लमही का नाम लेते ही कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी की तस्वीर आँखों से सामने उभरने लगती है. देश का सबसे चर्चित शहर कहलाए जाने वाले बनारस/काश...
लमही का नाम लेते ही कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी की तस्वीर आँखों से सामने उभरने लगती है. देश का सबसे चर्चित शहर कहलाए जाने वाले बनारस/काशी से महज तीन-साढ़े तीन किमी.दूर स्थित एक छोटा सा गाँव है “लम्ही” जो कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के कारण देश में ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. 31 जुलाई 1880 को इसी छोटे से ग्राम में जन्मे धनपतराय श्रीवास्तव ( मूल नाम ), कभी नवाब राय तो कभी प्रेमचंद जी के नाम से जाने गए. प्रेमचंद जी ने इसी गाँव में बैठकर नमक का दरोगा, रानी सारन्धा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, मन्दिर-मस्जिद जैसी अमर कहानियों के अलावा सेवासदन, प्रेमाश्रय, रंगभूमि, निर्मला, गबन,कर्मभूमि, गोदान जैसे उपन्यासों को लिखकर, लमही को देश के नक्शे पर ला दिया. आपके उपन्यासों से प्रभावित होकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद चट्टोपाध्याय जी ने उन्हें कथा-सम्राट कहकर संबोधित किया. आपने कहानियों और उपन्यासों की एक ऐसी परम्परा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया. साहित्य की यथार्थवादी-परम्परा की जो नींव आपने डाली, उसका गहराई से प्रभाव आगामी पीढ़ी पर पड़ा. उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा ही माना जाएगा. एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा विद्वान संपादक के रूप में कार्य करते हुए आपने तकनीकी असुविधाओं के बावजूद, प्रगतिशील मूल्यों को आगे बढ़ाने का काम किया.
अनगिनत कथाकारों/साहित्यकारों के प्रेरणा-स्त्रोत रहे प्रेमचन्द जी के गाँव लमही, जहाँ आपका जन्म हुआ था, के दर्शनों के लिए भला कौन नहीं जाना चाहेगा? कौन भला उस माटी के रज-कण को अपने माथे पर नहीं लगाना चाहेगा? चाहते तो सभी हैं,लेकिन अपने निजी कारणॊं के चलते नहीं जा पाते. मन में एक निराशा का भाव,/. एक मलाल जरुर छाया/बना रहता होगा, कि उन्हें यहाँ आने का सौभाग्य कब प्राप्त होगा?. स्वयं एक कथाकार होने के नाते, मेरे मन में भी निराशा का कुहासा-सा छाया रहता था, कि मैं अब तक वहाँ नहीं जा पाया. शायद इसे समय की बलिहारी कहें, तो ज्यादा उपयुक्त होगा.
मेरे अपने जीवन में वह सुनहरा दिन भी आया, जब मैं मुंशी प्रेमचन्द जी के जन्म-स्थान के दर्शन कर पाया. मैं हार्दिक धन्यवाद देना चाहता हूँ रायपुर (छ.ग.) के मित्र श्री जयप्रकाश मानस जी को, जिनके सौजन्य से मुझे वहाँ जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. अंतराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के उन्नयन और प्रचार-प्रसार और हिन्दी संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए बहुआयामी साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थान “सृजन सम्मान” तथा “साहित्यिक वेव पत्रिका सृजनगाथा डाट काम” मंच का गठन किया था. अपने भगीरथ प्रयास और पहल के अनुक्रम में इस मंच ने रायपुर, मारीशस, पटाया, ताशकंद (उज्बेकिस्तान), संयुक्त अरब अमीरात, कंबोडिया-वियतनाम, श्री लंका तथा चीन में सफ़लतापूर्वक आयोजन किये हैं. तत्पश्चात आपने दसवें अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन, नेपाल में त्रिभुवन विश्वविद्यालय नेपाल, शिल्पायन नई दिल्ली प्रकाशन, सदभावना दर्पण, छतीसगढ़-मित्र, सृजन-सम्मान, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, लोक सेवक संस्थान, गुरु घासीराम साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के संयुक्त प्रयास से दिनांक 17 मई से 24 मई 2015 को काठमांडु में समायोजित करने की घोषणा की. बरसों से इस पवित्र माटी के दर्शनों की अभिलाषा मन में बनी हुई थी, सो मैंने भी इस मंच के माध्यम से वहाँ जाना उचित समझा और अपनी सहमति प्रकट कर दी. इस साहित्यिक यात्रा को बड़ा ही मन-भावन नाम दिया गया था-“लमही से लुम्बिनी”. इस यात्रा संस्मरण को मुझे बहुत पहले ही लिख देना चाहिए था, लेकिन कंप्युटर से सारे फ़ोटॊग्राफ़्स डिलीट हो गए थे. फ़ोटॊ के अभाव में लिखने का मानस ही नहीं बन पाया. काफ़ी प्रयास के बाद कुछ फ़ोटोग्राफ़्स उपलब्ध हुए, और मैं इस यात्रा-संस्मरण को लिख पाया.
