श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग- श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में श्रीराम-गुहराज मित्रता कथा प्रसंग- डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’

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श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग- श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में श्रीराम-गुहराज मित्रता कथा प्रसंग- डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश...

श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग-

श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में श्रीराम-गुहराज मित्रता कथा प्रसंग-

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डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’

‘मानस शिरोमणि’’, विद्यावाचस्पति एवं

एवं विद्यासागर

तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा।

निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः।।

श्रीमद् वा.रा. अयो. सर्ग 50-33

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श्रृंगवेरपुर में गुहनाम का राजा राज्य करता था। वह श्रीरामचन्द्रजी का प्राणों के समान प्रियमित्र था। उसका जन्म निषादकुल में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्ति की दृष्टि से भी बलवान् था, तथा वहाँ के निषादों का सुविख्यात राजा था। उसने जब श्रीराम का उसके राज्य में आगमन सुना तो वह वृद्ध मंत्रियों और बन्धु-बान्धवों सहित वहाँ पहुँचा। श्रीराम, लक्ष्मण सहित आगे बढ़कर उससे मिले। गुह ने श्रीराम से मिलने के पश्चात् भाँति-भाँति का उत्तम अन्न उनकी सेवा में रखे। गुह ने कहा कि महाबाहो! आपका स्वागत है, आपका स्वागत है। यह सारी भूमि जो भी उसके अधिकार में है, आपकी ही है। आप स्वामी तो हम आपके सेवक हैं। ऐसा कहने के पश्चात् उसने घोड़ों के खाने के लिये चने और घास आदि लाकर श्रीराम की सेवा में रख दिये। श्रीराम ने गुह से कहा कि मैं फल-मूल का आहार करता हूँ अतः यह भोजन सामग्री तुम वापिस ले जाओ किन्तु इन सामग्रियों में जो घोड़ों के खाने-पीने की वस्तु है, इस समय मुझे आवश्यकता है कि घोड़े मेरे पिता महाराज दशरथजी को बहुत प्रिय हैं।

उस रात्रि श्रीराम पत्नी सहित भूमि पर ही तृण की शय्या में सोये। रात्रि में सुमन्त्र,लक्ष्मण एवं गुहराज सावधानी के साथ धनुष धारणकर श्रीराम की रक्षा के लिये रात्रि भर जागते रहे। लक्ष्मण से गुह ने कहा कि-

नहि रामात् प्रियतमो ममास्ते भुवि कश्चन।

ब्रबीम्येव च ते सत्यं सत्यनैव च ते शपे।।

श्रीमद् वा.रा. अयो. सर्ग 51-4

मैं सत्य की शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ कि इस भूतल पर मुझे श्रीराम से बढ़कर प्रिय दूसरा कोई नहीं है। प्रातःकाल होते ही लक्ष्मणजी ने श्रीराम की इच्छा के अनुसार गुह और सुमन्त्रजी को गंगा पार उतरने की व्यवस्था का कहा। इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण ने गुह से बड़ का दूध मंगवाकर जटा बना ली। श्रीरामजी ने सुमंत्रजी को अनेक प्रकार से सान्त्वना देकर अयोध्या जाने का कहा दिया। गुह द्वारा नाव की व्यवस्था हो जाने से सर्वप्रथम श्रीसीताजी,श्रीराम और अंत में लक्ष्मण नाव में बैठे। निषादराज गुह ने अपने भाई - बन्धुओं को नाव खेने का आदेश दे दिया। इसके बाद श्रीरामजी ने सुमंत्र तथा सेना सहित गुह को भी जाने की आज्ञा देकर नाव चलाने का आदेश दे दिया।

निषादराज गुह के श्रीराम के प्रति प्रेम-मित्रता की परीक्षा श्रृंगवेरपुर में भरत के आगमन से स्पष्ट हो जाती है। निषादराज गुह ने गंगा नदी के तट पर ठहरी हुई भरत की सेना को देखकर कहा कि भरत पहले हमें पाशों में बंधवायेगा और फिर श्रीराम सहित हमारा भी वध कर डालेगा। इतना ही नहीं निषादराज गुह ने अपने सखा श्रीराम के बारे में कहा -

