सम्पादकीय –कविता २०१९ ✍️ याने आज की कविता का मिजाज -काश कुछ अच्छी कवितायेँ और आती ,लेकिन जो मिला उस से संतोष है. कविता का मिजाज़ बदल रहा है. ...
सम्पादकीय –कविता २०१९ ✍️
याने आज की कविता का मिजाज
-काश कुछ अच्छी कवितायेँ और आती ,लेकिन जो मिला उस से संतोष है. कविता का मिजाज़ बदल रहा है. स्त्री शक्ति का उदय एक बड़ी कविता है ,जि से पहचाना जाना चाहिए. कविता महलों व् मंदिरों से निकल कर आम की आवाज़ बने इसी कामना के साथ. लेखक प्रताप दीक्षित की कहानी से शुरु करते हैं. कवि हैं- सवाई सिंह शेखावत, नीता चोबीसा, विवेक रंजन श्रीवास्तव , सी बी श्रीवास्तव विजय सिंह नाहटा, संजीव निगम , देवेन्द्र पाठक , संदीप सरस , कैलाश मनहर . सब का आभार
अगला अंक बसंत अंक –कहानियां ही कहानियां और उसके बाद होली याने हास्य-व्यंग्य अंक. केवल मौलिक - अप्रकाशित रचनाएँ आमंत्रित, मानदेय देय.
नव वर्ष की शुभकामनाएं –मंगल कामनाएं
❣️यशवंत कोठारी
ykkothari3@gmail.com
1 ️⃣ कहानी ✍️
〰️〰️❄️❄️उस साल बर्फ जनवरी में पिघली थी ❄️❄️ 〰️〰️
किसी दूसरी जगह होता तो वह न भी जाता, लेकिन यहां ऐसा संभव नहीं था। उसके बचपन के मित्र प्रकाश की बहन की शादी थी। प्रकाश और उसकी पत्नी सावित्री कार्ड देने स्वयं आए थे। सावित्री भाभी सब कुछ जानती थीं। उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘देखो कोई बहाना नहीं चलेगा। सुबह जल्दी ही आना होगा।‘ फिर कुछ रुक कर कहा था, ‘जैसा तुम जानते ही हो कि वहां नीलिमा तो होगी ही।‘
‘भाभी - - -’ उसने कुछ कहने का प्रयास किया था।
‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना है।’’ उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया था।
वह मजबूर हो गया था। वैसे भी गिने चुने लोगों से उसकी निकटता थी। इतना समय बीत जाने पर भी
उसका अंतर्मुखी स्वभाव वैसे का वैसा ही रहा। स्वभाव और प्रवृत्ति बदल भी कहां पाते है। स्मृतियों के रिमोट ने, उसके मन के पर्दे पर, बीते हुए दिनों की छाया, ज्यों की त्यों स्पष्ट कर दी।
वह शहर पढ़ने के लिए आया था। गांव में स्कूल उन दिनों भी नहीं था। पूर्व परीक्षा में मिले अंको के आधार पर उसका प्रवेश एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय में हो गया था। कालेज के अधिकांश विद्यार्थी अभिजात्य परिवारों के थे। उनके हिसाब से उसे उजबक ही कहा जा सकता था। छोटे कटे हुए बालों, सफेद, लेकिन पुराने होने से पीले मालूम होते, रंग का कुरते-पैजामे में वह उपहास का पात्र नहीं बना, यही क्या कम था। उसके लिए ही यही किस तरह से हो सका था, वही जानता था। बदलते जमाने के आने की आहट की बात सुनी जरूर जाती थी, लेकिन उन जैसे लोगों के दरवाजों पर उसकी दस्तक, उसने तो नहीं सुनी थी। कुछ ही दिन बीते होंगे कि उस सीधे-सादे से लड़के की चर्चा कालेज में होने लगी।
लड़कियों के कामन रूम में चर्चा होती- हाय, उसके नोट्स की अंग्रेजी वाले सर कितनी तारीफ कर रहे थे। अंग्रेजी ही नहीं, हिस्ट्री वाले भी। राइटिंग भी कितनी सुन्दर है। फिर खुसफुस बातें उसके चेहरे के भोलेपन को लेकर होतीं। स्कूल से निकल कर सह-शिक्षा वाले कालेज में आई लड़कियों की आपसी वार्ता का यह प्रारंभिक ज्वार होता। शुरुआत में लड़के भी भौंचक्के रहते। लड़कियों के पीठ पीछे उनके संबंध में कमेंट किए जाते, खिंचाई होती। अंततः सब कुछ सामान्य हो जाता। आखिर कोई दो-चार दिन तो वहां काटने नहीं थे।
आरंभ के दिनों में प्रभात हीनभावना से ग्रस्त रहा। अधिकांश छात्र मंहगे फैशनेबल कपड़ों में आते, लड़कियां ही नहीं, लड़के भी। कालेज में कारों और मोटर-सायकिलों की लाइन लग जाती। उसके जैसे गिने-चुने छात्र अपने में सिमटे रहते, लेकिन धीरे धीरे वह सहज होने लगा था। अपने खर्चो के लिए उसने कुछ ट्यूशनें कर ली थीं। एक वर्ष होते होते उसका पुराना आत्मविश्वास लौट रहा था। उसके मित्रों की संख्या भी बढ़ी थी। वह दूसरों की मदद को तात्पर्य रहता। रात-रात जाग कर दूसरों के लिए नोट्स बनाता। एक मित्र परीक्षाओं के पहले, बीमारी के कारण, एक माह कालेज नहीं आ सका था। वह रोज शाम को उसके घर जाकर तैयारी कराता। किसी सहपाठी के परिवार में कोई कार्यक्रम होता या व्यक्तिगत समस्या, वह सहायता को तैयार रहता। दरअसल गांव में उसने बचपन से ही -अपना या निजी जैसा कुछ-देखा सुना नहीं था। इस सबके बाद भी वह क्लास में अव्वल आया था।
