सम्मति सम्मति : शिक्षा और संस्कृति शिक्षा की यात्रा मनुष्य के अस्तित्व के लिए संघर्ष, आत्मविकास, आत्मोथान से लेकर पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम...
सम्मति
सम्मति : शिक्षा और संस्कृति
शिक्षा की यात्रा मनुष्य के अस्तित्व के लिए संघर्ष, आत्मविकास, आत्मोथान से लेकर पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की प्राप्ति तक जाती है। शिक्षा का प्रत्यय स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तक की शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। कबीर ने लिखा हैµ
मसि कागद छूया नहिं, कलम गह्यो नहिं हाथ।
चारों युग को महातम, मुरूहि जनायो बात।।
-कबीर वचनावली, सम्पादक अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, उन्होंने शिक्षा ली नहीं, पर शिक्षित हो गए, उन्हें ‘रामानन्द’ ने दीक्षा दी नहीं, पर वे ‘रामनाम’ से दीक्षित हो गए। अतएव, शिक्षा समाज, सत्संग, वातावरण से मिलती है जिसको आप अपना बना लेंगे, उसमें तन्मय हो जाएंगे, वह आपका हो जाएगा, वह आपको आत्मसात् हो जाएगा। वर्ड्सवर्थ की लूसी ने प्रकृति से तादात्म्य कर लिया है. प्रकृति उसका प्रस्थान बिंदु है, तो गंतव्य भी। फलतः उसको किसी गुरु की अपेक्षा नहीं होती है। वह इब्र, मेघ, लता-वितानों से सीखती है, तदनरूप बनती है। पूर्णता पाती है।
तुलसी के राम को पाने के लिए राम राम रटना पड़ता है। उसे अपने में उतारना पड़ता हैµ ‘बोलत तुमहि तुमहि होई जाई. संसार रूपीविष वृक्ष में दो ही फल हैं। अमृतसम सत्संग और काव्यास्वाद. कबीर ने सत्संग से ज्ञान प्राप्त किया। शिक्षा हमें सिखाती है, सक्षम बनाती है, संस्कारित करती है। यही संस्कार है संस्कृति, जो बाह्यावरण नहीं है, उQपर चमक-दमक नहीं है, आंतरिक परिमार्जन है, आंतरिक परिष्कार है। सभ्यता विचार की भाषा है, संस्कृति आयार की विद्यायिका है। दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में लिखते हैं-
यह न बाह्य उपकरण भार बन,
जो आए ऊपर से।
आत्मा की यह ज्योति फूटती,
सदा विमल अन्तर से।
शिक्षा का संकल्प मनुष्य को मनुष्य बनाना है। मनुष्य का अर्थ है पराई पीर की पहचान, त्याग, समर्पण, सेवा, उत्सर्ग, इसका प्रभात फूटता है अपने को जानने से, पहचानने से। आत्म साक्षात्कार से हो गया, सब कुछ पा गए। करणीय-अकरणीय, विधि-निषेध का भेद आ गया। संस्कृति इसी आत्मा में अवगाहन करना सिखाती है। गीता में आत्मा का एक रूपक है कि वह है नदी, संयम उसका पुण्यतीर्थ है, सत्य उसका जल है, दया की लहरे हैं, शील-मर्यादा के तट हैं। कृष्ण अर्जुन से उसी नदी में अवगाहन, बाहर भीतर से स्नान होना, आप्यायित होना करने का आह्नान करते हैं-
आत्मा नदी संयम पुण्य तीर्था,
सत्योदका शील तटा दयो{र्मि।
तत्राभिषेक कुरु पाण्डु पुत्र
न वारिणा शद्धयति यांतरात्मा।।
जल मात्र से आत्मा शुद्ध नहीं होती है, आत्मा की नदी में बार-बार गोता लगाना पड़ता है। हमारी शिक्षा हमें नौकरी के योग्य बनाती है, आत्म-निर्भर बनाती है यों यह एकांगी किंबा अधूरी है, व्यर्थ है। यह मैकाले का भूत ही है। लेखक उस शिक्षा की प्रतीति पर विरमता है, जो हमारे हृदय-कपाट को खोलकर मनुष्य का अभिनन्दन कराए, इनमें मानव मात्र के प्रति राग पैदा करे, जिसके लिए त्याग-समर्पण की किसी हद तक हम जा सकते हैं।
