प्रविष्टि क्रमांक - 155 लघुकथा मेरा बेटा, मेरा लाल - डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज “चारों में से चारों एक दूसरे का मुँह देखकर चले गए। बी +...
प्रविष्टि क्रमांक - 155
लघुकथा
मेरा बेटा, मेरा लाल
- डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
“चारों में से चारों एक दूसरे का मुँह देखकर चले गए। बी + ग्रुप तो बहुत का होता है। किसी न किसी बेटे का भी अवश्य होगा, पर ......|” एक डॉक्टर बोला।
“हाँ डॉक्टर कौशल, और यहाँ मरीज की हालत गड़बड़ाते जा रही है। साफ़ है, वे खून देना नहीं चाहते। बाहर से खून लाने का बहाना बनाकर खिसक गए। तीन घंटे हो गए उनके गए हुए।” दूसरे डॉक्टर ने भी चिंता जताई।
“ऐसे में तो रोगी मर जाएगा। समझ में नहीं आ रहा- अब हम क्या करें।” दूसरा डॉक्टर पुन: बोला।
“तुम कौन हो ?” एक आदमी को वहाँ उपस्थित देख एक डॉक्टर ने पूछा।
“मैं इस साहब का नौकर हूँ।” आदमी बोला।
“पर, तुम्हारे मालिक की तो जान खतरे में है और इसके सभी बेटे.....।”
“पता है डॉक्टर साहब, सभी घर पर जाकर इसी बात को ले आपस में झगड़ रहे हैं। मेरा ग्रुप मालिक से मिलता है, आप मेरा खून इन्हें चढ़ा दें।” इस बात पर दोनों डॉक्टर साश्चर्य उसे ऊपर-नीचे निहारने लगे।
“देर मत कीजिए सर, ऐसे में तो मेरे साहब....।” नौकर ने बेचैन होकर कहा।
“बेटों ने खून नहीं दिया और तुम ..... ?” एक डॉक्टर हैरत होकर बोला।
“क्यों ....?” मैं आदमी नहीं हूँ क्या ? मेरे थोड़े - से खून से मेरे मालिक की जान बच जाती है, तो इसमें हर्ज ही क्या है ? मैं भी तो इनका नमक खाता हूँ।” नौकर के इस हृदय पर दोनों डॉक्टरों को काफी फक्र होता है। वे धन्यवाद के रूप में आँखें बंद कर लेते हैं।
“मेरा बेटा ..... , मेरा लाल ...... ; तुझसे मेरा किस जन्म का रिश्ता था रे .... ?” रक्त चढ़ने के कुछ देर बाद ठीक होकर मरीज अपने उस नौकर के गले लिपटकर रो रहा था।
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प्रविष्टि क्रमांक - 156
लघुकथा
खतरा
-डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
“ए जी, हम तो तंग आ गए हैं। क्यों नहीं इस गाय को भी हटा दे रहे हैं ? सड़ी – पकी इस बूढ़ी गैया का क्या करेंगे ? संजीव खरीदवैया को भी ले आता है, तो उसको भगा देते हैं।” बूढ़ी पत्नी ने आज एकदम से खीझकर कहा। पति कुछ देर शांत रह पत्नी का मुँह देखता है, तत्पश्चात बोलता है, ” खरीदवैया कसाई है, काटकर मांस बेच देगा।”
“तो क्या होगा, वह अब कसाई के ही काबिल रह गई है तो ......।”
कुछ देर पत्नी का व्यंग्यपूर्ण मुँह देखने के बाद, “पर हम – तुम कसाई के भी काबिल नहीं होंगे। इसी तरह की बात संजीव कल हमारे साथ भी कर सकता है।”
“क्या मतलब ......?” पत्नी पति पर झुक पड़ी थी।
“मतलब कि हम बड़े – बूढों को अपने को सुरक्षित रखने के लिए इन – जैसे निरीहों को भरपूर समझना होगा। नहीं तो इस जमाने में खतरा है। दूसरी बात गऊ माता भी होती है।”
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प्रविष्टि क्रमांक - 157
खेती
लघुकथा
डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
“ अरे वह आदमी गिरकर बेहोश हो गया ! "
“ अरे हाँ...। देखो-देखो ..... I" यह भी दौड़ा, वह भी दौड़ा और अगल-बगल के लोग भी दौड़े। कुछ ने अपने-अपने तरीके से होश में लाने का प्रयत्न किया। पर असफल। फिर दो आदमी आपस में सलाह लेकर एक गाड़ी से अस्पताल ले भागे l
“मैं कहाँ हूँ?" होश में आने के बाद बेहोश बोला।
“जी भाई साहब, आप ......।" और पूरी कहानी बताई दो में से एक आदमी ने।
"आप सबका बहुत ऋणी रहूँगा भाई साहब .....। " हाथ जोड़कर कृतज्ञता जताई उस रोगी ने। फिर आगे बोला, "तो अब हमें चलना चाहिए ? "
“नहीं भाई साहब, डॉक्टर के अनुसार कल तक आपको यहाँ ठहरना होगा।” एक दूसरा आदमी बोला।
“तो लीजिए , इस नम्बर पर मेरे घर फोन कर दीजिए। लड़का तो नहीं, पर बहू घर पर होगी।” जेब से एक नम्बर निकालकर दिया रोगी ने उस आदमी को।
मुश्किल से 4o- 45 मिनट का रास्ता होगा अस्पताल से रोगी के घर का, पर लगभग 3 घंटे बाद उस घर की बुआ आई एक रिक्शा लेकर।
"चच्चा ....." देखकर फफक पड़ी बुआ। लोगों ने समझा - यही पतोहू है।
“मत रो सुगिया I मैं एकदम से ठीक हूँ। पर बहू...?”
