"ॐ" बदलता दौर आज के युवा बदलते जा रहे हैं। वक्त बे वक्त भागते जा रहे हैं कश पे कश लिए जा रहे हैं। हर तरफ घुएं के ग़ुबार उड़ाए जा रहे...
"ॐ"
बदलता दौर
आज के युवा बदलते जा रहे हैं।
वक्त बे वक्त भागते जा रहे हैं
कश पे कश लिए जा रहे हैं।
हर तरफ घुएं के ग़ुबार उड़ाए जा रहे हैं।
घट रहा है, समय ख्वाहिशों के पुल बांधे जा रहे हैं।
उम्मीदें पूरी नहीं हुई तो,अंधकार के पतन में चले जा रहे हैं।
आज के युवा......
नशा तो जीवन का एक श्राप हैं।
इसी से जीवन का विनाश है।
फिर भी विनाश के इस जाल में फंसे जा रहे हैं
चिंताएं जीवन का सफर हैं।
खामोशियाँ बे असर है।
नेट के उलझनों में उलझे जा रहे हैं।
आज के युवा...
ना अपनों का आदर है,ना अपना पन हैं।
ना जाने किस बात का अनजाना पन हैं।
अंदर ही अंदर घुटे जा रहे हैं।
आज के युवा....
फैशन के दौर में जिये जा रहे हैं।
आधुनिकता की होड़ में दौड़े जा रहे हैं।
नाहक जी जीवन बर्बाद किये जा रहे हैं।
अपने मूल संस्कारों को भूले जा रहे हैं।
आज के युवा ......
सीने में धड़कता एक नन्हा सा दिल है।
इस दिल को सिगार किये जा रहे हैं।
हर तरफ मंजर धुँआ, धुँआ सा है।
इस धुंए की घुटन में घुटे जा रहे हैं।
आज के युवा बदलते जा रहे हैं।
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"ॐ"
[माँ का दर्द]
धड़कनों से धड़कनों का,
बिछड़ना क्या होता हैं
एक माँ से पूछो।
नौ महीनों के दर्द सहकर,
एक नया अंकुर खिलाती,
उस गुंजन की कलरव से,
वह खुशियों से झूम जाती।
उस खुशी का एहसास क्या होता
एक माँ से पूछो।
ममता की छाव में अपने नौनिहाल को
लोरी की तान सुनाकर मन विभोर करती ,
फिर उस सुनी गोद का दर्द
सहती, उस दर्द की पीड़ा।
एक माँ से पूछो।
छोड़ गया वो आशियाँ, उड़ गया,
वो परिंदों की तरह, हर दर्द की
वो तड़प जो बिलख रही,
तार,तार हो रही उसकी
हर एक सांस,सुना हो चुका उसका आँगन ,
सूने आँचल को फैलाकर ,
टकटकी लगाए रहती वो नजरे।
एक माँ से पूछो।
धड़कनों का धड़कनों से बिछड़ना क्या होता है।
एक माँ से पूछो।
तस्वीर हो गई ,वो यादें ,वो बातें।
हर त्योहार में बस, उस तस्वीर का दीदार करती
अब ये सुनी आँखें,
उन आँखों का सूनापन क्या होता है।
एक माँ से पूछो।
धड़कनों से धड़कनों का बिछड़ना क्या होता है।
एक माँ से पूछो।
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(मन की तरंगों में बोलती कविता)
मन की तरंगों में बोलती कविता।।
आँसू बनकर बहती कविता।।
शब्दों का ताना बाना बुनती कविता।।
खामोशी में बहुत कुछ बोलती कविता।
माँ का स्नेह दुलारती कविता।
पिता की छाया में खिलती कविता।।
रिश्तों में प्यार घोलती कविता।।
बेबाक होकर मचलती कविता।।
किसी को आँसू, किसी को प्यार जताती कविता।।
सुरों का संगम, शब्दों का मिलान,गीतों की तान हैं कविता।।
अरमानों की आन,राष्ट्र की शान,देश की मान है। कविता।
