जब मैं बहुत छोटा था, लेकिन इतना भी नहीं कि आज की तरह के उच्च संस्कारवान, स्वघोषित, बड़े घरों के बच्चों की तरह अपने नेकर, बनियान न सम्हाल पाऊँ...
जब मैं बहुत छोटा था, लेकिन इतना भी नहीं कि आज की तरह के उच्च संस्कारवान, स्वघोषित, बड़े घरों के बच्चों की तरह अपने नेकर, बनियान न सम्हाल पाऊँ.... बहुत कम चीज़ें उपलब्ध होती थी लेकिन थोड़ी जरूरत की बड़ी पूर्ति लगती थी...एक कमीज स्कूल से लेकर नाना के घर तक पीठ में जोंक की तरह चिपकी हुई घूम फिर आती थी....पैरों को जूते नसीब थे ही नहीं इसलिए इस झंझट से मुक्ति। इस लिहाज से गमले में उगे पेड़ के आसपास का खुद को मान लेने में भी हर्ज नहीं है, जो भरपूर खाद पानी का खुराक लेने के बावजूद भी बढ़ने का नाम नहीं लेते.....खैर बात सीधी करते है....नानी जो मेरे साथ पूरे गांव की नानी थी, उससे एक बार पूछा नानी ये बताओ .......
"मेला क्या चीज है? कैसे होता है? क्या क्या मेले में बिकता है? क्या क्या लोग खरीदते हैं?"
नानी ऊँचे डील डौल की सुगठित काया की बलिष्ठ नारी थी....हालांकि वह पढ़ी लिखी नहीं थी फिर भी किसी सवाल का जवाब न देना उसे मंजूर नहीं था, लिहाजा वह गले को गर्र गर्र की आवाज से साफ करती हुई बोली.....
"ददुआ !! ई मेला मेल जोल का मिला जुला रूप आय...समझो बात का, लइया और गुड के मेल से लुडुइया बनी....ई मान ले अकेले दम कोनव चीज कुच्छ न आहे।"
"और सीटी.... नानी? इसमें कौन सा मेल जोल....मैंने नानी को चुप कराने का उद्देश्य लेकर सवाली फायर दाग दिया।
"अरे !! मूरख हिआँ भी मेल जोल केर बात है, मुँह से मेल न होई त बता सीटी का अपने आप बजी।"
बहरहाल, नानी की फिलॉसफी आज तक ठीक से नहीं समझ पाया हूँ.... मैं अदना सा लेखक, अपने को कुछ मान समझ नहीं पाया, न किसी ने बताया कि भाई !! तुम भी कवि हो, कविता सुनाया करो, इधर उधर जाया करो..हँसा-हँसाया करो, भले कोई बुलाये या न बुलाये। लेकिन ऐसा यत्न कभी किया नहीं, बस अपनी धुन में धूनी रमाये बैठा रहा....शब्दों के आकार प्रकार से अकेले में ही लड़ता झगड़ता, चैत माह में खेत की मेड़ पर उकडूं बैठे हुये, फसलों के ठूँठ को निहारते हुये किसान की तरह... कभी हँसा, कभी रोया....गाया तो आज तक नहीं....जबकि बहुत से गानों की चंद लाइनें आज भी याद है। दुख भी जाहिर किया तो खुद से ही...आज तक किसी को भागीदार बनाया नहीं, न ऐसी कोई मन में इच्छा है।....यही रवैया आज भी चल रहा है।
लिखते-.लिखते कुल जमा सत्रह किताबें किताबगंज के मुखिया डॉ प्रमोद सागर जी ने बना दी....और मुझे कवि, शाइर और उपन्यास कार की जमात में घसीटकर खड़ा कर दिया....मुझे तो इनकी सहज सरल बुद्धि पर कभी कभी तरस भी आता है.....अरे !! "चीखने चिल्लाने की बात को लेकर कोई गजल बनती है... न लचकदार बलखाती कमर का पता, न सुराहीदार गर्दन का पता, न गुलाबी गालों को सहेजे सुकोमल देह सौष्ठव का पता।
दमा के मरीज की तरह, खों खों...घों घों की आवाज से गला खँगारते हुये... गांव के चरवाहे की तरह नंग-धड़ंग, फ़टी कमीज की आस्तीन से नाक पोंछते हुये....बस्ता लादे स्कूल की तरफ भागकर जाता हुआ गांव का काला कलूटा हॉफ पैंट की बटन बन्द करता हुआ बिना बाप का स्कूली लड़का.... पेट पीठ में स्पष्ट अंतर न रखने वाली सूखे ढांचे की नारी, जिसके उभार उभरने से पहले ही पेट की भेंट चढ़ गये थे.... कोई पढ़ा लिखा, पण्डित, ज्ञानी, ध्यानी, सवर्ण, कुवर्ण बताये न...... मान लेंगे.....कि ऐसे माहौल की भी गजल होती है। मैं तो चीखा हूँ, चिल्लाया हूँ.....हर्फ हर्फ...कोई इसे गजल मान लें तो क्या कहा जाये।