मंच पर “लमही” पत्रिका के संपादक श्री विजय राय जी. पास ही में खड़ी हैं आपकी माताजी श्रीमती शकुन्तला देवी, आपको यह जानकर सुखद आनन्द होगा कि आप प्रेमचंदजी की भतीजी हैं. ( इन दोनों के मध्य मैं भी खड़ा दिखाई दे रहा हूँ
यह वह समय था जब दिल दहला देने वाले भूकंप के झटके, नेपाल में लगातार आ रहे थे. भुकंप का केन्द्र-बिंदु काठमांडु बना हुआ था. देश के तमाम अखबार, बर्बाद होते नेपाल के चित्रों को प्रमुखता से प्रकाशित कर रहे थे और टी.व्ही चैनल इन हृद्य-विदारक दृष्यों के लाईव दिखला रहे थे. सिमेन्ट-कांक्रीट से बनी इमारतें ढह गईं थीं और ईंट-मिट्टी-गारे से बने कच्चे मकान और झुग्गी-झोपडियाँ जमींदोज हो चुके थे. जन-सामान्य तंबुओं के नीचे जीवन -बसर करने के लिए मजबूर हो चुके थे.
आँखों के सामने बदहाल होते नेपाल के दृष्यों को देखकर, घर के सभी छोटे-बड़े सदस्यों ने मुझे यात्रा रद्द कर देने का सुझाव दिया. चुंकि कार्यक्रम काफ़ी पहले घोषित किया जा चुका था. वहाँ की अधिकांश होटेलें आरक्षित की जा चुकी थी. यात्रा को रद्द भी तो नहीं किया जा सकता था, अंत में यह निर्णय लिया गया कि काठमांडु से करीब तीन सौ किमी. दूर स्थित “पोखरा” जहाँ भुकंप की विनाशलीला नहीं के बराबर थी, निर्धारित कार्यक्रम आयोजित किए जाएं. दूर-दराज से आने वाले यात्रियों के लिए बनारस की एक ग्रांण्ड होटेल में ठहरने की व्यवस्था पहले से ही बनाई जा चुकी थी.
बनारस की एक सुबह.
बनारस /काशी / वाराणसी जैसे नामों से विख्यात यह शहर, उत्तरप्रदेश में गंगा जी के किनारे स्थित एक प्रमुख धार्मिक केन्द्र है तथा सप्तपुरियों मे अपना प्रमुख स्थान रखता है. यहीं पर बारह ज्योतिर्लिंगों में एक जगप्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ जी विराजमान हैं. बनारस को लेकर एक मुहावरा जगप्रसिद्ध है- “चना-चबैना गंग जल, जो पुजबै करतार- काशी कबहुं न छाड़िये, विश्वनाथ दरबार” अर्थात- भुख मिटाने के लिए चना और प्यास मिटाने के लिए गंगाजी का जल पीकर करतार (शिव) की आराधना करते रहें क्योंकि काशी जी में स्वयं भगवान भोलेनाथ विराजते है. अतः इस पावन भूमि को कदापि न छॊडें. जनसामान्य में इस स्थान के प्रति इतना लगाव और श्रद्धा है कि वह जब-तक बाबा के दर्शनों के लिए दौड़ा चला आता है.,
रात का सफ़र ट्रेन में ही गुजरा. पौ अभी फ़टी भी नहीं थी कि हम बनारस जा पहुँचे. यहाँ-वहाँ समय न गवांते हुए मैं और मेरे मित्र श्री नर्मदा प्रसाद कोरी निर्धारित होटेल में जा पहुँचे. जयपुर के प्रख्यात लेखक श्री प्रबोध गोविलजी से हमारी पहली मुलाकात यहीं पर हुई थी. वे कुछ समय पहले ही इस होटेल में पहुँचे थे. अभी और भी सदस्यों का आना बाकी था. सो हमने समय न गंवाते हुए, गंगा स्नान और बाबा विश्वनाथ जी के दर्शनों का मन बनाया. बनारस की तंग गलियों मे घूमना, यहाँ की धार्मिक फ़िजाओं में घूमने का अपना ही एक अनोखा आनन्द और आकर्षण है. सूर्योदय से पहले और बीतती रात के धुधंलके में चलते हुए हमने. गंगा स्नान किया और बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन किए.
