प्रविष्टि क्रमांक - 216 गोवर्धन यादव. कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता . अभी हाल ही बात है. हम पांच मित्र रायपुर से नागपुर लौट रहे थे. छत्त...
प्रविष्टि क्रमांक - 216
गोवर्धन यादव.
कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता.
अभी हाल ही बात है. हम पांच मित्र रायपुर से नागपुर लौट रहे थे. छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारा रिजर्वेशन था. इस ट्रेन को सुबह साढ़े सात बजे आकर रवाना हो जाना चाहिए था,लेकिन वह लगातार लेट होती चली गई.. उसके बाद आने वाली कई गाड़ियाँ आयीं और रवाना हो गईं, लेकिन इस महारानी को नहीं आना था, सो नहीं आयी. इस ट्रेन को पकड़ने के चक्कर में हमें सुबह साढ़े पांच बजे उठना पड़ा था. स्टेशन पर बैठे-बैठे खीज-सी भी होने लगी थी. भूख अलग लग आयी थी, लगातार तीन घंटे के इंतजार के बाद वह प्लेटफ़ार्म पर लगी. भीड़ भी गजब की थी उस दिन. जैसे-तैसे हमने अपनी सीटें पकड़ीं. दस मिनट के अन्तराल बाद गाड़ी चल निकली.
सीट पर आकर हम न तो ढंग से बैठ पाए थे और न ही सामान ढंग से जमा पाए थे, कि एक नवयुवक हाथ में झोला लिए, जूतों में पालिश करवाने लेने का आग्रह करने लगा. एकाध बार वह कहता तो ठीक था,लेकिन बार-बार के आग्रह को सुनकर एक मित्र अपना आपा खो बैठे और उस पर जमकर बरस पड़े. “ तुझे आँख में कम दिखाई देता है क्या?, अभी हम ढंग से बैठ भी नहीं पाए है और न ही सामान जमा पाए हैं और तू है कि अपनी टिक-टिक लगाए हुए है. जा..आगे बढ़ और कोई दूसरा ग्राहक ढूँढ...हमें क्यों खामोखां परेशान कर रहा है”.
झिड़कियाँ सुनने के बाद भी, न तो उसके चेहरे पर कोई तनाव के चिन्ह थे और न ही वह किसी प्रकार की ग्लानि महसूस कर रहा था. देर तक खामोशी ओढ़े रहने के बाद उसने विनम्रता के साथ कहा-“ दादाजी...आप फ़र्स्ट-क्लास में सफ़र कर रहे हैं. मुझे आपके गंदे जूते देखकर अच्छा नहीं लग रहा है. कोई क्या सोचेगा?. आप जूता पालिश के पैसे दें या न दें, कोई बात नहीं, लेकिन पालिश अवश्य करवा लीजिए”.
उसके बात में दम था. उन्होंने अपने आप को तौला. आँखों ही आँखों में स्वयं का निरीक्षण किया. “सच ही कह रहा है छोरा.... हफ़्ता-दस दिन से तो घूम ही रहा हूँ. जूतों पर केवल कपड़ा भर फ़ेर लिया करता था. इतने भर से तो जूते साफ़ नहीं हो जाते?. सचमुच में पालिश करवाना जरुरी था”, उन्होंने मन ही मन अपने आप से कहा.
“ सारी बकवास छोड़...अब ये बता कितने पैसे लेता है तू जूता पालिश के?”.
“वैसे तो मैं बीस रुपये लेता हूँ, लेकिन आपसे मात्र दस रुपया ही लूंगा. कसम परमात्मा की”.
आखिरकार उन्हें जूते उतार कर देने ही पड़े. वह पास ही में बैठ गया था और तेजी से जूतों की सफ़ाई करते हुए उन पर पालिश करने लगा था.
“कितना पढ़े-लिखे हो?. उन्होंने कहा
“सर....एम.ए. में सेकेंड डिविजन पास किया है”.
“ ताज्जुब...तुम्हें तो कोई सरकारी नौकरी में लग जाना चाहिए था अब तक?.
