समीक्षा तलस्पर्शी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय डॉ. राकेश गुप्त आधुनिक हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में बहुआयामी प्रतिभा के धनी, तटस्थतावादी प्...
समीक्षा
तलस्पर्शी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
डॉ. राकेश गुप्त
आधुनिक हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में बहुआयामी प्रतिभा के धनी, तटस्थतावादी प्रवृत्ति को अंगीकार करने वाले, कृति की वृत्ति पर आधृत सम्यक् मूल्यांकन करने वाले तलस्पर्शी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय हैं, जिन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कृतियों के माध्यम से हिन्दी आलोचना का क्षेत्र विस्तार किया है। उनके एक दर्जन से अधिक ग्रन्थ आलोचना विधा पर प्रकाशित हो चुके हैं, जिनसे हिन्दी आलोचना की श्रीवृद्धि तथा अभिवृद्धि हुई है। मनीषी लेखक ने ‘हिन्दी आलोचना’ : विकास एवं प्रवृत्तियां’ ग्रन्थ में भारतेन्दु युग से लेकर हिन्दी आलोचना के अद्यतन विकास पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित प्रकाश डाला है। वहीं, दूसरे अध्याय में उन राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का दिग्दर्शन एवं विवेचन है, जिनके घात-प्रतिघात से हिन्दी आलोचना का स्वरूप विकसित, प्रभावित एवं सर्जित हुआ है। तृतीय अध्याय में स्वच्छन्दतावादी, मनोविश्लेषणवादी, प्रगतिवादी रसवादी, प्रयोगवादी आदि आलोचना के तेरह प्रवृत्तियों के सम्यक् निदर्शन के उपरान्त उसके उस संश्लिष्ट स्वरूप का विवेचन है, जिसमें आवश्यकता अनुसार सभी रूपों का समन्वय हो जाता है। स्पष्ट रूप में रूप में प्रतिभासित होता है कि लेखक इसी समन्यवादी आलोचना का साग्रह पक्षधर हैं। ‘समन्वयवादी आलोचना’, ‘समन्वयवादी समीक्षा’ और डॉ. नगेन्द्र, तथा ‘समन्यवादी आलोचना : नव परिप्रेक्ष्य’ नाम से उनके तीन समीक्षात्मक ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं।
हिन्दी साहित्य की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए ‘हिन्दी आलोचना : विकास एवं प्रवृत्तियां’ ग्रन्थ की उपयोगिता असन्दिग्ध है। इसी विषय पर आगे कार्य करने वाले सुधी लेखकों के लिए यह ग्रन्थ निश्चित ही दिशा-निर्देश देने वाला सिद्ध होगा। प्रस्तावना में समीक्षक ने स्वयं स्पष्ट किया है कि ‘समन्वयवादी आलोचना वह आलोचना है, जिसमें सामंजस्य को समन्वय तथा सौन्दर्य के पर्याय के रूप में देखा गया है’ जिसमें पाश्चात्य एवं भारतीय समीक्षा शास्त्र के सिद्धान्तों का समन्वय अभीष्ट है। अधिकांशतः हिन्दी आलोचनकों ने इस पद्धति को अंगीकार किया है और आलोचना जगत के लिए यह उपादेय सिद्ध होगीµ इसकी भी अपेक्षा की गई है। आज के तेजी से बदले हुए परिवेश में प्रत्येक आलोचक के सम्मुख मूल्यबोध, जीवनादर्श एवं समसामयिक परिप्रेक्ष्य की चुनौती है। वर्गभेद की खाई में वह पड़ना नहीं चाहता। समकालीन दायरा उसका विस्तृत है। वह संकीर्णता से मुक्त होकर तटस्थतावादी दृष्टि अपनाकर कृति का मूल्यांकन समन्वयवादिता के धरातल पर करना चाहता है ताकि वह कृति, कृतिकार एवं समीक्षा-साहित्य के साथ न्याय कर सके।’ डॉ. रामचन्द्र प्रसाद ने ठीक ही कहा है कि, ‘डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने मनोविश्लेषणवादी, रसवादी और सौन्दर्यवादी आलोचना के समन्वयवादी तत्वों का व्यापक एवं विश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है, उन्हें पूरी तन्मयता और विवृत्ति दी है और समन्यवादी आलोचना की मूल्यवत्ता और सम्भावनाओं को परखने की सफल चेष्टा की है।’