लेखक ऐसी शिक्षा का आग्रही है, जो मूल्यों पर विरमे, उसकी रक्षा के लिए बलि-बलि जाए। परोपकार पुण्य है, परपीड़ा पाप-यह बोध अन्तर्हृदय को मथ दे, तो सारे मूल्य समा जाएँगे। भौतिकता, आतंकवाद, तनाववाद, उग्रवाद, मूल्यहीन शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा आदि की समस्याओं से निजात मिलेगा। प्रत्येक मनुष्य विवेकपूर्वक अपने दायित्व का बोध कर और उसे पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हो। महात्मा गाँधी लिखते हैं-
फ्तुम दुनिया के उद्धार का उत्तरदायित्व अपने सिर पर मत लो। तुम अपने उत्तरदायित्व का ही पालन निष्ठा से करो, देश का उद्धार होगा।य्
अपने उत्तरदायित्व का अर्थ है अपने आसपास के मनुष्य, समाज, पर्यावरण के प्रति उत्तरदायित्व का पालन करना। एक-एक मनुष्य जगेगा, अपना कर्त्तव्य समझेगा, शिक्षा का प्रकल्प पूर्ण होगा, तज्जन्य संस्कृति का विकास होगा।
डॉ. उपाध्याय ऐसी शिक्षा की आवश्यकता पर बल देते हैं, जिसमें सांस्कृतिक उत्थान का दृढ़ संकल्प है। वहाँ ‘माताभूमि पुत्रो{हम् पृथिव्याः’ का भाव है, समन्वय की चेतना है, सबको साथ लेकर चलने का प्रकल्प है, राग से महाराग की यात्रा साध्य है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की साधना तभी सिद्ध हो सकती है, जब हमारी शिक्षा में मूल्य और संस्कृति की धारा सतत प्रवाहित होती रहे।
मनुष्य के आत्मकेन्द्रण, भौतिकता की ओर बेतहाशा दौड़, राक्षसी वृत्ति के प्रोत्साहन से लेखक को घोर चिन्ता है। अतएव, वह ऐसी शिक्षा का प्रावधान चाहता है, जो मनुष्यता का जागरण करे, सांस्कृतिक उन्नयन करे।
बुद्ध ने कहा था वीणा के तार को न अधिक कसो न अधिक ढीला छोड़ो उसे सम रहने दो। भौतिकता का अति राक्षसी वृत्ति को बढ़ावा देता है, उससे घोर पलायन सन्यास को। दोनों अतियाँ वर्जित हैं, मनुष्य को पतन की ओर ले जाती हैं। अतः न प्रवृत्ति की अधिकता स्वीकार्य है, न निवृत्ति की। दोनों का समन्वय-सन्तुलन आवश्यक है। दिनकर लिखते हैं-
फ्प्रवृत्ति की गाढ़ी स्याही में निवृत्ति का पानी जब तक मिलाया नहीं जाएगा, शान्ति और अध्यात्म की कविता नहीं लिखी जा सकती।य्
पोद्दार अभिन्नदन ग्रन्थ, चार सांस्कृतिक क्रान्तियाँ शान्ति और अध्यात्म के पुष्प शिक्षा जन्य संस्कृति के विटप में वहीं खिलते हैं, जहाँ समन्वय है, सन्तुलन के पारस्परिक सम्बन्ध अवदान के आधार पर देता है। यह कृति गहन-साधना की नवनीत है।
आज की मूल्यहीनता, अपसंस्कृति, मनुष्यता की पराजय आदि ज्वलंत समस्या का उत्तर लेखक ने दिया है। टी.एस. इलियट ने प्रतिभाशाली का लक्षण लिखा है कि उसकी मनीषा भोग और सृजन में अंतर कर पाती है। यह अन्तर जितना गहन होता है, कलाकार उतना ही महान् और लेखक में यह अन्तर है। ऐसी कृति को देखकर आचार्य की वाणी है ‘पश्य देवस्य काव्यम् न ममार जीर्यते।’
डॉ. मृत्युंजय उपाध्याय
