प्रविष्टि क्रमांक - 164 डिजिटल स्लेव मार्टिन जॉन मेट्रो सिटी में जॉब करने वाला बेटे ने मम्मी- पापा के जर्नी प्रोग्राम के मुताबिक ऑनलाइन ई...
प्रविष्टि क्रमांक - 164
डिजिटल स्लेव
मार्टिन जॉन
मेट्रो सिटी में जॉब करने वाला बेटे ने मम्मी- पापा के जर्नी प्रोग्राम के मुताबिक ऑनलाइन ई-टिकट नबुक कर उसे पापा के मोबाइल में फॉरवर्ड कर दिया।
नियत समय पर मम्मी-पापा मेट्रो सिटी पहुँच गए। उस मेट्रो सिटी के एक अपार्टमेंट की पाँचवी मंज़िल पर बेटे ने फ़्लैट ले रखा था।
फ्रेश होने के बाद पापा को चाय की सख्त तलब महसूस हुई। उन्होंने मम्मी की और देखा। मम्मी समझ गई। फ़ौरन किचन में दाख़िल हो गई। चारों ओर नज़र घुमाकर जब उन्होंने देखा तो पाया कि गैस सिलिंडर , ओवेन और दो चार बर्तनों के अलावा वहाँ कुछ नहीं है।
“क्या खोज रही हो मम्मी?”
“ बेटा , पापा को इस वक़्त चाय पीने की आदत है न! लेकिन यहाँ तो कुछ नहीं है।”
बेटे ने तत्काल फ़ोन घुमाया। दस मिनट बाद डोरबेल बजी। तीन कप चाय हाज़िर!
“लंच का क्या करेंगे बेटा? घर में तो राशन-पानी है ही नहीं , बनाउँगी क्या?”
“डोंट वरी मम्मी! अभी ऑर्डर कर देता हूँ।”
घंटे भर के अंदर लंच का पैकेट लेकर डिलीवरी ब्वॉय दरवाजे पर खड़ा हो गया।
अगली सुबह पापा ने बेटे से कहा , ‘बेटा यहाँ कोई आस-पास बुक स्टॉल है क्या?”
“क्यों?”
“अखबार खरीद कर ले आता ......इसी बहाने थोड़ा मॉर्निंग वॉक भी हो जाता।”
“इस अपार्टमेंट की छत बहुत बड़ी है पापा , वहीँ जाकर वॉक कर लीजिएगा। .....और ये लीजिए आज का न्यूज़ पेपर।” बेटे ने अपने लेपटॉप में ई-पेपर निकाल कर पापा के सामने रख दिया।
उसी समय मम्मी ने इच्छा जाहिर की , “बेटा , रेस्टोरेंट का खाना हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं रहेगा। चल न हमारे साथ बाज़ार! राशन , सब्जियां और कुछ बर्तन ले आते हैं। मैं रोज़ खाना बनबनाउँगी।”
“मार्केट जाने की क्या ज़रूरत है मम्मी। मार्केट को यहीं बुला लेते हैं।”
उसने अपने स्मार्ट फ़ोन पर अंगुलियां फिरायी। कुछ देर बाद सब्जियों और राशन के पैकेट लेकर डिलीवरी ब्वॉय सलाम ठोंककर मुस्करा रहा था। एक दूसरा डिलीवरी ब्वॉय किचन एप्लाइंस दे गया।
चार दिन हो गए| ऑनलाइन ज़िन्दगी ने उन्हें फ़्लैट के अन्दर ही बंद पड़े रहने को मजबूर कर दिया था। उन्हें बेहद उकताहट सी महसूस होने लगी थी। ख़रीदारी के बहाने थोड़ा घूमने- फिरने की इच्छा लिए उस शाम मम्मी ने कहा , “ बेटा चल न मार्केट! ...सोचती हूँ बड़े भईया के बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेस लेती आऊँ।“
बेटा फ़ौरन लेपटॉप लेकर मम्मी के पास बैठ गया और गार्मेन्ट का पूरा बाज़ार खोल दिया , “ लो मम्मी , देखो और पसंद कर लो। इमीडियट ऑर्डर कर देता हूं। दो- तीन दिनों के अंदर डिलीवरी हो जायेगी।”
उस रात फ़्लैट के एक कमरे में बेटा अपना मेल बॉक्स खंगालने में मसरूफ़ था। दूसरे कमरे में मम्मी और पापा बिस्तर पर पड़े-पड़े बगैर किसी संवाद के सफ़ेदी पुती छत के उस पार चांद-सितारों भरे खुले आसमान की कल्पना में खोये हुए थे। अचानक उन्हें लगा उनके ढलती उम्र के शरीर में नामालूम –सा कोई डिवाइस समाता जा रहा है। घबडाकर वे दोनों एक दूसरे की बांहों में समा गए।
अगली सुबह ही तय प्रोग्राम के विपरीत वे दोनों रवानगी की तैयारी में लग गए। ***
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प्रविष्टि क्रमांक - 165
सैनेटरी पैड
मार्टिन जॉन
टिफिन के वक्त सरकारी स्कूल के परिसर में चहलकदमी करते हुए वह अचानक रुक गई। साथ चल रही उसकी क्लासमेट उसके हाव-भाव देखकर घबरा गई , “क्यों क्या हुआ? तबियत तो ठीक है न?”
