सिंधी कहानी डांसिंग गर्ल लेखक: ज़ैब सिंधी अनुवाद: देवी नागरानी मोहन-जोदड़ो की चाँदनी रात, बेहद सौंदर्यमय इंद्रजाल फैला हुआ था। गोवर्धन ने म्यू...
सिंधी कहानी
डांसिंग गर्ल
लेखक: ज़ैब सिंधी
अनुवाद: देवी नागरानी
मोहन-जोदड़ो की चाँदनी रात, बेहद सौंदर्यमय इंद्रजाल फैला हुआ था। गोवर्धन ने म्यूज़ियम वाले रास्ते से चढ़ाव पर चढ़कर पहली गली में पैर धरा, तो गली के अनोखे माहौल के कारण उसके बदन में खौफ़ की लहर सरसरा गई। वह गली की नुक्कड़ पर ही खड़ा हो गया। उसके सामने गली के समस्त खंडहर चौदवीं की चाँदनी में अद्भुत नज़र आ रहे थे। खंडहरों की दीवारों से टकराकर हवा की सरसराहट गोवर्धन के खौफ़ को और अधिक गहरा कर रही थी। हवा के साथ, गली में ज़मीन के ऊपर उड़ते सूखे पत्ते देखकर उसे महसूस हुआ जैसे कई रूह गली में दौड़ रहे हैं।
गोवर्धन ने मोहनजोदड़ो की पहली गली के पहले मोड़ से ही लौट जाना चाहा। वापस लौटने की ख्वाहिश में पैरों ने साथ देने से इंकार कर दिया। उसके ज़हन में उसकी स्वर्गवासी महबूबा माया प्रथयाणी की मधुर संगीत जैसी आवाज़ गूँज उठी, जिसने तोहफ़े के तौर पर कलाई वाली घड़ी गोवर्धन की कलाई पर पहनाते कहा था, ‘यह घड़ी हर लम्हा तुम्हें याद दिलाएगी कि मैं तुम्हारे साथ हूँ!’ गोवर्धन माया की मुहब्बत की यह आख़िरी निशानी आज शाम को मोहनजोदड़ों के एक खंडहर की दीवार पर भूल आया था, जब उसने धूमिल चेहरे और बाहों को धोने के लिए घड़ी उतारी थी।
गोवर्धन ने वापस मुड़कर चाँदनी में नहाई इंतहाई ग़ज़ब-सी सौंदर्यमय गली की ओर देखा। उसने अपने भीतर माया के लिए आकर्षण महसूस किया और उसकी आख़िरी निशानी फिर से हासिल करने के लिए गली के अंदर घुस गया।
मुंबई स्थित गोवर्धन की माया प्रथयाणी से मुलाकात गोवा शहर की एक डांस पार्टी में हुई थी, जहाँ वह व्यापार के सिलसिले में गया था। पहली नज़र में ही वह उस पर मोहित हो गया था। एक कोने में बैठी माया की ओर जब गोवर्धन ने हाथ बढ़ाया, तो माया की आँखों में अजीब उदासी उतर आई। माया ने मुँह फेर लिया। तब गोवर्धन ‘सॉरी’ कहकर आगे बढ़ने वाला था कि माया अपना हाथ गोवर्धन की ओर बढ़ाते हुए उठ खड़ी हुई और फिर रात के पिछले पहर तक उसके आगोश में नाचती और झूमती रही।
पैंतीस साल के गोवर्धन की कितनी ही लड़कियों से दोस्ती रही थी। बेशुमार हसीनाओं ने उसकी बाहों के घेरे में डांस की थी। कितनी ही जवान लड़कियों से उसकी साँसें टकराई थीं, पर किसी के भी जुल्फ गोवर्धन के पैरों की ज़ंजीर न बने सके। माया ही वह पहली लड़की थी जिसके सामने वह बेबस हो गया था।
पहली मुलाकात के चार दिन पश्चात् ढलते सूरज की सुनहरी किरणों के फैलाव में गोवा के खूबसूरत समुद्र के किनारे चलते गोवर्धन माया का हाथ थामे खड़ा था। माया मुस्कराती रही, तब गोवर्धन ने कहा था-‘माया! मैं यह हाथ कभी भी छोड़ना नहीं चाहता।’
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माया ने गर्दन झुकाकर अपने पैरों की ओर देखा। समुद्र की लहर उसके पाँवों को छूकर वापस जा रही थी। माया ने सिर ऊपर उठाया, तो उसके होंठों की मुस्कान भी समुद्र की उस लहर की मानिंद ग़ायब हो चुकी थी और उसकी भूरी आँखों में गहरी उदासी उतर आई थी।
‘क्या सोच रही हो माया?’ गोवर्धन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में थाम लिए।
‘गोवर्धन! ये हाथ जल्दी ही जुदा हो जाएँगे।’ समुद्र किनारे खड़ी माया की आँखों में भी समुद्र छलकने लगा।
‘पर क्यों? क्यों माया? गोवर्धन ने माया के हाथों की पकड़ और मज़बूत करते हुए पूछा।
‘इसलिए...इसलिए गोवर्धन...कि...कि मैं...।’ माया अपनी बात पूरी न कर पाई। अपने दर्द पर काबू पाने के लिए उसने अपने होंठ दाँतों में भींच लिए।
गोवर्धन ने माया के भीतर की पीड़ा को उसकी आँखों में देख लिया। उसे लगा कि माया के शब्दों से कोई तूफान आने वाला है। बावजूद इसके वह हक़ीकत जानने के लिए व्याकुल हो उठा-‘बताओ क्या बात है माया?’
