काव्य जगत डॉ. ज्योत्सना सिंह की कविताएं 1. समेटती हूँ खुद को रोज रेत की मानिंद भरती हूँ अपना खालीपन बड़े इत्मीनान से चौतरफा कामनाओं की बलि दे...
काव्य जगत
डॉ. ज्योत्सना सिंह की कविताएं
1.
समेटती हूँ खुद को
रोज रेत की मानिंद
भरती हूँ अपना खालीपन
बड़े इत्मीनान से
चौतरफा कामनाओं की
बलि देकर मिटाती
बेचैनियों को
फिर देखती स्वयं को
पूरे विश्वास से
टटोलती हूँ
अपनी छटपटाहट को
पूछती हूँ
अपनी आहटों से
मिलता फिर वही
खालीपन,
खालीपन के साथ.....
2.
पाल रखी बेहिसाब बेचैनियां जिन्दगी ने
किस किस का हिसाब दूँ
जोड़ बाकी गुणनफल सब कर लिया
मिला वही जो किस्मत में तय था
वत्तQ की रही पतवार, मालिक रहा सवार
तूफानों का लगा रहा अंबार
इन कोशिशों ने भी मान ली हार
कैसे कह दूँ
लगे हैं इन श्वासों पर भी पहरेदार
बस परीक्षाफल का है इन्तजार...
3.
खौफ खा इंसा तू, खुदा के कहर से
मर जाएगा एक रोज अपने ही जहर से
देख खुदा जमीं पर क्या हो रहा है
इंसानियत रो रही, जमीर सो रहा है
इंसा तेरा खेल कितना है निराला
निर्दाष जीव को बनाता है निवाला
बेमौत मार देता कितने बेजुबान
क्या उनमें नहीं बसती है जान
जबरन काट के बहा देता खून
कैसा है इंसाफ, कैसा है कानून
एक जीव पर इतना बवाल मचाया
वाह इंसा तेरा इंसाफ समझ न आया
बात न जाति, न धर्म, न मजहब की है
बात न्याय और कानून के भेद की है
संपर्क : सी-111 गोविन्दपुरी, ग्वालियर
मध्यप्रदेश - 474011
सलिल सरोज की गजल
तुम संभल के रहना, वो जीना मुहाल कर देगा
ये सियासत है प्यारे, दो पल में बेहाल कर देगा
वो ताँक में बैठा है तुम्हारे हर एक कदम पर ही
तुम गलतियाँ भी नहीं करोगे, वो सवाल कर देगा
अपनी ही परछाईं कैसे खुद को डराने लगती है
तुम कुछ देर तो ठहरो, वो ये भी कमाल कर देगा
इनको वजीफा मिला हुआ है इसी तालीम में
संविधान को मशाल और झंडे को रूमाल कर देगा
तुम्हारे ही मुद्दे, जिन्हें सदन में इन्हें उठाना था
उस पर कभी जो बात करो तो बबाल कर देगा
मत उलझना बहुत देर तलक इस महकमे में
तुम्हें फटेहाल, बदहाल और फिर हलाल कर देगा
संपर्क : बी-302, तीसरी मंजिल
सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट्स, मुखर्जी नगर
नई दिल्ली-110009
स्वाति ग्रोवर की दो कविताएं
श्राद्ध का खाना
घर गई तो रसोई
चार तरह के व्यंजन से भरी पड़ी थी
मुझे पता है
मेरी माँ से इतनी मशक्कत नहीं होती
उनकी उम्र इसकी अनुमति नहीं देती
पूछा, ‘मैंने यह क्या कमाल है?’
यह कोई कमाल नहीं श्राद्ध का खाना है
आज कुछ नहीं पका बस यही खाना है
दादी तो मेरी यह सब मानती नहीं थी
नानी तो कहती थी, कोई दिखावा नहीं करना
सेवा भी नहीं की तो श्राद्ध भी नहीं करना
मुझे लकवाग्रस्त, असहाय वो नज़र आती हैं
इन पकवानों को देख मेरी आँख भर आती है
श्राद्ध करने से दिन के बोझ कम होते हैं
दिल के नहीं
कोई जीवित है तो उसका दिल न दुखे
उसका मान-सम्मान होना चाहिए
जिन्हें हम से प्यार होता है
उस लाठी को भी तो ख़्याल होना चाहिए
आसपास के बूढ़ों की चार बातें सुन लेती हो
इसलिए नहीं कि मेरे अंदर उच्च संस्कार हैं
‘संस्कार’ भारी शब्द हैं यह सिर्फ़
नारी की ज़िम्मेदारी नहीं हैं
बल्कि यह एहतराम इसीलिए है
एक मुद्दत से घर में कोई बुज़ुर्ग नहीं हैं
मैंने सोच लिया है
मुझे नहीं खाना
न मुझसे खाया जाना
यह श्राद्ध का खाना...
