परिशिष्ट साहित्यकार डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय पर विशेष पारिवारिक परिचय जन्म : पहली जनवरी, 1950, पूर्वांचल ग्राम- रामनगर, जनपद- बलिया (उ.प्र.) श...
परिशिष्ट
साहित्यकार डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय पर विशेष
पारिवारिक परिचय
जन्म : पहली जनवरी, 1950, पूर्वांचल ग्राम- रामनगर, जनपद- बलिया (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए., एम.एड., पी.एच.डी, डी.लिट.
अध्यापन : कैमथल अलीगढ़ में अंग्रेजी प्रवक्ता पद पर सेवारत 8 जुलाई 1972 से 24 फरवरी 2000 तक। कार्यवाहक प्रधानाचार्य के पद पर 1979 में लगभग एक वर्ष तक सेवारत।
प्रशासनिक अनुभव : 25 फरवरी 2000 से 30 जून 2010 तक बागला कॉलेज हाथरस में प्रधानाचार्य पद पर सेवारत। 30 जून 2010 को प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर साहित्य-सृजन में समर्पित।
पत्नी : श्रीमती बिमला उपाध्याय, प्रधानाध्यापिका, विमल विद्या निकेतन, शिवपुरी, अलीगढ़
जेष्ठ पुत्र : अविनाश उपाध्याय, कमीशन्ड इंजिनियर, स्थायी सेवारत, इंग्लैंड, यूके।
पुत्रवधु : डॉ. अवन्तिका उपाध्याय, एम.ए., पी.एच.डी., यूके.
पौत्री : अनन्या उपाध्याय, अध्ययनरत यूके
पौत्र : अरिंजय उपाध्याय, अध्ययनरत यूके
कनिष्ठ पुत्र : अनुपम उपाध्याय-मैसर्स बालाजी इन्टरप्राइजेज, अलीगढ़
पुत्रवधु : श्रीमती चन्द्रकिरण उपाध्याय, एम.ए.
पौत्री : अनिका उपाध्याय, अध्ययनरत
पौत्र : अनिकेत उपाध्याय, अध्ययनरत
पुत्री : स्मिता उपाध्याय - कैलिफोर्निया-अमेरिका में स्थायी रूप से सेवारत।
अन्य सेवा : अध्यक्ष- विमल विद्या निकेतन, शिवपुरी, अलीगढ़
अध्यक्ष- शिक्षा प्रसार समिति अलीगढ़
प्रवास यात्रा : 16 मई 2016 से 16 अगस्त 2016 तक यूके प्रवास एवं ब्रिटेन प्रवास के नब्बे दिन तथा यात्रा वृतान्त : सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य कृतियों का लेखन।
अन्य साहित्यिक उपलब्धि :
1. समन्यवादी समीक्षा में डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का योगदान विषय पर सिंघानिया विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. प्रदान की गई।
2. ‘पशुतिनाथ उपाध्याय’ : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कृति डॉ. रोशनी देवी द्वारा 2018 में लिखी गई और प्रकाशित हुई है।
जीवनवृत्त
मेरा जीवनवृत्त
लेखक का जन्म पहली जनवरी सन् 1950 ई. में उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के रामनगर गांव में हुआ था। यही वह जनपद है जहाँ राष्ट्रप्रेमी और स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी श्री मंगल पाण्डेय राष्ट्रप्रेम की बेदी पर शहीद हो गए।
लेखक की इण्टरमीडियेट तक की शिक्षा महात्मा गाँधी इण्टरमीडियेट कॉलेज दलनदपरा, बलिया से ही सम्पन्न हुयी थी। स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं की शिक्षा आगरा विश्वविद्यालय से हुयी। हिन्दी विषय में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर पी.एच.डी की उपाधि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ से प्राप्त किया। एम.एड. की शिक्षा हिमालय प्रदेश शिमला से सम्पन्न हुई। डी.लिट् की उपाधि तिलका मांझी विश्वविद्यालय भागलपुर से लेखक ने प्राप्त किया।
