भलमनसाहत रात के सवा दस बजे थे, अम्बाला जाने के लिए करनाल के बस अड्डे पर खड़ा मैं बस का इन्तज़ार कर रहा था. दस चालीस पर रवाना होने वाली बस आने ...
भलमनसाहत
रात के सवा दस बजे थे, अम्बाला जाने के लिए करनाल के बस अड्डे पर खड़ा मैं बस का इन्तज़ार कर रहा था. दस चालीस पर रवाना होने वाली बस आने ही वाली थी. अगले दिन चूंकि दीवाली थी, इसलिए अड्डे से छूटनेवाली हर बस के लिए भीड़ काफ़ी ज़्यादा थी. दस चालीस वाली बस को पकड़ लेना बहुत ज़रूरी था, क्योंकि इसके बाद डेढ़ बजे बस मिलनी थी, जब तक कि अब वाली पकड़कर अपने घर भी पहुँच चुका होना था.
थोड़ी देर बाद अम्बाला जानेवाली बस प्लेटफॉर्म की तरफ आती दिखायी दी. इसके साथ ही भीड़ का एक रेला रेंगती हुई बस की ओर भागने लगा. मेरे पास एक भारी-सी अटैची थी, सो मैं पीछे रह गया, मुझे नहीं लग रहा था कि मैं बस में सीट पा सकूंगा. तभी मुझे एक विचार सूझा और मैंने बस में चढ़ने के लिए धक्कामुक्की कर रहे एक देहाती-से आदमी को जरा मिन्नत करते हुए कह दिया, ‘‘ए भइया, मेरे लिए भी एक सीट रोक लेना. मुझसे चढ़ा नहीं जा रहा. मेरे पास भारी सामान है.’’ कहने को तो मैंने कह दिया था, पर यक़ीन मुझे कम ही था कि वह आदमी मेरे लिए सीट रोक लेने की भलमनसाहत दिखाएगा.
बस में चढ़ने की मेरी कोशिशें जब तक कामयाब हुईं, बस खचाखच भर चुकी थी. खड़े तब होने की जगह नहीं मिल पा रही थी. बड़ी परेशानी-सी महसूस करने लगा था मैं. तभी मुझे सुनाई पड़ा, ‘‘ऐ बाबू साहेब! ऐ नीचे स्वेटरवाले बाबू साहेब!’’ मैंने एकदम से आवाज़वाली दिशा की ओर देखा. वही देहाती मुझे पुकार रहा था. खिड़की की तरफ़वाली उसके साथ की एक सीट ख़ाली थी.
किसी तरह अटैची संभाले भीड़ में से बड़ी मुश्किल से रास्ता बनाता हुआ मैं उसके पास पहुँचा, बजाय ख़ुद खिड़की की तरफ़ खिसकने के उस देहाती ने मुझे ही खिड़की की तरफ बैठने दिया. उसकी भलमनसाहब देखकर मैं गद्गद् हो उठा. सच्चे दिल से मैंने उसका शुक्रिया अदा किया.
तभी वह मुझसे कहने लगा, ‘‘बाबूजी, बस चलने में थोड़ी ही देर है. ज़रा मेरी सीट रोकना, पेशाब करके मैं अभी आया.’’ उसके चले जाने पर मैंने घड़ी देखी. बस चलने में दो-तीन मिनट ही बाकी थे. तभी मेरी नज़र बस में खड़ी हुई सवारियों में अलग-सी दिख रही एक ख़ूबसूरत-सी आधुनिका पर पड़ी, जो मुझसे ज़्यादा दूर नहीं खड़ी थी.
‘‘अगर यह लड़की मेरे साथ बैठी होती, तो कितना मज़ा आता.’’ उसे देखते ही यह ख़याल मेरे दिल में चक्कर काटने लगा था. इस ख़याल की तेजी धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही थी. फिर मुझे न जाने क्या सूझा कि मैंने उस लड़की को अपनेवाली सीट पर बैठने का निमन्त्रण दे दिया और खुद उस देहाती की सीट पर खिसक गया. लड़की रास्ता बनाकर ‘‘थैंक यू’’ कहती हुई मेरे साथवाली सीट पर बैठ गई. कंडक्टर की सीटी सुनायी दी और बस रेंगने लगी. मैंने खिड़की में से देखा वह देहाती हाथ हिलाकर ज़ोर-ज़ोर से कुछ चिल्लाता हुआ शौचालय की तरफ़ से बस की ओर दौड़ रहा था. मगर बस तब तक रफ़्तार पकड़ चुकी थी. मैं चाहता तो कंडक्टर से कहकर बस रूकवा सकता था, पर लड़की के गुदगुदे स्पर्श के ताले ने मेरी जुबान खुलने नहीं दी.
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फ़रेब
‘‘बीबी जी, सर्दियां आ रही हैं. मेरे लिए कोई पुराना गर्म कपड़ा तो ढूंढ रखना’’ सावित्री, हमारे बर्तन माँजने वाली, मम्मी से कह रही थी.
