कहानी // स्पन्दन // प्रतिभा

SHARE:

स्पन्दन फूलो जैसे अहिल्या हो गई थी। सोसायटी के बाहर शीशम के पेड़ के नीचे युगों से बैठी शिला, फूलो। जाने कितने कालखण्ड बीत गए , जाने और कितने...

स्पन्दन

फूलो जैसे अहिल्या हो गई थी। सोसायटी के बाहर शीशम के पेड़ के नीचे युगों से बैठी शिला, फूलो। जाने कितने कालखण्ड बीत गए , जाने और कितने बीतेंगे। यूँ प्रतीक्षारत , अनगिनत कदमों की थाप कानों को भेद कर अन्तस तक पहुँचती पर फूलो जैसे ही पलटकर देखती सूनी राहें ही दृष्टि के अन्तिम छोर तक नज़र आतीं... वीरान ... सुनसान ... किसी अज्ञात टापू पर मचलती नई नवेली साँझ की तरह ।.. भीतर की स्थिरता जवाब दे रही थी। पल-पल खिन्नता के बोरे ढोता मन अब थक चुका था। किसी भी कोण से जीवन की इस विद्रूपता के लिए वह अपने को जिम्मेवार नहीं पाती थी। जीवन के इस खुरदरेपन ने उसके तन, मन, आत्मा सब छील कर रख दिए थे और हर पल रिसता बेबसी का मवाद वह न देख पाती थी, न सह पाती थी।

फूलो को इंतजार था राम का। जो उसे जीवन के इस श्राप से मुक्त कराएगा। राम शिला को स्पर्श भर करेंगे और वह नारी शरीर में परिवर्तित हो जाएगी। उसका जीवन ही बदल जाएगा। जीवन की असारता समाप्त हो जाएगी। वह खुली हवा में साँस ले पाएगी, अपनी जिन्दगी को जिन्दगी कह पाएगी, कोई निकास होगा घुटन का, भेद पाएगी उलझनों को, लड़ पाएगी बदकिस्मती से, विरोध कर पाएगी शोषण का, जूझ पाएगी अपने भीतर से, कुछ कर पाएगी अपने बच्चों के लिए, मोनी के लिए, शिक्षित कर पाएगी मोनी को। पर इंतजार था कि खत्म ही नहीं होता था। आँखें पथरा गई थीं पर राम न आए थे। जाने कितने युग लगाएँगे। फूलो के लिए तो एक-एक पल एक-एक युग जैसा था।

मोनी की बढ़ती उम्र उसके लिए सतत प्रवहमान चिन्ता की एक नदी थी जिसमें वह डूबती उतरती जा रही थी। कहीं कोई सम्बल नहीं था। कोई सूत्र, कोई सिरा फूलो के हाथ नहीं लगता था। उसके हाथ पानी में छप-छप करके रह जाते थे पर वह उबर नहीं पाती थी।

सन्न सी बैठी थी फूलो। एकदम निढाल, बेदम। दोनों घुटनों के बीच अपना औंधा सिर फंसाए। बार-बार एक ही विचार उठता- ‘‘तिवारी जीत गया तो.....?’’ और असहायता का एक असहनीय कम्पन पूरे वेग से सारे रक्त में मिल जाता। वह जबरन उस विचार को निकालती, बार-बार अपने मन को कहती ‘शुभ-शुभ बोल, शुभ-शुभ सोच’ पर विचार तो उस रबड़ की तरह होता है जिसे जितने वेग से खींचा जाए उतने ही वेग से वह वापिस लौट आता है। परन्तु......।

[post_ads]