38 वर्षों के शिक्षण कार्य करने के पश्चात् 30 जून 2010 ई। को सेवा से अवकाश ग्रहण कर लिया। सेवाकाल से ही अनवरत लेखन कार्य चल रहा है जो सम्प्रति जारी है। साहित्य-साधना और साहित्य-सिद्धि दोनों आनन्दानुभूति के विषय हैं। इस प्रकार साहित्य सर्जना की परिणति उनतीस समीक्षात्मक कृतियों में देखी जा सकती है। फ्मिथकीय समीक्षाय् पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साहित्य-सर्जना पुरस्कार प्रदान किया गया था। तत्पश्चात् फ्शिक्षा और संस्कृतिय् पर गुलाबराय साहित्य-सर्जना पुरस्कार मिला है। हिन्दी नाटक एवं रंगमंच पर भी श्री अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य अलंकरण’ प्रदान किया गया है। ‘श्री केशरीनाथ त्रिपाठी अभिनन्दन ग्रंथ’ में आलेख लेखन में सहभागिता करने के साथ-साथ 21 नवंबर 2004 को लखनउQ में उक्त समारोह में उत्तर-प्रदेश की ओर से लेखकों का प्रतिनिधित्व करने का भी सुअवसर मिला है। भाषा पत्रिका केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय नई दिल्ली के लिये वार्षिकी के 2000 से 2010 तक के लिए शोध आलेख, पत्र-पत्रकारिता में तीन वर्ष तक, हिन्दी नाटक एवं रंगमंच में लगाकर तीन वर्ष तक तथा हिन्दी आलोचना में तीन वर्ष तक लिखता रहा। भाषा में प्रकाशनार्थ आयी हुई नव्य कृतियों पर समीक्षाएं भी लगाकर भेजी जाती रही हैं। यह क्रम आज भी जारी है। हिन्दुस्तान पत्रिका में 1982 ई. में पत्र पुरस्कृत हो चुका है। आज भी साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं में आलेख और समीक्षाएं प्रकाशित हो रही हैं। 29 मौलिक प्रकाशित कृतियों के अतिरिक्त सात सम्पादन कृतियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। साहित्यिक, सांस्कृतिक समारोहों में सहभागिता के साथ-साथ स्वतंत्र फुलटाईम लेखन आज भी अनवरत जारी है। सिंघानिया विश्वविद्यालय पचेरीवरी, झुंझुनू में श्रीमती रोशनी देवी, द्वारा फ्समन्यवादी समीक्षा में डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का योगदानय् विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की गई है। अन्य विश्वविद्यालयों में भी शोधकार्य जारी है। ‘पशुपतिनाथ उपाध्याय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कृति संदर्भ ग्रंथ के रूप में जवाहर पुस्तकालय मथुरा द्वारा 2018 में प्रकाशित हुई है। रामचन्द्र शुक्ल नामित पुरस्कार 2016 एवं साहित्य भूषण पुरस्कार 2017 भी प्राप्त हो चुके हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य के सन्धि-स्थल पर बसा हुआ पूर्वांचल का एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक जनपद ‘बलिया’ है, जिसको ‘बलिदानी बलिया’ के नाम से जाना जाता है। यह वही जनपद है, जहाँ क्रान्तिकारी नेता मंगल पाण्डेय पैदा हुए थे। पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को शान्ति निकेतन में शिक्षा देने वाले गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जन्मभूमि भी दुबे का छपरा-बलिया ही है। समग्र क्रान्ति के नायक लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि सिताब दियारा (वर्तमान नाम-जयप्रकाश नगर) भी बलिया में था किन्तु अब बिहार में है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’ से अलंकृत कविश्री केदारनाथ सिंह चकिया-बलिया के और ‘साहित्य भूषण सम्मान’ प्राप्त श्री रामप्रवेश शास्त्री सोडाँव-बलिया के हैं। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री चन्द्रशेखर जी इब्राहीम पट्टी बलिया के रहने वाले थे। इस प्रकार बलिदानी-बलिया शहीदों, साहित्यकारों, राजनेताओं, स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों का जनपद है जिसकी अपनी अलग पहचान है। मुझे भी पूर्वांचल के इस छोटे से जनपद में जन्म लेने का सौभाग्य मिला है। पं. कृष्णदेव उपाध्याय, वासुदेव उपाध्याय एवं बलदेव उपाध्याय भी इसी धरती की देन है। 2009 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से 2011 में सम्मानित श्री अमरकांत बलिया के ही हैं।
पं. राम इकबाल उपाध्याय के दो पुत्र हुए, जिसमें ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्री मेघबरन उपाध्याय और कनिष्ठ पुत्र का नाम श्री घरभरन उपाध्याय रखा गया। पूर्वांचल में नामकरण की एक विशिष्ट प्रथा है और उसकी सार्थकता एवं उपादेयता भी। जैसा कि हजारीप्रसाद जी के जन्म पर घरवालों को एक हजार रुपयों की आमदनी हो गई। इसलिए उनका नाम ‘हजारी’ रखा गया। बाद में वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम से विख्यात हुए। यही स्थिति लेखक के पिताश्री और काकाश्री के साथ भी रही। काकाश्री मेघबरन जी के जन्म के समय मूसलाधार वर्षा कई दिनों तक होती रही और सूर्यनारायण प्रकट ही नहीं हुए। आकाश बादलों से आच्छादित रहा। इसलिए काकाश्री का नाम ‘मेघबरन’ पड़ा। इसे हम ‘मिथक’ भी कह सकते हैं। जिस समय पिताश्री का जन्म हुआ, तब कई वर्षों के बाद मक्का, गेहूँ और आलू की फसल काफी अच्छी हुई और फसल को भरने वाले बोरे कम पड़ गए। फलतः फसलें घरभर में रखी गईं और इस कारण उनका नाम ‘घरभरन’ रख गया। नेपाल के काठमांडू स्थित भगवान पशुपतिनाथ के मन्दिर से लौटने पर लेखक का जन्म होने के कारण उसका नाम भी ‘पशुपतिनाथ’ रखा गया। पूर्व में इसी प्रकार सभी भाइयों के नामकरण हुए थे।
माताश्री ने 105 वर्ष की आयु पूर्ण की. उन्होंने सारे तीर्थों और धामों का भ्रमण किया। उनके इस पुण्य का प्रताप यह हुआ कि सौ लोगों से अधिक का संयुक्त परिवार उनके जीवनकाल तक एक साथ रह सका। उनका शरीर सन् 2005 में शान्त हुआ। इतनी आयु तक उन्होंने किसी भी चिकित्सक, वैद्य या डॉक्टर से एक टेबलेट या एक पुड़िया तक नहीं ली। प्रातः तीन बजे जागकर भजन करना उनकी वृत्ति, प्रवृत्ति और प्रकृति थी। गंगास्नान करने नित्य ही दस कि.मी. पैदल जाना उनका कर्त्तव्य-कर्म बन गया था। गंगाजल का सेवन करना, गंगोरी मिट्टी का लेप करना और सिर धोना उनका उपचार था। आधुनिक तेल या प्रसाधन का उन्होंने कभी उपयोग नहीं किया। वे जीवन भर पीतल और ताँबे के बर्तनों का ही प्रयोग करती रहीं।