भर्ता चैव सखा चैव रामो दाशरथिर्मम।

तस्यार्थकामाः संनद्धा गंगानूपेऽत्र तिष्ठत।।

श्रीमद् वा.रा. अयो. सर्ग 84-6

किन्तु दशरथ कुमार श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं इसलिए उनके हित कामना रखकर तुम लोग अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो यहाँ गंगा के तट पर उपस्थित रहो! सभी मल्लाह सेना के साथ नदी की रक्षा करते हुए गंगा के तट पर ही खड़े रहें और नाव पर रखे हुए फल-मूल आदि का आहार करके ही आज की रात्रि बितावें। निषादराज गुह के पास पाँच सौ नावें थीं उनमें से प्रत्येक नाव पर मल्लाहों के सौ-सौ जवान युद्ध सामग्री से सुसज्जित होकर तैयार बैठे थे। गुह ने कहा कि भरतजी का भाव श्रीराम के प्रति सन्तोषजनक होगा तो उन्हें गंगा पार करावेगें अन्यथा नहीं।

ऐसा कहकर निषादराज गुह फल के गूदे और शहद आदि भेंट की सामग्री लेकर भरत के पास गया। इधर सुमंत्रजी ने भरतजी से कहा कि यह बूढ़ा निषादराज गुह अपने सहस्त्रों भाई-बन्धुओं के साथ यहाँ निवास करता है -

एष ज्ञातिसहस्त्रेण स्थपतिः परिवारितः।

कुशलो दण्डकारण्ये वृद्धो भ्रातुश्च ते सखा।।

तस्मात् पश्यतु काकुत्स्थ त्वां निषादाधियो गुहः।

असंभयं विजानीते यत्र तौ रामलक्ष्मणौ।।

श्रीमद् वा.रा.अयो. 84-12-13

यह बूढ़ा निषादराजगुह अपने सहस्त्रों भाई-बन्धुओं के साथ यहाँ निवास करता है। यह तुम्हारे बड़े भाई श्रीराम का सखा है। इसे दण्डकारण्य के मार्ग की विशेष जानकारी है। निश्चय ही इसे तुम्हारे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण कहाँ हैं ? यह ज्ञात है। निषादराज गुह यहाँ आकर तुमसे मिले इसका अवसर उसे दे। भरत जी द्वारा निषाद के मिलने की व्यवस्था उपरान्त निषादराज गुह अपने भाई-बन्धुओं सहित आया तथा नम्रतापूर्वक बोला कि यह वन प्रदेश आपके लिये घर में लगे हुए बगीचे के समान है। आपने अपने आगमन की सूचना न देकर हमें संशय में रक्खा। हम आपके स्वागत की कोई तैयारी न कर सके। हमारे पास जो कुछ है वह सब आपकी सेवा में अर्पित है। आज की रात्रि हमारे फल-मूल तथा फलों के गूदा को सेना सहित ग्रहण कर कल प्रातःकाल अन्यत्र चले जाना इतना सुनकर भरतजी ने कहा तुम मेरे बड़े भाई श्रीराम के सखा हो। मेरी इतनी विशाल सेना का सत्कार करना चाहते हो यह तुम्हारा मनोरथ श्रेष्ठ है। तुम उसे पूर्ण हुआ समझो। तुम्हारी श्रद्धा से ही हम सब का आदर-सत्कार सम्पन्न हुआ।

भरतजी ने निषादराज गुह को भाऱद्वाज मुनि के आश्रम में जाने तथा गंगा पार करने की चिन्ता बताई। इतना सुनते ही गुहराज ने कहा कि आप इन दोनों की चिन्ता न करें, मैं तथा मेरे मल्लाह आपके साथ चलेंगे। बस एक बात बताइये कि एकाएक ही श्रीराम के प्रति आप कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं। आपकी विशाल सेना मेरे मन में अनेक प्रकार की शंकाओं को जन्म दे रही है। यहाँ यही वार्तालाप भरतजी एवं निषादराज गुह के मध्य बहुत महत्व रखता है। निषादराज गुह को भरतजी की चतुरंगिणी सेना देखकर जो चिन्ता हुई वह श्रीराम के सच्चे-वीर निर्भिक मित्र होने का प्रमाण है। यह सुनकर भरत जी ने शंकाओं के समाधान के रूप में उससे कहा - निषादराज ऐसा समय कभी न आये। तुम्हें मुझ पर सन्देह नहीं करना चाहिए। श्रीराम मेरे बड़े भाई ही नहीं पिता के समान भी हैं।