काँप उठी थी इस विचार से कि यदि राम नहीं आए और तिवारी आ गया तो......। भीतर की असुरक्षा और भय ने अपने पैने दाँतों को उसके सीने के भीतर गढ़ा दिया था वह चारों खाने चित्त थी। डर के इस क्रन्दन के साथ चस्पां था तो बर्तन और झाड़ू पोचा करती मोनी का चेहरा। बिखरे सूखे बाल, मैली-कुचैली साड़ी, बेमेल कपड़े, मायूस आँखें, पिचके गाल, खुशी को शर्मिन्दा करता बेरौनक चेहरा जैसे मोनी के चेहरे में आकर सिमट गए थे। फूलो जैसी मौनी। बस यही उसे स्वीकार्य नहीं था। किसी भी कीमत पर नहीं। अपनी तरह नहीं होने देगी मोनी को। अपनी भाग्यरेखा के समानान्तर मोनी की हूबहू भाग्यरेखा को आगे नहीं बढ़ने देगी।

मोनी ज़रूर पढ़ेगी। उम्र थोड़ी बड़ी हो गई तो क्या। फिर एकाएक विचार आया कि यदि मोनी को स्कूल भेजना है तो राम को भी आना पड़ेगा। वह और शिला नहीं बनी रह सकती। अब युग बदल गया है। इस युग में इतना इंतजार नहीं हो सकता। समय बदल गया है। समय की माँग और चाल भी बदल गई है। समय की जरूरतें और मान्यताएँ भी बदल गई हैं। मान्यताओं का स्वरूप भी बदल गया है। राम को अब जल्दी आना होगा।

फूलो ने सुबह घर से निकलते ही सोच लिया था कि आज जल्दी-जल्दी सब घरों का काम निबटा देगी। किसी का कोई फालतू काम नहीं करेगी। किसी के साथ कोई गप्पबाजी नहीं। काम निबटाकर बस गार्ड के कमरे के पास बने फर्श पर बैठ रहेगी। वही एक जगह थी जहाँ से सारी सोसायटी की गतिविधियाँ नज़र आती थीं।

दस बजे सोसायटी के चुनाव शुरू होंगे। बार-बार मन ‘दादा-देव’ मन्दिर पहुँच रहा था। बार-बार बस एक ही प्रार्थना, भीतर मन की आँख बंद हो जाती और मन के हाथ जुड़ जाते। ‘‘दादा देव, तिवारी को हराना, वह जीता तो मोनी अनपढ़ रह जाएगी। गुड़ की भेली चढ़ाऊँगी। प्रार्थना ज़रूर सुनना, दादा देव।’’

उस हरामी, नरपिशाच के घर सबसे ज्यादा टाइम लगता और एक पैसा न देता। जब पैसा माँगू, हर बार बोलता, ‘‘सोसायटी के प्रैज़ीडेंट के घर में काम करती है तू। तेरे लिए अभिमान की बात है।’’

‘‘गरीब क्या अभिमान करेगा साब, गरीब को रोटी खानी है। अभिमान से पेट नहीं भरता। मोनी को स्कूल भेजना है। अभिमान से स्कूल की फीस न दी जाती।’’

‘‘ज़्यादा ना बोल।’’

‘‘बिना पैसे तो मैं काम ना करूँगी। मोनी की फीस के पैसे तो चाहिएँ। कापी, किताब का भी खर्चा होता है।’’ बड़े साहस के साथ कह दिया था फूलो ने।

‘‘काम छोड़ेगी तो तेरी एंट्री बंद हो जाएगी सोसायटी में। फिर तुझे सारे घर छोड़ने पड़ेंगे। फिर बाकी बच्चे भी नहीं पढ़ पाएंगे।’’ हरामी धमकी दे के चला गया था और तभी से फूलो शिला बन गई थी। आदमी कोई काम करता होता तो तभी छोड़ देती सोसायटी, किसी और जगह काम कर लेती पर उसकी बीमारी का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, राशन कहाँ से होगा। मन मसोस कर रह जाती फूलो। जीवन के रास्ते में पड़े इन बड़े-बड़े पत्थरों को कैसे हिलाए। कोई विकल्प नहीं सूझता फूलो को। उसे समझ नहीं आता ऐसी दुरूह स्थितियाँ उसके जीवन में ही क्यों। गीता के दोनों बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते। खोजने पर भी कोई उत्तर नहीं मिलता। खीझ उठती फूलो और फिर खीझ मिटाने को काम में लग जाती।