कालेज में छात्र संघ का चुनाव होना था। अन्य पदों पर प्रत्याशी तय हो गए थे। उपाध्यक्ष पद के लिए कोई सर्वमान्य समझौता नहीं हो पा रहा था। छात्रों की कई बार बैठकें हुईं। आखिर विवादों से परे प्रत्याशी के रूप में उसका नाम सामने आया। उसने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था, अतः उसने मना कर दिया। परंतु मित्रों के जोर देने और अपने एकांतिक स्वभाव से इसी बहाने निजात पाने के लिए उसको एक रास्ता नजर आया था। प्रतिस्पर्धा के इस युग में बहिर्मुखी बनने के लिए पूर्वाभ्यास ही सही। वह सहमत हो गया।
उन दिनों छात्र संघों के चुनाव में आज जितनी गहमा गहमी नहीं होती थी। न ही वे राजनीतिक पार्टियों के रिमोट से संचालित होते थे। प्रत्याशी कालेज में, गेट पर दो चार बैनर लगवा देते। छोटी रंगीन महकती हुई पर्चियों में उनके नाम, पद-जिस पर वे प्रत्याशी होते, छपवा ली जातीं। स्वयं वह या उनके मित्र कालेज के गलियारों, लाइब्रेरी अथवा गेट पर छात्रों को पर्चियां बांटते अथवा इसी बहाने दिन में कई बार लड़कियों के कामन रूम में प्रचार के लिए जाते। मुस्करा कर अपने प्रत्याशी के लिए वोट मांगते। वे भी प्रत्युत्तर में मुस्करातीं और सिर हिला कर हामी भर लेतीं। कालेज प्रशासन की ओर से कुछ दिनों के लिए अघोषित अनुमति रहती।
नामांकन के बाद वह व्यस्त हो गया। बैनर टंगवाने का काम हो गया था। पोस्टर भी छप गए थे। उसे सबसे कठिन लग रहा था जनसंपर्क वह भी लड़कियों से। इतने समय में झिझक खुल सकी थी तो इतनी ही कि वह पढ़ाई-लिखाई से संबंधित औपचारिक बातचीत कर पाता। वह भी केवल जब उससे कुछ पूछा जाता। छात्रों से संपर्क कालेज परिसर में ही नहीं बल्कि रास्ते, कैंटीन और जहां भी छात्र एकत्रित मिलते, चल रहा था। वह भी कोशिश तो कर ही रहा था।
उस दिन वह घर जा लौट रहा था। दो सहपाठी साथ थे। रास्ते में उसने नीलिमा को देखा। नीलिमा उसी कालेज में फायनल ईयर में थी। रहती भी वह उसी मोहल्ले में कहीं, जहां प्रभात ने कमरा किराए पर ले रखा था। नीलिमा उसे देखते हुए निकल जाती। प्रभात को उसकी आंखों में पहचान का भाव महसूस होता। शायद एक ही जगह रहने और पढ़ने के कारण लगता। उसके मन में नीलिमा के प्रति आकर्षण का एक अहसास जैसा जरूर रहा होगा। लेकिन उसने उसे पैदा होने के पहले ही उसे दबा दिया था। कालेज में इस तरह की कहानियां शुरू होतीं, अंतिम वर्ष तक चलतीं भी। फिर अपने आप खत्म हो जातीं। परंतु प्रभात अपनी स्थिति और सीमाएं जानता था। वह तो इस ओर सोच भी नहीं सकता था। नीलिमा के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि वह हीनता बोध से ग्रस्त हो जाता। गौर वर्ण, लंबा कद, बड़ी भाव प्रवण आंखें। उसके चेहरे पर हमेशा एक गरिमापूर्ण गंभीरता रहती।
नीलिमा को आते देख उसके मित्रों ने उससे कहा कि वह नीलिमा से अपने समर्थन के लिए कहे। नीलिमा के समर्थन से प्रभात को पूरी साइंस फैकल्टी के वोट मिल सकते थे। वह पहले तो झिझका लेकिन साथियों के जोर दिए जाने पर आगे बढ़़ कर नीलिमा के पास गया। उसने शब्द संजोए, ‘‘मैं--मुझे आपसे कुछ कहना है। कालेज में यूनियन के इलैक्शन में - -आपका सपोर्ट- -’’ वह अपनी बात भी पूरी नहीं कर सका था।
‘‘यहां रास्ते में इस तरह! दिस इज नाट द वे! हाऊ यू - -?’’ नीलिमा की आवाज में कठोरता थी।