हिंदी शब्दों में हिंदुस्तान की पहचान है ,कविता।।
एक लड़की से नारी बनने का सफ़र है, कविता।।
जिंदगी के कश्मकश की उतार, चढ़ाव हैं, कविता।।
आरजू है, उमंग है, आस है, प्यास है, कविता।।
बिरहा की डोली,माथे की रोली, सुहाग की चूड़ी हैं, कविता।।
भाई का प्यार,रक्षा का बंधन, दीपों की दीवाली हैं, कविता।।
प्रेम सौहार्द,स्नेह,आदर ,होली का फाग हैं, कविता।।
सावन में बरसते पानी में पायलों की झंकार हैं,कविता।।
पतझड़ में गिरते पत्तों की एकता हैं, कविता।।
हर मौसम, हर त्यौहार, स्वतंत्रता दिवस है, कविता।।
आजाद हुए शहीदों के परिवार की सलामी है, कविता।।
परमवीर चक्र से सम्मानित उन वीरों की गाथा हैं, कविता।।
हमारे देश की एकता और समरसता का प्रतीक है, कविता।।
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समय
"ॐ"
करवट बदलती जिंदगी, अब बेमानी हो गई ।
बचपन में खेलती उम्र, अब सयानी हो गई।
बचपन की वह दहलीज, अब पुरानी हो गई ।
करवट बदलती जिंदगी, अब बेमानी हो गई।
खिलौने की जगह लेपटॉप, माँ की जगह में मॉम हो गई।
उनकी हर बात कुल, मेरी हर बार फुल हो गई।
करवट बदलती जिंदगी,अब बेमानी हो गई।
परवरिश की तुलसी,अब बड़ी हो गई।
कभी उनके साथ खेला करती,
उनकी नजरों में अब बूढ़ी हो गई।
करवट बदलती जिंदगी अब बेमानी हो गई।
सोच के दायरे कब बड़े हो गए
मेरी सोच उनकी नजरों में छोटी हो गई।
कभी खिलखिला कर हँसते, हसरतें ,उम्मीदें अब खामोश हो गई।
करवट बदलती जिंदगी अब बेमानी हो गई।
सब कुछ है मगर कुछ भी नहीं, सारी तमन्नांऐ अब खाली हो गई।
भोर गुंजन के राग में, अब सूनी-सूनी शामें हो गई।
करवट बदलती जिंदगी,अब बेमानी हो गई।
काजल भरी आँखें,अब खाली हो गई।
समय नहीं हर शख्स को, यह बात अब हर जुबानी हो गई।
करवट बदलती जिंदगी, अब बेमानी हो गई।
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'वो सूखी टहनियां'
पतझड़ के मौसम में, वो सूखी टहनियां ।
इंतजार करती हरे होने का,वो सूखी टहनियां।
सूरज की धूप में तपती, छाव के लिए व्याकुल वो सूखी टहनियां।
नीरव सा यह पतझड़, अब तो चले आओ।
मन को उदास व्याकुलता पर,सावन पानी बरसाओ।
हमें आस है। तुम्हारे आने की ,फिर से हरे हो जाने की।
इतनी व्याकुलता से इंतजार में ,वो सुखी टहनियाँ।
नाजुक सी कोमल कपोल आने पर, मुस्कुराती वो सूखी टहनियां।
झूमती ,नाचती,लहलहाती वो सूखी टहनियाँ।
किसी नारी की तरह अपने दामन में खिलते ,
कोमल शिशु के आने का इंतजार करती,वो सूखी टहनियाँ।
अरमानों की आस में बैठी ,वो सुखी टहनियाँ।
मद-मस्त हवाओं के झोंकों का इंतजार करती,वो सूखी टहनियाँ।
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शिक्षा
"ॐ"
अक्षरों के ज्ञान को शिक्षा कहते हो।
क से ककहरा पढ़कर ज्ञानी बनते हो।
पढ़ना है, तो किसी की वेदना पढो ।
किसी अबला की लाज बचकर इतिहास गढ़ो।