‘‘अच्छा ढूंढूंगी. अगर कोई मिला तो ले लेना.’’
दूसरे दिन मम्मी ने मेरा एक पुराना स्वेटर यह कहते हुए उसे दे दिया कि उसे अरूण (उसका लड़का) पहन लेगा.
सावित्री अक्सर इसी तरह हमसे कई चीज़ं ले जाया करती थी. इनमें बहुत सी चीज़ें भी होतीं जैसे कि मेरे कपड़े, मेरे जूते, मेरी किताबें वग़ैरह-वग़ैरह. मेरी चीजों को सावित्री यह कहकर ले जाती थी कि ये अरूण के काम आ जाएंगी. वह कहती थी कि उसका एक ही लड़का है और लड़कियाँ चार हैं. उसके लड़के को हमने कभी देखा नहीं था, मगर सावित्री के मुँह से हमेशा उसकी तारीफ़ ज़रूर सुनी थी. वह हरदम कहा करती कि उसका अरूण बहुत अच्छा है. घरवालों का बहुत ख़याल रखता है, पढ़ाई में भी बहुत होशियार है, वगैरह-वगैरह.
एक दिन सावित्री बर्तन माँजने नहीं आईं. हमने सोचा शायद कोई ख़ास काम पड़ गया होगा या फिर बीमार हो गयी होगी. इससे पहले अगर कभी किसी वजह से वह न आ पायी थी तो अपनी किसी लड़की को बर्तन माँजने भेज दिया करती थी, पर इस बार उसकी कोई लड़की भी नहीं आई. दिन बीतते गए, मगर उन लोगों में से कोई दिखाई नहीं दिया.
आखिर करीब तीन हफ़्ते बाद सावित्री आई - मुंह पर उदासी के गहरे बादल लिए हुए. आते ही फफक-फफककर रोने लगी. मम्मी के पूछने पर हिचकियाँ लेते हुए बोली, ‘‘क्या बताऊं बीबी जी! मेरा तो घरवाला नहीं रहा!’’
सुनते ही हम सब को धक्का-सा लगा. हमने उसे सांत्वना दी कि जो होना था, सो हो गया. हौसला रखो. तुम्हारा इकलौता बेटा है ही सहारे के लिए. लेकिन सावित्री का रोना जारी रहा. हमने सोचा कि शायद ज़्यादा दुःख की वजह से चुप नहीं हो पा रही है. तभी रोते-रोते वह अचानक ही बोल पड़ी, ‘‘इसी बात का तो दुःख है बीबी जी! मेरा अरूण तो सात साल पहले ही गुजर गया था!’’
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परिवर्तन
उसे लग रहा था कि तनाव से उसका सिर ही फट जाएगा. वह बहुत पछता रहा था कि उसने बीवी-बच्चों को प्रगति मैदान में लगा व्यापार मेला दिखाने का कार्यक्रम बनाया ही क्यों. पहले तो भीड़ भरी बस में प्रगति मैदान तक आते-आते हालत खराब हो गई थी और फिर जितनी उसे आशा थी, उससे कहीं बहुत ज़्यादा खर्च हो गया था. यहाँ तक कि आड़े वक़्त के लिए बचाकर रखे गए दो सौ रुपयों में से भी सौ से ज़्यादा रुपए उड़ गए थे मगर इसके बावजूद उसकी बीवी और दोनों बच्चों के मुँह फूले हुए थे. मेरे में तरह-तरह की चीज़ें देखकर उन्हें खरीदने की इच्छा उन सबको हो आई थी. अपने दिमाग़ की चेतावनियों को नजरअंदाज़ करते हुए उसने कुछ छोटी-मोटी चीज़ें उन्हें ले तो दी थीं, पर फिर भी उनकी अनेक मनचाही चीजें ख़रीदने से रह गई थीं. न-न करते भी खाने-पीने पर काफी खर्च हो गया था. चीजों के दाम ही आसमान को छू रहे थे.
प्रगति मैदान से बाहर आने वाले गेट के पास वे पहुँचने ही वाले थे कि उसके छोटे बच्चे की नज़र खिलौने बेचनेवाले पर पड़ी और वह प्लास्टिक की एक छोटी बन्दूक दिलाने की ज़िद करने लगा. बन्दूक दस-पन्द्रह रुपए में ही आ जाती, पर अपनी खस्ता आर्थिक हालत के कारण उसे यह खर्च बिल्कुल फिजूलखर्ची लगा. उसने बच्चे को बुरी तरह झिड़क दिया और अपनी चाल तेज कर दी.