पूर्वांचल में उच्च वर्ग की महिलाएँ घर से बाहर नहीं निकलतीं। पाँचवें-छठवें दशक में नल की कोई व्यवस्था नहीं थी। पुरुषों को व नौकर-नौकरानियों को कुओं से पानी भरकर लाना होता था। माँ भगवती की नियमित रूप से पूजा-अर्चना करना अपने आप में माताश्री की विलक्षण तपश्चर्या रही। एक बार उन्हें पूजा के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध न हो सका। पिताश्री किसी कार्यवश ग्राम से बाहर थे। इस कारण उन्होंने माँ भगवती की पूजा न कर पाने से अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। घर में फावड़ा व कुदालें रहती थीं। उन्होंने बिना किसी को कुछ बताए, अपने मकान में स्वयं कुआँ खोदना प्रारम्भ कर दिया। यह बात सन् 1955 की है। उन पर शायद माँ भगवती की कृपा ही थी। शाम को जब पिताश्री वापस लौटे तो आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कुएँ की खुदाई रोकने को कहा। उधर जब यह बात कलकत्ते में सेवारत काकाश्री को पता चली तो उन्होंने तुरन्त ही पुरस्कार तथा प्रोत्साहनस्वरूप धन्यवाद देते हुए माताश्री को एक सौ रुपये भेजे और यह सिलसिला कुएँ के पूर्ण निर्माण तक चला। आज भी वह कुआँ और माताश्री का बनवाया हुआ माँ भगवती का मंदिर ज्यों का त्यों है। देवी की नित्य पूजा उसी कुएँ के जल से होती है जबकि घर में नल की व्यवस्था बहुत पहले ही हो चुकी थी।
मेरा जन्म 1950 में हुआ और प्राथमिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में। उच्च शिक्षा के लिए मैं आगरा तथा अलीगढ़ गया। अँग्रेजी तथा हिन्दी में एम.ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। अध्यायन के साथ ही अध्यापन कार्य भी करता रहा। फिर बी.एड. और पी.एच.डी., डी.लिट. भी की। शिक्षण के क्षेत्र में रहते हुए मुझे साहित्यिक आयोजनों में सहभागिता करने का अवसर मिला। अनेक महापुरुषों का साथ व सहयोग मिला। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र और डॉ. नामवरसिंह जी से अनेक बार भेंट हुई, वार्ता हुई और उन सबका मार्गदर्शन भी मिला। फलतः पुस्तकें लिखता रहा, प्रकाशन करवाता रहा।
डॉ. नगेन्द्र के मॉडल टाउन, नई दिल्ली स्थित निवास पर आना-जाना प्रायः लगा रहता. उनका सान्निध्य और सहयोग सहज ही सुलभ रहा। श्रीमती नगेन्द्र का स्नेह और आशीर्वाद भी मुझे भरपूर मिला, साथ ही पुस्तकीय सहायता भी। प्रेमचन्द जन्म शताब्दी समारोह दिल्ली में मनाया जा रहा था। उस समय पटना के डॉ. कुमार विमल और भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रो. शशिशेखर तिवारी से संयोगवश साक्षात्कार हो गया। दुर्भाग्यवश श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की खबर मिलते ही समारोह स्थगित हो गया और मैं बिहार हाउस में डॉ. कुमार विमल के पास पहुंचा, अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक ‘आलोचक डॉ. नगेन्द्र’ पर ‘दो शब्द’ लिखवाने। मानसिकता नहीं बनी तथापि औपचारिकता पूरी की गई। डॉ. तिवारी से पत्राचार होता रहा।
अन्ततोगत्वा ‘समन्वयवादी समीक्षा की परम्परा और डॉ. नगेन्द्र’ विषय पर डी.लिट्. का शोधकार्य मैंने प्रारम्भ कर दिया। पाँच वर्षों तक निरन्तर साहित्यकारों से भेंटवाताएँ, पुस्तकालयों में नोटिंग, गोष्ठियों और सेमिनारों में सहभागिता के दौर चलते रहे। शोध प्रबन्ध पूरा हुआ. उसे डॉ. शशि शेखर के निर्देशन में, तिलका माँझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में जमा कर दिया गया, जिसके मूल में डॉ. नगेन्द्र की अहम भूमिका, सहयोग एवं आशीर्वाद है।
