डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय जी को आशीर्वाद (रुबाइयत) जिसको डॉक्टर नगेन्द्र का प्यार मिला, कितनों ही से ज्ञान का उपहार मिला, सच है पशुपतिनाथ रचित...
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय जी को आशीर्वाद (रुबाइयत)
जिसको डॉक्टर नगेन्द्र का प्यार मिला,
कितनों ही से ज्ञान का उपहार मिला,
सच है पशुपतिनाथ रचित ग्रन्थों से,
आगामी पीढ़ी को आधार मिला।
सब पर पशुपतिनाथ सदृश्य ज्ञान कहाँ?
इन जैसा है दूजा विद्वान कहाँ?
यों धरती पर आलोचक हैं अनगिन,
इन जैसी औरों की पहचान कहाँ?
आलोकित है जग में उपाध्याय का नाम,
औ’ आलोकित हैं पशुपतिनाथ के काम,
दुर्लभ है औरों के लिए दुर्लभ है,
इन जैसा मिल जाना साहित्य में धाम।
साहित्य शिरोमणि हैं श्री पशुपतिनाथ,
निश्चित मां शारदा का इन पर है हाथ,
विद्वानों के चरणों में वो नत हैं,
इस कारण ही ऊँचा है इनका माथ।
है प्राप्त उपाध्याय को कितने सम्मान,
करते हैं विद्वान भी इनका गुणगान,
चाहे आलोचना हो या सम्पादन,
रखते हैं उपाध्याय जी अपनी पहचान।
चलते जाना है दम में दम जब तक,
है पहुंचानी बात इन्हें यह सब तक,
कथनी से बढ़कर करनी होती है,
रहते हैं लीन साधना में अब तक।
हम लोग उपाध्याय रचित खूब पढ़ें,
इनको पढ़कर जीवन को दिव्य गढ़ें,
हे प्रभु! पशुपतिनाथ उपाध्याय सतत,
कुछ और बढ़ें और बढ़ें और बढ़ें।
जीवन में उपाध्याय! मिले यश मकरंद,
जीवन का हर श्वास बने अनुपम छन्द,
परिवार सहित आप रहें स्वस्थ सुखी,
देता है आशीष यही श्यामानन्द।
डॉ. स्वामी श्यामानन्द सरस्वती
अध्यक्ष : काव्य शोध संस्थान
के.डी. -293, पीतमपुरा, दिल्ली-110088
--
सार्वभौम साहित्यशास्त्र और
डॉ. नगेन्द्र (पुस्मे समीक्षा)
डॉ. रामदरश मिश्र
डॉ. नगेन्द्र हिन्दी के बड़े आलोचक और साहित्यशास्त्री थे। डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने बहुत श्रम और विवेक पूर्वक उनके साहित्य-शास्त्र और आलोचना की यात्रा की है। सच बात तो यह है कि उन्होंने डॉ. नगेन्द्र के बहाने पाश्चात्य और भारतीय साहित्यशास्त्र की यात्रा की है। डॉ. नगेन्द्र भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने दोनों के ही साम्य-वैषम्य की प्रभावशाली परीक्षा की है। डॉ. नगेन्द्र के साहित्यशास्त्र की यात्रा करनेवाले उपाध्याय जी ने डॉ. नगेन्द्र की इस प्रवृत्ति और ज्ञान की गहरी पहचान की है। नगेन्द्र जी ने भारतीय साहित्य-शास्त्र के विविध संप्रदायों की परीक्षा करते हुए इस सिद्धान्त को महत्व दिया है। डॉ. उपाध्याय ने उनके रस संबंधी विचारों का प्रभावशाली आंकलन किया है। उन्होंने डॉ. नगेन्द्र के समन्यवादी दृष्टिकोण की भी सम्यक पहचान की है। डॉ. नगेन्द्र ने विविध शैलियों में कई साहित्यकारों और विशिष्ट रचनाओं की समीक्षा की है। उपाध्याय जी इस समीक्षाओं से भी गुजरे हैं और उनकी छवियों की अच्छी परख की है। परख की प्रक्रिया में वे अन्य विद्वानों के विचार उद्धत करते चले हैं। साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में निश्चय ही यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है।
संपर्क : आर-38, वाणी विहार,
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110 055
जीवन-दर्शन
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का जीवन-दर्शन
