प्रविष्टि क्रमांक - 118 मानक तुलसीराम गौड़ 1 गुहार एक ग्रामीण परिवार में कृषि कार्यों के लिए दो बैल पाल रखे थे, सुन्दर और सुघड़। बैल अपने नि...
प्रविष्टि क्रमांक - 118
मानक तुलसीराम गौड़
1
गुहार
एक ग्रामीण परिवार में कृषि कार्यों के लिए दो बैल पाल रखे थे, सुन्दर और सुघड़। बैल अपने निर्धन मालिक को देख-देखकर दुःखी होते रहते। उसकी पैबन्द लगी कमीज और फटी धोती देखकर उसकी गरीबी और लाचारी पर अपनी आँखों से आँसू टपका बैठते।
उन्होंने आपसी विचार-विमर्श कर दुगुनी मेहनत करने का दृढ़ निश्चय किया, जब तक कि घर मालिक की गरीबी दूर न हो जाए। चार-पाँच वर्षों के कठिन और घोर परिश्रम से मालिक के तो दिन फिर गये, मगर बैलों को बुढ़ापे ने आ घेरा। अब वे उतनी मेहनत कर नहीं पाते तो मालिक नई बैल जोड़ी खरीदकर घर ले आया। बस, फिर क्या था ? बूढ़े बैलों के दुर्दिनों की शुरूआत हो गई। ताजा सानी-पानी तो नये बैलों के लिए और जूठन बूढ़े बैलों को दी जाने लगी।
ऐसे में जब दिनों पर दिन और माह पर माह बीतने लगे तो बूढ़े बैल अपना सारा दुःख-सन्ताप लेकर घर मालिक के बूढ़े बाप के पास गुहार लेकर चले गए और अपना दुःखड़ा रोया।
तब बूढ़े बाप ने कहा- ‘‘अरे भाइयों, तुम्हें हर रोज जूठन तो नसीब होती है, यहाँ तो वह भी नहीं। बेटे की बहू खाना माँगने पर रोटी नहीं, आँख दिखाती है।’’ और वे अपनी आँखें गीली कर बैठे।
बूढ़े बैल उलटे पाँव अपने बाड़े की ओर लौट चले।
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प्रविष्टि क्रमांक - 119
मानक तुलसीराम गौड़
2
तुषारापात
सिंह साहब बहुत नेकदिल एवं सरल हृदय इंसान हैं, परन्तु थोड़े लोभी भी। वे मेरे बहुत करीबी मित्र ही नहीं, बल्कि लंगोटिया यार भी हैं। इसलिए मैं अक्सर उनके घर गप्पें लड़ाने चला जाता हूँ। उन्होंने अपने बड़े बेटे को नाश्ते के लिए रसगुल्ले लाने के लिए भेजा तो मैंने कहा-
‘‘सिंह साहब, खर्चा कम किया करो। वैसे भी मैं जब भी आता हूँ तो चाय तो पीकर ही जाता हूँ।’’
तब उन्होंने ठहाका मारते हुए कहा- ‘‘अरे यार शर्माजी, क्या फर्क पड़ता है। दोनों बेटे इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। अभी से ही उनके रिश्तों के लिए लाइन लग गई है। दोनों के लिए पाँच-पाँच लाख का प्रस्ताव तो अभी ही दे रहे हैं। पढ़ाई पूरी हो जाने पर तो दस-दस लाख रुपये पटक कर जाएँगे। आप तो रसगुल्ले खाओ और मौज मनाओ।’’
रसगुल्ले किसे अच्छे नहीं लगते। मैंने गटागट पाँच-सात रसगुल्ले टिकाए और घर चला आया। उसके पश्चात् मेरा तबादला अन्यत्र हो जाने से पूरे साल भर बाद उनके घर जाना हुआ।
सिंह साहब बाहर बरामदे में सिर पकड़े बैठे थे। पूछा तो उत्तर मिला- ‘‘यार शर्माजी, दोनों बेटे नालायक निकले। सालों ने कोर्ट मेरिज कर ली। पैसों की तो बात ही छोड़ो, मैं तो शादी के नाम पर भर पेट नाश्ते के लिए भी तरस गया।’’
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प्रविष्टि क्रमांक - 120
मानक तुलसीराम गौड़
3
घर
वर्माजी मेरे लंगोटिया यार हैं। हमने पढ़ाई भी एक साथ ही की थी। मैं पास होता गया और वे फेल। मैं बैंक में बाबू बना और वे एक बहुत बड़े ठेकेदार एवं राजनेता भी। आज वे करोड़पति हैं। शहर के बीचों बीच बहुत बड़ी एवं शानदार कोठी है।
उनसे मिलने की बहुत उत्कंठा हुई तो वहाँ पहुँच गया। वे घर पर ही थे। उन्होंने मुझे पहचान लिया, अन्यथा पैसा, पद, पॉवर एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर कौन किसे पहचानता है।
वे मुझे पूरी कोठी में घूम-घूमकर एक-एक कमरा, शयनकक्ष, हॉल, किचन वगैरह दिखलाते हुए इस प्रकार वर्णन कर रहे थे-
‘‘यार शर्मा, यह जो छोटा कमरा देख रहे हो न, वह हमारा पूजा घर है। वह गेस्ट रूम है। उधर बाहर देखो, वह सर्वेंट रूम है। गेट पर गार्ड रूम है और उसके ठीक पास डॉग शेल्टर भी।’’ इतने में मोबाइल की घंटी बजी। मुझे मुनीम के हवाले कर वे चले गए।