माया की भूरी आँखों से दो आँसू लुढ़ककर लौटती लहरों के साथ विलीन हो गए।
‘प्लीज माया, बताओ तो क्या बात है?’ कहते हुए गोवर्धन के हाथों में माया के हाथों पर दबाव बढ़ गया।
माया ने अपने हाथ उन हाथों से छुड़ा लिए।
‘गोवर्धन मैं इस दुनिया में... फक़त चंद दिनों की मेहमान हूँ।’
‘क्या?’ गोवर्धन ने अपने भीतर कुछ टूटता-बिखरता महसूस किया।
‘हाँ गोवर्धन, ल्यूकेमिया की मरीज हूँ... ज़िंदगी पल-पल मुझसे जुदा हो रही है। अब कोई भी इलाज मेरी टूटती साँसों की डोर को मजबूत नहीं कर सकता।’ माया ने एक लंबी साँस लेते हुए अपनी बात पूरी की।
सामने अथाह समंदर था और गोवर्धन का गला खुश्क था। वह कुछ कहना चाहता था, पर शब्दों ने उसका साथ नहीं दिया। उसके भीतर अँधेरा फैलने लगा।
‘मैं तो अपने जीवन के आख़िरी दिन गुज़ार रही हूँ। जल्दी ही यहाँ से विदा हो जाऊँगी।’ ठंडी साँस लेते हुए माया आसमान की ओर देखने लगी। माया की बात सुनकर गोवर्धन के दिमाग में जैसे किसी बम फटने का धमाका हुआ। उसकी आँखों के आगे धुँधलका छा गया और उसका सिर चकराने लगा। अगर माया उसे थाम न लेती, तो वह गिर जाता। माया के कंधे पर सिर रखकर सिसकियाँ भरता रहा। माया ने उसकी ओर देखते हुए कहा-‘गोवर्धन कुछ आँसू बचाकर रखो, मेरे बाद काम आएँगे।’
तीन दिनों के बाद माया मर गई, पर गोवर्धन के बहते आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। माया के अंतिम संस्कार के समय वह अन्य मौजूद लोगों से अलग और अनजान बनकर खड़ा रहा। आँसू बहाता रहा। अचानक एक वृद्ध शख़्स ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘तुम गोवर्धन ही हो न?’