वस्तुतः व्यक्ति के जीवन-प्रवाह में अनेक प्रकार के आवेगों और मनोवेगों के ज्वार आते-रहते हैं, उनसे व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। डॉ. उपाध्याय का भी जीवन इससे अछूता नहीं है फिर भी पुरानी परम्पराओं के साथ उन्होंने नवीन परम्पराओं को अंगीकार करने में कोई भी गुरेज या परहेज नहीं किया है। नैतिक आदर्शवाद के प्रति उन्हें विशेष आकर्षण नहीं रहा, बल्कि नैतिक मूल्यों को व्यावहारिक फलक पर वे देखने के आग्रही रहे हैं। अतिथि सत्कार परायणता का परम्परागत गुण उन्हें माताजी से विरासत में मिला है जिसे आज भी वे कायम बनाए हुए हैं।
आध्यात्मिक और मानसिक सम्पन्नता के उपाध्यायजी कायल हैं। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों में वे प्रथम तीन को ही वरीयता प्रदान करते हैं और मोक्ष को तो व्यावहारिक धरातल पर वे खरा नहीं पाते हैं। मुसीबतों से पलायन करने में उनका बिल्कुल विश्वास नहीं है, बल्कि उनमें रहते हुए अपने पुनीत दायित्व का निर्वाह करना वे अपना धर्म और कर्त्तव्यकर्म समझते हैं। उनकी सात्विक वृत्ति है। समन्वयशील समीक्षक डॉ. उपाध्याय का जीवन दर्शन विशुद्ध सात्विक है। यह राजसी और तामसी वृत्ति से कोसों दूर हैं। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से भी इंचमात्र प्रभावित नहीं हैं। अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक होते हुए भी अंग्रेजी के अंधानुकरण के वे पक्षधर नहीं हैं। व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा जीवन की रोजी रोजगार की समस्या को हल करने के लिए उन्होंने अंग्रेजी को साधन के रूप में स्वीकार्य किया है न कि साध्य के रूप में। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तीनों साहित्यों का अध्ययन उन्होंने मनोयोगपूर्वक किया है तथा उसे उन्होंने आत्मसात् भी किया है। यही कारण है कि उनका व्यावहारिक जगत् सरल, सरस एवं खरा है। सहजता, सरलता एवं सुबोधता के वे विश्वासी हैं। वे वैज्ञानिक धरातल पर आध्यात्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना का भी दिग्दर्शन करते हैं।
आस्तिकता की आभा ही उनकी साधना की कान्ति है। आस्तिक और सात्विक वृत्ति की चर्चा प्रायः उन्होंने अपनी कृतियों की भूमिकाओं और प्राक्कथनों में की है। सन् 1997 में प्रकाशित उनकी कृति ‘शुक्लोत्तर समीक्षा के नए प्रतिमान’ इसका ज्वलन्त उदाहरण है। वाद के विवाद में वे पड़ना नहीं जानते और न ही लकीर के फकीर बनना चाहते हैं। यही कारण है कि वे शालीनता, विनम्रता एवं संवेदनशीलता के साथ संघर्ष में भी हर्ष व्यक्त करते हैं। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया है कि ‘प्रस्तुत कृति चौदह वर्षों के चिन्तन-मनन की उपलब्धि है। अपने लेखन का तृतीय पुष्प हिन्दी साहित्य जगत् को समभाव विनम्रता से समर्पित करते हुए अत्यन्त आनंद एवं परितोष का आज मैं अनुभव कर रहा हूँ।’