वह हतप्रभ रह गया। उसे इस तरह के जवाब की जरा भी आशंका नहीं थी। उस पर घड़ों पानी पड़ गया था। वह रोने को हो आया। उसने चारों ओर देखा-कोई देख तो नहीं रहा है। उसकी नजर अपने मित्रों पर पड़ी। वे उसकी स्थिति देख हंसे जा रहे थे। वह समझ गया। उन्हें हंसता हुआ देख नीलिमा ने अपने को बेवकूफ बनाए जाने की उनकी सम्मिलित साजिश समझी होगी। नीलिमा पैर पटकते हुए चली गई थी। प्रभात की रुचि चुनाव में समाप्त हो गई। नाम वापस लेने की अंतिम तिथि निकल जाने से नाम वापस नहीं लिया जा सकता था। परंतु वह पूरी तरह चुनाव से विरत हो गया था। साथियों के लाख समझाने के बाद भी वह तैयार नहीं हो सका। इसके बाद जैसा होना था उसका विरोधी प्रत्याशी जीत गया था। वह तो कालेज ही छोड़ देता लेकिन अंतिम वर्ष होने के कारण जैसे तैसे रुका रहा। इस घटना के कारण आत्मग्लानि में डूबा वह बीमार पड़ गया। कई सप्ताह तक बुखार में पड़ा रहा। अब वह पूरी तरह आत्मकेन्द्रित हो गया था। कक्षाओं के बाद एक क्षण भी कालेज में न रुकता। वह निकट के गिने चुने मित्रों तक से कट चुका था। रास्ते में नीलिमा अब भी मिलती परंतु प्रभात की हिम्मत उसकी ओर देखने तक न पड़ती। इससे वह समझ नहीं पा रहा था कि नीलिमा की आंखों में अब भी घृणा के भाव मौजूद हैं या नहीं। वह रास्ता बदल कर निकल जाने की कोशिश करता लेकिन कालेज में यह संभव न था। कभी कभी अपरिहार्य स्थितियां आ जातीं। एक दिन लायब्रेरी में सेल्फ से किताबें निकाल कर वह बैठने की जगह तलाश रहा था। सभी टेबिलें भरी थीं। उसने देखा नीलिमा जहां बैठी हुई है, उसने बगल की कुर्सी पर रखा अपना बैग उठा कर उसके लिए जगह की थी, लेकिन प्रभात किताबें वापस सेल्फ में रख बाहर निकल गया। पीछे से उसे लगा कि नीलिमा ने गर्दन घुमा कर उसकी ओर देखा था। चाहे वह कैंटीन में चाय के लिए टोकन ले रहा होता या कुछ और, यदि नीलिमा दिखाई दे जाती, वह वापस लौट जाता।
एक दिन प्रकाश के यहां एक कार्यक्रम में नीलिमा भी आई हुई थी। अनचाहे ही उसकी नजरे उससे मिलीं। प्रकाश, उसकी पत्नी और नीलिमा उसकी ओर देख मुस्कराए तो उसे ऐसा लगा जैसे उनको सब मालूम हो चुका है। उसने मन ही मन सोचा जरूर नीलिमा ने सब कुछ बताया होगा। उसे नीलिमा की ओछी मानसिकता पर क्रोध आया-ऐसा मैंने क्या कह दिया जो सबसे गाती फिर रही है। यह गंभीरता, गरिमा सब दिखाने के लिए ही है। प्रकाश ने उससे पूछना चाहा लेकिन वह टाल गया।
‘‘नीलिमा तो कह रही थी - -’’सावित्री ने कहना चाहा।
‘‘बस भाभी, जाने भी दें इस बात को।’’ वह पहली बार उनकी बात काटते हुए झुंझलाया था।
भाभी हंस पड़ीं थीं। उसने उस दिन की घटना को भुलाने की पूरी कोशिश की थी परंतु बीच सड़क पर हुआ अप्रत्याषित अपमान और उसकी उपेक्षापूर्ण दृष्टि वह भुला नहीं सका था। खास तौर से उसके द्वारा जिसके प्रति उसके मन के किसी कोने में अप्रकट कोमल भावनाएं छिपी होने का एहसास रहा था।
उसका प्रयास था कि विवाह समारोह में नीलिमा से सामना न हो, लेकिन ऐसा न हो सका। भंडारघर की जिम्मेदारी नीलिमा पर थी। वह परिवार के जिम्मेदार सदस्य की तरह व्यस्त थी। उसने साड़ी का पल्ला पलट कर कमर में खोंस लिया था और काम में व्यस्त थी। वह बीच बीच में मेहमानों के लिए नाश्ता लेने आता। ट्रे पकड़ते समय, बहुत बचाने के बाद भी, उसकी उंगलियां नीलिमा की उंगलियों से छू जातीं। उंगलियां झनझना उठतीं। भागने, दौड़ने के कारण उसके चेहरे पर थकावट के भाव स्पष्ट आने लगे थे। बीमारी से उठने के बाद वह कमजोर तो हो ही गया था। स्टोर में काफी गर्मी थी। नीलिमा बार बार हाथ के उल्टी तरफ से माथे का पसीना पोंछती। उसने प्रभात की पस्त हालत देख कर कहा, ‘‘बहुत हो गया। यहीं बैठकर थोड़ा आराम कर लो। कुछ खा लो। और सभी तो टाई लगाए मेहमान बने घूम रहे है।’’
नीलिमा ने सामान हटाते हुए उसके लिए स्टूल खाली किया। उसके स्वर में अपनत्व था। उसने बड़ी निरीहता से नीलिमा की ओर देखा, बिना कुछ कहे वापस चल दिया। इस पर ने आगे बढ़ कर उसका रास्ता रोकते हुए कहा, ‘‘प्रीवियस में फर्स्ट आने पर बहुत गरूर आ गया है। मैं कब से कह रही हूं। न कुछ सुनना, न बोलना’’
प्रभात फट पड़ने को था, लेकिन संयत रहते हुए उसने कुछ कहने की कोशिश की। शब्द स्पष्ट नहीं निकल सके थे, ‘‘आप- - तुमने ही तो बात करने से मना किया था।’’ उसका स्वर रुँधा-बिंधा हुआ था। गुस्से और अपमान की खीझ से उसके शब्द थरथरा रहे थे। जेब से रूमाल निकालने का अवसर नहीं था। आँख छिपाने के लिए उसने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
नीलिमा जैसे इसी का इंतजार कर रही थी, ‘‘अच्छा तो इस बात पर गुस्सा हो।’’ नीलिमा ने हंसी रोकने की पूरी कोशिश की थी परंतु चेहरे पर हंसी उसकी आंखों और चेहरे से झलक रही थी, ‘‘बड़े आज्ञाकारी बच्चे हो!’’