लमही की ओर.
बसें लगाई जा चुकी थीं और हम सब उस पवित्र स्थान जिसका नाम “लमही” है निकल पड़े. यह स्थान साहित्यकारों के लिए किसी मक्का-मदीना से कम नहीं है. हमारी इस यात्रा में- जयप्रकाश मानस, डा. सुधीर शर्मा, श्री गिरीश पंकज, डा.अर्चना अरगड़े, डा. लालित्य ललित, प्रेम जनमेजय, डा.बुद्धिनाथ मिश्र, डा.हरिसुमन विष्ट, प्रबोध गोविल, डा.अनुसूया अग्रवाल, रामकिशोर उपाध्याय और मेरी मित्र-मण्डली, जिसमें प्रो.राजेश्वर आनदेव, डा.विजय चौरसिया, विजय आनदेव, अरूण अनिवाल, नर्मदा प्रसाद कोरी सहित अनेक स्वनाम धन्य साहित्यकार थे.
हम अपनी खुली आँखों से उस स्थान को श्रद्धा और लगन के साथ निहार रहे थे, जहाँ बैठकर कभी प्रेमचंदजी ने बेजोड़ कहानियाँ और उपन्यास लिखकर, हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है. आपके हाथ से लिखी गई पांडुलिपियाँ, उन दिनों में प्रकाशित होने वाली साहित्य पत्रिकाएँ, जिसमें प्रेमचंद जी की कहानियाँ आदि प्रकाशित हुई थीं. एक बुक-हैंगर पर सजाकर रखी गई हैं. कुछ दुर्लभ छाया-चित्र, दीवारों पर करीने से लगाए गए है. इन सबको देखकर आभास होता है कि प्रेमचंदजी यहीं-कहीं हमारे आसपास मौजूद हैं. कमरों से लगा हुआ एक खुला आँगन है, जिसे बहुत बड़ा तो नहीं कहा जा सकता, आपकी एक प्रतिमा स्थापित है,
हम सभी मित्रों ने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए. और फ़ोटोग्राफ़्स लिए. बरसों पहले संजोया गया सपना अब जाकर पूरा हो पाया था.
प्रेमचंद जी के आवास के पास एक विशाल पुस्तकालय भवन बनाने की तैयारी चल रही है. सुना है, इसमें प्रेमचंदजी के साहित्य के अलावा देश-विदेश के प्रख्यात साहित्यकारों की पुस्तकें भी शामिल की जाएगी.
मन यहाँ से कहीं जाने को नहीं हो रहा है,लेकिन जाना पड़ रहा है, क्योंकि आप अपने को समय के बंधन में बांधकर जो चले है. आज यहाँ तो कल वहाँ...यात्रा का मूल मंत्र यही है. भारी मन लिए हम लमही को पीछे छॊड़ते हुए सारनाथ की ओर चल निकले थे. यह वही स्थान है जहाँ बोधी (बुद्ध) ने प्रथम बार अपने शिष्यों को उपदेश दिया था.
सारनाथ .
वाराणसी से 10 किमी.पूर्वोत्तर में स्थित सारनाथ एक प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है. ज्ञान प्राप्ति के ठीक पश्चात भगवान बुद्ध ने इसी स्थान पर अपने शिष्यों को पहली बार उपदेश दिए थे, जिसे “धर्म चक्र प्रवर्तन” का नाम दिया गया, जो बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ भी माना गया. अब हम नेपाल की ओर बढ़ चले थे.