कॉलेज की बढ़ती हुई समस्याओं के बीच जूझता हुये उनके व्यक्तित्व ने प्रत्येक समस्या का समाधान सामंजस्य एवं समन्वय के धरातल पर करता हुआ प्रधानाचार्य जैसे दायित्वों का निर्वहन किया है। विद्यालय के सर्वांगीण विकास में अपने कर्तव्य-कर्म को धर्म मानकर नियमित एवं संयमित होकर निर्वहन किया है। ‘शिक्षा एवं संस्कृति’ कृति में अपनी सामंजस्यवादी वृत्ति का परिचय दिया है। डॉ. उपाध्याय का समन्वयवाद सर्वत्र सामंजस्य की बात करता है और सामंजस्य में ही सौन्दर्य ढूंढ़ता है जिसकी साक्ष्य हैं ये पंक्तियां- ‘जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समन्वयवाद का मंत्र निनादित करता हुआ सामंजस्य के धरातल पर प्रत्येक समस्या का समाधान प्रस्तुत करता हुआ मेरा आस्तिक मन आज भी सामंजस्य में ही सौन्दर्य देखने का अभिलाषी है।’
समन्वय को सामंजस्य के स्तर पर पारिभाषित, विश्लेषित एवं व्याख्यायित करने का सद्प्रयास डॉ. उपाध्याय के समन्वयशील समीक्षक ने किया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें समन्वय की आवश्यकता महसूस हुई है, क्योंकि सामंजस्य के अभाव में जीवन यदि मिटता नहीं तो सिमटता अवश्य है। यही कारण है कि सामंजस्य की पूंजी पर जीवन और जगत् का सम्पूर्ण वाणिज्य-व्यापार आज भी आधारित है। विश्व एक नीड़ की संकल्पना जितनी सहज सरल प्रतीत होती है, वह मात्र सिद्धान्त में है व्यवहार में वह उतनी ही कठिन साध्य है।
समन्वय सामंजस्य धर्मा है। सद्इच्छा, सद्व्यवहार, सद्प्रयास एवं सद्वृत्ति का द्योतक है। सामंजस्य के धरातल पर विश्व की अधिकांशतः समस्याएं हल की जा सकती हैं। परिवार स्तर पर, राज्य स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एवं वैश्विक स्तर पर समन्वय ही एक मात्र हथियार है जिसके माध्यम से मानवीय मूल्यक और जीवन आदर्श स्थापित किया जा सकता है। ‘मिथकीय समीक्षा’ प्रस्तावना की समीक्षा में डॉ. उपाध्यायजी ने लिखा है कि संघर्ष जीवन की संजीवनी है समन्वय उसकी शक्ति। फ्जीवन के समग्र विकास के लिए मात्र सतत संघर्ष ही नहीं अपितु सामंजस्य की भी अपेक्षा होती है। मेरा साहित्यिक एवं सामाजिक जीवन भी इसी सामंजस्यवाद का पक्षधर रहा है। भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी वृत्ति की प्रशंसा मुक्त कंठ से करती है जिसकी प्रवृत्ति साहित्य में भी परिलक्षित होती है है।य्
समन्वयशीलता के धरातल पर साहित्य ही मानवीय मूल्यों की रक्षा कर सकता है। सांस्कृतिक मूल्य, सामाजिक मूल्य, पारम्परिक मूल्य एवं जीवन मूल्य सभी प्रत्यक्षतः और परोक्षतः समन्वय से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। साहित्य यदि सामंजस्य का वाचक है तो आलोचना समन्वय का उदात्त स्वर ध्वनित करती है। डॉ. उपाध्याय का समीक्षक सौन्दर्य अनुभूति को रसानुभूति स्तर पर अभिव्यक्त करता है। उनकी स्पष्ट अवधारणा है कि आलोचक भी एक विशिष्ट रसग्राही पाठक होता है, जो सौन्दर्यानुभूति को रसानुभूति के स्तर पर स्वीकारता है। आज की विषम परिस्थितियों में जी रहा मानव विघटन में संगठन, विभिन्नता में एकता, विग्रह में सन्धि एवं अनेकता में ऐक्य स्थापन की आकांक्षा रखता है। उसके लिए समन्वय से इतर कोई सौन्दर्य नहीं है। सर्जनात्मक साहित्य की प्रचुरता, पुरातन सैद्धान्तिक समीक्षा पद्धतियों का मानव-विज्ञान के नव प्रकाश में पुनराख्यान एवं नवीन मानदण्डों तथा सिद्धान्तों के प्रयोग उपयोग के कारण समीक्षाशास्त्र का आविर्भाव आज हो रहा है।