गोवर्धन ने हैरानी से अपनी भीगी पलकें उठाकर उसकी ओर देखते हुए कहा-‘हाँ।’
‘मैं रामचंद हूँ, माया का नाना।’ ठंडी आह भरते हुए बूढ़े ने कहा।
‘पर... पर आपने...कैसे पहचाना मुझे!’ गोवर्धन ने हैरानी से पूछा।
‘माया ने मुझे सब कुछ बताया था।’ रामचंद ने दुखभरे लहज़े में कहा।
‘मैंने तुम्हारे दर्द से तुम्हें पहचाना।’
गोवर्धन के बेइंतहा दर्द को रामचंद ने अपने सीने लगाते हुए कहा, ‘गोवर्धन! माया की अस्थियों की राख तुम्हारी अमानत है।’
‘क्या?’ गोवर्धन पर जैसे हैरत का पहाड़ गिरा हो।
‘हाँ बेटे।’ रामचंद ने उत्तर दिया, ‘वह तुम्हारे लिए एक बंद लिफाफा भी छोड़ गई है। आकर अपनी अमानत ले जाना।’
कुछ दिनों के बाद जब गोवर्धन माया के नाना रामचंद के गोवा वाले महलनुमा घर के ड्रांइगरूम में बैठा था, तब रामचंद ने एक लोटा और एक बंद लिफाफा उसके सामने रखा। गोवर्धन ने काँपते हाथों से बंद लिफ़ाफ़ा खोला, तो उसमें से माया की वसीयत निकली। माया की वसीयत पढ़कर वह हैरान होकर रह गया।
‘क्या लिखा है माया ने?’ रामचंद ने पूछा
गोवर्धन ने माया की वसीयत वाला काग़ज़ रामचंद की ओर बढ़ा दिया। उसे पढ़कर वह ख़ुद भी हैरान रह गया।
‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि माया ने क्यों ऐसी वसीयत बनाई है?’ गोवर्धन के पास वैसे भी कोई जवाब न था।
रामचंद ने वसीयत के काज़ गोवर्धन को देते हुए कहा, ‘माया का जन्म तो यहाँ हुआ था, उसके माता-पिता का भी जन्म यहीं हुआ। सिंध से तो सिर्फ़ मैं यहाँ आया था।’
गोवर्धन ख़ामोश बैठा रहा।
रामचंद कुछ पल गहरी सोच में खोया रहा। फिर ऐनक उतारकर आँख के पोरों से आँसू सोख लिए। ठंडी साँस लेते हुए कहा, ‘सिंध की याद तो सदा मेरे सीने में धधकती रही, उसे देखने की तमन्ना न तो कभी माया को रही, न उसके माता-पिता को।’
‘तो फिर यह माया की... वसीयत!’ गोवर्धन के लहज़े में हैरत के साथ कशमकश के आसार भी थे। वह अधूरा वाक्य भी पूरा न कर पाया।
‘माया तो कभी सिंध के बारे में बात भी नहीं करती थी।’ रामचंद ने कहा, ‘हाँ अलबता मोहनजोदड़ो के जिक्र से उसकी आँखों में चमक आ जाया करती थी। उसके ज़िक्र से वह बैठे-बैठे पता नहीं कहाँ खो जाया करती थी।’
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गोवर्धन माया के ख़्यालों में खो गया।
‘तुम माया की वसीयत को अंजाम दोगे गोवर्धन?’ रामचंद ने जानने की इच्छा ज़ाहिर की।
‘हूँ!’ ख़्यालों से बाहर आते ही गोवर्धन ने हामी भरी।
‘हाँ, माया की वसीयत की ख़ातिर मैं ज़रूर मोहनजोदड़ो जाऊँगा’
गोवर्धन आज सुबह ही मुंबई से कराची हवाई अड्डे पर पहुँचा था। मोहनजोदड़ो की फ्लाइट न मिलने के कारण, कराची हवाई अड्डे से टैक्सी पकड़कर वह उसी शाम मोहनजोदड़ो आ पहुँचा। टैक्सी से उतरकर एक छोटा हैंड-बैग लिए वह इस्टोपा की तरफ़ चला। बैग में माया की राख का लोटा व पीने का पानी था।
इस्टोपा पर पहुँचकर गोवर्धन ने बैग खोली। माया की अस्तित्व की आख़िरी निशानी लोटे से निकाली और वसीयत के अनुसार उसकी राख को दड़े पर से चारों दिशाओं में बिखेर दी, जो हवाओं के साथ दूर-दूर तक फैलकर मोहनजोदड़ो की मिट्टी से मिल गई। गोवर्धन का दिल भर आया, आँखें नम हो गईं। कुछ देर वहीं खड़े होकर उसने मोहन-जोदड़ो के खंडहरों को देखा और फिर वापस जाने के लिए नीचे उतर आया। इस्टोपा से नीचे उतरकर वापस जाने की बजाए बेअख़्तियार उसके पाँव मोहनजोदड़ो की वीरान गलियों में शाम की परछाइयों के साथ घूमते रहे