देहात में एगो कहावत है ...तेतर बेटा भीख मंगावे , तेत्तर बेटी राज लगावे। सो उ लईका भी ईश्वर की कृपा से इसी प्लॉट में फिट होता हैं । इसको लेकर...
देहात में एगो कहावत है ...तेतर बेटा भीख मंगावे , तेत्तर बेटी राज लगावे।
सो उ लईका भी ईश्वर की कृपा से इसी प्लॉट में फिट होता हैं । इसको लेकर उसकी मतारी बड़ा दुखी भी होती थीं।
लेकिन खैर काल चक्र चलता रहा , समय सजा भी है और मज़ा भी।
बाबू जी बेहद उच्च दर्जे के गणित के अध्यापक और उससे भी कमाल के बाप थें। पुत्र और पिता में भवे और भसुर वाला कनेक्शन। संभवतः आजतक है । बाप को देखते लड़ीका अपने साइड पकड़ता था। कारण कि पढ़ने में गधा था।
"लड़का" भारतीय बाप के लिए प्रतिष्ठा का विषय ज्यादा होता है पुत्रवत हो ना हो।
सो मास्टर साहब अपने लडके को शारीरिक ,मानसिक , आध्यात्मिक, भौतिक और रासायनिक सब तरीके से समझाते थे। जिसके कारण भोथर बोतल जैसा उनका लड़का एकदम तेजी से ज्ञान प्राप्ति के तरफ बढ़ा ।
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मास्टर साहेब को भाषण और वाद विवाद से बहुते नफरत था और लडिका उसी में तेज था। विज्ञान और गणित का आलम ये था कि सातवां में लघुटम औरि बट्टा का जोड़ तक नहीं आता था। लेकिन कुटाई में बहुत शक्ति है। इसी शक्ति से गाव में ओझा लोग सिरकट्टा से लेके चुडैलिया तक को कटहल के गाछी में बांध देते हैं।
सो आठवा में लइका NTSE पास किया और इंस्पायर(इन्नोवेशन इं साइंस :::) में सेलेक्ट हो गया। फिर भी लड़िकां सुधरने वाला नहीं था। हाइ स्कूल पहुंचते सबसे पहिले लाइब्रेरी कार्ड बनवा के हिंदी और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने लगा। लेकिन दिक्कत तब होता था जब कोई खुफिया सूत्र इ खबर लिक कर दे और बाबू जी जान जाए। हालाकि अंग्रेजी पढ़ने पर खाली ऐतना कह के छोड़ देते थे कि "साला सिलेबस पढ़ , ना त कुत्तों ना पूछी". लेकिन हिंदी का किताब धराते ऐसे टूट पड़ते थे मानो कि लइका अलकायदा का आतंकी है।
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हालाकि इसका कारण इ था कि बाबू जी को लगता था कि हिंदी पढ़ने से कुछू होगा नहीं ,और बडका बडका हिंदी के लेखक लोग गरीबी में मर गए। इसलिए मास्टर साहेब की चिंता बेटे के लिए जायज थी और उसमें भी तब जब उ गैरसरकारी अध्यापक हों।
फिर समय करवट फेरा मैट्रिक परीक्षा देने के बाद लाइका बोला की हम किसी भी कीमत पर आईआईटी आदि का तैयारी नहीं करेंगे और आर्ट्स लेंगे। बाबूजी फूल प्रयास किए पर बाद में सहमत हो गए और संधि का शर्त ये हुआ कि साइंस लो कम से कम। बातचीत जो पहिले थोडी बहुत थी अब एकदम औपचारिक हो गई ।
फिर 11th करते करते लाइका इ समझ गया कि दाल चीनी का भाव क्या है और इस पढ़ाई से काम नहीं चलेगा, औरी नौकरी एकदम मंडेटरी है काहे की मास्टर साहेब का मेंटल हेल्थ एकदम नाजुक हो गया और स्लीपलैसनेस से सिजॉफ्रनिया की स्टेज आ गया। लाइका इस बात को भली भांति जान गया कि पहली और आखिरी प्राथमिकता नौकरी और वो भी जल्दी।
गांव के अध्यापक प्रतिष्ठा बेशक कमाए पर पाइसा के नाम पर हाथ तंग ही रहता है काहे वहां विशुद्ध मास्टरी होता है दलाली नहीं ,और ज्यादातर लोगवा तो जान पहचान का ही रहता है। कौनो भाई है तो कोई भतीजा।
और उसमे भी तीन बेटियां और उनकी पढ़ाई।
सब मिलकर लड़िका पर बहुत प्रेशर आ गया। बाबू जी का सब बात अब समझ में आने लगा।
