प्रविष्टि क्रमांक - 256 राजीव कुमार पेट ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने पेट पर लंबा-चौड़ा भाषण दिया हो या नेहा ने इतना कुछ सुना हो। आज ससु...
प्रविष्टि क्रमांक - 256
राजीव कुमार
पेट
ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने पेट पर लंबा-चौड़ा भाषण दिया हो या नेहा ने इतना कुछ सुना हो। आज ससुर जी की हरकत नेहा की समझ के परे की बात थी। ससुर जी तो अखबार रोज ही पढ़ते थे लेकिन आज टहलते हुए नेहा के पीछे-पीछे, नेहा बेडरूम में तो ससुर जी बेडरूम, नेहा किचन में तो ससुर जी भी किचन में, पेपर पर नजरे गड़ाए चल रहे थे। नेहा के ससुर आज एक ही तकिया-कलाम बार-बार दोहरा रहे थे, ‘‘पापी पेट ने एब कुछ करवाया, अपना पेट काटकर अपनों का पेट भरवाया, पेट का गढ़हा भरता है तो अक्ल का फव्वारा फटता है।’’
एकबारगी नेहा को लगा कि किसी कविता की कोई पंक्ति होगी, जिसको ससुर जी दोहरा रहे हैं।
अब तक नेहा का पति नवीन भी आ गया। अपने पिता का तकिया-कलाम सुना और नेहा की तरफ आश्चर्यचकित होकर देखा।
नवीन ने पास आकर कहा, ‘‘पापा, बैठ जाइए।’’
‘‘तुम्हारा पेट तो भरा है न?’’ पापा ने क्रुद्ध होकर पूछा। नवीन सोफा पर धड़ाम से बैठ गया।
नेहा ने भी कहा, ‘‘पापा, बैठ जाइए।’’
ससुर ने समझते हुए कहा, ‘‘बहू तुम्हारा पेट तो भरा है न।’’ नेहा चार कदम पीछे हट गई।
नेहा के ससुर ने बोलना प्रारंभ किया, ‘‘तुम्हारा पेट भरा है, क्योंकि पूर्ति नवीन कर रहा है। नवीन का पेट भरा है क्योंकि इसे इस योग्य मैंने बनाया है। अगर सिर्फ अपने ही पेट पर ध्यान देता तो ये पढ़-लिख भी नहीं पाता। और आज इसकी कमाई पर मेरा भी उतना ही हक है जितना तुम्हारा।’’
नेहा ने गौर कर देखा कि ससुर के हाथ में अंग्रेजी का अखबार है, लेकिन वो भांप गई कि मेरे और नवीन की कानाफूसी उन्होंने सुन लिया था। नेहा को उस समय गलती का एहसास हुआ, बाद का भगवान जाने।
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प्रविष्टि क्रमांक - 257
-राजीव कुमार
घाव
इंसान ने जब होश संभाला तो भगवान का धन्यवाद किया, खूबसूरत-सी धरती पर भेजने के लिए। इंसान ने उम्मीद पाली कि धरती पर हर जगह प्यार मिलेगा।
सुख-दुख, फूल-कांटे, उठना-गिरना सब कुछ है यहां पर मगर सब अपनी जगह पर।
वक्त ने इंसान को घाव भी दिए।
इंसान के शरीर पर बने एक घाव ने दूसरे घाव से पूछा, ‘‘मित्र, तुम इस शरीर पर कब से हो?’’
दूसरे घाव ने कहा, ‘बहुत दिनों से।’’
‘‘तब तो बहुत अनुभव होगा?’’
‘‘हां, है तो।’’
नए वाले घाव ने पूछा, ‘हम लोग को यहां कब तक रहना पड़ेगा?’’
पुराने वाले घाव ने कहा, ‘‘थोड़ा समय लगेगा।’’
नए वाले घाव ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा, ‘‘तब तो बहुत मजा आएगा। हम लोग इंसान के शरीर से आजाद हो जाएंगे। दोनों मिलकर साथ रहेंगे, खेलेंगे, कूदेंगे।’’
पुराने वाले घाव ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘मेरी ऐसी किस्मत कहां?’’
नए वाले घाव ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्यों भाई साहब?’’
पुराने वाले घाव ने पूछा, ‘‘तुम इस शरीर में किसकी पैरवी से आए हो?’’
‘‘मतलब? समझा नहीं।’’
‘‘कौन भेजा है यहां?’’
‘‘अच्छा-अच्छा समझ गया, गुलाब फूल के कांटे के कारण।’’
पुराने वाले घाव ने कहा, तुम्हारा तो एहसास भी इस शरीर को नहीं होगा।’’
‘‘क्यों भइया जी?’’