प्रोफेसर एवं पूर्व हिन्दी-विभागाध्यक्ष,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारी बाग
आपातकालोत्तर हिन्दी कविता
चुनौती के स्वर
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय जागरूक विचारक एवं अध्ययवसायी विद्वान हैं। वे निरन्तर समाज और साहित्य से जुड़े विषयों पर चिन्तन कर अपनी प्रखर लेखनी चलाते रहे हैं। उनकी समर्थ चौदहवीं समीक्षाकृति समीक्षाकृति ‘आपातकालोत्तर हिन्दी कविता : परिवेशगत सन्दर्भ’ हमारे सामने हैं। इसका विषय और प्रस्तुति-प्रक्रिया, दोनों विचारणीय हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त हमारे राष्ट्रीय जीवन में कई महत्वपूर्ण मोड़ आए हैं, जिन्होंने जीवनधारा को संवारने का उल्लेखनीय कार्य किया है। आपातकाल के अप्रिय बोध ने देश को एकाएक अनचाही आशंका से ग्रस्त कर दिया था। पड़ोसी देशों में तानाशाही का ताण्डव हम देखते ही आ रहे थे। उसकी झलक आपातकाल में यहां पाकर हमारा सिहर उठना नितान्त स्वाभाविक था। उससे छुटकारा पाने पर भी, राजनीतिक-सामाजिक जीवन में विचित्र बिखराव देखने में आया। राजसत्ता, पूंजीपति और नौकरशाही के गठबन्धन ने देश की स्वायत्तता के लिए नया संकट उपस्थित कर दिया और हमारे अस्तित्व को ललकारा था। उस युग की कविता ने इस चुनौती का अपने ढंग से सामना किया और जन-मन की गहन पीड़ा को निराली अभिव्यक्ति दी है।
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने मनोयोगपूर्वक आपाताकालोत्तर हिन्दी कविता की इस देन की संजोया और उसका सटीक विश्लेषण-विवेचन किया है। हिन्दी काव्य समीक्षा धारा में यह कार्य उल्लेखनीय होगा। इस आशा के साथ मैं उपाध्याय जी की इस नवकृति का हिन्दी जगत् में स्वागत करता हूँ।
23.7.2007 डॉ. शशिभूषण सिंघल
पूर्व प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय
रोहतक (हरियाणा)
परम्परा और प्रयोग
अनुंशसा
समकालीन साहित्य-समीक्षा के साहित्यानुशीलन के क्षेत्र में समन्वयवादी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय की एक अलग पहचान बन चुकी है। इनकी बरीब दर्जन भर समीक्षा कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘शिक्षा और संस्कृति’ पर निबन्ध संग्रह भी गतवर्ष प्रकाशित हुआ था। ‘मिथकीय समीक्षा’ पर साहित्य-सर्जना सम्मान से डॉ. उपाध्याय हिन्दी संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुके हैं। ग्रंथायन प्रकाशन द्वारा वर्ष 2004 का साहित्य भी सम्मान भी डॉ. उपाध्याय को प्राप्त हो चुका है। इधर अनेक सम्मान एवं पुरस्कार इनको प्राप्त हुए हैं। डॉ. उपाध्याय तटस्थवादी विचारधारा के समन्वयशील समीक्षक हैं जिनकी समीक्षा कृतियों में सामंजस्यवादी तत्वों का समाहार मिलता है। सामंजस्य ही सौन्दर्य है, को डॉ. उपाध्याय का समीक्षक येन-केन प्रकारेण सिद्ध और प्रमाणित करने में निपुण हैं।