और वह माया के बारे में सोचता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि माया ने अपने अस्तित्व की राख को मोहनजोदड़ो की मिट्टी में मिलाने की वसीयत क्यों की थी। सोच-सोचकर उसका सिर फटने लगा। थकान के कारण वह खंडहर की दीवार पर बैठ गया तो उसे लगा, माया मुस्कुराकर उसका शुक्रिया अदा कर रही हो। एक पल के लिए उसे लगा माया उसके पास बैठी है। वह एकदम आँखें खोलकर अपने चारों ओर देखने लगा। माया तो नहीं थी, पर गोवर्धन को शिद्दत से महसूस हुआ जैसे माया उसके आस-पास ही कहीं मौजूद थी। गोवर्धन को अपनी यह हालत समझ में न आई और उसका गला ख़ुश्क होने लगा। उसने हैंडबैग से पीने का पानी निकाला, पिया और फिर कमीज़ की बाँहें ऊपर करके घड़ी उतारकर, अपनी धूमिल बाँहें धोई, मुँह पर पानी के छींटे लगाए और उठ खड़ा हुआ। एक नज़र ढलते सूरज पर डालते हुए बेहद उदास कदमों से वापस लौट गया।
गोवर्धन ने उसी रात कराची वापस जाकर, मुंबई लौटना चाहा; पर टैक्सी ड्राइवर की सलाह पर रात के चार पहर किसी होटल में गुज़ारने के लिए लाड़काणे की ओर जा रहा था। निरंतर वीरान रास्ते के बाद जब सामने रोशनी नज़र आई, तब उसे बताया गया कि वह रोशनी लाड़काणे शहर की है। वक़्त देखने के लिए गोवर्धन ने जैसे ही कलाई पर नज़र डाली, तो वह चौंक पड़ा। उसकी कलाई पर माया की आख़िरी निशानी, वह घड़ी गुम थी जिसे पहनाते हुए माया ने कहा था कि ‘यह घड़ी हर लम्हें तुम्हें याद दिलाएगी कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।’
गोवर्धन को बरबस याद आया कि उसने घड़ी उतारकर हाथ-मुँह धोते समय दीवार पर रखी थी। बिना वक़्त गँवाए उसने टैक्सी ड्राइवर को वापस मोहनजोदड़ो लौटने का आदेश दिया। न चाहते हुए भी ड्राइवर को लौटना पड़ा।
चाँदनी रात में मोहन-जोदड़ो की वीरान गलियों से गुज़रने वाला गोवर्धन एकमात्र प्राणी था। रह-रहकर हवाओं का तेज़ रुख उसे चौंकने पर मजबूर करता रहा। चलते-चलते उसे महसूस हुआ जैसे कोई दूसरा भी उसके साथ चल रहा है। उस दूसरे के होने का अहसास उसके भीतर ख़ौफ़ बनकर छा गया। वह चलते-चलते रुक गया, पर गर्दन मोड़कर किसी भी तरफ़ देखने की हिम्मत न जुटा पाया। चुपचाप अपने स्थान पर खड़े-खड़े ही उसे किसी और के होने का यक़ीन हो गया। पीछे मुड़कर देखा, कोई न था। उसी ख़ौफ़ की चादर को ओढ़कर वह सन्नाटों के बीच से गुज़रते हुए आगे बढ़ा। अचानक उसे पाँव के पास किसी हरकत का अहसास हुआ। देखा, तो पाया एक चूहा उसके पैरों से बिछड़ता हुआ किसी खंडहर की ओर गुम हो गया। अभी उसने चैन की साँस ली ही थी कि एक साँप उसका रास्ता रोककर आगे बढ़ने लगा। गोवर्धन ख़ुद को सँभाले इससे पहले साँप अपना रास्ता बदलकर किसी खंडहर में खो गया। उसे हैरत हुई कि यह सब-कुछ इतनी तेज़ी से क्यों और कैसे हो गया? पर उसे एक बात का यक़ीन ज़रूर हो गया कि उसके आस-पास कोई है, पर कौन...? इस सोच ने उसके रौंगटे खड़े कर दिए। ख़ौफ़ ने उसे घेर लिया। तिरछी निगाहों से उसने आस-पास देखा और सन्नाटे से ख़ुद को घिरा हुआ पाया। जाने क्या सोचकर उसने दौड़ना शुरू किया। दौड़ते हुए उसने महसूस किया जैसे एक नहीं, कई आत्माएँ दौड़ रही हों। उसने रफ़्तार और तेज़ कर दी। उसे लगा जैसे किसी ने पीछे से उसकी कमीज़ के कॉलर में हाथ डालकर उसे पकड़ने की कोशिश की। वह लड़खड़ाकर नीचे गिर पड़ा। एक ठंडी साँस लेकर वह उठ बैठा...