हिन्दी आलोचना सम्प्रति समस्त साहित्यांगों में अपना क्षेत्र-विस्तार कर चुकी है। आरम्भ में यह मात्र काव्यालोचन, पुस्तक रिव्यू तक ही सीमित थी। किन्तु अब कथा-साहित्य, नाट्य साहित्य, उपन्यास, समीक्षा, संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा, जीवनी, रिपोर्ताज, वक्तव्य, साक्षात्कार, भंटवार्ता, अभिभाषण आदि अनेक विधाओं में प्रवेश कर चुकी है। पद्मभूषण डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ ने डॉ. उपाध्याय को तटस्थावादी वृत्ति के समन्वयशील समीक्षक के रूप में स्वीकार किया है। डॉ. नीरज के शब्दों में, ‘समकालीन साहित्य-समीक्षा के साहित्यानुशीलन के क्षेत्र में समन्वयवादी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय की एक अलग पहचान बन चुकी है। उनकी दर्जन भर कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। डॉ. उपाध्याय तटस्थतावादी विचारधारा के समन्वयशील समीक्षक हैं, जिनकी समीक्षा कृतियों में सामंजस्यवादी तत्वों का समाहार मिलता है।’
डॉ. उपाध्याय का आशय मात्र दो या दो से अधिक मतों या काव्य-सिद्धान्तों के समन्वय से न होकर, अनेक सिद्धान्तों व विचारधाराओं के समीकरण से भी है क्योंकि समन्वयवाद आलोचना मूल रूप से सामंजस्य पर आधारित होती है। इसका आधार है मिलन। मिलन एक विशेष प्रकार की चित्तवृत्ति होती है, जिसमें अनेक वृत्तियों का समीकरण होता है। डॉ. उपाध्याय की अवधारणा है कि ‘अव्यवस्थाओं में व्यस्था’, ‘अनेकता में एकता’ की स्थापना ही समन्वयवादी आलोचना का मुख्य ध्येय होता है। एक ओर, डॉ. उपाध्याय ने डॉ. रामदरश मिश्र के कथन से सहमति व्यक्त की है कि ‘हिन्दी में कभी-कभी समन्वय, सामंजस्य, सम्मिश्रण आदि शब्दों का प्रायः पर्यायवाची मानकर एक ही अर्थ में प्रयोग होता है। परस्पर में आपाततः विरुद्ध प्रतीत होने वाले वस्तुओं के प्रतीयमान विरोध का निषेध-करके उनके मूल में विराजमान अभेद सत्ता तथा उनके तत्त्वों के अविरोधी स्वरूप का साक्षात्कार ही वास्तविक समन्वय है।’ दूसरी ओर, डॉ. नगेन्द्र की इस स्थापना से भी परितोष का अनुभव किया है कि ‘कला का आधारभूत सिद्धान्त है सामंजस्य। अनेकता में एकता की स्थापना क्योंकि ‘अन्तरवृत्तियों’ के समन्वय करने के कारण ही यह प्रक्रिया अपने आप में सुखद होती है। इसे ही कला, सृजन या सौन्दर्य की सृष्टि का आनन्द कहते हैं।’
तलस्पर्शी तटस्थतावादी सम्यक् आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालते हुए प्रो. रामचन्द्र प्रसाद ने भी डॉ. उपाध्याय की सन्तुलित सूक्ष्मानुशीलन की दृष्टि को रेखांकित करते हुए कहा है कि ‘साहचर्य और सामंजस्य का मिलित स्वर ही समन्वयवादी आलोचना में मुखरित होता है। बड़े ही निस्संत भाव से इन लेखकों ने शुक्ल जी की आलोचना के एक महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य का उल्लेख किया है। डॉ. उपाध्याय की तरह उस वैशिष्ट्य का विधिवत् परीक्षण नहीं किया। इस दृष्टि से ‘डॉ. उपाध्याय’ हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने इस व्यापक आलोचना प्रवृत्ति को उचित वैचारिक परिप्रेक्ष्य में रखकर आलोकित किया है, उसका यथाशक्य मर्मोद्घाटन किया है। यह एक ऐसा परिप्रेक्ष्य है, जिसमें समन्वयवादी आलोचना के सभी पक्ष-विपक्ष उजागर हो जाते हैं और जिसमें संकीर्णता का कोई स्थान नहीं रह जाता।’