आज भी इस सवाल का उत्तर किसी ने मुझे दिया नहीं है....मैं भी रुका नहीं हूं...दौड़ रहा हूं....उत्तर की तलाश में, गांव की घुमावदार पगडंडी पर...पूरे यकीन के साथ कि किसी न किसी दिन मुझे यही गली मंदिर की दहलीज़ पर ले जायगी जहां पर पूरी कायनात का देव रहता है....उसी के पास होगा इन सब बातों के उत्तर। उससे मिले बिना लौटना मुझे मंजूर नहीं है।
इन्हीं चकल्लसों की मथानी में फँसा.. मट्ठा घोर ही रहा था कि किताबगंज प्रकाशन के चीफ का फोन आया कि....."अनुज जी, आपका लिखा उपन्यास "जूजू" राग देहाती और लेलगाड़ी, विश्व पुस्तक मेले में आपका इंतजार कर रहे है...इस समाचार से मेरी नींद उड़ गई....मन तड़प उठा इन तीनों से मिलने के लिये.....ठीक उस बाप की तरह जो अपने गुमे पुत्र की सूचना पाकर उस दिशा में दौड़ पड़ता है, जिधर से आवाज़ कानों तक पहुँची थी.....अपने बेटे से मिलने के लिये।
मैंने सुना था दिल्ली दिल वालों की है....इस लिहाज से मन मोढ़स तो हुआ लेकिन दवाई के साइड इफेक्ट की तरह मन ही मन यह डर भी रहा कि कही प्रगति मैदान की बजाय राम लीला मैदान न पहुँच जाऊँ....क्योंकि दिल्ली का दिल नज़दीक से देखने और स्पर्श करने का मौका मुझे अभी तक नहीं मिला है। ये डर देवता हर जगह बिना टिकिट एंट्री मार देते है, चाहे खुशी की बात हो, चाहे गम की बात हो.....मसलन शादी की खुशी पर पहले का डर...." लड़की देखने सुनने में कैसी होगी ...गोरी काली या भेंगी?? और अब........शादी के बाद खर्च कैसे चलेगा... बच्चे होंगे....स्कूल फीस, ड्रेस कॉपी किताब.....जाहिर है पहले की तुलना में अब डर का ग्राफ बढ़ा है....पहले ये चीज नहीं थी...शादी के बाद कि फिक्र भोलेनाथ के ऊपर।
मेरे घर परिवार पर भोलेनाथ की सदैव कृपा की नज़र रही है... अतः यहीं से अज्ञात प्रेरणा लेकर मैंने डॉ सुधेन्दु ओझा साहब से फोन पर बात की.......ये भेल नई दिल्ली में राज भाषा प्रभाग के मुख्य प्रबंधक है, इनकी गहन पैठ है साहित्य के हर काल खंड पर.... त्रैमासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका सम्पर्क भाषा भारती के मुख्य सम्पादक भी है...लेकिन ये छोटी सी बात हुई मेरी नज़रिये से......डॉ ओझा एक खूबसूरत शानदार, जानदार, हृदय के इंसान है। उनसे मिलने पर सच में यही अनुभव किया। उन्होंने उसी वक्त फोन पर कहा... मेरे ऑफिस आ जाओ हम पुस्तक मेला साथ में चलेंगे....मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.... घुमघूम कर मोबाइल में बात कर रहा था....सब ठीक रहा....कहीं टकराकर गिरा नहीं.....मेरी इस खुशी में जिस्म ने पूरा साथ दिया है....अतः उसका धन्यवाद करते हुए निकल पड़ा हूँ विश्व पुस्तक मेला की तरफ एक कम्बल और एक जोड़ी पतलून कमीज बांधे.... बाकी कपड़े शरीर के दुबले पतले बेतरतीब हिस्सों में आड़े तिरछे दबाये हुए.......राम जाने कपड़ों का भारी भरकम बोझ ये कहाँ तक उठा पायेंगे।