जीवन के सफर में शिक्षा का मोल भूल गए हैं।
कॉलेज की शिक्षा लेकर मूल संस्कार भूल गए है।
चहुं ओर अपराधों की गूंज हैं।
हर तरफ खून, खराबा लूट हैं।
अब घर आँगन कहाँ महकते हैं।
शिक्षा की होड़ में परिवार भी अधूरे हैं
उजालों के उम्मीद की आस लगाए बैठे हैं।
सतरंगी सपनों के बाजार सजाये बैठे हैं।
महज किताबें पढ़ना,शिक्षा का मौल नहीं।
शिक्षा तो नैतिक मूल्यों का ताना बाना है
जागृत होकर देश,समाज को जागृत करना है।
बचा सको तो बचा लो देश को यही सही दिशा है।
उठो अब जाग जाओ समाज के घृणित अपराधों को मिटा जाओ।
एक सौहार्द पूर्ण जीवन की ज्योत जागृत कर जाओ।
आओ सब मिलकर एक नई शिक्षा का दीप प्रज्वलित कर जाए।
जागृति लाये, जागृति लाये।
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स्वार्थ हमारा सर्वोपरि है
"ॐ"
स्वार्थ हमारा सर्वोपरि है। हम कही भी जाते स्वार्थ ले जाते हैं।
हम मन्दिर जाते हैं। तो मुरादें पाना चाहते हैं।
हम भगवान से अपने मन की इच्छा पाना चाहते हैं।
हम सेवा मैं जाते हैं। तो नाम कमाना चाहते हैं।
स्वार्थ सर्वोपरि हैं। हम निस्वार्थ नहीं रह पाते हैं।
हम सत्ता में जाते हैं। तो सीट पाना चाहते हैं।
सीधी साधी जनता को निशाना बनाकर ताज कमाना चाहते हैं।
स्वार्थ सर्वोपरि हैं। हम धन कमाना चाहते हैं।
स्वार्थ परस्त इस दुनिया में हर इंसान अकेला हैं।
फिर भी भीड़ में घुसकर अपना मुक़ाम बनाना चाहते हैं।
स्वार्थ सर्वोपरि हैं। हम सब कुछ पाना चाहते हैं।
घर है, मकां हैं। रिश्तों का इम्तहाँ है।
हर कोई अपने घाक का राग गाना चाहते हैं।
जीवन की आपाधापी में हम गुले बाग सजाना चाहते हैं।
स्वार्थी होकर इंसा अपना वजूद बनाना चाहते हैं।
कैसी यह माया की माया इंसा एक दूसरे को गिरना चाहते हैं।
हम सब कुछ जानते हैं। फिर भी इस मतलब परस्त दुनिया में
एक उम्मीद की आस में जागना चाहते हैं।
स्वार्थ हमारा सर्वोपरि है। हम निस्वार्थ नहीं रह पाते हैं।
स्वार्थ सर्वोपरि है।
हम निःस्वार्थ होकर कुछ तो करे।
किसी की खुशी के लिए जी कर तो देखो।
किसी को छोटी सी खुशी देकर देखो।
किसी की खुशी के लिए कुछ तो छोड़ो।
खुशी से सराबोर हो जाओगे।
निःस्वार्थ हो कर जीना सीखो।
स्वार्थ तो सर्वोपरि हैं।
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" ॐ"
ये अमावस की रात,
उजालों की बारात।
हर तरफ जगमगाता,
खुशियों का संसार।
हर तरह महकती खुशी,
दिल फिर भी उदास।
ये अमावस की रात ।
फुटपाथों पर जी रहे इंसा,
मासूम मन को उजाले, उम्मीदों की आस।
उम्मीदों में ठिठुरती, सुकुड़ती जिंदगी,
कल की आशा, नजरों में प्यास।
ये अमावस की रात।
हर तरफ संगीत का शोर,
मिठाइयों का दौर।
किसी अंधेरी गली में सिसकती, मासूम दर्द में घुटती सांस।
ये अमावस की रात।
बेनूर सा आलम सारा,जगमग, रोशन जग सारा।