‘परम्परा और प्रयोग’ कृति पैंतीस समीक्षात्मक निबन्धों का संग्रह है जिसमें भारतीय भाषाओं में समन्वयवादी तत्व से श्रीगणेश किया गया है। प्रथम आठ निबन्ध भाषायी सम्पदा के द्योतक सिद्ध हुए हैं जिनमें राष्ट्रभाषा तथा सम्पर्क भाषा हिन्दी को स्थापित करने का प्रयास किया गया है। गीतिकाव्य की परम्परा और परिवेश को ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विवेचित किया गया है जिसमें गीतिकाव्य की परम्परा और नीरज, नीरज के प्रेमगीतः नव्य आयाम तथा नीरज की गीतिकाएँ शीर्षकान्तर्गत विवेचन-विश्लेषण गवेषणात्मक शैली में स्वच्छदतावादी रुझान से किया गया है। हिन्दी दोहा को समसामयिक परिप्रेक्ष्य में निरखने-परखने का एक नव्य प्रयास रहा है।
‘परम्परा और प्रयोग’ मात्र कृति का उपयुक्त एवं सार्थक शीर्षक ही नहीं अपितु अंतिम आलेख भी है जिसमें साहित्यानुशीलन की लंबी परम्परा को अनेक साहित्यिक विधाओं के परिपार्श्व में नव्य प्रयोग के साथ लेखक ने रेखांकित किया है। मानवीय मूल्यों, राष्ट्रीय चेतना, शैक्षिक-परिवेश, सांस्कृतिक चेतना, पर्यावरणीय संतुलन आदि विषयों पर युगबोध के साथ प्रस्तुति दी गई है जिससे समीक्षक के व्यापक दृष्टिकोण का पता लगाया जा सकता है। हिन्दी भाषा और साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में यह कृति एक नए क्षितिज का विस्तार करने में सर्वथा सक्षम है जिसके लिए डॉ. उपाध्याय बधाई के पात्र हैं। मुझे आशा एवं विश्वास है हिन्दी साहित्य में यह कृति स्वागत योग्य है। मैं डॉ. उपाध्याय के साहित्यिक योगदान की अनुशंसा करता हूं।
पद्मभूषण गोपालदास ‘नीरज’
कुलाधिपति मंगलायत विश्वविद्यालय, अलीगढ़
डॉ. उपाध्याय की प्रतिभा सम्पन्नता, सेवा समर्पण की क्षमता, दक्षता, परिश्रमशीलता, कार्यकुशलता, उत्साही रुचि-रुझान की जागरूकता, रेगुलैटरी-पंक्चुऑल्टी आदि ने एक कुशल प्रशासक की स्वच्छ छवि का द्योतन किया है. हिन्दी साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में डॉ. उपाध्याय ने एक दर्जन से अधिक मानक कृतियों का प्रणयन किया है जिनकी ‘मिथकीय समीक्षा कृति उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साहित्य सर्जना पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुकी है. डॉ. उपाध्याय प्रशासनिक दायित्यों का पूर्णरूपेण निर्वहन करते हुए साहित्य सेवा में आज भी समर्पित हैं. मैं उनके साहित्यिक अवदान की अनुशंसा करते हुए उज्जवल भविष्य की मंगल कामना करता हूं.
उमेश चन्द्र तिवारी
आई.ए.एस.
जिलाधिकारी महामायानगर
04.04.2008
आदरणीय डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय जी,
सादर नमस्कार
‘चेतना के स्वर’ निबन्ध संग्रह पर आपका उच्च सीमा पर लिखा चमत्कारी लेख प्राप्त हुआ। इस लेख का विकल्प, असम्भव है। आपकी प्रतिभा के आयतन को कोई नहीं छू सकता। बधाई!
दूरभाष पर हुई बातचीत के सन्दर्भ में अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘समय से संवाद’ भेज रहा हूँ। कृपया अध्ययनोपरान्त एक लम्बा मूल्यांकनपरक लेख (पृष्ठ सीमा नहीं) तैयार करके भेज दें। आपका लेख ग्रन्थ के महत्व को बहुगुणित करेगा। ग्रन्थ में आपके दो लेख मणि की तरह चमकेंगे।
आपका अपना ही,
डॉ. अमरसिंह वधान
निदेशक, उच्चतर शिक्षा एवं शोधकेन्द्र
चण्डीगढ़ (160023)
(प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, भारतीय वाघ्मयपीठ, कोलकाता.)