हर तरफ़ ख़ामोशी थी। उसके भीतर में किसी और के होने का अहसास खत्म हो गया। वह उठा, कपड़े झटके और उसी गली की ओर चला, जिसके खंडहर की दीवार पर उसने माया की दी हुई वह घड़ी उतारकर रखी थी। चाँदनी में हर चीज़ साफ़ नज़र आ रही थी, बावजूद इसके उसने दीवार पर कितनी ही बार हाथ फिराया, पर मिट्टी के सिवा कुछ भी उसके हाथ न आया। मायूसी ने उसकी आँखों में आँसू भर दिए। अचानक कुछ फासले पर पड़ी किसी चमकती चीज़ पर उसकी नज़र पड़ी। उस वस्तु को उठाते ही मायूसी ने उसे फिर घेर लिया, क्योंकि वह सिगरेट के पैकेट पर लगी चमकती पन्नी थी। उसे फेंकते हुए वह आगे ध्यान से देखते हुए कदम बढ़ा रहा था कि शायद उसे अपनी खोई हुई चीज़ मिल जाए। अचानक किसी औरत की आवाज़ उसके कानों में टकराई, ‘क्या ढूँढ रहे हो?’
गोवर्धन ने हैरत में सिर ऊपर उठाया। उसके सामने बीस-बाईस साल की बेहद हसीन लड़की, चाँदनी समान उजली चादर ओढ़े खड़ी थी। वह सोचने लगा कि रात के वक़्त मोहनजोदड़ो की इन सूनी गलियों में यह लड़की कहाँ से आई..? डर की
लड़की ने अपनी चादर से हाथ बाहर निकालकर कहा, ‘यही चीज़ ढूँढ रहे हो न?’
गोवर्धन को ख़ुद से दूर, दस फुट के फ़ासले पर खड़ी लड़की के हाथ में वही घड़ी नज़र आई। अपने ख़ौफ़ पर काबू पाने की कोशिश करते हुए उसके मुँह से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला-‘हाँ!’
लड़की सामने खड़ी मुस्करा रही थी। वह धीरे-धीरे क़दमों से उसकी ओर बढ़ने लगी। डर की इंतहा के कारण गोवर्धन पाँव पीछे करते हुए लड़खड़ाया...वह गिरने ही वाला था कि लड़की उसके सामने कुछ यूँ आकर खड़ी हुई कि उसका सारा डर ग़ायब हो गया। सफ़ेद चादर में लिपटी उस लड़की के हसीन चेहरे में उसने एक कशिश महसूस की। उसे आभास हुआ कि वह उस लड़की से पहले भी कहीं मिली चुका है, पर कहाँ? कुछ याद नहीं आया।
लड़की गोवर्धन का हाथ थामे, घड़ी उसकी कलाई पर बाँधते हुए कहने लगी, ‘यह घड़ी हर लम्हा तुम्हें याद दिलाएगी कि मोहनजोदड़ो की इस गली में तुम मुझे मिले थे।
लड़की का छुआव उसने दिल तक महसूस किया। आख़िर पूछ ही लिया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘संबारा।’ लड़की ने संजीदगी से उत्तर दिया।
गोवर्धन लड़की की संजीदगी पर मुस्करा उठा और उसकी आँखों में देखते हुए कहा, ‘संबारा तो मोहनजोदड़ो की नर्तकी का नाम है।’
‘वही तो हूँ मैं।’ लड़की ने फिर ठहराव भरे लहज़े में जवाब दिया।
गोवर्धन ठहाका मारकर हँस पड़ा, लड़की ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। ख़ामोश खड़ी रही। सफ़ेद चादर में लिपटी हल्की मुस्कान लबों पर लिए वह चाँदनी में बेहद हसीन नज़र आ रही थी।
‘अगर तुम संबारा हो, तो फिर तुम्हारी उम्र कितनी है?’ गोवर्धन ने मुस्कराते पूछा।
‘पाँच हज़ार बीस साल!’ लड़की ने बेहद संजीदा स्वर से कहा।
गोवर्धन ने इतना ज़ोर से ठहाका मारा कि उसकी आवाज़ रात के सन्नाटे में समस्त वातावरण में गूँज उठी।
‘क्यों दीवानों की तरह हँस रहे हो?’ लड़की ने सवाल किया।
‘इसलिए, क्योंकि तुम दुनिया की पहली लड़की हो, जिसने अपनी उम्र कम बताने की बजाय ज़्यादा बताई है। वह भी पाँच हज़ार साल ज़्यादा बताई है।’
‘मेरी उम्र बीस साल तब थी, जब यह शहर आज़ाद हुआ था। पाँच हजार साल तो मैंने इस शहर की बरबादी के साथ गुज़ारे हैं।’ बेहद उदासी-भरे स्वर में लड़की ने अपने आस-पास देखते हुए कहा।
पहले तो गोवर्धन कुछ हैरान हुआ, दूसरे लम्हे मुस्कराते हुए शरारती ढंग से कहा, ‘तो तुम संबारा हो? मोहनजोदड़ो की ‘डांसिंग गर्ल!’