गुह ने कुछ देर बाद भरतजी से लक्ष्मणजी के बारे में बताते हुए कहा कि मैंने श्रीराम की शय्या तैयार की तो उस रात्रिभर लक्ष्मणजी एवं मैं तथा मेरे बन्धु उनका पहरा देते रहे। गुह ने लक्ष्मणजी से कहा कि हम लोग यहाँ युद्ध में शत्रु की चतुरंगिणी सेना का अच्छी तरह सामना कर सकते हैं। अतः आप भी विश्राम करें। उस समय लक्ष्मणजी भी रात्रिभर सोये नहीं तथा दशरथजी की चिन्ता करने लगे एवं गुह से कहा कि अब राजा दशरथ अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकेंगे। पृथ्वी अब शीघ्र विधवा हो जायेगी। शत्रुघ्न की बाट देखने के कारण सम्भव है कि मेरी माता सुमित्राजी जीवित रह जायँ किन्तु पुत्र के विरह से दुःखभरी डूबी हुई वीर जननी कौशल्याजी अवश्य ही नष्ट हो जायगी।

इस प्रकार विलाप करते हुए लक्ष्मणजी उस सारी रात्रि मेरे साथ जागते रहे। प्रातःकाल सूर्योदय होने पर मैंने (निषादराज) गंगातट पर वट के दूध से उन दोनों के केशों को जटा का रूप दिलवाया और सुखपूर्वक पार उतार दिया। श्रीसीताजी सहित वे यहाँ से प्रस्थान कर गये। भरतजी ने यह सब सुनकर मन में विचार किया कि श्रीराम-लक्ष्मण ने जटा धारण कर ली है अतः उनका अयोध्या लौटना शायद ही सम्भव हो सकेगा। उसी समय भरतजी मूर्च्छित हो गएं निषादराजगुह सहित सभी लोग शोक में डूब गए। कौशल्याजी का हृदय तो दुःख से और भी कातर हो उठा। कौशल्याजी ने भरतजी को गोद में लेकर रोते-रोते पूछा बेटा! तुम्हारे शरीर में कोई रोग तो नहीं हो गया जो कि तुम्हें कष्ट पहुँचा रहा हों अब इस राजवंश का जीवन तुम्हारे ही अधीन है। बेटा! सच बताओ तुमने लक्ष्मण के सम्बन्ध में अथवा मुझ एक ही पुत्रवाली मां के वन में सीता सहित गये हुए श्रीराम के विषय में कोई अप्रिय बात तो नहीं सुनी। दो ही घड़ी में जब भरतजी का चित्त स्वस्थ हुआ तब उन्होंने रोते-रोते ही कौशल्याजी को सान्त्वना देते हुए कहा कि मैंने कोई अप्रिय बात नहीं सुनी है। फिर निषादराज गुह से पूछा गुह! उस दिन रात में मेरे भाई श्रीराम कहाँ ठहरे थे? सीताजी कहाँ थी? तथा लक्ष्मण कहाँ रहे? उन्होंने क्या भोजन करके बिछौने पर शयन किया था? ये सब बातें मुझे बताओ।

निषादराज गुह ने कहा कि मैंने भाँति-भाँति के अन्न अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ और कई तरह के फल श्रीरामचन्द्रजी के पास भोजन के लिये प्रचुर मात्रा में पहुँचाये। श्रीराम ने मेरी भेंट की सब वस्तुएँ स्वीकार तो की किन्तु क्षत्रिय धर्म का स्मरण करते हुए उन्होंने ग्रहण नहीं कर उन्हें आनन्दपूर्वक मुझे लौटा दिया। सीता सहित श्रीराम ने उस रात में उपवास किया। लक्ष्मणजी जो जल ले आये थे, केवल उसी को श्रीराम ने पीया। शेष बचा हुआ जल लक्ष्मण ने ग्रहण किया। जलपान के पूर्व तीनों ने मौन एवं एकाग्रचित्त होकर संध्योपासना की थी।

लक्ष्मण जी द्वारा कुश का बिछौना श्रीराम सीताजी के लिये बनाकर बिछाया गया था। उस सुन्दर शय्या पर जब सीताजी के साथ श्रीराम विराजमान हुए तब लक्ष्मणजी ने उन दोनों के चरण पखार कर वहाँ से दूर हट गये। उस रात्रि को लक्ष्मणजी अपनी पीठ पर बाणों से भरे दो तरकस बाँधे,दोनों हाथों की अंगुलियों में दस्ताने पहने और, धनुष चढ़ाये श्रीराम के चारों ओर घूमकर केवल पहरा देते हुए रातभर खड़े रहे। मेरे बन्धु-बांधवों के साथ मैं रात्रिभर आलस्य और निद्रा का त्याग कर श्रीराम की रक्षा करता रहा।

इसके पश्चात् युद्धकाण्ड में निषादराज गुह को श्रीराम द्वारा सन्देश, अयोध्या में वनवास की अवधि पूर्व कर लौटने पर वर्णित है। श्रीराम ने अयोध्या में आगमन के पूर्व हनुमानजी से कहा- कपिश्रेष्ठ! तुम शीघ्र ही अयोध्या में जाकर पता करो कि राजभवन में सब लोग सकुशल तो है न ?