पशुपति शिव पालक रहे, सदा शिवपुरी वास।
उनको क्या अन्तर रहा, चाहे वास प्रवास।।
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय के पास पाठक के अन्तस्थल को छूने की अदृभुत क्षमता है। इसी क्षमता का उन्होंने विकास किया है और उसी क्षमता का परिचय उन्होंने अद्यतन काव्य की प्रवृत्तियाँ पुस्तक में दिया है। इस पुस्तक में उन्होंने आधुनिक काव्यालोचना के विभिन्न आयामों को तलस्पर्शी ढंग से छुआ है और आधुनिक हिन्दी साहित्य के विकास यात्रा का गम्भीर दिग्दर्शन प्रस्तुत किया है।
12.2.2000 डॉ. विद्यानिवास मिश्र
एम-3, बादशाहबाग
वाराणसी-221002
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय आधुनिक हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में बड़े मनोयोगपूर्वक साधना कर रहे हैं। उनकी नई समीक्षा पुस्तक ‘अद्यतन काव्य की प्रवृत्तियाँ’ में उन्होंने अभिधेयार्थ में अद्यतन विकास का ऐतिहय हिन्दी काव्य के सन्दर्भ में, विशेष रूप से नए काव्य रूपों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है।
(प्रो.) डॉ. विश्वनाथ शुक्ल
अलीगढ़
हिन्दी-समीक्षा के क्षेत्र में डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय अपनी कारयित्री प्रतिभा के बल पर एक अलग स्थान बना चुके हैं। इनकी एक दर्जन से अधिक समीक्षात्मक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। समीक्षात्मक कृतियों के प्रणेता डॉ. उपाध्याय के दो निबन्ध-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। ‘परम्परा और प्रयोग’ तथा ‘शिक्षा और संस्कृति’ ग्रन्थ डॉ. उपाध्याय को निबन्धकार के रूप में स्थापित करते हैं। उ. प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा समीक्षात्मक कृति ‘मिथकीय समीक्षा’ पर इन्हें साहित्य-सर्जना सम्मान एवं पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है विषम परिस्थितियों में प्रशासनिक दायित्वों का बखूबी निर्वहन करते हुए डॉ. उपाध्याय ने साहित्य-साधना एवं साहित्य-सर्जना को एक तपश्चर्या एवं चुनौती के रूप में स्वीकार किया है।
मुझे खुशी है- ‘शिक्षा और संस्कृति’ निबन्ध संग्रह पर उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा डॉ. उपाध्याय को गुलाब रायµ साहित्य-सर्जना-पुरस्कार 2005 से सम्मानित किया गया है। मैं, डॉ. उपाध्याय की साहित्य-साधना की अनुशंसा करते हुए ईश्वर से कामना करता हूं कि इनकी साहित्यानुशीलन की वृत्ति अनवरत चलती रहे।
अनंत मंगल शुभकामनाओं सहित
23.1.2009 डॉ. शन्ति स्वरूप गुप्त
पूर्व कुलपति, आगरा विश्वविद्यालय
आगरा
एक अन्तर्वीक्षा
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय के द्वारा विरचित ‘हिन्दी साहित्य की विविध विधाएँ’ पुनः सर्जना तथा सैद्धान्तिक व्यवस्था की दृष्टि से नितान्त मौलिक कृति है। हिन्दी की विविध विधाओं पर परम्परागत बहुत कुछ लिखा गया है और लिखा जा रहा है, फिर भी समय और परिस्थिति के बदलते हुए आयामों से सदा ही पुनरावलोकन की आवश्यकता बनी रहती है। डॉ. उपाध्याय ने कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना आदि सभी साहित्यक-विधाओं का नई प्रतिपत्तियों के साथ पुनर्मूल्यांकन किया है तो दूसरी ओर काव्य के गीत, गजल, दोहा, हाइकू (त्रिपदीसाहित्य) आदि अनेक रूपों एवं तन्निष्ठ प्रयोगों पर परिणाही चिन्तन प्रस्तुत किया है। मुझे नहीं लगता कि आलोचना के क्षेत्र में इस ग्रन्थ से कुछ भी अपेक्षित कार्य नजरअंदाज हुआ है।
