निबंध भावभरी भारतीय ‘खिचड़ी डॉ. राजरानी शर्मा ‘चिड़ी चिड़ा दोनों मिलकर चले बनाने खिचड़ी, मानो चावल चिडा, दाल चिड़ी... मिलकर चले बनाने खिचड़ी... खी...
निबंध
भावभरी भारतीय ‘खिचड़ी
डॉ. राजरानी शर्मा
‘चिड़ी चिड़ा दोनों मिलकर चले बनाने खिचड़ी, मानो चावल चिडा, दाल चिड़ी... मिलकर चले बनाने खिचड़ी... खींच के स्वाद देने के लिए खिचड़ी!
मशहूर है ये हसीना मानो सादगी में भी कयामत की नजर रखने के लिए बनी है! कुछ न सूझे तो खिचड़ी बना लो. जल्दी हो तो खिचड़ी बना लो. बीमार को पथ्य और लेखक को कथ्य देना हो तो खिचड़ी बना लो. बहुत लाभ होगा आराम आ जायेगा. सुपाच्य और हवाओं से हल्की इस जायकेदार जानदार का गर्मागर्म स्वागत करो फिर देखो ऊँगलियाँ चाटते रह जाओगे. जी हां उंगलियां क्यूंकि खांटी देसी नायिका के से इसके नखरों को समझ पाओगे तभी रस का रसायन बनेगा! मन के वातायन स्वाद की सवारी लेकर तुरंत यानी इंस्टैन्ट छा जाने वाली नायिका सी खिचड़ी किसे नहीं लुभाती? हल्की पीली शिफॉन की साड़ी लहराती सी अपने अलग अंदाज में जब ये आती है तो बस छा ही जाती है! मुष्टिमध्यमा नायिका सी हल्की पतली गर्म नर्म और सुस्वादु ... देखो तो देखते ही चले जाओ और स्वाद भोग लगाओ तो छक कर ही उठो...!
जब सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हों... न मटर हो न पनीर... न कोफ्रते हों न कढ़ी... न नवरत्न कोरमा हो न वेज बिरयानी तो कोई बात नहीं है तो सही हमारी खिचड़ी रानी...! सबकी नानी... बडी सयानी... जिसके आगे सब्जियाँ भरती पानी, सबके स्वाद को याद न आ जाये नानी तो कहना...! बस जरा नखरों से पेश करो... तवज्जो देकर पकाओ... लज्जतों से छोंकों और नजाकतों से परोसो... फिर देखो क्या मुँह में स्वाद ग्रंथियों के फव्वारे छूट रहे होंगे... मन न लगे हमारी खिचड़ी रानी का तो संग चटपटी चटनी की सखी खड़ी रहती है... घी बाट देखता है कब इसकी सोहबत से मेरा शृंंगार हो... कब मैं इसका परम सखा कहलाऊँ! अचार और पापड़ और दही तो दरबान से बने हमारी खिचड़ी रानी के दाँयें बाँये पहरे पर खड़े रहते हैं कि खिचड़ी महारानी की सोहबत से हमारा भी उद्धार हो हम भी परम गति पा सकें...!
धन्य है व्यंजनों की व्यंजना को जो खिचड़ी सी अनमोल जिसके रूप में ताजगी है... खस्ता कचौड़ी-सी बासी कुबासी भी न चले... जिसकी सादगी भरे स्वाद ने इमरती बालूशाही को पीछे छोड़ दिया है... जिसके सेहत भरे अंदाज ने अपना सिक्का जमा लिया है खाऊँ तो खिचड़ी ही खाऊँ ...! जिसके समशीतोष्ण यानी गुनगुने अंदाज का पता उँगलियाँ देती हैं... रसना तो मानो अपनी परम सखी समझती है खिचड़ी को... दाँतों से मिले बिना आँतों तक पहुँचाती है रसना! यानी हमारी जि“वा खिचड़ी का परमसुख खुद ही पा लेना चाहती है...! जाने कैसे कैसे लोग हैं जो खिचड़ी महिमा से अनजान रहते हैं और अपनी सेहत के दुश्मन बने चाट पकौड़ी कचौड़ी रसगुल्लों की झूठी शान के पीछे मारे मारे फिरते हैं... हमारी नानी कहती थी... इन सबमें... दाम लगै दुख ऊपजै... (ब्रजवासी माफ करैं मर्यादा को देखते हुए कहावत आधी ही लिखी है!) स्वास्थ्य... स्वाद... और सादगी के साथ भारतीयता का अद्भुत व्यंजन है खिचड़ी... जिनकी मानसिकता ही नकारात्मक है जो ऊपरी स्वाद के ही दीवाने हैं...जिन्हें आहार विहार की चिंता नहीं... चार अंग्रेजी व्यंजन क्या समझ लिए, लगे हैं उनके पीछे! अरे भैया! ये मैदा का पिज्जा और कच्चे कच्चे गिलगिले पिलपिले से मोमो तुम्हें फायदा करेंगे कि ये रची बसी सी पकी पकायी-सी सौंधी सी महकती-सी खिचड़ी मन प्राण को आनंद रस से तर बतर कर देगी! सोचो जरा..., खिचड़ी तो मकर संक्रान्ति का प्रतीक है और मकर संक्रान्ति मेल जेल का प्रतीक है... खिचड़ी खाओ... घी मिलाकर...चटनी मिलाकर, दही मिलाकर खाओ... मेल ही हमारे मन की असली प्रसन्नता देता है... तभी तो सीता जी की बारात जनकपुर पहुंची तो राजा जनक के सुआर यानी रसोइयों ने सबसे पहले फ्सूपोदन सुरभि सरपिय् परोसा ताकि दो परिवार मिल रहे हैं तो पहले मिलानेवाला भोजन रस हो _ दाल भात मिलाकर खाओ न कि पिज्जा की तरह काट-काट कर खाने वाला व्यंजन परोसो! सोचो तो बड़ी बात है, सभ्यता है, प्रतीक है कि हम तोड़ने की नहीं जोड़ने की बात कहते हैं... तभी रसोई में रस वास करता हैं...!