नेपाल बार्डर.-सोनाली.
सोनाली नेपाल बार्डर पहुँचते ही शाम घिर आयी थी. चेक-पोस्ट पर यात्रियों की सूची दे दी गई. आवश्यक जाँच पश्चात हमने नेपाल की सीमा में प्रवेश किया और रात्रि विश्राम किया. सूचनार्थ यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि नेपाल के लिए पासपोर्ट की जरुरत नहीं पड़ती. केवल वोटर-आई.डी से ही काम चल जाता है. यहाँ रात्रि विश्राम करने के बाद हम पोखरा की ओर रवाना हुए.
नेपाल बार्डर श्री सेवाराम अग्रवालजी बार्डर पर
पोखरा.
यदि आप प्राकृतिक सुषमा को जी भर के निहारना चाहते हैं तो आप एक बार नेपाल जरुर जाएं. करीब 800 किमी.लम्बी हिमालय पर्वत की श्रॄंखला की सुन्दरता यहाँ देखती ही बनती है. काली नदी से तिस्ता नदी के बीच फ़ैली इस रेंज को “हिमालयान रेंज” कहा जाता है.
नेपाल, तिब्बत तथा सिक्किम में स्थित इस रेंज के पूर्व में असम-हिमालय तथा पश्चिम में कुमाऊँ-हिमालय स्थित है, नेपाल-हिमालय चारों विभाजनों में सबसे बड़ा है. माउंट एवरेस्ट, कंचनजंघा, ल्होत्से, मकालू, चीयु, मनास्लय, धौलगिरि और अन्नपूर्णा इत्यादी नेपाल-हिमालय की प्रमुख चोटियाँ हैं. मेची, कोशी, बागमती, गंडक तथा कर्णाली नदियों का उद्गम स्थल भी नेपाल-हिमालय में ही होता है. यहाँ की काठमांडु घाटी जगप्रसिद्ध है.
एक छॊटे से देश नेपाल की प्रमुख आय का स्त्रोत पर्यटन ही है. भारतीय करेंसी और नेपाली करेंसी लगभग समान मूल्य की है. यहाँ लेन-देन में भारत के नोट आसानी से स्वीकार किए जाते रहे हैं. वर्तमान में इसमें कुछ आशिंक परिवर्तन किए गए हैं. इसका उत्तरी हिस्सा हिमालय की चोटियों से घिरा हुआ है, दुनियां की दस ऊँची चोटियों में से आठ चोटियाँ अकेले नेपाल में है. दुनियां की सबसे खूबसूरत और ऊँची चोटी एवरेस्ट नेपाल में ही स्थित है, इसे यहाँ सागरमाथा कहा जाता है. हिन्दू और बौद्ध धर्म की साझा विरासत नेपाल के कण-कण में समाई हुई है.
लुम्बिनी.
भगवान बुद्ध का जन्म, दक्षिण नेपाल की तराई वाले मैदान में स्थित लुंबिनी क्षेत्र में 623 ईसा पूर्व में हुआ था, इस बात का उल्लेख सम्राट अशोक द्वारा स्थापित शिलालेख पर देखने को मिलता है. मायादेवी का मन्दिर, एक तालाब के पास स्थित है. इसी स्थान पर बुद्ध का जन्म हुआ था. यहाँ फ़ोटोग्राफ़ी करने की सक्त मनाही है.
(मायादेवी मन्दिर का भीतरी कक्ष, जहां बुद्ध ने जन्म लिया था.)
मायादेवी मंदिर के भीतर अवशेष, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर, वर्तमान शताब्दी और ब्राह्मी लिपि में पाली शिलालेख के साथ बलुआ पत्थर पर, अशोक स्तंभ में एक क्रास-दीवार प्रणाली में ईंट संरचनाओं से युक्त है.
भगवान बुद्ध के जन्म से जुड़े पुरातात्विक अवशेषों को यहाँ संरक्षित करके रखा गया है.
पोखरा –फ़ेवा झील.