प्रभात रुकने को विवश हो गया था। भला इसके पहले जनवरी की सर्दियों में बर्फ कभी पिघली थी!
❣️प्रताप दीक्षित-वरिष्ठ कहानीकार
एम डी एच 2/33, सेक्टर एच, जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
2 ️⃣ कविता ✍️
〰️〰️ दियासलाई 〰️〰️
आदमी की इज़ादों में
दुर्लभतम् इज़ाद है दियासलाई
वह भक् से जलती है उजाले में
और हो जाती है ओझल
आदमी कब सीखेगा जीना
क्षण की त्वरा में!
〰️〰️ उत्सव 〰️〰️
उत्सव विलुप्त हो रहे हैं जीवन से
जो हम में जगाते थे भारहीनता का जादू
आज हम अनभिज्ञ हैं जीवन-स्पंदन से
रंग,शब्द और लय के आमंत्रण से
वंचित आत्मा की समावेशी उदारता से
निर्दोष कोलाहल की जगह बचा है
अब चौतरफ़ा केवल कर्कश कोहराम
जो हर पल चीखता है हमारे लहू में
यह उत्सव के आतंक का समय है।
〰️〰️ कोशिश एक चिरायु शब्द है 〰️〰️
कोशिश आकाशगंगा का एक नन्हा तारा
ईश्वर प्रदत्त ऊर्जा का अक्षय-स्रोत
खोजता और पाता जीवन-मधु
दक्ष परिश्रमी मधुमक्खियों की मानिंद
मित्रो कुछ भी बेशक़ीमती नहीं है
इस अनमोल जीवन के सिवा
कोशिश करो तो लौट जाती है मृत्यु
कोशिश एक चिरायु शब्द है!
❣️सवाई सिंह शेखावत-वरिष्ट कवि,मीरा पुरस्कार से सम्मानित
7/86 विद्याधर नगर, जयपुर:302039
3 ️⃣ कविता ✍️
〰️〰️ ✊बंद मुट्ठी ✊〰️〰️
तुमने मेरे सामने मुट्ठी बंद की
और कहा
' देखो बंद मुट्ठी में कुछ बंद नहीं होता है ,
सिवाय हवा के".
तुमने मुट्ठी खोल कर दिखाई
और सच वहां कुछ नहीं था ,
मुझे तो हवा भी नहीं दिखाई दी .
मैंने कहा " तुम सच कहते हो मित्र,
तुम्हारे हाथ की मुट्ठी में कुछ नहीं है ."
फिर मैंने अपने हाथ की मुट्ठी बंद की
और चुपचाप देखता रहा ,
हथेली पर बन गए उस ठोस आकार को।
महसूस किया कुछ देर ,अपनी बंद मुट्ठी को।
धीरे धीरे मुझे लगने लगा कि
मेरी मुट्ठी नहीं है खाली
मेरे दोस्त की मुट्ठी की तरह .
मुझे लगा मेरी मुट्ठी में बंद हैं,
कई सपने, कई वादे , कई मंजिलें,
जिन्हें सच होना है,
जिन्हें पूरा होना है ,
और जिन तक अभी पहुंचना है।
बहुत भरी है मेरी मुट्ठी ,
पर ,
मैं नहीं दिखाऊंगा खोल कर अपनी मुट्ठी तुम्हे ,
क्योंकि मैं जानता हूँ ,
तुम नहीं मानोगे कि
मेरी मुट्ठी में बंद है इतना कुछ .
तुम तो यही कहोगे कि ,
" देखो तुम्हारी भी मुट्ठी खाली है
मेरी मुट्ठी की तरह।"
〰️〰️ कोई कोई दिन 〰️〰️
कोई कोई दिन ऐसा होता है ,
जब कुछ करने का मन नहीं होता है ,
जब सुबह सुबह चिड़ियों का चहचहाना भी
कानों को खलने लगता है।
जब खिड़की से झांकती धूप को देख ,
भगा देने का मन करता है।
जब दरवाज़े पर कोई थपथपाहट सुन ,
गाली देने को दिल करता है।
जब बिस्तर पर खामख्वाह पड़े रहना ही ,
सार्थक लगने लगता है।
जब नींद खुली, पर आँखें बंद होती हैं,
और दिमाग यूँ ही इधर उधर घूमता रहता है।
कोई कोई दिन ऐसा होता है ,
जब तुम्हारी भी याद नहीं आती है ,
और तब भी मन को न जाने क्यों ,
अच्छा अच्छा सा लगता है।
❣️ संजीव निगम-महत्व पूर्ण कवि ,व्यंग्यकार, सामाजिक कार्यकर्त्ता
डी ,204 , संकल्प 2 , पिम्परी पाड़ा ,
फिल्म सिटी रोड , मलाड पूर्व , मुंबई -400097 .