पुराने वाले घाव ने उंगली पर गिनवाना शुरू किया, ‘‘एक हमारा जाति भाई, ब्लेड की पैरवी लेकर आया था, दो-तीन दिन में चला गया। एक मोटा-सा पहलवान अपना जाति भाई, सड़क हादसे की पैरवी लेकर आया था, उसको बहुत घमंड था कि मेरा जीवन यहीं कटेगा, दो-तीन महीने में ही चला गया। आज उसका नाम-निशान नहीं है।
नए वाले घाव ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम इतने दिन से यहां टिका हुआ है, रिश्तेदार है या खून के रिश्ता में लगता है।’’ आपसे से तुम पर आकर उसके इस प्रश्न ने व्यंग्य-बाण चलाया।
पुराने वाले घाव को बहुत गुस्सा आया, उसने खुद को संभालते हुए कहा, ‘खून का रिश्ता जैसा ही बन गया है। इसके अपने लोग ही कुरेदते रहते हैं और मजबूरीवश इस इंसान को भी अच्छा लगता है। इसलिए हम पर नमक छिड़कवाता रहता है। इसलिए आज तक भरा नहीं हूं। अब इस शरीर के साथ ही जाऊंगा।’’
नए वाले घाव ने कुछ सोचा और वहां से अपने कमरे में चला आया।
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प्रविष्टि क्रमांक - 258
-राजीव कुमार
असली भिखारिन
सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते उतरे निम्मो ने कई बार भिखारिन पर नजर डाली, लेकिन घर से चावल का दाना तो क्या, पर्स से एक रुपया का सिक्का भी नहीं निकाला भिखारिन के लिए। अब जल्दबाजी थी या पैसे नहीं देने का मन भगवान जाने।
भिखारिन ने एक बार कटोरा आगे बढ़ाकर फिर वापस अपनी ओर ले लिया। मगर उसकी आंखें दे मां जी कह रही थी।
निम्मो बाहर से अचानक वापस आकर अपने घर गई। कारपेट को छान मारने के बाद भिखारिन के पास जाकर चिल्लाती हुई बोली, ‘‘तुमको यहां पायल मिला है न?’’
भिखारिन ने ‘‘ना’’ में सिर हिलाया।
निम्मो ने तेवर बदलते हुए कहा, ‘‘मैं तुम जैसों को अच्छी तरह जानती हूं। जल्दी से निकाल वरना।’’
‘‘हम नहीं ली है मां जी।’’
‘‘तू ऐसे नहीं मानेगी।’’ निम्मो, भिखारिन के थैले की तलाशी लेने लगी। उसके थैले में कुछ भी नहीं पाकर निम्मो ने भिखारिन को एक लात मारकर भगाते हुए कहा, ‘‘तुमने किसी को बुलाकर घर में दे दिया होगा। अब सत्यवादी बनती है कमीनी कहीं की।
घर जाकर निम्मो काफी मानसिक रूप से परेशान रही।
वैक्यूम क्लिनर चलाते हुए निम्मो की नजर दो कारपेट के सटे स्थान पर पड़ी, उसका पायल वहीं फंसा हुआ था। पायल के मिलते ही निम्मो की मानसिक शांति वापस लौट आई, चेहरा कमल की तरह खिल गया। कुछ गौर से सोचने के बाद उसकी मानसिक शांति फिर से छिन गई।
निम्मो ने भिखारिन को काफी ढूंढ़ा पांच सौ रुपया देने के लिए, लेकिन भिखारिन उस इलाके में नजर नहीं आई।
अब जब वक्त खुद का दर्द भुला देता है तो भिखारिन की बेइज्जती कहां याद रहने वाली थी।
-राजीव कुमार
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परिचय
नाम ः राजीव कुमार
जन्म ः 22 जून, 1980, बिहार, बाँका
शिक्षा ः स्नातक (अंग्रेजी)
विधा ः बचपन से लेखन आरंभ
लघुकथा, ग़ज़ल, उपन्यास
संप्रति ः स्वतंत्र लेखन
साहित्यकुंज, यशोभूमि, साहित्य सुधा, कथादेश में स्वीकृत
संपर्क ः राजीव कुमार
कृष्णा एन्क्लेव, मुकुंदपुर, पार्ट-2
गली: 2/5, दिल्ली-110042 (भारत)
ईमेल: rajeevkumarpoet@gmail.com
आदरणीय महोदय, आपकी रचना सराहनीय है आपकी सलाह, सुझाव हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसलिए विनम्र निवेदन है कि लघुकथा क्रमांक 180 जिसका शीर्षक राशि रत्न है, http://www.rachanakar.org/2019/01/2019-180.html पर भी अपने बहुमूल्य सुझाव प्रेषित करने की कृपा कीजिए। कहते हैं कि कोई भी रचनाकार नहीं बल्कि रचना बड़ी होती है, अतएव सर्वश्रेष्ठ साहित्य दुनिया को पढ़ने को मिले, इसलिए आपके विचार/सुझाव/टिप्पणी जरूरी हैं। विश्वास है आपका मार्गदर्शन प्रस्तुत रचना को अवश्य भी प्राप्त होगा। अग्रिम धन्यवाद
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