मोनी घर का काम करे और फूलो सोसायटी का। रात में घर पहुँचते ही सब्जी लेने जाए। इतना सा भी सुख ना है आदमी का। उसे अगर फूलो कह दे बाजार से सब्जी ले आ मैं पैसे दे रही तो फौरन मर्दानगी की गठरी लाद ले सिर पर। औरत की कमाई की शराब पीने से मर्दानगी पे कोई आँच न आए, औरत के कहने से सब्जी बाजार से लाने में मर्दानगी कम हो जाए। फूलो को लगता कैसी दलदल है। वह जितना निकलने का प्रयास करती उतना ही भीतर धँसती। उसे लगता वह उस पेड़ की डाल है जिसकी जड़ ही कमजोर है इसलिए सब डालियाँ भी कमजोर हैं। जड़ को मजबूत बनाने का कोई साधन भी नहीं है। हवा का हर झोंका उस पेड़ को मिट्टी में मिलाने को तैयार बैठा रहे।

दोपहर तक सब काम निबटाकर फूलो खाली हो गई। आज शाम के बर्तन नहीं करेगी, बोल आई थी सब मैडमों को। बस अब इंतजार था तो अपनी किस्मत बदलने का। शिला से नारी बनने का, राम के आने का, क्रन्दन के करवट लेने का। फूलो को विश्वास होने लगा था कि इस बार दादा देव उसकी जरूर सुनेंगे। फूलो के साथ पत्थर थोड़े ही हो जाएंगे। वो तो सब देखते हैं। पल भर को एक ऐसी दुनिया रच ली फूलो ने ‘दादा देव’ की मदद से जिसमें तिवारी हार चुका था। मोनी की खिलखिलाहट से सारा आकाश गूँज उठा था और फूलो का मन चैन पा गया था। फूलो के भीतर की माँ को शान्ति पड़ गई थी।

[post_ads_2]

अगर ये हरामी हार गया तो आज ही उसका घर छोड़ देगी फूलो। फिर एक हजार रूपया बढ़ जाएगा। मोनी का खर्चा बड़े आराम से निकल जाएगा। पढ़ लिख जाएगी तो आदमी भी ढंग का मिलेगा और जिन्दगी भी इज्जत से कटेगी। कोई सपना नहीं देख रही थी फूलो बस जीने के रास्ते तलाश रही थी। संकरी बंद गुफाओं में चलने की कोशिश कर रही थी और रास्ते में आए कंकड़ों पत्थरों को किनारे लगाने का साहस बटोर रही थी।

फूलो गार्ड के कमरे के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर खड़ी रही फिर वहीं फर्श पर बैठ गई।

‘‘यहाँ क्यों खड़ी है फूलो?’’ - मूछड़ गार्ड बोला।

‘‘ऐसे ही खड़ी।’’

फूलो जानती थी मूछड़ पढ़ा लिखा भी है और रौब वाला भी है। सारे गार्डों पर उसका कंट्रोल है। तिवारी का मुँहलगा भी है। फूलो के दिमाग में आया उससे ही पूछे कौन जीतेगा। पर वह तो तिवारी का आदमी है। चुप रह गई फूलो। घुटनों पर बाजू चढ़ा के बैठ गई। ‘‘क्या देखती, काम हो गया तो जा।’’ मूछड़ फिर बोला।

‘‘अभी रहता, मैडम ने आध घंटे में आने को बोला।’’ - फूलो ने झूठ ही बोला। सारी सोसायटी में गहमागहमी बढ़ गई थी। गाडि़याँ ही गाडि़याँ थीं। बहुत लोग बाहर से आ रहे थे।