तभी उसने देखा गेट के पास उसके दफ़्तर का साथी खन्ना अपने परिवार के साथ खड़ा था. उन सबके हाथ खरीदी गई चीज़ों के पैकेटों से लदे-फदे थे और एक आदमी उन लोगों के हाथों से कुछ पैकेट लेकर उनका बोझ हल्का करने की कोशिश कर रहा था. उसके दिमाग़ में आया कि हो-न-हो खन्ना ने दफ़्तर में अपने पास आने वाली किसी पार्टी से मुफ़्त कार का जुगाड़ किया है और यह उसी कार का ड्राइवर है. खन्ना जैसे चालू आदमी के लिए ऐसे जुगाड़ करना बाएं हाथ का खेल था और खुद उसके लिए महापाप. आदर्शवाद का भूत जो सवार था उस पर. तनाव से भरा उसका दिमाग़ अब जैसे तनाव के समुद्र में गोते खाने लगा था. अपनी स्थिति उसे और भी दयनीय लगने लगी. खन्ना के सामने वह किसी भी हालत में पड़ना नहीं चाहता था.
वह एकदम से रूक गया और खिलौने वाले को पास बुलाकर प्लास्टिक की बन्दूक खरीदने लगा.
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इमोशनल फूल
दफ़्तर में बैठा काम कर रहा था कि मेरा मोबाइल फोन बजने लगा. देखा, तो मेरे अधीनस्थ का नाम स्क्रीन पर चमक रहा था. मुझे थोड़ी-सी हैरानगी हुई क्योंकि यह अधीनस्थ अभी पाँचेक मिनट पहले तक तो मेरे कमरे में मेरे सामने ही बैठा हुआ था और बीवी की बीमारी के कारण दो हफ़्ते की छुट्टी के लिए इसरार कर रहा था. उसकी छुट्टी मैंने मंज़ूर भी कर दी थी.
सशंकित-सा मैंने जैसे ही फोन उठाया, उधर से मेरे अधीनस्थ की किसी से बात करने की आवाज़ सुनाई दी. कोई अधीनस्थ से पूछ रहा था, ‘‘तो यार करवा ही ली तुमने दो हफ़्ते की छुट्टी मंज़ूर! इतनी आसानी से कैसे दे दी इतनी लम्बी छुट्टी तेरे साहब ने?’’
तभी अधीनस्थ की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘अरे, कैसे नहीं मिलती छुट्टी! अपनी बीवी की खराब तबीयत का रोना रोया, साथ में चेहरे पर दुःखभरे भाव लाने की एक्टिंग की. बस हो गई छुट्टी मंज़ूर!’’
‘‘अब तो दो हफ़्ते मज़े करोगे! घर में ही रहोगे या कहीं घूमने-फिरने जाने का इरादा है?’’
‘‘घूमेंगे-फिरेंगे-ऐश करेंगे और क्या!’’ कहकर अधीनस्थ हँसा. उसके बाद फिर कहने लगा, ‘‘हाँ, बीच-बीच में साहब को फोन करके यह भी बताता रहूँगा कि बीवी की तबीयत और बिगड़ रही है. इस तरह और एक-दो हफ़्ते की छुट्टी का जुगाड़ बैठ जाएगा. वो चुगद तो स्साला इमोशनल फूल है. ज़रा सा इमोशन दिखाओ, झट पिघल जाता है मोम की तरह.’’
फिर अधीनस्थ और उसके साथी की हँसी का सम्मिलित स्वर सुनाई देने लगा. गलती से मुझे लग गए फोन को काट देने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था.
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मासूम सवाल
पैर में ठोकर लगने से चिंटू के हाथ में पकड़ा रसगुल्ला जमीन पर गिर पड़ा. यह देख मम्मी ने रसगुल्ला उठाकर एक प्लेट में डाला और उसे फ्रिज पर रख दिया. उसके बाद उन्होंने चिंटू को फ्रिज से एक और रसगुल्ला निकालकर दे दिया.
कुछ देर बाद करमो बर्तन माँजने आई. उसके साथ उसका तीन साल का लड़का, नोनू, भी था. मम्मी ने फ्रिज पर बिना ढके रखा यह रसगुल्ला नोनू को दे दिया. यह देख चिंटू चुप न रह सका और बोल उठा, ‘‘मम्मी, यह रसगुल्ला तो....’’
मम्मी समझ गई कि चिंटू क्या कहना चाहता है. उन्होंने ऊंगली से उसे चुप रहने का इशारा किया और फिर उसे दूसरे कमरे में ले जाकर बोली, ‘‘उनके सामने ऐसा मत बोलना।’’
चिंटू समझ नहीं पाया कि जमीन पर गिरी चीज़ खाना अगर उसके लिए बुरा है तो नोनू के लिए बुरा क्यों नहीं है. मम्मी उसे तो बिना ढककर रखी चीजें खाने को देती नहीं, फिर नोनू को वह रसगुल्ला उन्होंने कैसे दे दिया. और फिर उसकी हिन्दी की पुस्तक में जो लिखा है कि हमेशा सच बोलना चाहिए - वह क्या झूठ है.
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संक्षिप्त परिचय
नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 800 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, एक विज्ञान उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित
एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित
प्रसारण लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,
2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिष्द (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत
(ञ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत
(ट) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता 304, एम.एस.4 केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
sundar kahaniyan
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