आज का युग वैज्ञानिक युग है, औद्योगिक प्रगति का युग है एवं कंप्यूटराइज्ड प्रणाली का युग है। द्रुत गति से समाज में परिवर्तन हो रहे हैं। वैश्विक स्तर पर भी यह परिवर्तन सर्वत्र दिखाई देता है। यही कारण है कि ‘आज के तेजी से बदलते हुए परिवेश में प्रत्येक आलोचक के सम्मुख मूल्यबोध, जीवनादर्श एवं समसामयिक परिप्रेक्ष्य की चुनौती है। वर्ग भेद की खाई में वह पड़ना नहीं चाहता। सामाजिक दायरा उसका विस्तृत है। वह संकीर्णता से मुक्त होकर तटस्थतावादी दृष्टि अपनाकर कृति का मूल्यांकन समन्यवादिता के धरातल पर करना चाहता है ताकि वह कृति, कृतिकार एवं समीक्षा-साहित्य के साथ न्याय कर सके। अगर वह किसी एक वाद के पंकजाल में फंस गया तो अन्यवाद के साहित्यकों का कोप भाजन बनना पड़ेगा और उसे अपने अनिष्ट की भी आशंका बनी रहेगी। यही कारण है कि आज आलोचना साहित्य में अनेक प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं जिसके फलस्वरूप सर्वाधिक आलोचना पद्धतियों का आविर्भाव हुआ है। इसमें आलोचकों की दिव्य दृष्टि एवं प्रज्ञा का पता चलता है।
आज की विषम परिस्थिति में तनावग्रस्त मानव अराजक स्थिति में आ जाता है। यदि वह शांत, सद्भाव एवं मैत्रीपूर्ण बर्ताव से समस्या समाधान करना चाहता है तो उसके लिए सहज, सरल, सुगम मार्ग बन जाता है। डॉ. उपाध्याय ने अपनी चालीस साल की सेवा में इसी समन्वयवाद को लेकर समस्याओं का समाधान किया है। प्रशासनिक दायित्व का सफल निर्वहन मंडल के सबसे बड़ी छात्र संख्या वाले कॉलेज में उन्होंने समस्त समस्याओं का निराकरण सामंजस्य के स्तर पर करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सेवानिवृत्ति के समय सबसे बड़े कॉलेज में किसी भी समस्या का न होना इस बात का संकेत करता है कि समन्वय ही सामंजस्य है और सामंजस्य ही समन्वय है।
भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्यानुशीलन को आत्मसात् करने वाले समन्वयवादी समीक्षक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का जीवन दर्शन समग्रता में विश्वास करता है। वे एकाकी जीवन दर्शन के पक्षधर नहीं हैं। व्यक्ति और व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ही उनके समीक्षक का ध्येय रहा है जिसके मूल में समन्वयवाद का जीवन दर्शन है। समन्वयवाद अनेकता में एकता, विघटन में संगठन, विग्रह में सन्धि, नीरसता में सरसता, अंधकार में प्रकाश एवं अज्ञानता में ज्ञान का पक्षधर रहा है। साहित्य की साधना और सिद्धि दोनों आनंददायिनी और कल्याणकारी हैं। श्रेय और प्रेम समन्वय के अभाव में व्यावहारिक धरातल पर अधिष्ठित नहीं हो सकता। जीवन के प्रत्येक्ष क्षेत्र में रस की अनुभूति ही आनन्दानुभूति है। इस प्रकार रसानुभूति सौन्दर्यनुभूति बन जाती है। मानव सौन्दर्योपासक प्राणी है। वह छैनी, हथौड़े के माध्यम से पत्थर में, रंग ब्रश के माध्यम से कपड़े पर तथा लेखनी के माध्यम से कागज पर सौन्दर्य का चित्र प्रस्तुत करता है। यह उसके मनःस्थिति की परिणति है। वह हर प्रकार से सौन्दर्य की प्रस्तुति करता है। यही कारण है कि सौन्दर्य की सत्ता सर्वत्र किसी न किसी रूप में अपना आधिपत्य सिद्ध कर ही देती है।