“लगता है हो गया!”
“क्या हो गया?”
“पीरियड!”
‘कुछ’ नहीं लाई है?”
“नहीं।”
“चल, घर चलते है।”
“पहले मैडम से पूछ लें!”
स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज सुजाता स्टाफ रूम में शिक्षणकर्मियों के साथ किसी मामले पर विचार-विमर्श कर रही थी। वहाँ शिक्षिकाओं की तुलना में शिक्षकों की संख्या ज्यादा थी। स्टाफ रूम का दरवाजा खुला था।
“मैडम , अन्दर आऊँ ?”
सबकी नज़रें उस पर टिक गईं।
“हाँ , आओ रजनी। क्या बात है?”
“मैडम , पीरियड हो गया।”
बगैर किसी भूमिका के उत्तर की निःसंकोचता पर तमाम आंखें चौड़ी हो गई। कुछेक के मुँह खुल गए। मर्दानी आँखें एक दूसरे से आदिम सवाल करने लगीं।
“कोई बात नहीं बेटा!.... अभी मैं सैनेटरी पैड मंगवा देती हूँ। जाओ अपने क्लास रूम में बैठो।....घर जाने की ज़रूरत नहीं।”
फिर एक बार आँखें चौड़ी होने का पल था।
“नहीं मैडम हम खुद ले लेंगे। सामने ही तो मेडिकल स्टोर है।” कहकर वह अपनी गोल-गोल बोल्ड आँखे स्टाफ रूम की कई जोड़ी आँखों से मिलाई। वे आँखें अपने आप झुक गईं।
स्कूल परिसर से निकलकर सामने के मेडिकल स्टोर के काउंटर पर वे दोनों खड़ी थीं।
“दो बेटा प्रिस्किप्शन ....कौन सी दवा चाहिए?”
“दवा नहीं अंकल , हमें सैनेटरी पैड चाहिए ...व्हीस्पर ..”
अंकल की आँखें एक विशेष अंदाज़ से उठीं और उसके चेहरे का मुआयना करती हुई उस पर टिक गईं। बगलगीर ग्राहकों की आँखों में फ़ौरन ‘कुछ’ समा गया। स्टोर के अन्य कर्मियों के हाथ रुक गए। कान भी खड़े हो गए।
“दीजिये अंकल! ...क्या सोच रहें हैं?”