मुझे उनके पिताजी की याद आई तो मैंने मुनीमजी से उनके बारे में पूछ ही लिया। तब एक लम्बी उसांस भरते हुए उन्होंने जवाब दिया-
‘‘शर्माजी, बूढ़े माँ-बाप आजकल घरों में होते कहाँ हैं। उनका घर तो वृद्धाश्रम होता है या फिर वे बेघर ही होते हैं३ण्ण्।’’ उसके आगे वे बोल नहीं पाए और रूमाल से अपनी आँखें पोंछने लगे।
मुझे भी लगा कि अब यहाँ से चलना चाहिए अन्यथा यहाँ मेरा दम घुट जाएगा।
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प्रविष्टि क्रमांक - 121
मानक तुलसीराम गौड़
4
उलटे पाँव
शर्माजी के केवल दो बेटे ही हैं। उनके रिश्तों की बात चली तो वे स्वयं ही लड़की देखने चले गए।
चाय-नाश्ता हो जाने के पश्चात् शर्माजी ने अपना गुणगान यूँ शुरू किया-
‘‘हम दो भाई हैं। बँटवारे में शहर के प्लॉट मैंने रख लिए और गाँव में खेती की जमीन छोटे भाई के हिस्से में कर दी। आज प्लॉटों के दाम आसमान छू रहे हैं, जबकि कृषि भूमि के दामों में कोई खास वृद्धि नहीं हो पाई है। यह मेरी दूरदर्शिता का ही नतीजा है।
मैं वैसे भी भाग्यशाली हूँ। मेरे पिताजी के कोई बहन नहीं है, न ही मेरे और न ही मेरे बेटे के। आपकी बेटी को न तो धन की कमी आएगी और न ननद के झंझटों से पाला पड़ेगा।‘‘
समधीजी ने अपनी बात पूरी की तो कन्या की माँ ने यूँ प्रत्युत्तर दिया-
‘‘महाशय, बँटवारे में आपने छोटे भाई के साथ अन्याय किया है। आपको जो अपनी दूरदर्शिता दिख रही है, मुझे उसमें साजिश की बू आ रही है। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था। रही बात आपके परिवार में कन्या न होने की तो वह तो ऊपरवाले के हाथ है, परन्तु परिवार में कन्या के नहीं होने से उसे उत्सव के रूप में मनाना मुझे खल गया।
‘‘जिस घर में बेटी के प्रति इतने हीन विचार हों, उस घर में मैं मेरी पुत्री का सम्बन्ध नहीं कर सकती क्योंकि जिसे बेटी के प्रति स्नेह न हो, वह बहू को बेटी का प्यार कैसे दे सकता है। मुझे क्षमा करना, महोदयजी।‘‘
शर्माजी अपनी कथनी और करनी का फल भोग उलटे पाँव घर की ओर लौट चले।
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प्रविष्टि क्रमांक - 122
मानक तुलसीराम गौड़
5
आँसुओं की भरमार
रामलालजी जीवन भर संघर्ष करते हुए चले गए, मगर उनके घर से गरीबी नहीं गई। खेत की छोटी जोत के जब दो टुकड़े हुए और दोनों बेटों में बाँटे तो जोत लघु से लघुतर हो गई। अब बस इतनी-सी ज़मीन से निर्वाह कैसे होगा, यह सोचकर छोटे बेटे श्यामू की आँखों से आँसू टपक पड़े।
माँ छोटे बेटे के साथ थी। उसने उसे ढ़ाढ़स बंधाया- ‘‘बेटा, मन छोटा मत कर। एक गाय या भैंस पाल लेते हैं। मैं उसकी सार-संभाल कर लूँगी। उससे भी कुछ अर्जन हो जाएगा।’’
‘‘माँ, इस उम्र में तुम गाय-भैंस का गोबर उठाओगी........? मरा है तो केवल बापू...........।’’ और वह पुनः सुबकने लगा।
माँ ने उसका सिर सहलाया और सांत्वना दी। हिम्मत बंधाई। इसके सिवाय उसके पास था भी क्या ?
श्यामू ने फिर कहा- ‘‘माँ, इस छोटी जोत की वजह से न तो पूरे समय खेत का काम रहता है और न ही हमें खेती छोड़ मजदूरी करने आ अवसर मिल पाता है। हम भूमिहीनों में भी नहीं आते, जिनके लिए सरकार विभिन्न योजनाओं के जरिए फायदा पहुँचाती है।’’ माँ क्या कहती। वह चुप थी।
तभी बड़ा बेटा बोला- ‘‘सुना है, अपने खेत से होकर सड़क निकलने वाली है। उसमें काफी लोगों की जमीन जाने वाली है। पूरा गाँव उधर ही इकट्ठा है। भूमि अवाप्ति का विरोध हो रहा है।’’
माँ ने कहा- ‘‘लो, अब यह कोढ़ में खाज और हो रही है।’’
तभी किसी ने बताया कि मामले ने तूल पकड़ लिया है। एक तरफ ग्रामीण और दूसरी तरफ प्रशासन व पुलिस है। भीड़ को तितर-बितर करने हेतु पुलिस ने आँसू गैस के गोले छोड़े हैं।
तब माँ ने कहा- ‘‘गरीबों की आँखों में आँसू क्या पहले ही कम थे जो सरकार आँसू गैस के गोले छोड़ रही है।’’
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