कंजूसी तो खून में है इसलिए प्राइवेट दुकान से बीटेक करने का सवाल था ही नहीं। सो लड़के को ओवर्सियरी (डिप्लोमा) में एडमिशन मिल गया । फिर शहर आते पंख खुले । 6 महीने में पूरे कॉलेज त दूर दूसरे कॉलेज और हॉस्टल के लड़के जानने लगे। कुल मिला के उ हीरो हो गया। अब साहित्य और हिंदी पढ़ने से कौन रोकता। रात में जगने का वरदान तो बपौती था ही । सो सारा समय पढ़ने पढ़ाने में लग गया।
3 साल में शहर में उस दर्जे का संबंध बना जो आने वाले 300 साल तक रहेगा। एक से एक ज्ञानी और एक से एक बदमाश सबसे।
फिर पासआउट होते लड़का समझ गया कि अब क्या करना है । कॉलेज टॉप करना अलग और नौकरी लेना अलग। और उसमे भी तब जब लड़ाई में अपने से ज्यादा तथाकथित रूप से पढ़े लोग भी शामिल हों।
खैर जो भी हो लेकिन करना तो था चाहे शौक से करे या मजबूरी में।
सो पुरानी किताबे फिर पलटी गई और अंधाधुंध पढ़ाई। हालाकि शायरी , कविता , साहित्य का संबंध छूटा नहीं । अब घोस्ट राइटिंग (दूसरे लोगों के लिए उनके नाम से ) का धंधा भी पैसा कमाऊ होने लगा। हालाकि ये काम साहित्यिक अपराध समझ के छोड़ना पड़ा। मास्टर साहब के लड़के जो ठहरे ,सो भूखे रहेंगे पर सिद्धांत की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सकते।
6 महीने गुजरते गुजरते लड़का सेट हो गया। भारत सरकार के एक विभाग में झोलाछाप इंजिनियर (JE) बन के
।
परिवार खुश।
रिश्तेदार भी खुश , हालाकि खुश क्या , पर खुशी दिखाना तो पड़ेगा ही ।
दिन कटने लगा। लड़का अपने मस्ती में जीने लगा।
फिर से साहित्य पढ़ने की उत्कंठा जीवित हो गई।
बाबू जी का तबीयत ठीक होने लगा।
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ऐसे में खाली समय में बुक ना त फेसबुक । साहित्य पढ़ना ना तो कुछ कुछ फालतू फालतू बिना मतलब लिखना और वॉट्सएप और फेसबुक पर फेकना। हालाकि उसका मतलब भी होता है।
ऐसे ही चलता रहा कि एक दिन बाबू जी का फोन दिन में आया। थोड़ी बहुत बात हुई उसके बाद बोले की "एगो गलती हो गइल हमरा से , तू जौन चाहत रहल उ तहरा के ना करे देनी हम ही । बहुत भारी मिस्टेक भईल ।"
फिर एगो लंबा खामोशी पर झनझनाहट एकदम दिल और दिमाग के हिला दे लक।
तहार रुझान के हम मोड़ देनी , कलवा एगो नज़्म तहार पढ़नी , एकदम शानदार रहे।"
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"हम तो बाबूजी के वॉट्सएप स्टेटस देखे पर अपना तरफ से ब्लॉक कर देले बानी।
लईका के आश्चर्य के सीमा ना रहल।
शायद दोसर केहु, दिखा देले होई।
हालांकि फोन कट गया , पर लइका खुशी और गम दोनों महसूस कर रहा था। आज बाबूजी पहिले बार तारीफ़ किए थे पर ज्यादा दुख इस बात का था कि चाहे जो भी हो आज हमारी वजह से बाबूजी को अपराध बोध हुआ, ये ठीक नहीं हुआ।
पर अंतिम बात जो बाबू जी बोले " केतनो खराब स्थिति रहे ,तू आपना बाल बच्चा पर आपन मर्जी मत थोपीह।"
आज फिर बहुते दिन बाद लइका के आंख में आंसू था, और सोच रहा था कि काश बाबूजी ये पहले सोचे होते । खैर "ख्वाहिश" और फरमाइश में " फरमाइश " को पहले पूरा करना ही युगधर्म है।
और वह आज फिर गुनगुना रहा था_
"अनुभवों के पाठशाला में थोड़ा युवा होकर,
हम पिता का दर्द समझेंगे सिर्फ पिता होकर।"
Bhai..ansu a aa gye ankho me
जवाब देंहटाएंShukriya Bhai saheb
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