तो मन का विकल्प है निश्चय यह अपना अभ्यागत ।।
समय बहुत बलशाली होता सब के सब गुलाम हैं इसके।
कोई नहीं बचेगा इससे यह मन का विश्वास न छूटे ।
सब कुछ टूटे स्वप्न न टूटे ।
इस जीवन का रूप अनोखा कोई जीता कोई हारा ।
कोई यहां सिकंदर जैसा कोई हरिश्चंद्र बेचारा ।
।
जीत हार का प्रश्न नहीं है यह भी तो विकल्प है मन का।
कटु
स्मृतियों के घावों में अच्छे दिन की आस न छूटे ।।
सब कुछ टूटे स्वप्न न टूटे ।
नहीं पूर्णता मिली किसी को, सबके बचते काम अधूरे ।
जीवन की पंकिल राहों में , कार्य कंहा हो पाते पूरे !।
छोटी-छोटी ही खुशियों से जीने का अभिप्राय बदल दो ।
पल दो पल के इस जीवन में ,अपनों का अहसास न छूटे।।
सब कुछ टूटे स्वप्न न टूटे ।।
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असह्य वेदना के पल प्रियवर याद करूं या जाऊं भूल ?
क्रोध गरल सा ,अनिल नेह का , शांति तुम्हारी चंदन सी ।
है पावन सान्निध्य तुम्हारा , देह तुम्हारी कुंदन सी ।।
प्रथम दृष्टि के वे अनुपम क्षण भाग्य लगा जैसे अनुकूल ।।
असह्य वेदना के पल प्रियवर याद करूं या जाऊं भूल ?
हुआ सार्थक जीवन तब से जब से यादों में आये ।
भटक रहा था मन बेचारा , मृगमरीचिका भरमाये ।।
तुमको पाकर जीवन पथ के शूल हो गए जैसे फूल ।
असह्य वेदना के पल प्रियवर याद करूं या जाऊँ भूल ?
जीवन के सब द्वंद मिट गए पाकर पल दो पल का साथ ।
हुआ आत्मबल विकसित तब से जब से मिला तुम्हारा हाथ ।।
तापित शापित से जीवन का भाग्य हो गया हो अनुकूल ।
असह्य वेदना के पल प्रियवर याद करुँ या जाऊँ भूल ?
तुमको पाकर लगा कि जैसे जीने का आनंद मिला ।
नीरस और निरर्थक जीवन को यह परमानंद मिला ।।
असरहीन है दैहिक,दैविक,भौतिकता के आज त्रिशूल ।।
असह्य वेदना के पल प्रियवर, याद करूँ या जाऊं भूल?
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