‘‘कौन जीतेगा?’’ एक और गार्ड से फूलो ने धीरे से पूछा।

‘‘पता न कौन जीतेगा। अभी तो वोट ही डल रहे। शाम के चार बजे तक तो वोट ही डलेंगे। फिर गिनती शुरू होवेगी।’’

‘‘अभी कितना बजा है?’’ फूलो बेताब थी।

‘‘अभी तो दो ही बजा।’’

‘‘अभी तो दो घंटा बचा है।’’

फूलो बैठी रही। दो तीन काम वाली और बैठ गई उसके पास।

‘‘ऐ जाओ यहां से।’’ मूछड़ को जाने क्या तकलीफ थी।

‘‘काहे, तेरे बाप की जमीन है।’’ साथ बैठी गीता चुपचाप नहीं सुनने वाली।

‘‘तेरे बाप की है क्या?’’ मूछड़ उखड़ कर बोला।

‘‘तेरे बाप की भी तो ना है।’’ - गीता मुँह बना कर बोली। तभी फोन बजने लगा। मूछड़ उसमें लग गया। थोड़ी देर बैठ के गीता, श्यामा दोनों चली गई।

फूलो अकेली रह गई। वह खुद ही उठ गई वहाँ से। मूछड़ फिर कुछ बोले उससे तो अच्छा है। फूलो का रोम-रोम जैसे कराह रहा था। हर पल अपने ही कराहने की आवाज सुनाई पड़ती फूलो को। सोते-जागते, उठते-बैठते। बदन की टीस पे तो मलहम भी लगे पर मन की टीस, रोम-रोम की कराह, उसका क्या करे फूलो? क्या उपाय करे?

फूलो सोसायटी के बाहर शीशम के घने पेड़ के नीचे बैठ गई।

शोर मचा था सोसायटी में। फूलो की तंद्रा टूटी। जिज्ञासा और बढ़ गई थी। ‘‘क्या हुआ? कौन जीता?’’

वह बाहर से सोसायटी में भागी आई थी।

कुछ लोग खुशी से नाच रहे थे।

फूलो को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसका शोषित मन बदलाव चाहता था। शाम बीत रही थी अभी कुछ भी पता नहीं चला था। आज वह दिन में घर भी नहीं गई। एक दाना पेट में नहीं गया। फूलो सोसायटी के गेट पर ही बाहर की ओर कोने में खड़ी हो गई। वहाँ से चुनाव वाला पांडाल साफ़ नजर आ रहा था। आज तो धीरज धरना भी मुश्किल हो रहा था फूलो को। लोग फिर खुशी से नाचने लगे।

यह तो 507 वाले साहब हैं। ये तो तिवारी के घर में ही बैठे रहते हैं।

‘‘ये जीत गए हैं।’’ फूलो का मन बैठने लगा था। मन फिर भाग कर ‘दादा देव’ की शरण में था। मन की आँख बंद थी और मन के हाथ जुड़े थे।

‘‘हे दादा देव, अबकी तिवारी को हराना, बस अबकी बार। गुड़ की भेली चढ़ाऊँगी।’’

‘‘कहीं..........?’’ फूलो डर गई थी। भीतर तक काँप गई थी। लोग फिर खुशी से नाचने लगे।

407 वाले साहब जीते थे। ये भी तिवारी के साथ सारा दिन घूमते हैं।

फूलो की टाँगे कांपने लगी थीं। वह वहीं बैठ गई। गेट की छड़ों को पकड़े फूलो ऐसे लग रही थी जैसे किसी जेल की सलाखों के पीछे हो और झांक रही हो बाहर। सच, जेल में ही तो थी। तिवारी की जेल में।

तभी सब लोग खुशी से नाच उठे।

तिवारी जीत गया।

वह नर पिशाच फिर जीत गया।

फूलो धम्म से वहीं बैठ गई। उससे न हिलते बनता था न चलते। साँस जहाँ थी वहीं थम गई न ऊपर गई न नीचे। आस का टूटना कितना रीता कर देता है कोई फूलो से पूछे।