‘हाँ!’ लड़की ने फिर वही जवाब दिया।
‘मैं आधी दुनिया घूम आया हूँ, हज़ारों लड़कियों से मिला हूँ, पर इतना बड़ा झूठ मैंने आज तक किसी भी लड़की को कहते हुए नहीं सुना।’
लड़की की आँखें नम हो गईं। उसने दुख-भरे लहज़े में कहा, ‘मुझे अंदाजा न था कि जिसका मैं इंतज़ार करती रही, वह आने पर मुझ पर ‘झूठी’ होने का इल्ज़ाम लगाएगा।’
लड़की की ग़मगीन आवाज़ ने उसे भी दुखी कर दिया। कुछ विस्मय से उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘माफ़ करना मैंने तुम्हारा दिल दुखाना नहीं चाहा, पर तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो, यह बात मुझे समझ नहीं आई।’
‘वक़्त पर हर बात समझ जाआगे!’ लड़की ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा।
‘तुम्हारी कोई भी बात मुझे समझ में नहीं आ रही है। सच बताओ कि तुम कौन हो।’
‘मैंने तुमसे कुछ भी झूठ नहीं कहा है। मैं मोहनजोदड़ो की नर्तकी संबारा ही हूँ।’ पहले से ष्यादा पुख़्तगी और संजीदगी से लड़की ने जवाब दिया।
‘मैं तुम्हें झूठी नहीं कह रहा, पर इस बात पर कतई यक़ीन नहीं कर सकता कि तुम नर्तकी ‘संबारा’ हो।’
लड़की ने गोवर्धन की आँखों में आँखें डालकर देखा और फिर बिना पीठ दिखाए कुछ क़दम पीछे हटती गई। चाहते हुए भी गोवर्धन ने कुछ नहीं कहा। वह चाहता था कि लड़की अपनी राह चली जाए, तो वह भी लौट जाए। पर वह कुछ क़दम जाकर रुक गई और उदास आँखों से गोवर्धन की ओर देखती रही। गोवर्धन उससे उदासी का कारण पूछने ही वाला था कि अचानक लड़की ने अपनी वजूद पर लपेटी चादर उतार फेंकी। गोवर्धन आश्चर्य से उसकी ओर देखता रहा। अब उसके सामने चाँदनी रात में नहाई एक निर्वस्त्र लड़की खड़ी थी और क्षण-भर के बाद उसने नाचना शुरू कर दिया। वह बेख़ुदी में नाचती रही, झूमती रही। गर्दन से कमर तक और कमर से पैरों तक उसका हर अंग गोलाकार घेराव में घूम रहा था। उसके जिस्म का हुस्न भी हर कोण से जीवित हो उठा था और हरकतों की लय-ताल के साथ नृत्य
को जलवेदार बना रहा था।
न जाने कितनी देर वह इसी तरह नाचती रही, झूमती रही। इस हालत का पता गोवर्धन को भी न रहा। जब वह नर्तकी धीरे-धीरे लय-ताल पर नाचते हुए नीचे ज़मीन पर बैठ गई और उसने अपना सिर गोवर्धन के घुटनों पर झुका दिया। उस वक़्त गोर्वधन को पहली बार आभास हुआ कि उस लड़की का जूड़ा संबारा के बुत में बने बालों की तरह था। चाँदनी में अपने सामने संगमरमर के हसीन बुत जैसी जीती-जागती लड़की देखकर भी उसके मन में कोई इंसानी लज्ज़त का भाव न उठा। हैरत-भरे माहौल में वह मौन बैठा रहा और निरंतर उस लड़की की ओर देखता रहा, जो उसके घुटनों में मुँह झुकाए बैठी रही। फिर दोनों की नज़रें आपस में मिली, तो लड़की ने अपने घुटनों और बाहों में अपना नग्न शरीर ढाँपने की कोशिश की। गोवर्धन ने कुछ फासले पर पड़ी चादर उठाकर उसके शरीर को ढक दिया। फिर ख़ुद उठा और हाथ का सहारा देकर लड़की को खड़ा किया, कुछ इस तरह कि वह उस लड़की के साँसों की रवानी को महसूस कर सकता था।
‘अभी भी तुम्हें यकीन नहीं आया कि मैं संबारा हूँ?’