फ़ेवा झील हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में अवस्थित है. पहाड़ों के मध्य एक कटोरानुमा स्थान में, मीठे पानी की यह झील दूर-दूर तक फ़ैली हुई है. झील में पर्वत-श्रृंखलाओं की प्रत्तिछाया, झील के ठहरे पानी में पड़ कर एक मनोहारी दृष्य पैदा करती है. इस मनोहारी दृष्य को देखकर, आँखें पलकें झपकाना बंद कर देती है और पर्यटक मंत्रमुग्ध होकर उसमें गोते लगाने लगता है. उमड़ते-घुमड़ते श्याम-श्वेत बादलों के झुंड, जब हवा की पीठ पर सवार होकर, इस झील के ऊपर से गुजरते हैं, तो दर्शक इस नयनाभिराम दृष्य को देखकर ठगा-सा रह जाता है. सर्र-सर्र कर सरसराती हवा के झोंके, जब पर्यटकों के बदन को छूते हुए गुजरती हैं, तब ऐसा महसूस होता है कि वह भी हवा के संग-संग आसमान में उड़ा चला जा रहा है. पर्यटक यदि बड़ी सुबह इस झील के पास पहुँच जाए तो उसे और भी मनोहारी दृष्य देखने को मिल सकते हैं, ऊगते हुए सूर्य का प्रतिबिंब, सोने की तरह चमचमाते पर्वत-शिखर, लहर-लहर लहरों में पड़ती सूर्य किरणें, नीले-हरे-और गुलाबी रंगों के मिश्रिण से एक ऐसा अद्भुत वितान खड़ा करती है, जिसकी की कभी हमने कभी कल्पना तक नहीं की होगी. पोखरा की इसी वादियों में आपको पहाड़ों से गिरते, शोर मचाते झरनें देखने को मिलेंगे. इन तमाम स्वर्गीय सुखों के आनन्द को उठाने के लिए पर्यटक यहाँ बड़ी संख्या में पहुँचते है. इस झील में आप नौका विहार भी कर सकते हैं. झील में एक टापु भी है जिस पर देवी जी का मन्दिर है. ऐसी मान्यता है कि जिस दंपति को संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ है, देवीजी से मनौती मांगने पर उनकी मनौती पूरी होती है. पुत्र/पुत्री के जन्म के ठीक बाद, पति-पत्नि अपनी संतान के साथ, इस मन्दिर में दर्शनार्थ आते हैं और कबूतर का जोड़ा देवी जी को चढ़ाते हैं. वे उसकी बलि नहीं देते .पूजा-पाठ करने के पश्चात उन्हें जिंदा ही छोड़ दिया जाता है.
फ़ेवा झील नेपाल में एक ताजा पानी की झील है, जिसे पूर्व में पोखरा घाटी में स्थित बदाल ताल भी कहा जाता था. पोखरा में डेविसफ़ाल, विंध्यवासिनी देवी मन्दिर, फ़ेवा लेक, माऊंटेन म्युजियम, गोरखा मेमोरियल,,पीस टेम्प्ल, महोद-केव के अलावा व्यु आफ़ अन्नपूर्णा रेंज देखकर, पर्यटक एक असीम सुख की अनुभूति प्राप्त करता है. दो-चार दिन में इतने मनोहारी स्थानों का भ्रमण कर पाना संभव नहीं है. पर्यटक कुछ दिन रहकर इन नैसर्गिक दृष्यों को देख सकता है. चुंकि हमारे पास यहाँ ठहरने को तीन ही दिन थे. पूरे दो दिन भ्रमण में निकल गए और तीसरे दिन साहित्यिक और सांस्कृति कार्यक्रमों के लिए दिन निर्धारित था. दूसरे दिन साहित्यक आयोजन होते रहे. सभी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया. संस्था की ओर से सभी प्रतिभागियों को सम्मानित किया गया
नेपाल में हमारा यह अन्तिम दिन था. दूसरे दिन की शाम को हमें भारत लौट जाना था. सभी के मन में एक कसक थी कि पशुपतिनाथजी के दर्शन किए बगैर ही लौटना पड़ रहा है. प्रायः सभी इस बात को लेकर चिंतित हो रहे थे. भुकंप का प्रकोप अब भी बना हुआ था. रह-रह कर भुकंप के झटके आ रहे थे. काठमांडू की ओर बढ़ा जाए या फ़िर कभी देखा जाएगा, के विचार को लेकर, मन पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था. एक मन कहता कि चलो चला जाए, देखा जाएगा जो भी होगा. लेकिन तत्काल बाद ही दूसरा मन इस संकल्प पर पानी फ़ेर देता. खैर जैसे-तैसे सुबह का नया सूरझ ऊगा. हम पाँच मित्रों ने संकल्प लिया कि बिना पशुपतिनाथ जी के दर्शन किए बगैर नहीं लौटेंगे. हमने टैक्सी बुक की. देखते ही देखते और भी मित्र हमारे साथ हो लिए.