वह रो पड़ी थी। कैसी किस्मत पाई फूलो। राम नहीं आए। वह शिला की शिला रह गई। झाड़ू पोचा करती मोनी, बिखरे बालों के साथ सामने थी। फूलो की सांस तो जैसे रुकने को थी। ‘दादा देव’ भी पत्थर हो गए। फूलो अभिशप्त थी शिला होने को पर ‘दादा देव?’ वे क्यों पत्थर हो गए।

रात हो गई थी।

जीवन में भी अंधकार छा गया।

‘‘आज घर नहीं आना।’’ वह घबरा का मुड़ी तो पीछे आदमी खड़ा था।

अंधेरे का फायदा उठा कर फूलो ने आँसू छिपा लिए थे।

वह खामोश थी।

बस धीरे-धीरे चल पड़ी थी घर की ओर।

इतना खाली, खोखला, उसने कभी जीवन में अनुभव नहीं किया था। सत्त बचा ही नहीं था भीतर। सत्त नहीं तो कुछ नहीं। ज्यों आत्मा हो शरीर के लिए।

कुरूक्षेत्र में उसकी हार हुई थी। यह कलयुग का कुरूक्षेत्र है। यहां असत्य की ही जीत होती है। जब तक कुरूक्षेत्र में कृष्ण न हों असत्य ही जीतेगा। पर कहाँ से लाए फूलो कृष्ण को, कहाँ ढूँढे कृष्ण को।

घर पहुँची तो बस अधमरी सी थी। ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’ आदमी पूछ रहा था। फूलो ने बस ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी।

मोनी रोटी सब्जी ले आई।

‘‘तुम खा लो, मुझे नहीं खाना।’’

‘‘माँ, सुबह से नहीं खाया।’’ मोनी रुआंसी हो उठी थी। उसका मन रखने को फूलो ने एक रोटी खा ली थी। रोटी खाकर वह आँख बंद किए लेट गई।

उसे नींद नहीं आ रही थी।

सब सो गए थे। फूलो बहुत थकी थी। पलभर को झपकी आती फिर नींद खुल जाती। उम्मीद का टूटना हर इंसान के लिए कष्टकर होता है। फिर चाहे कोई अमीर हो चाहे गरीब, चाहे राजा हो चाहे नौकर।

आखिर फूलो उठ खड़ी हुई। उसने बिस्तर छोड़ दिया। ऐसी बेचैन रात उसने जिन्दगी में नहीं बिताई। इतनी हलचल तो भीतर कभी नहीं मची, न ऐसी उठापटक कभी हुई। जाने भीतर क्या था? भूकम्प था या ज्वालामुखी, तूफान था या सुनामी। कुछ समझ न आया फूलो को। बस इतना ही समझ पाई कि भीतर सब अस्त-व्यस्त हो गया है। जिन पत्थरों को हटाकर रास्ता साफ करने की कोशिश फूलो ने की थी वे सब के सब फिर रास्ते पर थे।

कमरे से बाहर आ गई। बाहर की हल्की ठंडक भी कुछ सामान्य न कर पाई।

रात का सन्नाटा था या सुबह की एकान्तता, कुछ पता नहीं चल रहा था फूलो को। आसमान में देखा तो समझ नहीं पाई कि कितनी रात बीत गई कितनी अभी बाकी है। या जाने भीतर बोध की ताकत ही नहीं रही थी या फिर बोध की ताकत बिखर रही थी लेकिन फूलो बड़ी शिद्दत से यह महसूस कर रही थी कि ऐसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था।