वृतांत को डायरेक्ट मेले पर ले चलता लेकिन सफर के दौरान ट्रेन में कुछ कहने योग्य घटित हुआ है, जिसका जिक्र करना जरूरी लग रहा है। आस पास बैठे सहयात्रियों से बातचीत के दौरान जब यह पता चला कि किसी को यह मालूम नहीं है की किताबों का भी मेला लगता है...कुछ ने तो यहाँ तक बताया कि इस देश में बकरे से लेकर गधों तक का मेला लगता है....जूते से लेकर नाक पोंछने के साफी तक का मेला लगते सुना है, लेकिन पुस्तकों का मेला लगता है, कभी नहीं सुना। मुझे उनके अल्प ज्ञान पर तरस आया...अतः आश्चर्य मिश्रित शब्दों को पान खायी जीभ के ऊपर लाते हुये मैं टपक पड़ा.....
"दिल्ली में कोई मैदान है....जिसे 'प्रगति मैदान" कहते है, वहीँ लगता है, किताबों का जमघट, दुनिया भर की जिंदा मुर्दा किताबें वहाँ बिकने को आती हैं..हिंदी से लेकर विलायती भाषा तक की नई पुरानी सभी तरह की किताबें वहाँ मिलती हैं....आप लोगों को भी पुस्तक मेले में जाना चाहिये। जिंदगी में भले ही कुछ भी देखा हो, लेकिन पुस्तक मेला यदि नहीं देखा तो समझिये जिंदगी बेकार गई।''
एक वृद्ध सज्जन जो सामने की बर्थ में कम्बल ताने मृतक जैसे पड़े थे, अचानक दायें-बायें हिल-डुलकर स्वयं के जिंदा होने का सबूत देते हुए बोले....
" मेरी समझ मे नहीं आता कि मैदान में मेला लगाने का क्या तुक...अभी बरसात हो जाये तो किताबें गीली हो जायेंगी... धान गेहूँ की तरह जो किसानों से खरीदकर खुले में रखी जाती है....सड़ जाता है अनाज....चूहों तक के खाने के लायक नहीं बचता....आदमी तो सूंघते ही उल्टियां करने लगेंगे।। क्या कहें बिन खोपड़ी की सरकार को।"
वृद्ध सज्जन की बातों में दम था, भले ही वे अदम लग रहे थे...लिहाजा मुझे भी फिक्र हो आयी अपनी "जूजू" की, बेचारा....यदि भीग गया तो समझो उसका राम नाम सत्य हो गया ।
आखिरकार मेले तक पहुँच ही गये हम लोग.....विशाल मैदान में विशाल मेला.....किताबों का सज़ा-धजा बाजार, बिजली के झालरों से निकली मोहक रौशनी में आराम फरमाती किताबें, सचमुच भूलोक से इतर अन्य काल्पनिक लोग का आभास देता हुआ पुस्तकों का जमघट .....चकित हो गया मन.....जादू था जादू....साढ़े तीन फुट से लेकर सात फुट तक के कद वाले लेखकों, कवियों की उपस्थिति से मेला और आकर्षक बन पड़ा था...जहां तक नजर जाये किताबें ही किताबें.... समुद्र की तरह कोई ओर-छोर नहीं। हम लोग एक नम्बर के प्रवेश द्वार से बीस रुपये की टिकिट लेकर भीतर दाखिल हुये थे, जबकि प्रवेश के लिए दस से भी ज्यादा द्वार बनाये गये थे....मेले की विशालता का बखान ये प्रवेश द्वार स्वयं कर रहे थे।
हर तरह की पुस्तकें रंग बिरंगे परिधानों से दुल्हन की तरह सजी बुक स्टॉल्स की शोभा बनी हुई थी....आदरणीय ओझा साहब के साथ इधर-उधर झांकते ताकते हुए हम लोग " किताबगंज प्रकाशन" के स्टॉल तक आ गये, सह्रदय प्रकाशक डॉ प्रमोद सागर हम लोगों का इंतज़ार ही कर रहे थे, उन्होंने सहज आत्मीयता और सहृदयता से हम सबका स्वागत किया। बहुत से लेखकों, रचना कर्मियों से मुलाकात का सुअवसर मिला, किसी के चेहरे पर हताशा तो किसी के चेहरे पर प्रसन्नता का भाव भी दिखा.... कई नामचीन बूढ़े किन्तु जवान दिल का भरम पाले हुए प्रकाशक अपनी हैसियत के खुले प्रदर्शन से यह बताने में कामयाब हो रहे थे कि... "हम अब भी वही है, जो सौ साल पहले थे....लगता भी है...आखिरकार सब कुछ तो दांव पर लगा दिया है, इतना बड़ा होने में......मुझे बरबस अपना पुछल्ला शेर याद आ जाता है.....