गोवर्धन ने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया। वह अपने भीतर उसके लिए एक अजीब कशिश और अपनापन महसूस कर रहा था। लड़की का हाथ अब तक उसके हाथ में था।
‘कहो, तुम्हें विश्वास हुआ कि मैं मोहन-जोदड़ो की नर्तकी संबारा ही हूँ।’ लड़की ने अपना प्रश्न दोहराया।
‘तुम जो कोई भी हो, तुमसे न जाने कैसा लगाव व अपनापन महसूस कर रहा हूँ।’ गोवर्धन ने उसकी चमकती आँखों में देखते हुए उसके हाथ पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली।
लड़की भी कुछ न बोली। वह कुछ इस तरह मुस्कराई जैसे गोवर्धन ने उसके दिल की बात ज़ुबां पर लाई थी।
मदहोशी की रौ में गोवर्धन भी बेअख़्तियारी में कह उठा, ‘मैं ये हाथ कभी भी छोड़ना नहीं चाहता।’
बेहद उदास स्वर में लड़की बोली, ‘ये हाथ...जल्दी जुदा हो जाएँगे।’
गोवर्धन इस इत्तिफ़ाक पर हैरान हो गया कि यही वाक्य किसी वक़्त उसने माया का हाथ पकड़कर कहा था और इस लड़की ने वही जवाब दिया, जो उस वक़्त माया ने उसे दिया था. गोवर्धन सोच में पड़ गया।
‘तुम क्या सोच रहे हो?’ लड़की ने पूछा।
‘हूँ!’ गोवर्धन ख़्यालों की दुनिया से बाहर निकल आया।
‘पर क्यों जुदा होंगे ये हाथ?’ उसने सवाल किया।
‘इसलिए कि तुम पाँच हज़ार वर्षों के फ़ासले को पार नहीं कर पाए हो!’ लड़की ने उदास, सर्द साँस लेते हुए कहा।
गोवर्धन की समझ में कुछ भी न आया। बस, बात करने की खातिर कहा, ‘तो फिर वक़्त के उस फासले को तुम ही लाँघ आओ।’
‘नहीं, अब तो ज़्यादा वक़्त मेरे पास भी नहीं।’ लड़की ने अपना हाथ गोवर्धन के हाथ से छुड़ा लिया।
‘पर क्यों?’ अचानक गोवर्धन परेशान हो उठा।
‘उस क्यों का जवाब मेरे पास नहीं है, मैं जा रही हूँ।’ उदासी को अपनी साँसों में भरते हुए लड़की ने कहा।
गोवर्धन ने बेचैनी से लड़की की कलाई को पकड़ते हुए पूछा, ‘क्यों नहीं है मेरी बात का जवाब तुम्हारे पास?’