थोड़ा डर भी लगा पर वापिस कमरे में नहीं घुसी। कमरे के बाहर ही कोने में पल भर बैठी रही। मकान मालिक के बेटे के कमरे की बत्ती जल रही थी। वह लड़का बड़ा होशियार है पढ़ाई में। सवेरे जल्दी उठ कर पढ़ता रहता है। थोड़ा उजाला होने लगा था। उसने चूल्हा सुलगा लिया और दाल चढ़ा दी। जितने दाल बनेगी वह चावल चुनके भिगो देगी। भीगा चावल अच्छा भी बनता, जल्दी भी बनता, लकड़ी भी बचाता। फूलो को अपनी मैडमों की रसोई याद आ गई। सबके पास चार चूल्हों वाली गैस है। दाल, सब्जी, चावल, रोटी सब एक साथ बन जाता है। पर......।

उसी समय वह तिवारी जाने कहाँ से अवतरित हो गया। फूलो का मन हुआ इसी चूल्हे में उसे उठा के झोंक दे। हरामी, सारा काम फ्री में करवाता है। कमीना सोसायटी का प्रैजीडेंट है तो क्या हुआ? गरीब का पैसा मार के क्या करोड़पति बन जाएगा। काम करने को मना करो तो कहता है सोसायटी में घुसने नहीं देगा। फूलो मन ही मन बुड़बुड़ाने लगी।

कैसे चलाएगी घर? कैसे पालेगी बच्चों को? कैसे कमरे का किराया देगी? बच्चों की पढ़ाई के खर्चे और फूलो घिर जाती इतने सारे सवालों में।

कुढ़ जाती फूलो। फूलो को लगता वह एकाएक वह बाँझ पेड बन गई है जिस पर फल और फूल आएँगे ही नहीं। आदमी भी तो किसी काम का नहीं। हारा हुआ आलसी आदमी क्या हराएगा गरीबी को। बिल्कुल आज के जमाने का आदमी नहीं। कितना समझाया था दो बच्चे ही करेंगे। सब मैडमों के एक या दो बच्चे ही हैं पर नहीं हर साल बच्चा चाहिए, भरा पूरा परिवार चाहिए, बच्चे तो भगवान की देन है। कितना समझाया था भरा-पूरा परिवार भूखा और अनपढ़ हो तो क्या फायदा? पर नहीं। भगवान ने भी इसी गंवार का साथ दिया।

हर बार गर्भ ठहरता तो वह सब कुछ करती जो इन नौ महीने में नहीं करना चाहिए। कितना पपीता खाती थी बजट गड़बड़ा गया था पर पपीता खाना नहीं छोड़ा। तेज-तेज चलती, एक घर और पकड़ लेती, खूब सीढ़ी चढ़ती। हर बार चाहती कि गर्भ अपने आप गिर जाए पर ऐसा कभी नहीं हुआ। पाँच बच्चों के बाद जब बिना पूछे आपरेशन करा लिया तो भी इतना पीटा था फूलो को कि चार दिन चारपाई पर ही पड़ी रही थी।

कुढ़ जाती फूलो। पर......।

फूलो को बड़ा अच्छा लगता जब सोसायटी की मैडमों के आदमी अपनी बीबियों की बात सुनते भी और मानते थी। फोकट में मर्दानगी की टोकरी उठा के नहीं घूमते।

असली घर तो वही होता जहाँ दोनों मिल के गृहस्थी की गाड़ी खींचें। पर......। दाल के जलने की बास सब ओर आने लगी थी। उसने फटाफट हांडी उतार दी और कढ़ाई चढ़ा दी। रसोई का सब काम निबटाकर, नहा धोकर अब वह पूरी तरह तैयार थी। उसका युद्धक्षेत्र और कर्मक्षेत्र उसे बुला रहा था। उसने खुद ही अपना तिलक किया था। खुद ही भीतर से अपने लिए आशीर्वाद और दुआएँ जुटाई थीं। खुद ही अपने आपको साहस और आत्मबल के हथियारों से लैस किया था।