आशावादी जीवन दर्शन, सकारात्मक जीवन दर्शन, संतुलित जीवन दर्शन से आता है। संतुलित दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि है। डॉ. उपाध्याय के समीक्षक की यही संतुलित दृष्टि व्यापक जीवन दर्शन का निर्माण करती है। ‘आत्मतत्त्व शोधयामि’ की चर्चा वे प्रायः करते हैं। आत्मतत्त्व शोधन ही आत्मविस्तार का परिचायक है। उन्होंने इसी आत्मतत्त्वशोधन से सभी समस्याएं हल की हैं। संघर्षशील होते हुए भी उन्हें कभी किसी से परहेज नहीं रहा। उनका विश्वास है ।सस पे मसस जींज मदके मसस अर्थात् अन्त भला तो सब भला। सफलता से बड़ी सफल वस्तु उनके लिए कुछ नहीं है।
जीवन दर्शन की व्यापकता ही विशालता का द्योतन करती है। व्यापक परिवेश में जीना ही संतुलित जीना है। वर्गभेद, जातिभेद, क्षेत्रवाद आदि वादों से उन्होंने अपने को सदैव मुक्त रखा है। संघर्ष के स्थान पर सामंजस्य से, तिक्तता के स्थान पर माधुर्य से, रिक्तता के स्थान पर समायोजन से एवं विग्रह के स्थान पर सन्धि से यात्रा करने वाले समीक्षक डॉ. उपाध्याय हैं। शांतचित्त, समन्वित आचरण, व्यवहारिक सिद्धान्त एवं व्यापक दृष्टिकोण उनकी साहित्यिक यात्रा का ध्येय रहा है। वे अक्सर कहा करते थे कि थककर बैठने की अपेक्षा आशावान होकर यात्रा करना अधिक श्रेयस्कर है।
डॉ. उपाध्याय के कर्मठ व्यक्तित्व में कर्तव्य कर्म की अद्भुत क्षमता है। उनका जीवन नियमित और संतुलित है। डॉ. उपाध्याय के कर्मठ व्यक्तित्व में कर्तव्य-कर्म की अद्भुत दक्षता भी है। उनका जीवन बड़ा ही व्यस्त और संघर्षमय रहा। कठिन तपस्या एवं साधना से उनको प्रत्येक चीज प्राप्त हुई है। वे समय एवं श्रम की महत्ता के कायल हैं। अध्ययन करना, पुस्तक लिखना एवं अन्य दायित्व वे सभी समय से सम्पन्न करते हैं। अपने सहयोगियों, परिचितों तथा सहकर्मियों को आवश्यकता पड़ने पर सहायता को पूर्ण तत्पर रहते हैं। वे रचनात्मक प्रवृत्ति तथा सकारात्मक वृत्ति के व्यक्ति हैं। वे सहजता और सरलता के धनी हैं।
मानवतावादी दृष्टि ही उनकी साहित्यिक दृष्टि है। वे विचारशील, संवेदनशील व्यक्तित्व रखते हैं। उनका मानवतावाद लोक कल्याणकारी है, लोक मंगल की कामना करता है। जियो और जीने दो की उक्ति को सूक्ति के रूप में वे प्रयोग करते हैं। भारतीय जीवन दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ बताए गए हैं। डॉ. उपाध्याय इन चारों को समन्वित रूप में संतुलित रूप में देखते हैं तभी जीवन में आनन्द आ सकता है। उनका समन्वयवाद आत्म विस्तार का द्योतक तथा आत्मसिद्धि का परिचायक है। भारतीय संस्कृति के प्रति उनका पूर्ण समर्थन है। वे पाश्चात्य संस्कृति की उपयोगितावादी प्रवृत्तियों को कुछ सीमा तक अंगीकार करने के पक्षधर हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अटूट लगाव है। सांस्कृतिक सम्पन्नता के साथ आंतरिक शांति और सद्भाव को वे वरीयता प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक संवृद्धि के प्रति उनका रागात्मक संबंध है। चरैवेति का मूलमंत्र उन्होंने सीखा है तथा अन्यों को भी सीखने को प्रेरित किया है। यह उनके जीवन का व्यावहारिक पहलू है। इस प्रकार उन्होंने यह संदेश दिया है कि विश्व मैत्री तथा विश्व शांति स्थापित करने के लिए परमाणविक परीक्षण की आवश्यकता नहीं बल्कि आत्म निरीक्षण एवं समन्वयवादी प्रवृत्ति के अर्जन की आवश्यकता है ताकि विश्व कल्याण हो सके- यही नैतिकता है और यही सही अर्थों में आदर्श भी है।
सम्पर्क : बी.एल. कॉलेज ऑफ एजुकेशन,
वजीरपुर, गुरुग्राम (हरियाणा)
COMMENTS