"घर ही पर हैं। फोन तो गया था, बोलीं - उन्हें तो रोज कुछ – न - कुछ होते ही रहता है I जल्द से काम निपटा लो सुगिया, अस्पताल जाना होगा।”
इन शब्दों ने बूढ़े की आँखों से झर-झर आँसू बहवा दिए I ओंठ फरकने लगे।
“आप रो रहे हैं भाई साहब।” एक ने पूछा।
“हाँ भाई साहब , पर इसकी मैंने ‘खेती’ की है। जिंदगी भर घूस कमाया और अपने इकलौते बेटे की हर इच्छा पूरी की। सामाजिक सरोकार नहीं बनाया। हम अंदर से बहुत खोखले हैं भाई साहब।”
“बेटा क्या करता है ?”
“ समाहरणालय में अफसर है। पर , सीधे मुँह बात नहीं करेगा।”
सहसा उस आदमी को अपना भोला-भाला बेटा याद हो आया , जो आज भी उसके बात-बेबात पैर दबाते रहता है।
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प्रविष्टि क्रमांक - 158
लघुकथा
दूध
डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज
उदित का एक बड़े बैंक में तबादला हो चुका था। पर जाने से पहले मेस में काम करनेवाली अब्दुल्ली नटिन से पूछ लेना चाहता है - क्या चाहती है वह उससे ? माँ से भी बड़ी उम्र की होगी और किस निर्ल्लजता से देखती है मुझे। ऊपर से नीचे तक भर नजर देखेगी। फिर अपनी छातियों को खूब निहारेगी। फिर मेरी उपस्थिति में ही अपनी छातियाँ सहलाएगी। कभी-कभी उन्हें चूम भी लेगी। क्या अकेले में, क्या सबके सामने, कोई फर्क नहीं पड़ता उसे। बेशर्म ! बेहया ! लियाकत भी नहीं देखती।
पूछने का ठोस इरादा लेकर चला ही था कि एक जगह इंतजाररत ही मिल गई अब्दुल्ली। पर शांत, गमगीन। हैरत में पड़ गया उदित। अचानक अब्दुल्ली के ओठ फड़फड़ाए, “ बेटा ! म ..म..मतलब मनेजर बाबू..?”
लाख-लाख आँखें फट गईं उदित की-‘ बेटा ....,यह अब्दुल्ली.....!’ हैरत में डूबा पूछा उदित ने, “क्या कहना चाहती हो अब्दुल्ली ?”
“मैनेजर बाबू , जाते-जाते भी मेरा करेजा जुड़ाते जाइए। एक छोटा-सा सौगात है। अपने घर से खीर बनाकर लाए हैं।चिख-चिखकर। बहुत स्वादिष्ट और मिट्ठा है।”
“रोज-रोज तेरे हाथ का बना कैंटीन का कुछ- न- कुछ खाता ही हूँ। यह नहीं देने का राज ?”
“राज है मनेजर बाबू। हम आपको अपना ‘दूध’ पिलाए हैं।”
“क्या....?”
“हाँ वह भी पाँच-पाँच महीना। जब आपकी माँ स्तन-कैंसर के कारण आपको दूध पिलाने से असमर्थ थीं।”
“तो वह महिला.....! ”उदित का मुँह खुला- का- खुला रह गया।
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प्रविष्टि क्रमांक - 159
दो बूँदें
लघुकथा -
डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
नौकरानी किचेन में खाना बना रही थी। आज छुट्टी के दिन माँ अपने साल भर के बेटे को भरपूर प्यार देना चाहती थी। कभी गाय का दूध पिलाती, कभी रंग-बिरंगे खिलौने देती, पर बेटा कि चुप होने का नाम नहीं लेता। इधर एक मिनट के लिए बाथरूम गई माँ। लौटी तो वहाँ बेटे को नहीं पाया। न ही उसकी कोई आवाज।
“राधा ! राधा ! किट्टू कहाँ है ?” घबराती इधर-उधर दौड़ पड़ी माँ।
“झूला झूल रहे हैं दीदी।” नौकरानी ने बेफिक्री से कहा। और, माँ ने देखा – किट्टू राधा की गर्दन में हाथ लपेटे उसकी पीठ पर लेता है और राधा आटा गूँधती हुई अपनी पीठ झूला रही है।
टप- टप दो बूँदें ढुलक पड़ीं माँ की।
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डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
शेखपुरा, खजूरी, नौबतपुर, पटना-801109
ईमेल;-writervirendrabhardwaj@gmail.com
लघुकथा उत्कृष्ट और संदेशसूचक है। शिल्प-विधान भी सराहनीय।यों बात यहाँ भी...'आंतरिक नग भी धारण किए? अचानक इस विचार -कौंध में पड जाता है।' समाप्त हो सकती है। सादर।
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