4 ️⃣ कविता ✍️
〰️〰️ 'वैदेही का प्रश्न' ❓〰️〰️
धरती जब भी दरकती है
हर बार कोई वैदेही उसमे उतरती है
और उसके साथ उतर जाते है
तमाम सुलगते हुए सवाल
उठते हुए उफान,
मरी हुई सम्वेदनाओं का सैलाब!!!
वैदेही जब भी समाती है
दरकी हुई पृथा देती है तमाचा
विकृत हुई मानसिकता वाले
समाज के गाल पर...
और उसकी गूंज युगों तक
गूंजती है !!!
फिर भी अभिशप्त हुई
परम्पराए नही मरती
अहंकार जन्य पुरुषत्व ..
समय के प्रवाह में फिर
उग आता है बिना खाद
पानी के उग आये बबूल की तरह।
त्रेता से द्वापर और द्वापर से
आज तक वैदेही के प्रश्न
मुहबाएं खड़े हैं
अभिशप्त समाज के समक्ष
यक्ष प्रश्न की तरह।।
कोई धर्मराज अवतरित न हुआ
अनुत्तरित यक्ष प्रश्न
समय के साथ बूढाता
हांफता ,खाँसता ,लंगड़ाता
समय की सम्भावनाओं में
आज भी दबा है
राख में लिपटी अंगार सा...
वैदेही के पृथा और
पूरे समाज के समक्ष
प्रलय के इंतज़ार में.....!__
〰️〰️ "वैदेही का अग्नि स्नान" 〰️〰️
दूर क्षितिज पार का एक
सितारा बुलाने लगा है
जाने क्यों आज फिर
मन जाने लगा है।।
नहीं चाहती लौटना...
उसकी पनाह की
शीतलता स्निग्धता
मेरी आँखों में भरी हे
कजरार बन कर!!
पर पैरो तले की
ज़मीन बहुत चट्टानी है
उस पर जाने कितनी
निगाहें गड़ी है
मेरे पौर पौर पर
बेड़िया पड़ी हैं
हर निगाह सवाल भरी है
सवाल मेरे समूचे
अस्तित्व पर
मेरे कृतित्व पर...
मेरे चरित्र पर...
सवाल करने वाली निगाहें
अंधेरो से घिरी है
फिर भी करती हैं
बार बार मेरे हर
कदम पर सवाल
मैं ब्लैक होल के
अँधेरे विवरों से लड़ती
निरन्तर चलती हु उस पार
जहा सितारा खड़ा है।
हर कदम आशा का दामन थामे
तय कर लेती हु कुछ दूरी
पाट लेती हु कदम भर की रिक्ति
सारी जलती निगाहें मुझे लगती हैं
धधकती हुई पृथ्वी...
अगन के साक्षीत्व में रोज होती हूँ
मैं जानकी से वैदेही...।।
जाने कब खत्म होगी
ये जलती निगाहें?
कब कटेगा वैदेही के
वनवास् का ये अंतराल??
कब पृथा की सुनी गोद में रोज
उतरने को बाध्य वैदेही
थामने लगेगी बिना
किसी सवाल के
अपने जीवन की कमान?
कब लिख सकेगी
बिना अभिशप्त हुए
अपने कृतित्व की गाथा और
भर सकेगी मन की उड़ान?
रोज गुजरती हूँ
कितनी ही निगाहो के
हवनकुंड से....
प्रतिपल करती आई हूँ अग्निस्नान!
युग बदले ,काल बदला
पर सवाल दर सवाल
निगाह दर निगाह ...
न तोड़ पाई मैथिली का स्वप्न!!
आज भी देखती है मिथिलानंदिनी..
हर श्वास हर कदम वही स्वप्न
लपटो में नहाईं जानकी
फर्श से अर्श तक का सफर
कर ही लेगी तय किसी श्वास
है इतना विश्वास।।
सितारा मुस्कुराता है
क्षितिज के उस पार
और वैदेही इस पार....
जाने क्यों पुकारता है सारा आसमान
सितारा बन के मुझ वैदेही को उस पार....।।
❣️नीता चोबीसा –युवा कवयित्री
73,वृन्दावन कॉलोनी सुभाष नगर बांसवाड़ा राजस्थान पिन327001
5 ️⃣ कविता ✍️
अगर तुम दु:खी नहीं हो
अगर प्रेम की तलाश में नहीं भटक रहे हो
अगर तुम्हारी नींद में
ख़लल पड़ने की कोई वज़ह नहीं है
अगर तुम्हें वास्तव में
जीवित रहने की कामना के साथ
मर जाने वाले हाल़ात से
नहीं गुज़रना पड़ रहा है और
अगर तुम्हारी साँसों को
ताज़ा हवा की जरूरत
महसूस नहीं होती है तनिक भी
तो सँभलो मेरे मित्र!
अपने आप पर शक़ करो
और माँजो स्वयं को काल की राख से
कि तुम्हारे भीतर का मनुष्य
शायद मरता जा रहा है …….