“ आप तो जानते ही हैं सर.... नौकरी लग जाना इतना आसान कहाँ होता है?. सेलेक्शन से पहले एक-दो पेटी लगती है...वह कहाँ से लाता?. जूतों पर ब्रश चलाते हुए उसने कहा.
“ अच्छा ये बतला...घर-परिवार में कितने लोग हैं और तेरे पिता क्या करते हैं?”
“घर में मां-पिता सहित एक छोटा भाई और दो बहने हैं. तीनों पढ़ रहे हैं. पहले पिता मेहनत-मजदूरी करके पूरे घर को चला लेते थे, लेकिन उन्हें लकवा मार गया. थोड़ी-बहुत पूंजी थी, सो वह भी इलाज में खर्च हो गई. अब भूखों मरने की नौबत आ गई थी. मैं पढ़ा-लिखा तो था लेकिन बेरोजगार था. मजबूरी के चलते मुझे ईंट-गारा का काम भी करना पड़ा. कड़ी मेहनत के बाद भी उतना नहीं मिल पाता था कि पूरे घर का खर्च चल सके. तभी एक आईडिया सूझा कि क्यों न ट्रेन में चलते हुए बुट-पालिश का काम शुरु कर दिया जाए. हालांकि ये हमारा कोई पुश्तैनी धंधा नहीं है, फ़िर भी मैंने इसे करना चाहा क्योंकि कम पैसों में केवल इसी काम को किया जा सकता था. माँ के पास एक जेवर पड़ा था. उसे बेच कर दो-चार ब्रुश और पालिश की डिब्बियाँ खरीदीं और भगवान का नाम लेकर ट्रेन में चढ़ गया.
“पढ़े-लिखे होने के बावजूद तुम्हें इतना छोटा काम करते शर्म नहीं आती?”
“देखिए सर...पहले तो यह, कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. यह सब आपके नजरिये पर निर्भर करता है कि आप उसका मूल्यांकन किस पैमाने पर करते हैं. ऊपर वाले ने दो हाथ आपको दिए ही इसलिए है कि हमें कोई भी काम करने में हिचकना नहीं चाहिए, बशर्ते कि वह देश के अहित में न हों. फ़िर इसमें शर्म की बात ही कहाँ उठती है?. दो पैसे स्वाभिमान से कमाने में कैसी शर्म !. मुझे तो इसमें कहीं भी, तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती. यदि शर्म ही महसूस किया होता तो मैं भी सरकार को कोस रहा होता...या किसी नेता के हाथ की कठपुतली बनकर नारे लगा रहा होता..या चका जाम कर रहा होता, बसें जलाता फ़िर रहा होता..या फ़िर सरकार से बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहा होता. इन सब गोरखधंधों से ऊपर उठते हुए मैंने सहर्ष इस काम को करने का बीड़ा उठाया था. यही रास्ता मुझे अच्छा लगा था और मैं इसे शान से कर भी रहा हूँ.”
“ अच्छा...बेटा.....अब ये बतलाओ कि तुम दिन भर में कितना कमा लेते हो?”
“ भगवान की कृपा से चार-पांच सौ रुपया कमा लेता हूँ. एक घर को आराम से चलाने के लिए इतना पर्याप्त है”. इतना कह कर वह चुप हो गया था. लेकिन उसके चेहरे पर छाया तेज देखने लायक था.
अब तक वह जूतों को चमका चुका था. उसकी बातों से खुश होकर मित्र ने जेब से बीस रुपये का नोट निकालते हुए उसे देना चाहा, लेकिन उसने साफ़ इनकार करते हुए कहा कि वह आपसे एक भी पैसा नहीं लेगा क्योंकि आपने मुझे बेटा कहकर संबोधित किया है. एक बेटा अपने पिता से पैसे कैसे ले सकता है?.
उसकी साफ़गोई देखकर सभी यात्रियों पर गहरा प्रभाव पड़ा था. सभी ने बारी-बारी से अपने जूते उतारकर उसे पालिश करने को दिए. काफ़ी कम समय में उसने डेढ़ सौ रुपया कमा लिया था.
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103,कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
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