“ हाँ , हाँ अभी देता हूँ।” एक ही पल में कई तरह के सवालों से जूझने की स्थिति को झटका देकर उन्होंने व्हीस्पर थमा दिया|
“थैंक्स अंकल।” कहकर उसने वही गोल-गोल आँखें चारों ओर घुमाई। फिर एक बार सवालों वाली कई जोड़ी आँखें करारा ज़वाब पाकर ज़मीन की ओर झुक गईं। ***
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प्रविष्टि क्रमांक - 166
क़िताब वाला इश्क़
मार्टिन जॉन
नौकरी से रिटायर होने के बाद उसने जो एक छोटा-सा घर बनाया ,उसके बरामदे को पढने-लिखने की ज़गह बना डाली। क़िताबों के प्रति उसका अगाध प्रेम और पढने-लिखने की जुनूनी शौक़ की वज़ह से धीरे-धीरे बरामदा एक छोटी सी लाइब्रेरी की शक्ल में तब्दील हो गया। लेकिन पत्नी को क़िताब-क़लम से उसकी दोस्ती कभी नहीं भायी। इस शौक़ को पूरा करने में जो खर्च हो रहा था उससे वह चिढ़ी रहती। उसकी दृष्टि में बरामदे का यह बेजा इस्तेमाल था।
इधर जवान बेटा अपने पापा के इस शौक़ को उनके पिछड़ेपन के रूप में देखता था। अक्सर वह तंज़ कसता , “ज़माने के साथ क़दमताल नहीं मिलाना चाहते हैं पापा!....इस डिजिटल टाइम में भला कोई अपने घर को ‘बुकस्टोर’ बनाता है?....क़िताबों का ढेर लगाने की क्या ज़रुरत है। अब तो सब कुछ नेट में एवैलबुल है!”
साल में दो-तीन मरतबा अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर पुराने अखबारों को तौलते वक़्त रद्दीवाला रैक पर करीने से सजी पत्रिकाओं और क़िताबों को ललचाई नज़रों से देखता और थोड़ा सकुचाते हुए कहता , “पुरानी हो गई हो तो दीजिये न बाबू!” प्रत्युत्तर में उसकी घूरती नज़र पाकर सकपका जाता।
कुछ क़रीबी दोस्त भी उसके इस शौक़ को ग़ैर ज़रूरी मानते थे। भेंट-मुलाक़ात के दौरान उनकी टिटकारियों पर वह सफ़दर हाशमी की ‘क़िताब’ वाली कविता की कुछ पंक्तियाँ सुना देता।
एक रात उसकी लाइब्रेरी में आग लग गई।.... बत्ती गुल हो जाने की वज़ह से वह कैरोसिन लैम्प की रोशनी में कुछ लिखने में मसरूफ़ था कि असावधानीवश लैम्प लुढ़क गया। लैम्प से तेल बहते ही आग का शोला भभक उठा और सूखे पत्तों की तरह क़िताबें , पत्रिकाएँ जलने लगीं। बड़े जतन से सहेजी गई दिलो-जान से प्यारी चीज़ को यूँ ख़ाक होते देख उसका कलेजा मुँह को आ गया। तत्काल बरामदे से बाहर निकलकर मातमी रुदन के साथ मदद के लिए पागलों की तरह चीखने चिल्लाने लगा। जब तक पड़ोसी आकर आग पर क़ाबू पाते तब तक उसकी रूहानी चीज़ बेरहम आग के उदर में समा चुकी थी। दास्ताँ-ए-ख़ाक बयान करने के लिए बेशर्मी के साथ धुंआ अपना पंख फैलाए इधर-उधर डोल रहा था।
वापस होते पड़ोसियों ने उसे तसल्ली दी , “ख़ुदा का शुक्र मनाओ कि घर जलने से बच गया। आग तो भई सिर्फ़ क़िताब के गोदाम में लगी थी।”
बची क़िताबों की उम्मीद में राख कुरेदते हुए उसने महसूस किया कि धीरे-धीरे वह भी राख में तब्दील होता जा रहा है।
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*अपर बेनियासोल, पो. आद्रा , जि. पुरुलिया , पश्चिम बंगाल 723121 , मो. 9800940477 ,
e-mail – martin29john@gmail.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय महोदय, आपकी रचना सराहनीय है विनम्र निवेदन है कि लघुकथा क्रमांक 180 जिसका शीर्षक राशि रत्न है, http://www.rachanakar.org/2019/01/2019-180.html पर भी अपने बहुमूल्य सुझाव प्रेषित करने की कृपा कीजिए। कहते हैं कि कोई भी रचनाकार नहीं बल्कि रचना बड़ी होती है, अतएव सर्वश्रेष्ठ साहित्य दुनिया को पढ़ने को मिले, इसलिए आपके विचार/सुझाव/टिप्पणी जरूरी हैं। विश्वास है आपका मार्गदर्शन प्रस्तुत रचना को अवश्य भी प्राप्त होगा। अग्रिम धन्यवाद