बेटी
घर पहुँची तो माँ रो रही थी
मैंने पूछा, ‘क्या हुआ?’
माँ ने कहा, ‘पड़ोस में बेटी गुज़र गई’
मैंने धीरे से सांस भरी
फि़र बात शुरू की
अच्छा हुआ गुज़र गई
बाप तो उसका ऐबी
माँ सीधी-सादी है
किसी सरकारी स्कूल में पढ़ा लेगा
निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का फायदा उठा लेगा
फि़र जब स्कूल से निकल जाएगी
अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं उठाएगी
ट्यूशन पढ़ाकर घर का ख़र्च भी चलाना होगा
ख्वाइशों को अलविदा कह
ज़रूरतों को गले लगाना होगा
दिल के ज़ख़्मों को मुस्कुराकर धोएगी
दुनिया के सामने मजबूत बनेगी
रात को तकिये के नीचे मुह छिपाकर रोएगी
उसे भी हर पुरुष से घृणा हो जाएगी
पिता को पिता नहीं कह पाएगी
वो पिता अपने ऐबों का बोझ उसके कंधे पर रख देगा
घर की खिड़की को खंभे कर देगा
अपने जैसे ही लड़के ढूँढ़ देगा
लोगों को दिखाने के लिए उसकी डोली भी उठ जाएगी
एक लाश खुद ही अर्थी चढ़ जाएगी
कोई एक तो इन अजाब से बच गई
माँ अभी भी रो रही है
बस रोने की वजह बदल गई
पड़ोस में एक बेटी गुज़र गई...
बेटी गुज़र गई...
राजेश माहेश्वरी की दो कविताएं
विवाह
आज विवाह
कल वाद विवाद और
परसों हो गया तलाक
प्रेम और स्नेह को
तार तार कर
विवाह को मजाक
मत बनाइये।
पाश्चात्य संस्कृति की
विवाह परिभाषा मत अपनाइये
भारतीय संस्कारों
को ठेस मत पहुँचाइये
विवाह है जीवन का
सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग
जिससे होता है
सकारात्मक सृजन
छोटी छोटी बातों को
विध्वंसक मत बनाइये
जीवन में सहनशीलता,
सहिष्णुता के साथ
एक दूसरे को समझ कर
प्रेम और स्नेह को
प्रगाढ़ बनाकर
अपने विवाहित
जीवन को सुखी एवं
सार्थक बनाइये।
जीवन की पूर्णता
व्यथित हृदय
खुशी दे सकता नहीं
मन में प्रसन्नता व शांति हो
तो हृदय व्यथित हो सकता नहीं
अपनी व्यथा को कथा मत बनाइये
कोई भी आपकी व्यथा को
मिटा सकता नहीं
भाग्य और वक्त को कोई
बदल सकता नहीं
अपने परिश्रम, बुद्धिमानी,
ईश्वर के प्रति विश्वास से
आपको व्यथा मुक्त होने से
कोई रोक सकता नहीं
स्वयं को मजबूर नहीं मजबूत बनाइये
व्यथा को अपने ऊपर नहीं
स्वयं को व्यथा के ऊपर हावी दिखाइये
जीवन के इस सिद्धांत
से पूर्णता पाइये।
सम्पर्क : 106, नयागांव, को-ऑपरेटिव,
हाउसिंग सोसाइटी, रामपुर, जबलपुर-482008 (म.प्र)
वंदना गुप्ता की दो कविताएं
आगाह
रिश्तों की दीवारों पर,
ये कैसे पैबंद है,
ये किसने शक्ल अख्तियार कर ली है,
सींगों से,
ये उम्मीद के गलियारे में,
कैसा लहू टपक रहा है,
बदरंग आशाएं गुहारें मारती,
किसे बुला रही हैं,
कौन है उधर,
जिसे मैं अपना कह सकूं,
मां का आंचल,
आज इतना छोटा क्यूं है,
पिता के स्नेह पर,
ताला क्यूं है,
भाई ने तो अपना रक्षा कवच ही,
उतार फेंका है,
तो क्या मैं विरोध के,
दो शब्द भी न बोलती,
बोलो कब तक यूं ही,
अधमरी की जाती,
तो क्या मैं अपने निचोड़े हुए,
लहू का हिसाब भी मांगती,
देखो मां मैं वही तो कर रही थी आज तक,
जो तुमने कहा था विदाई के समय,
कि बेटी की डोली,
पिता के घर उठती,
और अर्थी पति के दरवाजे से,
तेरे शब्दों की गांठ,
अपने आंचल में बांध,
सह रही थी दर्द सभी,
मैं नहीं गिराऊंगी एक कतरा,
आंसू का भी मां,
पर इस सच को तुम्हें भी न भूलने दूंगी,
देखो मां मेरी चमड़ी से टपकता लहू,
गिनो मेरी सांसें,
मां अब मत देना,
मेरी छोटी बहनों को इन शब्दों की दुहाई,
अरे मां, मैं तो आज भी न बोलती,
पर चिता पर जलने से पहले,
तुझे बताने आई हूं,
कि रिश्तों की आड़ में,
रोज जिन्दा चिता पर जल रही थी मैं,
आज मौत की अंतिम सांस पर,
अपनों का कंधा मांगने आई हूं।
अपनी धरती अपना आकाश
मेरे अवचेतन पर बिखरे तुम्हारे स्नेह तन्तु
मुझे अपनी परधम जकड़े
मुक्त नहीं होने देते,
समय के झंझावत में तुम भूल चुके हमें
हमारी पुकारों को,
प्रणय निवेदनों को ठुकरा कर
दूसरे सुखों में लिप्त पर निर्लिप्त-से
पाप बोध से परे जिन्दगी को सही आयाम देते
हमें भटकाव में छोड़ अपनी जमीन तलाशते
हमें त्रिशंकु बना
अपनी स्नेह की डोर में लटका गए,
जहां आधार है न मुक्त आसमान
चिड़िया भी तो नहीं जो पंखों के सहारे
अधर में डोलती रहूं,
तुम क्या ले गए क्या दे गए
नहीं समझ पाती
पर समय चक्र की ऐसी धुरी पर हूं मैं,
जहां शून्यता, आंसू के सिवा कुछ भी नहीं
उन्हीं में उलझती, सुलगती मैं
तुमसे अपनी धरती अपना आकाश मांगती
क्या दोगे तुम?