पशुपतिनाथ मन्दिर.
भक्तपुर प्रवेश-द्वार पशुपतिनाथ मन्दिर
पशुपतिनाथ जाने से पूर्व भक्तपुर पड़ता है, लेकिन भुकंप के झटकों ने इसे काफ़ी नुकसान पहुँचाया है. नेपाल की राजधानी काठमांडू से करीब तीन किलो.मीटर उत्तर-पश्चिम में, बागमती नदी के किनारे देवपाटन गांव में, पशुपतिनाथजी का विशाल मन्दिर अवस्थित है. यह मन्दिर यूनेस्को द्वारा “विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल” घोषित किया जा चुका है. एक किंवदंती के अनुसार भगवान शिव, एक हिरण का रूप धारण कर निद्रा में चले गए. शिवजी को न पाकर देवताओं ने उनकी तलाश की और उन्हें वापिस वाराणसी लाने का प्रयास करने लगे. हिरण का रूप धारण किए शिवजी ने, नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी. इस दौरान उनका सिंग चार टुकड़ों में टूट गया. जिस स्थान पर सिंग टूटे थे, उसी स्थान पर भगवान चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए जो पशुपतिनाथ जी के रुप में विख्यात हुए.
दूसरी किंवदंती के अनुसार- महाभारत की समाप्ति के बाद, पांचों पाण्डवों ने स्वर्गप्रयाण के लिए हिमालय के क्षेत्र से यात्रा की. जब वे रास्ते से गुजर रहे थे, तभी उन्हें शिवजी के दर्शन हुए. लेकिन तत्काल ही उन्होंने भैंसे का रूप धारण किया और धरती में समाने लगे, महाबलि भीम ने उनकी पूँछ पकड़ ली. जिस जगह पूँछ पकड़ी थी, वहाँ वे शिवलिंग के रुप में प्रकट हुए. यह स्थान केदारनाथ कहलाया. शिवजी का मुख नेपाल के जिस स्थान पर निकला, उसे “पशुपतिनाथ” शिवलिंग के रूप में पूजा गया. पुराणो में इस बात का उल्लेख है कि केदारनाथ जी के दर्शनों के उपरान्त यदि पशुपतिनाथ जी के दर्शन नहीं किए तो यात्रा अधूरी मानी जाती है.
इस मन्दिर में केवल हिन्दुओं को ही प्रवेश करने की अनुमति है. गैर हिन्दू आगुंतकों को बागनदी के किनारे से देखने दिया जाता है. नेपाल स्थित “पशुपतिनाथ मन्दिर” सबसे पवित्र माना जाता है. 15वीं शताब्दी के राजा प्रताप मल्ल के जमाने से शुरु की गई प्रथा के अनुसार मन्दिर में चार पुजारी (भट्ट) रखे गए थे और मुख्य पुजारी दक्षिण भारत से ही होता था. शायद अब इस प्रथा को बदल दिया गया है.
इसे ईश्वर का चमत्कार ही कहा जा सकता है कि विनाशकारी भुकंप के झटकों से जहाँ पूरा नेपाल तबाह हो चुका था, वहीं शिव जी के इस धाम में वह अपनी विनाशलीला नहीं कर पाया. हाँ, मन्दिर में कहीं-कहीं आंशिक टूट-फ़ूट जरुर हुई है, जिसे न के बराबर कहा जा सकता है
शिवजी की इस अद्भुत लीला को देखकर हम नतमस्तक थे. इसी रास्ते से लौटते हुए हमने पानी की सतह पर तैरते श्री विष्णु की विशाल प्रतिमा के दर्शन किए.
पानी की सतह पर तैरते शेषसाही भगवान विष्णु.