‘समन्वयवादी समीक्षा और डॉ. नगेन्द्र’ कृति का प्रणयन भी डॉ. उपाध्याय ने समन्वयवादी रुचि व रुझान के साथ किया है। यही कारण है कि डॉ. रामदरश मिश्र ने पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘डॉ. उपाध्याय को लगता है कि यदि डॉ. नगेन्द्र को समन्वयवादी आलोचक कहा जाए तो इसमें सबका समाहार हो जाएगा। इसी दृष्टि से विद्वान लेखक ने डॉ. नगेन्द्र की आलोचना के सारे आयामों का आंकलन करते हुए उनकी समन्वित दृष्टि की पहचान की है। यह डॉ. नगेन्द्र की मूल आलोचना-दृष्टि को समझने तथा उनके समग्र आलोचना-कर्म का आकलन करने वाली प्रभावशाली पुस्तक है।’
समन्वयवादी आलोचना के लक्षण को डॉ. उपाध्याय ने बड़े ही विस्तार से विवेचित किया है क्योंकि ‘समन्वयवादी आलोचना हिन्दी आलोचना की वह पद्धति है, जिसमें पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त का प्रत्यक्ष एवसं परोक्ष प्रभाव लक्षित होता है, जिसमें दो या दो से अधिक आलोचना पद्धतियों का समीकरण प्रतिबिम्बित होता है। यह आलोचना पद्धति साहित्य या कला को पर्याय के रूप में स्वीकारती है तथा काव्य प्रतिमान ही समीक्षा के मान सिद्ध होते हैं। यह आलोचना सामंजस्य को सौन्दर्य का पर्याय घोषित करती है तथा ‘सौन्दर्य ही सामंजस्य है’µ ‘सामंजस्य ही समन्वय है’- को भी प्रकारान्तर से काव्य-मूल्यांकन का प्रतिमान सिद्ध करती है। समन्वयवादी आलोचना एक व्यापक दृष्टि रखती है, जिसमें विरोध की कोई गुंजाइश नहीं होती। यह आलोचना एक संतुलित एवं सम्यक् दृष्टि से रूपायित आलोचना-पद्धति है, जिसमें व्यापकता के साथ पारस्परिक सामंजस्य स्थापन की भावना निहित होती है। इसमें सौन्दर्यानुभूति ही प्रकारान्तर से रसानुभूति बन जाती है, जिसमें भेद में अभेद तथा अनेकता में ऐक्य स्थापन की भाव सम्पदा विद्यमान रहती है। इसमें सहिष्णुता, समभाव, सन्तुलन तथा उदारता आदि नैतिक मूल्यों का समाहार दृष्टिगोचर होता है। समन्वयवादी आलोचना समग्रता की हिमायती है तथा सार्वभौमिकता की आग्रही। समन्वयवादी आलोचना साहित्य की विभिन्न चिन्तन-दृष्टियों का समन्वय भावतत्व, विचारतत्व एवं संरचना के आधार पर करती है। इस प्रकार समन्वयवादी आलोचना भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के संश्लिष्ट सिद्धान्त सूत्रों के सम्मिश्रण एवं समन्वित रूप की विकसित अवस्था है।’ डॉ. उपाध्याय ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस कथन से सहमति व्यक्त की है कि ‘सौन्दर्य असल में वस्तु की समग्रता की अनुभूति है।’
समन्वयवादी आलोचना में डॉ. उपाध्याय ने भारतीय और पाश्चात्य पद्धतियों का समन्वय तो स्वीकार किया ही है_ रस और ध्वनि की समन्विति को भी रेखांकित किया है, जिसमें परम्परा और प्रगति की व्याप्ति भी देखने को मिली है। उन्हीं के शब्दों में ‘समन्वयवादी आलोचना पाश्चात्य एवं भारतीय, नव्य एवं प्राच्य, नीतिवादी और कलावादी, यथार्थ और कल्पना आदि से सम्बन्धित मतों को समन्वित करने का प्रयास करती है। पाश्चात्य समीक्षा की काव्यानुभूति, जो सौन्दर्यानुभूति का पर्याय है, ने विशेष रूप से आधुनिक भारतीय मनोविज्ञान के तादात्म्य में रस से परिपुष्ट होकर सामंजस्य स्थापित किया है। समन्वयवादी आलोचना की पारिधि अपेक्षाकृत अधिक व्यापकता लिए हुए हैं, जो संतुलित दृष्टि की परिचायक, अतिवादों से यह पूर्णतः मुक्त होती है। उसमें स्वतः चिन्तन की निर्विरोध परिणति होती है। यह आलोचना परम्परा और प्रगति, परम्परा और नवीनता में सामंजस्य की आकांक्षी होती है। यह परिष्कृत एवं विकसित काव्यदृष्टि है, जो एकात्म की संवाहिका है। यह साहित्य को बिकासोन्मुख बनाने में विश्वास रखती है। रस-सिद्धान्त का मूल स्वर ही इसका स्वर होता है। ध्वनि और रस एक-दूसरे में समाहित हैं। अभिव्यक्ति का सौन्दर्य ही सामंजस्य है और वही रसानुभूति यहां सिद्ध होती है। श्रेय और प्रेय के एकात्म द्वारा उपयोग और आनन्द, शिव और सत्य तथा सुन्दर विषयक काव्य-मूल्यों को समन्वित करने वाली यह समन्वयवादी आलोचना है।’ स्पष्टतः कहा जा सकता है कि कला, कलाकार के आनन्द की श्रेय और प्रेय तथा आदर्श और यथार्थ को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति को डॉ. उपाध्याय के समीक्षक ने पुरजोर विश्लेषित करने का सद्प्रयास किया है।
आधुनिक हिन्दी आलोचना में डॉ. उपाध्याय की कई महत्वपूर्ण कृतियां आलोचना क्षेत्र को विस्तार दे रही हैं, जिसमें चरितमूलक समीक्षा का प्रतिनिधित्व करने वाली कृति ‘आलोचक डॉ. नगेन्द्र : कृतित्व के विविध आयाम’ हैं। ‘समन्वयवादी आलोचना’, ‘शुक्लोत्ततर समीक्षा के नए प्रतिमान’, ‘समन्वयवादी समीक्षा और डॉ. नगेन्द्र’, ‘हिन्दी आलोचना : विकास एवं प्रवृत्तियां, ‘समन्वयवादी आलोचना : नव्य परिप्रेक्ष्य’ सैद्धान्तिक आलोचना के जीवंत दस्तावेज हैं। उनकी अन्य समीक्षात्मक कृतियों में ‘अद्यतन काव्य की प्रवृत्तियां’, ‘मिथकीय समीक्षा’ (पुरस्कृत), ‘शिक्षा और संस्कृति (पुरस्कृत), ‘गोपालदास नीरज : सृष्टि और दृष्टि’, ‘हिन्दी आलोचना : बदलते परिवेश’, ‘आपातकालोत्तर हिन्दी कविता’, ‘हिन्दी नाटक एवं रंगमंच’ तथा ‘सांस्कृतिक प्रदूषण : वैश्विक परिदृश्य हैं, जिनसे हिन्दी आलोचना साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है।
निबन्ध विधा पर दो मानक कृतियों के प्रकाशन ने डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय को निबन्धकार के रूप में स्थापित कर दिया है, इनमें से ‘शिक्षा और संस्कृति’ पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘बाबू गुलाबराय साहित्य सर्जना पुरस्कार’ प्रदान किया गया है और दूसरी निबन्ध कृति ‘परम्परा और प्रयोग’ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्वीकारी जा चुकी है। इस प्रकार डॉ. उपाध्याय का सर्जक साहित्यकार निबन्ध विधा को अंगीकार कर अपनी प्रखर प्रज्ञा का परिचय देने में अप्रतिम रहा है।
प्रशासनिक दायित्व निर्वहन करते हुए बहुत कम साहित्यकार इतनी दु्रतगति से साहित्य-सर्जन करते हुए देखे गए हैं। डॉ. उपाध्याय निरन्तर लिख रहे हैं और अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में उनके सारगर्भित आलेख, समीक्षाएं आदि भी प्रकाशित होते रहे हैं। 1999 से 2001 तक भाषा पत्रिका के वार्षिकी के अंकों में डॉ. उपाध्याय के ‘हिन्दी आलोचना’ पर आलेख निरन्तर प्रकाशित हुए हैं, जो एक कीर्तिमान है। इसके अतिरिक्त भी उनका लेखन एवं प्रकाशन सतत जारी है, प्रशंसित होता रहा है। डॉ. उपाध्याय के सर्वेक्षण एवं शोध आलेख ‘भाषा’ के साथ ही ‘साहित्य सागर’ में भी प्रमुख स्थान पाते रहे हैं जिससे उनकी सतत सक्रिय लेखनी की क्षमता-दक्षता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।’
मैं डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय को उनकी साहित्यिक लब्धि पर हार्दिक बधाई देता हूं, तथा परमपिता परमेश्वर से उनकी दीर्घायु की कामना करता हूं।
सम्पर्क : सर्वोदय नगर, सासरनी गेट
अलीगढ़, (उ.प्र.) 202001
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