❣️ कैलाश मनहर –चर्चित कवि
स्वामी मुहल्ला,मनोहरपुर (जयपुर-राज.) पिनकोड-303104
6 ️⃣ कविता ✍️
〰️〰️ यह आम रास्ता है ! 〰️〰️
यह आम रास्ता है
यहाँ , भगदड़ है , भागम भाग है, भीड़ है .
लोग ही लोग हैं , बेतहाशा लोग
रेलम पेल है , धक्का मुक्की है
आगे निकलने की होड़ है .
तेज रफ्तार चको में लिपटे
होते ही रहते हैं हादसे
इन साँप से काले आम रास्तो पर
लाल खून से सने .
क्षण भर को ठिठक जाता है आम रास्ता
प्रेस फोटोग्राफर को मिल जाता है , एक स्नैप दर्दनाक
न्यूज चैनल को थोड़ी सी सनसनी .
घरों में माँयें बच्चो को देती हैं एक और हिदायत
धीरे चलने की
यह समझते हुये भी कि
यदि बच्चे जरा भी धीरे चलेंगे तो
खास बनने की दौड़ में वे पिछड़ सकते हैं .
हर ऐसे हादसे के बाद
खास लोग मौके का मुआयना करते हैं
यंत्रवत संवेदना में लिपटी कागजी घोषणायें
दोहरा दी जाती हैं
आम रास्ता फिर ढ़र्रे पर लौट आता है .
जब कभी
इन आम रास्तो से गुजरना होता है
खासमखास कारो का काफिला
तो वर्दी धारी , वर्दियो में और सादे लिबास में भी
आम आदमी की आमादरफ्त रोक देते हैं
वीरान आम रास्ता खास बन जाता है
बेरीकेट्स के दायरो में बंधी भीड़
एक झलक भर पा पाती है
खुद पर शासन करने के लिये
खुद उसके ही द्वारा चुने गये
खास बन गये चेहरे की .
सभी खास रास्तो के मुहाने खुलते हैं
किसी न किसी आम रास्ते पर
जहाँ लगा होता है एक सूचना पट
"यह आम रास्ता नहीं है "
खड़ा होता है इस आम और खास रास्ते के
संधि स्थल पर एक संतरी
बेरिकेट के पीछे
अपने चैक पोस्ट में .
आम आदमी को इन खास रास्तो पर
जाने के लिये
जरूरत होती है गेट पास की
जो मिलता है
कड़ी पूछताछ के बाद या फिर
रुपयो की सीढ़ी पर चढ़कर
कुछ लोग व्यवस्था की सूराखों से
निकाल लेते हैं उसे
सिफारिशी फोन की घंटियों से .
आम रास्तों के लोग
सारी उम्र साधनो की ही बातें करते रह जाते हैं
खास आदमी खास रास्तों पर
टहलते हुये
साध्यों को तय करता है .
वह आम रास्तो के लक्ष्य अदलता बदलता रहता है .
आम आदमी को सपनो में सुलाये रखने के लिये
वह आम रास्तो के किनारे लगे होर्डिंग्स की
विज्ञापन सुंदरियो की पोषाकें
होर्डिंग की जगमगाहट
आकार प्रकार तय करता है .
आम रास्ते पर कितने भी
और आम आदमी आ जायें
सब समा जाते हैं , जैसे समुद्र में कुछ बूंदें .
लेकिन वीरान खास रास्तों पर एक भी शख्स आ जाये
अनचाहा तो
तुरंत सीटियां बज उठती हैं , ढ़ेर सी ताकतें एक साथ
सक्रिय हो जाती हैं
उस अतिरिक्त आदमी को निकाल बाहर करने में .
चुनावो के जरिये
आम आदमी की , खास रास्तो पर
पहुँचने की कोशिश
जोड़ तोड़ माफिया और बेहिसाब खर्च के चलते
बस में नहीं रही है आम आदमी के .
आम आदमी गढ़ता रह गया है मूर्तियां
प्लास्टर आफ पेरिस की , सांचे से
खास लोगों की
आम रास्तो के किनारे .
शिक्षा का रास्ता
जो बना सकता है आम आदमी को खास
वह भी बढ़ती फीस
और विशेष संस्थानो की विशिष्ट चयन पद्धति
के चलते , खास बनता जा रहा है .
आम आदमी खरीद और बेच रहा है
अखबारो की रद्दी
खास आदमी पढ़ा रहा है उसे रिसाइकलिंग के पाठ
धर्म के सफेद हरे भगवे चोलो में जो खास
बने हुये हैं , वे आम आदमी की
खास लोगों की जमात में शामिल होने की
चाहत का नगदीकरण कर रहे हैं
आस्था के नाम पर .
ग्लैमर की दुनिया में भी खास रास्ते
खास लोगो और उनके बच्चो के ही बनकर
रह गये हैं .
खास राहो के दोनो और रोपे गये हैं
अशोक के झब्बेदार वृक्ष , आम आदमी के द्वारा .
खास आदमी इस्तेमाल कर रहे हैं आम आदमी का
उसे यह अहसास दिलाकर कि
खास रास्ता भी उनका अपना ही है
क्योकि वह उनके ही देश का हिस्सा है .
खास और आम रास्ते की ताकत हैं
आम आदमी ! उनके वोट ! उनकी सँख्या !