आदतन वह बढ़ चली ‘दादा देव मन्दिर’ की ओर। मन्दिर की ओर बढ़ते हुए भी भीतर कहीं गहरा द्वन्द्व था। कितनी तकलीफें झेलीं फूलो ने। कभी ‘दादा देव’ ने समाधान नहीं निकाला तो फिर आज........।

रुक गए थे उसके कदम। मुड़ गई थी फूलो। और अकेली हो गई थी फूलो। निराशा एक पुंज बन कर उसके वजूद पर छाने लगी थी।

कैसी विडम्बना है, आदमी कुरूक्षेत्र में उतरे तो औरत उसके लिए दुआ करे, उसे विजयी होने की शक्ति भेजे और अगर औरत उतरे तो निपट अकेली। वह सड़क पर चल रही थी पर भीतर कुछ रुंदता चला जा रहा था।

चल रही थी या भीतर जीवन की दिशा बदलने की कोशिश कर रही थी, यह कोई नहीं जानता या शायद अपने ही कदमों की शक्ति की थाह ले रही थी, उनके बल को नाप रही थी। भीतर के शून्य की आवाजों को पकड़ रही थी। इन्हीं आवाजों में उसे कृष्ण का स्वर सुनाई पड़ रहा था। आज कृष्ण का उपदेश अर्जुन के लिए नहीं फूलो के लिए था।

फूलो के कदम ठिठक गए थे।

कुरूक्षेत्र सामने था।

सोसायटी का गेट खुला था।

कदम ज़रूर ठिठके थे फूलो के पर फूलो ने तो मन के द्वार बन्द कर लिए थे। उसे तो बस मोनी के कन्धे पर बस्ता देखना था। सोसायटी के गेट के भीतर कदम रखने का मतलब था वो बादल बनना जिसमें पानी न हो जो धरती को गीला भी न कर सके। धरती के सूखे होंठों पर एक बूँद पानी भी न धर सके। परन्तु फूलो को वो बादल बनना था जो धरती को नहला सके, पानी में उसको डूबो सके। उसकी फसलों को हँसता हुआ देख सके, उसकी हरी घास को शबनम दे सके।

‘‘का होई, आज सोसायटी नहीं आ रही का। तिवारी जी का फोन आइ रहा। सबसे पहले उनके घर जा, बड़े मेहमान आए हैं उनके घर।’’ मूछड़ गार्ड गेट पर से ही बोल रहा था। जबकि फूलो अभी सड़क पर ही थी सोसायटी की ओर मुड़ी भी नहीं थी।

पर फूलो ने तो आज अपने जीवन का नया इतिहास रचना था।

‘‘मेहनत करने वालों के दो हाथ कुछ भी कर सकते हैं?’’ एक मैडम के घर टी0वी0 पर सुना था। बस इन्हीं शब्दों को फूलो ने अपना मूलमंत्र बना लिया था। इन्हीं शब्दों का बल उसके हाथों में आकर दुबक गया था। एकाएक उसे अपने हाथ बड़े ताकतवर लगने लगे थे। इतने ताकतवर कि मोनी के कन्धे पर बस्ता लटका सकें। उसे लगा कृष्ण ने हवाओं के ज़रिए संदेश भेजा है ... फूलो को छू कर जाती हवा उसे सबल बना रही थी।

फूलो अन्दर आई थी पर तिवारी के घर जाने के लिए नहीं। बाकी मैडमों को बताने कि अब वह काम पर नहीं आएगी।

‘‘दो सौ इक्कीस वाली मैडम को फोन मिलाय दो।’’

‘‘काहे, पहले तिवारी जी के जा।’’ मूछड़ बोला।

‘‘तिवारी के घर न जाई और किसी और के घर भी मुफ्त में काम न करी।’’

मूछड़ मुँह बाए देखता रहा।

‘‘बस दो सौ इक्कीस वाली मैडम को बताय रही फोन मिला जल्दी।’’ जाने कहां से भीतर आत्मविश्वास जाग उठा था।