अन्न कोई छोटी बात नहीं हैं... अन्न ही ब्रह्म है...! अतः सारे प्रतीक भी रसोई में मिलते हैं चाहे स्नेह हो या अग्नि, चाहे नीर हो या खीर... सब हमारी सोच को दर्शाते हैं... आयुर्वेद की प्रयोगशाला-सी हमारी रसोई और उस रसोई की शिरोमणि खिचड़ी...! रूप से ज्यादा गुण की प्रतिष्ठा की प्रतीक खिचड़ी ...! गरीब की जान और अमीर की शान खिचड़ी...! कोई चिढ़े तो खिलखिला दे...!
कान्हा भी रोम-रोम राजी होय जो कलेवा में यानी बालभोग में खिचड़ी मिल जाये... थारी भर-भर लाई खीचड़ो ऊपर घी की बाटकी... जीमो म्हारा स्याम धनी कह कर उस जाट की बेटी ने स्याम दर्शन पाया तो खिचड़ी के बलबूते पर...! पूरे ब्रज में भोर खिचड़ी की प्रसादी से विभोर रहती है!
चाहे दर्शन की बात करो तो सुख-दुख साथ चाहे समाज की बात करो... तो, गरीब-अमीर छोटा-बड़ा... ये जाति वो जाति ये धर्म वो धर्म सब मिलकर ही चलते हैं... खिचड़ी संस्कृति!
चाहे भाषा को ही ले लो कहीं एक से काम न चल रहा हिन्दी इंग्लिश सब खिचड़ी भाषा... फैशन हो तो खिचड़ी बाल संगीत हो तो फ्रयूजन ताल... चाल हो तो न मर्दानी न जनानी. दोनों के संतुलन वाली यानी खिचड़ी... मन हो तो कट्टठ्ठरपंथी, हठधर्मी नहीं बल्कि लचीला-सा सजीला सा... यानी खिचड़ी... स्वभाव हो तो न विशुद्ध नखरीला न एकदम गीला सीला कुछ नरम सा कुछ गरम-सा यानी खिचड़ी सा ही हो...! पैसा हो तो न राकफेलर बिल गेट्स टाटा बिरला अंबानी अड़ानी सा न अकिंचन बी पी एल कार्ड धारक सा यानी बीच बीच सा हो. फ्मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जायय् जैसा हो यानी खिचड़ी ...! ज्ञान हो तो न रावण जैसा न संपाती जैसा हनुमान जैसा हो यानी ज्ञान भी विनम्रता भी सेवा भी यानी खिचड़ी कहाँ तक कहें हमारी तो पूरी नैया ही संतुलन पर टिकी है न इधर झुके तो कुआँ उधर गिरे तो खाई यानी सम तुलन रहिये... खिचड़ी पर ध्यान दीजिए न ज्यादा अतीत को गाइये न वर्तमान को कोसिये न भविष्य को रोइये... सँभल कर रहिये जब अतीत का गौरव जरूरी हो तो कहिये वरना चुप वर्तमान में रहिये!!! सौदा भी तभी पूरा होता है जब न तेरी न मेरी बीच की रकम तय होती है.... बात भी तभी बनती है न जब न तेरी न मेरी न्याय की कही जाये. जिन्दगी का जायका भी तभी बनता है जब सामंजस्य हो कैसा खिचड़ी जैसा... एक जी हो!
कहाँ तक कहें खिच खिच न हो चिड़-चिड़ न हो इन दोनों से बचना है तो खिचड़ी खाइये... संतुलित रहिये खिचड़ी के गुन गाइये! रहस्य छिपा है न इसमें गृह शान्ति का!!! न आपको ज्यादा सामान लाना पड़ेगा न श्रीमती जी का फेसबुक समय व्यंजन की भट्टठ्ठी में झोंका जायेगा... सब प्रसन्न! खिचड़ी में छिपी व्यंजना को समझो तो लगेगा यही जीवन का असली समीकरण है... समाधान है... आन बान शान सब फीके हैं यदि समाधान न हो... कैसा? खिचड़ी जैसा!
सुख दुख को गले लगानेवाले हम भारत के लोग कैसे कह दें कि खिचड़ी नहीं है जीवन... धूप छाँही जीवन में शुद्ध घी यानी फ्सुरभि सरपिय् की सी सौंधी सुगंध और हींग के तड़के से केसर कस्तूरी को मात देने वाला खिचड़ी का रूप दरअसल हमारे जीवन का दर्शन है...! मिलजुल मन का दर्पन है...! समष्टिपरक चिंतन का परिणाम है...! सामासिक संस्कृति का निदर्शन है निजी! अस्तित्व को विलीन कर केवल समग्रभाव में जीने का नाम है जिसे हम खिचड़ी कहते हैं वो दरअसल भोली भावभरी भावनाओं का पैगाम है...!
ऊधो यह सुख कह्यौ न जाय...!
पूरी कचौड़ी तज रसगुल्ला मनवा खिचड़ी खाय !!!
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