इसलिये जब यह संख्या एकजुट हो जायेगी
शोषण के खिलाफ तो
व्यवस्था बदल जायेगी और
तब कोई खास रास्ता नहीं होगा
आम रास्ते को ही खास बनाना है हमें
जिससे हर तरफ एक ही साइनबोर्ड हो
यह आम रास्ता है !
❣️ विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ए १ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर-482008
7 ️⃣ कविता ✍️
एक वर्ष लो बीत गया कल
नया वर्ष फिर से है आया
सुख सद्भाव शांति का मौसम
फिर भी अब तक लौट न पाया
नये वर्ष संग सपने जागे
गये संग सिमटी आशायें
दुनियां ने दिन कैसे काटे
कहो तुम्हें क्या क्या बतलायें
सदियां बीत गयी दुनियां की
नूतनता से प्रीति लगाये
हर नवनीता के स्वागत में
नयनों ने नित पलक बिछाये
सुख की धूप मिली बस दो क्षण
अक्सर घिरी दुखों की छाया
पर मानव मन निज स्वभाव वश
आशा में रहता भरमाया
आकर्षक पंछी से नभ से
गाते नये वर्ष हैं आते
देकर निश्चित साथ समय भर
सबको भरमा कर उड़ जाते
अच्छी लगती है नवनीता
क्योकि चाहता मन परिवर्तन
परिवर्तन प्राकृतिक नियम
भरा हुआ इसमें आकर्षण
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा
तुमसे हैं सबको आशायें
नये दिनों नई आभा फैला
हरो विश्व की सब विपदायें
मानवता बीमार बहुत है
टूट रहे ममता के धागे
करो वही उपचार कि जिससे
स्वास्थ्य बढ़े शुभ करुणा जागे
सदा आपसी ममता से मन
रहे प्रेम भावित गरमाया
आतंकी अंधियार नष्ट हो
जग को इष्ट मिले मन भाया
मन में हो आस्था की उर्जा
सज पाये संसार सुहाना
प्रेम विनय सद्भाव गान हो
भेदभाव हो राग पुराना
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा
〰️〰️ नव वर्ष तुम्हारा मंगलमय, सुखप्रद, सार्थक हो शुभ आना 〰️〰️
नव वर्ष तुम्हारा कालचक्र तो निर्धारित करता है आना
पर आकर के जग के ऑगन को तुम खुशियों से भर जाना।
पीडित हैं सब आतंकवाद से दुख से भारी सबके मन
बीते वर्षो सी विपदायें तुम आकर फिर मत दोहराना।
देखे हैं जग ने कई दुर्दिन, सब देश दुखी हैं पीडा से
मुसका सकने के अवसर दे नई सुविधायें दे हर्षाना।
देना सुबुद्धि का वह प्रकाश जो मिटा सके सब अॅंधियारा
नासमझों को देकर सुबुद्धि ममता का मतलब समझाना।
है स्वार्थ जाल में जकडे सब, अकडे फिरते करने मन का
अपने मत के हैं हठी अधिक, पसरा पागलपन मनमाना।
कुछ की अनुचित नादानी से, बहुतों के घर वीरान हुये
दिगभ्रमित मूढमति लोगों को हिलमिल कर रहना सिखलाना।
आये और गये तो साल कई, पर पा न सके सब जन उमंग
गति रही सदा इस जीवन की खाना पीना और बस जाना।
देकर विचार शुभ उन्नति के, नव मौसम लाकर के अनुपम
भाईचारे का मंत्र सिखा, हर मन को पुलकित कर जाना।
मिटती आई है लड़ भिड़कर यह दुनियॉ ओछी चालों से
सुख शांति की पावन प्रीति बढा दुख-दर्द को दूर भगा जाना।
इस जग के हर घर, हर जन को अच्छी यादों से भर जाना
नव वर्ष तुम्हारा मंगलमय, सुखप्रद, सार्थक हो शुभ आना।
❣️ प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
ए 1, एमपीईबी कालोनी, रामपुर, जबलपुर ,
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8 ️⃣ कविता ✍️
〰️〰️ किस इबारत में 〰️〰️
ताज औ तख्ते -ताउस
गढते अनाम हाथ न जाने कहां गुम हुए .......
राजप्रासाद की देह को हीरे जवाहिरात की कनक मयी आभा से
जीवन्त बनाते अज्ञात कलावन्त ्अब कहां.........?
इतिहास की मोटी जिल्द में
कहां -किस पंक्ति में उद्वृत है उनका जीवन -वृत ?
बेवजह - ,
अविवेकी शक्ति के उन्माद में मदमस्त आभिजात्य ने
सोख लिया जिनके हदय का मधुर संगीत
कमोबेस , काल के हर दौर में -
अपने खूं से जो सजाते ही रहे स्वयम्भू महानता का विराट घर -आंगन
कि ; सहस्त्राब्दियों तक
जो लादे रहे जर्जर रथ के टूटे पहियों का भार अपने कमजोर कन्धों पर
क्या दीन- हीन
क्षीणकाय ;
मैले -पस्त ;क्लान्त मुख ;
जन के तैरते भंगुर सपनों की तंग पगडंडियों से गुजरता
तथाकथित महानता का राजपथ ?
........वो जन कहां किस हालात में ?
-धारा से अलग जिन्होंने पारदर्शी बनाया समय का चेहरा
श्रम औ ‘ पसीने के उतांप से चमकदार बनाया हमारी
धरती का महान आंचल ...!