एक माँ की नजरों को सरहद पर खड़े बेटे का इंतजार।
ये अमावस की रात।
भूखा, प्यासा विवशता से भरा, ऐसा भी एक समाज।
कही किसी दर्द भरी पीड़ा की गुहार।
ये अमावस की रात।
रोशन हुए दीये, आसमां पर रंगीन छटा की बहार।
सितारों से रोशन सारा जहां।
ये अमावस की रात।
सज गए बाजार, तोरण दरबार,
मासूमों के हाथ बिकते दीये, खिलौनों की बहार।
मन में सिसकती, तोड़ती चाह।
फिर भी जीवन बरकरार।
ये अमावस की रात।
सजी आँगन रंगोली, रंगों की समरसता पहचान।
कहीं मिठाइयों भारी थालियां,
कहीं खाली कटोरे की आवाज , यह कैसा समाज।
ये अमावस की रात।
मन में उजालों के दीप जलाओ,
किसी भूखे की दिवाली मनाओ।
जगमग होगा, मन आँगन खुशियों से रोशन।
आओ मिलकर एक सेवा का दीप जलाए।
समरसता की ज्योत जलाए,
दीपावली मानये, सम्पूर्ण समाज जगमगाये।
ये अमावस की रात।
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"ॐ"
"पर्यावरण"
तुम चहुँ ऒर हरे थे। ताल पोखर सब तुमसे भरे थे।
चौपायों का रंभाना ,पक्षियों का चहचहाना सुनाई देता था।
बैलों की घंटियों के सुर सुरीले लगते थे।
बैलगाड़ियों की आवाज मद मस्त कर देती थीं।
कुएँ में गिरी बाल्टी कुछ मन टटोल लेती थीं।
कहां गये वो दिन ,अब सब सुना, सुना है।
न खेत ,बागान हर तरफ मंजर सुना-सुना है।
तुम सोचो , मेरे सीने में कितने छेद हुये।
सांस घुटती गई दर्द बढ़ते गये।
फिर भी तुम मुझसे जिंदगी मांगते हो।
ऐ जिंदगी लेने वालो क्यों मुझे काटते हो।
अब मेरी पीढ़ी बरगद ,पीपल सब मिट गये है।
मेरा दर्द समझ लो तुम, फिर बरगद,पीपल लगा दो तुम।
आने वाली पीढ़ी को सुखद पर्यावरण दे दो तुम।
सब कुछ तुम्हारे हाथ में मानव।
जगत ,सृष्टि को बचा लो तुम।
यह मेरा दर्द मेरी विवशता नहीं।
मैं तो आने वाले कल के लिए विवश हूं।
जागो मेरे देश वासियों।
फिर से बरगद, पीपल के नए अंकुर लगा दो तुम।
नए अंकुर लगा दो तुम,पर्यावरण को बचा लो तुम।
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" ॐ "
[सावन]
तुम राग गुनगुनाते हो, कानों में मघुर रस घोल जाते हो।
तुम भंवरे बन कर हर काली, फूलों पर मंडराते हो।
गीत गा रहे पक्षी,भोर की लालिमा लेकर आते हैं
सूर्य की पहली किरण में ,मन हर्षित कर जाते हैं।
सुमन सुगंध की चाह में ,पक्षी भी चहचहाते हैं।
माटी की भीनी खुशबू ,पानी आने के संकेत दे जाते हैं।
हर तरफ नीला गगन , मन्द-मन्द मुस्काता है।
फूलो तुम यूं ही मंजर, मंजर खिलते रहना।
कलियों को नया जीवन देकर, अपना दामन सजो लेना।
राग द्वेष मिटा देना तुम,अपनी खुशबू का भाई-चारा लेके आना तुम।
सावन में सब को लेकर अपनी तान सुनना तुम।
मघुर गुंजन के गीत गुनगुना देना तुम।
ऐ सावन फिर से घनन-घनन बरस जाना तुम।
हर मन के तपते रेगिस्तान को फिर से भिगो जाना तुम।
ऐ सावन फिर से आना तुम।
ऐ सावन फिर से आना तुम।
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