डॉ. नगेन्द्र ने कई बार दिल्ली आने और सेवारत होने के लिए मुझे आमन्त्रित किया लेकिन पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन से बँधे होने के कारण मैं अलीगढ़ में ही रहा। उस समय मेरा ज्येष्ठ पुत्र अविनाश अलीगढ़ विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग का छात्र था, जो सम्प्रति यू.के. में कार्यरत है. दिल्ली का अपना आकर्षण है, फिर भी मुझे अफसोस नहीं रहा, क्योंकि अलीगढ़ विश्वविद्याल के प्रो. शिव शंकर शर्मा ‘राकेश’ की पौत्री से अविनाश का विवाह हुआ तथा साहित्यिक जगत से भी सम्बन्ध बना ही रहा। डॉ. राकेश के पिताश्री पं. रामस्वरूप शास्त्री भी हिन्दी-संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में इसी विश्वविद्यालय में सेवारत रह चुके थे।
कनिष्ठ पुत्र अनुपम का विवाह सितम्बर 2009 में बलिया के श्रीनन्दजी चौबे की सुपुत्री के साथ सम्पन्न हुआ है। बेटी स्मिता का विवाह हो गया और वह जामाता सहित कैलिफोर्निया में सेवारत हैं।
धर्मपत्नी श्रीमती बिमला उपाध्याय ‘विमल विद्या निकेतन’ की संचालिका एवं प्रधानाध्यापिका हैं, जिन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया है।
8 जुलाई 1972 से 24 फरवरी 2000 तक मुझे अंग्रेजी प्रवक्ता के रूप में कार्य करने का अवसर अलीगढ़ जनपद स्थित खेमस्थल, जिसे ब्रज में ‘कैमथल’ भी कहा जाता हैं, में मिला। वहाँ मैंने एक वर्ष कार्यवाहक प्राचार्य का पद भी सम्भाला और इसी अवधि में मेरी साहित्य-साधना भी अबाध गति से चलती रही। साहित्य सर्जना और साहित्य-साधना और सिद्धि दोनों आन्नदप्रदायिनी स्थितियाँ हैं।
25 फरवरी 2000 को जनपद महामायानगर की सर्वोच्च संस्था पी.बी.ए.एस. कॉलेज हाथरस में, उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड द्वारा, प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्ति हुई, तभी से मैं वहाँ कार्यरत रहा। यहाँ भी सेवा के साथ लेखन और प्रकाशन का क्रम जारी रहा, जिसके मूल में विद्यालयीय परिवेश एवं स्वाध्याय की सात्यता रही है। इसी वर्ष ‘सांस्कृतिक प्रदूषण : वैश्विक परिदृश्य’ के प्रकाशन ने मेरे लेखन की अभिवृद्धि एवं समृद्धि की है। 30 जून 2010 को प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हो गया।
प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए, सामाजिक समस्याओं का सामंजस्यवादी नीति-रीति से समाधान करते हुए, सांस्कृतिक चेतना को दृष्टिगत रखते हुए मेरी सात्विक और आस्तिक वृत्ति निरन्तर भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रख सकने हेतु अतत प्रयत्नशील रही है, जिसके मूल में समन्वयवादी वैचारिक पृष्ठभूमि है। स्वान्तः सुखाय की भावना से प्रेरित एवं प्रोत्साहित होकर कर्त्तव्य-कर्म को साहित्यिक-धर्म समझकर जीवनादर्शों के प्रति समर्पण ही साहित्य-सर्जना का उन्मेष है, यही असल पूँजी है, जिस पर साहित्यिक-सांस्कृतिक अनुष्ठान का वाणिज्य-व्यापार आधृत है। यही उपभोक्तावादी संस्कृति का उत्स भी है।
COMMENTS