काल की जर्जर उदास खूटी पर
गर्द ढ़के सूने ओवरकोट की तरह
ज्यो टंकी कुछ बेजान स्मृतियां
-अब प्रत्युतर मांगती है
जरा सोचो -
-किस प्रशस्ति में
- किस ख्यात में
-किस विरूदावली में
-किस शिलालेख में
-किस दस्तावेज में
कहो ; किस इबारत में अंकित है उनका नाम ?
❣️ विजय सिंह नाहटा –कवि –आलोचक
बी -92, स्किम 10-बी, गोपालपुरा बाईपास रोड़,
जयपुर 302018 (राजस्थान)
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9 ️⃣ एक गीत ✍️
〰️〰️ आमंत्रण होगा 〰️〰️
आपस में गलबहियाँ लेकर
ठुमक चले हैं अक्षर अक्षर
निश्चित ही रचनाकारों का भाव भरा आमंत्रण होगा।
आज सृजन के राजभवन में गीतों का अभिनंदन होगा।
संवेगों ने स्वागत गाया, आवेगों ने चरण पखारे।
और उमंगों ने आगे बढ़, सौ सौ मंगलगान उचारे।
हुई घोषणा है सम्मानित उर का हर स्पंदन होगा।
आज सृजन के राजभवन में गीतों का अभिनंदन होगा।
संशय का प्रवेश प्रतिबंधित,पहरे पर विश्वास अटल है।
संवेदी अनुभूति गहन है, अंतर का उल्लास अटल है।
निश्चल भावों के आंगन में प्रियता का अभिमंत्रण होगा।
आज सृजन के राजभवन में गीतों का अभिनंदन होगा।
अन्तस् की अभिव्यक्ति प्रखर है, मृदुता का भावातिरेक है।
भाव व्यंजना की रोली से गीतों का राज्याभिषेक है।
सांसो से अनुप्राणित स्वर का शब्दों में उच्चारण होगा।
आज सृजन के राजभवन में गीतों का अभिनंदन होगा।
❣️ संदीप 'सरस'
मोहल्ला-शंकरगंज,पोस्ट-बिसवां, जिला-सीतापुर(उ प्र)-(पिन-261201)
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एक गीत ✍️
〰️〰️ ♀️ हम कहाँ जायें? ♀️〰️〰️
हम कहाँ जायें
जहाँ हम रह सकें वैसे
रहना चाहते जैसे
बोझ लादे पीढ़ियों का
हम जो हाँके जा रहे हैं
भागते इस प्रगति रथ की
धूल फाँके जा रहे हैं
हम कहाँ जायें
जहाँ हम बढ़ सकें वैसे
बढ़ना चाहते जैसे
कायदे पद दबदबे
छल छाँव के नीचे रहे
बीच दुपहर पेड़ के ही
पाँव के नीचे रहे
हम कहाँ जायें
जहाँ हम चढ़ सकें वैसे
चढ़ना चाहते जैसे
बह रही कैसी हवा
जो खेत पीले पड़ रहे
जंगलों से बारिशों के
अनुबंध ढीले पड़ गये
हम कहाँ जायें
जहाँ सुख गढ़ सकें वैसे
गढ़ना चाहते जैस
〰️〰️ भक्तिभाव से सुनें मरभुखे 〰️
चूल्हा देशी आग विदेशी
तेल-कढ़ाही भी उधार की
भिखमंगी के मिर्च-मसालों से
वे अपनी दाल बघारें
भक्तिभाव से सुनें मरभुखे
नामवरों की मस्त डकारें
एक गिलहरी की भी प्यास
बुझाने में जो अक्षम
खुद को संवेदन सागर
मनवाने वे लहराते परचम
विभ्रम कालजयी रचने का
सम्मानित होने पुजने का
चढ़े चौधराहट-चौरे पर
भांजें लफ्फाजी तलवारें
इनकी ऊब-थकन पर ही इति
प्रगति इन्हीं की सम्मति पर
हर सौंदर्यबोध के स्वामी
सद् गति इनकी सहमति पर
सिद्ध-सन्त की आँख फोड़कर
उनकी उतरन पहन-ओढ़कर
शिखर-सुशोभित हो ऊँचे स्वर
फतवे पर फतवे उच्चारें
हर सम्वाद विवादग्रस्त पर
निर्विवाद निष्कर्ष निकालें
अपनी जात-जमात चीह्नकर
ध्वजवाहक का नाम उछालें
क्या तीखा क्या मीठा-फीका
सब पर इनकी टीपें-टीका
पद-कद के मदमातों को ये
दें लंगोट मैदान उतारें
दृष्टि सदा चिकनी-चुपड़ी पर
खरी कहन पर झाड़ू मारें
काई-कीच काँस-कुश चकवँड़
काँटों को आमूल उखाड़ें
वर्णसंकरी बीज-खाद से
इनके बंजर भी हरियाये
मंतर पढ़ते टोटके करते
राई-नून ले नज़र उतारें
❣️देवेन्द्र कुमार पाठक
1315,साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर,साइंसकालेज डाकघर,कटनी,म.प्र.483501
साहित्यम मासिक इ पत्रिका -केवल फेस बुक पर प्रकाशित –
❣️ संपादक यशवंत कोठारी ✒️
86,लक्ष्मी नगर ,ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर-३०२००२
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संपादन -व्यवस्था –अवैतनिक
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