संपर्क : डॉ. राजेन्द्र प्रसाद गर्ल्स हाई स्कूल, डांगी पाड़ा,
सिलीगुड़ी, जिला-दार्जीलिंग, प. बंगाल- 734001
पारुल श्रीवास्तव की कविता
दो रंगी दुनिया
अजब है ये दुनिया
दो रंगों की दुनिया
कहीं घोर अंधेरी है रात
कहीं आशाओं पर है नवप्रभात!
कहीं आनंद के बहते झरने
कहीं छद्मवेशी निकले हैं ठगने
कहीं बहती सुखों की बहार
कहीं रंगीन हंसी के नजारे
कहीं झिलमिलाते आसमान के तारे
कहीं है दुःख की छाई बदली
कहीं दिलों में सुलगते अंगारे.
कहीं फूलों की सेज पर
यौवन खिलखिलाता
कहीं दर्द का दामन समेटे
फिर भी मुस्कराकर गमों को छिपाता
कहीं शिला सा अडिग है जीवन
कहीं फूल सा है कोमल मन
कहीं सात फेरों में बंधे झूठे बंधन
कहीं सपनों की बाट जोहता घर-आंगन.
कहीं झूठे पे्रम को मिलती है सच्ची चाहत
कहीं अपने ही लगाते हैं अपनों पर घात
कहीं धन को सुरा-सुन्दरी में लुटाते
कहीं भूख की तड़प से अबोध जीवन गंवाते
कितने ही रंग हैं इस जीवन के
चटक, मोहक और आंखों को सुख देने वाले
परन्तु कुछ रंग काले पड़ गये हैं
दुखों के साये में!
इसीलिए तो कहती हूं यह दुनिया है दोरंगी.
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राकेश भ्रमर की दो गजलें
उसने यूं ही न च़रागों को बुझाया होगा.
उसकी महफि़ल में कोई चांद भी आया होगा.
मेरी बांहों में वो शायद ही कभी सोयी हो,
उसने आंखों में हंसीं ख़्वाब सजाया होगा.
यूं ही चौखट पे न वो बेसबब खड़ी होगी,
उसने महबूब को मिलने को बुलाया होगा.
छिप के बैठे हैं वो दहशत भरी खामोशी में,
बाज ने आज परिन्दों को डराया होगा.
ये शहर मुद्दतों से तीरगी में डूबा है,
चांद का घर यहां किस-किसने जलाया होगा.
अब यहां दूर तक रुकते नहीं हैं बंजारे,
बस्तियों को यहां तबीयत से उजाड़ा होगा.
2
पत्थर की दीवारों के घर बना रहे हैं लोग.
सबसे जुदा अनोखी दुनिया बसा रहे हैं लोग.
सूरज चाहे कहीं न निकले, चांद न घर में आये,
हवा न पानी, ऐसी दुनिया बसा रहे हैं लोग.
खिड़की रोशनदान नहीं हैं, आंगन-सहन नदारद,
दम घुटता है जहां, उसे घर बता रहे हैं लोग.
गलियां बंद पड़ी हैं, कूचों में भी चलना दूभर,
गूंगे हैं, पर कुछ तो शायद बता रहे हैं लोग.
नीचे ज़मीं नहीं है, ऊपर आसमान भी गायब,
जाने कैसे इसको जन्नत बता रहे हैं लोग.
मूरत रोज पूजते हैं पर घर में सबसे अनबन,
पत्थरदिल वालों की दुनिया बसा रहे हैं लोग.
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