"जो कोई ऊँचा दिखे तो, मत अनुज हैरान हों,
साजकर गैरों की टाँगे, कद बढ़ा लेते है लोग।
तो जनाब उनके कद बढ़ाने में कई छोटी बड़ी टाँगे इस्तेमाल हुई है, कुछ ने स्वेच्छा से दान किया होगा, कुछ ने टाँगे बेची होगी और कुछ की जबरन की काट ली गई होगी। बहरहाल हम इस बहस में नहीं पड़ने वाले, घूमफिर कर फिर से किताबगंज प्रकाशन के स्टॉल पर आकर एक कुर्सी में जम गये, छोटा पीस अमरूद का जिसमें अपनत्व रस कूट कूट कर भरा था, प्रकाशक जी के हाथ से पाकर तोते की तरह कुतर-कुतर खाने का आनन्द एक अनकहा अहसास है। यहीं पर नाट्य विधा में हर किरदार को जीने वाले कवि लेखक, अग्रज तुल्य विवेक जी, सहित अनेक कहानीकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार शायर, कवि से मिलकर आश्चर्य मिश्रित खुशी का अहसास हुआ। एक चीज मुझे जो खास लगी......पुस्तक मेले में आया हुआ हर व्यक्ति कुछ न कुछ तलाश में आया हुआ था...मुझे लगता है सभी की तलाश इन किताबों के पन्नों में दर्ज होगी....मेरी नज़रिये से लेखक कोई बड़ा या छोटा नहीं होता, न ही प्रकाशक.....पन्नों में अक्षरों की शक्ल में दर्ज विचार छोटे बड़े हो सकते है....आज बाहर से स्वस्थ्य सुंदर सभ्य दिखने वाला आदमी भीतर से उस तरह नहीं है..शायद भीतर से बीमार है ...उसके भीतरी मर्ज की दवा इन पुस्तकों के पन्नों में लिखी गई है....सस्ती दवा.... सौ दो सौ में गारंटीड दवा जो भीतरी इलाज करेगी....जब आप दुखी होंगे, मन विचलित होगा....तब ये किताबें आपको समझाएंगी, पीड़ित अंश में मरहम लेप करेगी, हंसाएगी, और हर मुसीबत के वक्त तनकर खड़े होने का जज्बा भी देंगी.... सब कुछ जो चाहिए....तब तक देंगी जब तक उनके पन्नों की स्याही जीवित रहेगी।
कहने को बहुत ज्यादा है, लेकिन मुझे भी सोचने का वक्त चाहिए...मैं भी बहुत कुछ लेकर मेले से बाहर आ गया हूं... यह सुखद चश्म रहा के पुस्तकों के रसिक गण मेले की तरह भीड़ की शक्ल में नुमाया हो रहे हैं। डॉ सुधेन्दु ओझा जी का आते वक्त धन्यवाद न कर पाना मन में मलाल की शक्ल में कोना पकड़े हैं, फिर सोचता हूँ, धन्यवाद शब्द छोटा होगा...कोई बड़ा और नया शब्द लेकर पुनः उन तक जाऊँगा।
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