दूसरे गार्ड ने फोन मिला दिया था।

‘‘मैडम, फूलो बोल रही हूँ, आज से काम नहीं करूँगी, किसी और को लगा लो।’’

‘‘क्यों, क्या हुआ? क्यों नहीं करेगी काम? पैसों का मामला है तो पैसे बढ़ा ले।’’

‘‘नहीं मैडम जी, वो तिवारी सारा काम कराता पर पैसे ना देता। काम छोड़ने की बात करो तो कहता सोसायटी में एंट्री न होगी। मैडम जी मैं फ्री में काम न करी।’’

‘‘तिवारी कौन होता है तेरी एंट्री बंद करने वाला। तू सीधी मेरे घर आ मैं तिवारी को ठीक करती हूँ। सोसायटी का प्रैजिडेंट ही तो बना है कोई देश का प्रैज़िडेंट नहीं बना।’’

मैडम गुस्से में चिल्लाई थी। उनको ऑफिस जाने में देर हो रही थी। फूलो मैडम के घर की ओर बढ़ चली थी।

मूछड़ आँखें फाड़े देख रहा था।

मूछड़ फूलो-फूलो पुकार रहा था पर फूलो तो अपने हाथों की ताकत को अपने दिलो दिमाग में बसा चुकी थी।

फूलो सोच रही थी बराबर की सोसायटी में दीनू गार्ड है। वह फूलो के ही गाँव का है और नेक आदमी है। फूलो साथ की सोसायटी में भी घर पकड़ लेगी। जितना टेम तिवारी के घर लगता था उतने टेम में दो घर निपटा देगी फूलो।

फिर मोनी को भी स्कूल भेज पाएगी। उसकी ट्यूशन भी लगा देगी ताकि पिछली पढ़ाई भी पूरी हो सके।

भीतर ‘दादा देव’ का धन्यवाद करते-करते रुक गई थी फूलो। एक कम्पन, एक स्पन्दन से शिला भर उठी थी और नारी रूप हो गई थी। फूलो ने धन्यवाद किया था उन हवाओं का जो भीतर शक्ति बन कर आ विराजी थीं। फूलो पत्थर से औरत बन गई थी। जीती जागती औरत साँस लेने वाली औरत।

---

परिचय

नाम     -     प्रतिभा
कृतियाँ    -     तीसरा स्वर (कहानी संग्रह )
अभयदान (कहानी संग्रह )
  " तीसरा स्वर ” पर हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से प्रथम पुरस्कार । दैनिक ट्रिब्यून चण्डीगढ़ तथा हिंदी अकादमी दिल्ली से कहानियाँ पुरस्कृत । परिकथा , कथाक्रम , कथा समय इन्द्रप्रस्थ भारती, हंस में कहानियाँ प्रकाशित

सम्पर्क      -     फ्लैट न०   205 ,सरगोधा अपार्टमैन्ट्स ,

प्लॉट न० 13 , सैक्टर 7 , द्वारका

नई दिल्ली110075


pratibha.kmr26@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी // स्पन्दन // प्रतिभा
कहानी // स्पन्दन // प्रतिभा
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimZPc6uGuGBImxnXrpd2_IbFR4BDNCKvKZPZOEKhtoKG1Gn6wdvPxPqdFl-tC1EBT_mxgUx3FuJ2-3JTlpjWcZ6z9aA4n6ZJ2hF3b45EPSSc99q0OsjBpNhgKhRiMazwt5q-F-/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimZPc6uGuGBImxnXrpd2_IbFR4BDNCKvKZPZOEKhtoKG1Gn6wdvPxPqdFl-tC1EBT_mxgUx3FuJ2-3JTlpjWcZ6z9aA4n6ZJ2hF3b45EPSSc99q0OsjBpNhgKhRiMazwt5q-F-/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/12/blog-post_89.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/12/blog-post_89.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content