यथा -

श्रृंगवेरपुरं प्राप्य गुहं गहनगोचरम्।

निषादाधिपतिं ब्रूहि कुशलं वचनान्मम।।

श्रीमद् वा.रा. लंकाकाण्ड सर्ग 125-4

श्रृंगवेरपुर में पहुँचकर वनवासी निषादराज गुह से मिलकर और मेरी ओर से कुशल कहना। मुझे सकुशल, नीरोग और चिन्तारहित सुनकर निषादराज गुह को बड़ी प्रसन्नता होगी क्योंकि वह मेरा मित्र है। मेरे लिये आत्मा के समान है। इतना ही नहीं निषादराज गुह प्रसन्न होकर, हे हनुमान्! तुम्हें वह अयोध्या का मार्ग और भरत का समाचार बतायेगा। हनुमान्जी गंगा एवं यमुना के संगम को पार कर, श्रृंगवेरपुर में निषादराज गुह से मिले,और बड़े हर्ष के साथ सुन्दर वाणी में बोले तुम्हारे मित्र सत्य पराक्रमी श्रीराम-सीताजी और लक्ष्मण के साथ आ रहे हैं और उन्होंने तुम्हें अपना कुशल-समाचार कहलाया है। वे प्रयाग में हैं और भरद्वाज मुनि के कहने से उन्ही के आश्रम में आज पंचमी की रात बिताकर कल उनकी आज्ञा प्राप्त कर वहाँ से चलेंगे। तुम्हें यहीं श्रीरघुनाथजी का दर्शन होगा। निषादराजगुह को यह श्रीराम द्वारा सन्देश सुनाकर हनुमान्जी भरतजी के पास चले गये।

इस वृत्तान्त से स्पष्ट है कि श्रीराम के विभिन्न मित्रों में निषादराजगुह की मित्रता तथा उसका स्थान अन्य मित्रों से श्रेष्ठतम स्थान पर है। गुहराज की मित्रता स्वार्थ की मित्रता नहीं थी। उसकी मित्रता कृष्ण-सुदामा की मित्रता थी। निषादराज ने मित्रता के पूर्व श्रीराम से कोई शर्त नहीं रक्खी, न ही मित्रता के शक्ति का परीक्षण किया तथा अंत में मित्रता के बदले में कोई पुरस्कार की मनोकामना भी नहीं रक्खी। उसकी मित्रता त्याग एवं मित्र के लिये अवसर आने पर अपने प्राण भी उनकी रक्षा के लिये न्यौछावर करने की थी।

आज के इस भौतिकवादी, आपाधापी के जीवन में ऐसे मित्र की कल्पना एक कोरा स्वप्न ही है। इस प्रसंग का यहीं सन्देश है कि हम निषादराज गुह जैसी निस्वार्थ मित्रता करें तो श्रीराम की कृपा और प्रभाव से उनके रूप में अवश्य ऐसा मित्र प्राप्त होना सम्भव है। रामायण में मित्र के बारे में कहा गया है -

स सुहृद् यो पिपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते।

वा.रा. यु. का. 63-27

सारा काम नष्ट हो जाने से दुःखी हुए मित्र पर अकारण (निःस्वार्थ) अनुग्रह (सहायता) करने वाला ही मित्र है।

--

डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’

‘मानस शिरोमणि’’, विद्यावाचस्पति

एवं विद्यासागर

सीनि. एमआईजी - 103, व्यासनगर,

ऋषिनगर विस्तार उज्जैन, (म.प्र.)

पिनकोड 456010

Email:drnarendrakmehta@gmail.com

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रचनाकार: श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग- श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में श्रीराम-गुहराज मित्रता कथा प्रसंग- डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग- श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में श्रीराम-गुहराज मित्रता कथा प्रसंग- डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’
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