सबसे महत्वपूर्ण दृष्टि तुलनात्मक है जो ऐतिहासिक ही नहीं, गुणात्मक भी है। हर काव्यविधा को उसकी पृष्ठभूमि और विकास के साथ अंतिम परिणति तक पहुंचाया गया है, साथ ही उसकी भविष्यत् सम्भावनाओं को खोजने में नितान्त पारदर्शिता को रेखांकित किया गया है। कहा जाता है कि सबकी प्रशंसा किसी की प्रशंसा नहीं होती, इसीलिए डॉ. उपाध्याय ने एक तत्त्वान्वेषी के रूप में पुराने-नए लेखकों और आलोचकों के अपेक्षित अवदानों की अर्हता को सामने रखकर ही उन पर फतवा दिया है। यह पद्धति जितनी साहसिक है उतनी ही मूल्यांकन की उच्चता प्रमाणित करती है।
विज्ञान और वाघ्मय की संक्रान्ति और व्यापक संचार-व्यवस्था की दृष्टि से विश्व का दायरा दिन प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है। हर चीज हर एक जगह मौजूद है और वह भी प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता के साथ। इसका असर समाज के साथ-साथ साहित्य पर भी पड़ रहा है। यही हाल रहा तो भविष्य में देश-विदेश का अन्तर केवल पाठ्य पुस्तकों में रह जाएगा। एक समय था जब पश्चिम का रोमांटिसिज्म भारतीय साहित्य में छायावादी रहस्यवाद के प्रच्छन्न अभिधान में दिखाई दिया था जो ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि सर्वकालीन काव्य सृष्टि बन गया. कारण, यह भारतीय संस्कृति की पाचन-शक्ति का परिपक्व फल था। इस दृष्टि से डॉ. उपाध्याय ने जो ‘हाइकू’ (त्रिपदीयकाव्य) काव्य विधा का इतिहास और चिन्तन प्रस्तुत किया है वह विद्रावक न होकर रसश्रावक है, क्योंकि यह जापानी वेष में होते हुए भी मूलतः भारतीय जैन संस्कृति से अनुप्रेरित है।
इस ग्रन्थ को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय एक व्यक्ति ही नहीं अपितु एक बहुश्रुत व्यक्तित्व हैं। पल्लवग्राही पाण्डित्य के विरुद्ध इन्होंने हर बात को बड़ी गहराई और व्यापकता के साथ उजागर किया है। इसके लिए प्रतिभा और अध्यवसाय दोनों की आवश्यकता है जो ग्रन्थ में आदि से अन्त तक देखने को मिलती है। चिन्तन और अभिव्यक्ति की दृष्टि से यह ग्रन्थ इतना ऊँचा है जितना कोई भी मानवता का ऊर्ध्वमुखी प्रयत्न। निश्चय ही वह कृति मुख्यतः विद्यार्थियों के लिए और विशेषतः जिज्ञासुओं के लिए पठनीय और संग्रहणीय है।
डॉ. शंकर देव शर्मा ‘अवतरे’
10.4.2011
एच-54 ज्योतिनगर (पश्चिम)
लोनी रोड, दिल्ली-94
शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम होशंगाबाद (म.प्र.) द्वारा डॉ. पशुपति नाथ उपाध्याय को उनकी साहित्यक सेवाओं के लिए ‘समीक्षा-सौरभ’ अलंकरण प्रदान किया गया-
काव्याभिनंदन
पशुपति प्रभु प्रसाद से जन्मे श्रीयुत पशुपतिनाथ।
सोना माँ घरभरन पिता का उन्नत करने माथ।।
सन् पचास का माह जनवरी, रामनगर, बलिया में।
नव प्रसून ने आंखें खोली उपाध्याय बगिया में।।
पी.एच.डी.डी. लिट्. की डिग्रियां ले श्री उपाध्याय।
बागला कॉलेज प्रमुख हाथरस हुए प्रधानाचार्य।।
हुई प्रकाशित समालोचना कृतियां लगभग बीस।
लेखन सम्पादन में भी ये रहे नहीं उन्नीस।।
रचनाएं हो रहीं प्रकाशित यत्र-तत्र सर्वत्र।
इनमें प्रमुख समीक्षाएं आलेख शोध-युत पत्र।।
ऐसे प्रखर समीक्षक लेखक का कर गौरव गान।
परिषद भेंट ‘समीक्षा-सौरभ’ दे करती सम्मान।
जनवरी 2010
महिमाकांक्षी
संस्थापक गिरिमोहन गुरू
शिव संकल्प साहित्य परिषद होशिंगाबाद (म.प्र.)
आत्मतत्व शोधयामि
भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक चेतना जागरित करने की अंतिम स्रोत है। मानव का आत्म कल्याण आध्यात्मिक चेतना जागरित करने में है, विश्व बन्धुत्व की भावना प्रसारित करने में है तथा आत्मतत्व के प्रसार-प्रसार एवं शोधन में है। मानव जीवन का सफल, समृद्ध, सशक्त एवं आत्मावलम्बन ही मानव जीवन की सफलता के शोधन परिमाजन एवं अर्जन में हैं, अहंकार के विसर्जन में है तथा संस्कारों के सर्जन में एवं सदृवृत्तियों के अर्जन में है।
(डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय)
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