नेपाल के काठमांडू से करीब 9 किमी.दूर, शिवपुरी पहाड़ी में “बुद्धानिलखंड” मन्दिर में पानी की सतह पर तैरती एक विशालकाय विष्णु प्रतिमा देखी जा सकती है. इसे एक बड़ा चमत्कार ही कहा जाए कि यह मूर्ति सदियों से पानी की सतह पर तैर रही है. इस स्थान को बड़ा ही पवित्र माना जाता है. बड़ी संख्या में पर्यटक इस स्थान को देखने के लिए खिंचे चले आते हैं.
यहाँ से लौटते हुए हमने चितवन नेशनल पार्क का भ्रमण किया.
चितवन नेशनल पार्क.
यूं तो नेपाल में कई पार्क हैं लेकिन इसमें चितवन नेशनल पार्क का अपना विशेष स्थान है. यह 952.63 किमी क्षेत्र में फ़ैला हुआ है. इस नेशनल पार्क में एक सिंग का गैण्डा पाया जाता है. इस पार्क की स्थापना सन 1973 में हुई थी और 1984 में इसे “विश्व धरोहर स्थल” घोषित किया गया. पर्यटक यहाँ आए और इसका भ्रमण न करे, तो उसका नेपाल आना व्यर्थ ही समझा जाना चाहिए. इस क्षेत्र के दक्षिण में वाल्मिकी नेशनल पार्क है, जो बाघों के लिए संरक्षित है. यहाँ बड़ी संख्या में तेंदुए और भालू भी पाए जाते हैं..चितवन के जंगल में घास के मैदानो में कभी 800 गैंडॊं का घर था. 1957 में देश का पहला संरक्षण कानून गैंडों और उनके आवास की सुरक्षा के लिए अक्षम था. 1959 में एडवर्ड प्रिचर्ड ने इस क्षेत्र का सर्वे किया और राप्ती नदी के उत्तर –दक्षिण में वन्य जीव अभ्यारण बनाने की सिफ़ारिश की थी, जिसकी अवधि दस साल के लिए निर्धारित थी. गैंडों के संरक्षण के लिए गार्ड के पदों में वृद्धि की गई. तब जाकर इनके अवैद्य शिकार पर रोक लगाई जा सकी थी. राइनों के विलुप्त होने से बचने के लिए चितवन नेशनल पार्क दिसंबर 1970 को राजपत्रित किया गया था.
पार्क का मुख्यालय कसारा में है. यहाँ कछुए के संरक्षण और प्रजनन केन्द्रों को स्थापित किया गया है. 2008 में गिद्धो ( ओरिएंटल सफ़ेद गिद्ध और पतले गिद्ध ) की प्रजाति को बचाने के लिए यहाँ गंभीर प्रयास किए गए,जो नेपाल में लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुंच चुके थे.
नेपाल से भारत की ओर.
नेपाल में रहने की हमारी समय सीमा समाप्त हो चुकी थी और हम अब अपने देश भारत लौट रहे थे.
गोरखपुर
गोरखपुर मठ-
गुरु गोरखनाथ जी के नाम पर इस शहर का नाम गोरखपुर पड़ा. नाथ परंपरा के गुरु मत्स्येंद्रनाथ जी की स्मृति में यहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया है, मन्दिर के विशाल परिसर मे और भी कई मन्दिर है, जो दर्शनीय हैं. गुरु गोरखनाथजी ने भारत का व्यापक रूप से यात्रा की थी और नाथ संप्रदाय के सिद्धांत का हिस्सा बनने वाले कई ग्रंथो को लिखा था. यह मन्दिर शुरु से ही विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ है.
पांच वर्ष पूर्व की गई इस यात्रा की चमकीली और सुखद स्मृतियाँ मुझे अब भी चमत्कृत करती हैं. तो वहीं दूसरी ओर तबाह हुए नेपाल के हृदय-विदारक चित्र, दिल और दिमाक को अशांत कर जाते हैं. आदमी की अपनी फ़ितरत और जुनून होता है कि वह दुखों को तिलांजलि देकर पुनः निर्माण कार्य में जुट जाता है. संभव है कि वहाँ सब कुछ ठीक कर लिया गया होगा...
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102, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव. goverdhanyadav44@gmail.com
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