‘कुछ राज़ फक़त राज़ ही रहते हैं।’ कहते हुए उसने अपनी कलाई गोवर्धन के हाथों से आज़ाद कराई और खंडहरों की ओर चलती गई।
‘कहाँ जा रही हो?’ लड़की के साथ-साथ चलते उकीरता से गोवर्धन ने सवाल किया।
‘अपने घर!’ बिना उसकी ओर देखे लड़की ने उत्तर दिया।
‘कहाँ है तुम्हारा घर?’ गोवर्धन के मन में एक उम्मीद जागी।
‘आओ मैं तुम्हें अपना घर दिखाती हूँ।’ लड़की ने उसका हाथ पकड़ा और ले जाकर एक खंडहर के सामने खड़ा कर दिया... ‘ये है मेरा घर।’
बेयक़ीनी के साथ गोवर्धन ने लड़की के चेहरे की ओर देखा और यह देखकर हैरान हुआ कि उसकी आँखें लाल हो गई थीं। उसने अपना कौतुहल ज़ाहिर करते हुए कहा, ‘ये क्या हो गया है तुम्हारी आँखों को?’
‘मेरी आँखों में सदा की विरह का दर्द समाया है।’ लंबी साँस भरते हुए लड़की ने कहा। गोवर्धन कुछ कहना चाहकर भी न कह सका।
‘तुम्हारा और मेरा साथ बस इतना ही था। मैं जा रही हूँ, पर तुम उदास मत होना।’ उसकी लाल आँखों से अश्रु बह निकले और गोवर्धन बस बुत बना खड़ा रहा।
लड़की ने अपने दोनों हाथों से गोवर्धन का चेहरा अपनी ओर खींचते हुए उसके होठों को चूमा, जिसकी तपिश गोवर्धन ने अपने भीतर तक महसूस की, पर वह न हिला न डुला। बुत का बुत ही बना खड़ा रहा। लड़की खंडहरों के भीतर विलीन हो गई और कुछ पल बाद खंडहर के भीतर से आवाज़ आई-‘गोवर्धन!’
गोवर्धन के बुत बने हुए जिस्म में जैसे जान पड़ गई। उसने अपने होठों पर लड़की के होंठों के स्पर्श को महसूस किया।
‘गोवर्धन!’ दुबारा लड़की की आवाज़ सुनकर गोवर्धन पर जैसे पहाड़ गिर पड़ा। क्योंकि न तो लड़की ने उसका नाम पूछा था और न ही उसने ही लड़की को अपना नाम बताया था।
गोवर्धन तेज़ी से खंडहर के भीतर चला गया, पर वह उसे वहाँ नहीं मिली। सन्नाटे के घेराव से बाहर आकर देखा, तो सामने मोहन-जोदड़ो का इस्टोपिया दिखाई दिया, जिसके ऊपर चौदवीं का चाँद दमक रहा था। इस्टोपिया की ओर देखते हुए गोवर्धन दर्द-भरी आवाज़ में कराह उठा-‘संबारा!’
उसकी आवाज़ मोहनजोदड़ो की गलियों में गूँज उठी। उसने कई बार आवाज़ दी। चीख़ा-चिल्लाया, पर कहीं से भी उसकी सदा को आवाज़ न आई। मायूसी की हालत में उसकी नज़र किसी चमकती धातु पर पड़ी हाथ बढ़ाकर धूल में से उठते ही उसके हाथ में मोहनजोदड़ो की नर्तकी ‘संबारा’ का छोटा-सा बुत दमकने लगा। गोवर्धन ने आश्चर्य से अपने सामने पड़े मिट्टी के ढेर को देखा, जाने क्यों उसे महसूस हुआ जैसे माया के जिस्म की तमाम राख यहीं आकर इकट्ठा हो गई थी। वही राख, जो शाम को स्टोपिया पर खड़े होकर उसने पूरे मोहन-जोदड़ो पर बिखेर दी थी। अपने हाथ में पकड़े ‘संबारा’ के बुत से उसे माया के जिस्म की ख़ुशबू आती हुई महसूस हुई। गोवर्धन ने संबारा के बुत को सीने से लगाया और बेअख़्तियार होकर रोने लगा। उसे लगा उसकी माया फिर एक बार उससे बिछड़ गई है...।
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लेखक परिचय:
ज़ैब सिंधी: जन्म: 7 सितम्बर 1957। सिन्धी साहित्य के क्षेत्र में जाने माने कहानीकार, शायर, नोवेलिस्ट, एवं निबंधकार हैं। उनके कुल अठारह संग्रह प्रकाशित हैं। उनके कहानी-संग्रह ‘धुंध में गुम हुआ मंज़र, शहर की माँ, प्रकाशित हैं, नॉवेल-सेता ज़ीनब, जिसका उर्दू में भी अनुवाद हुआ है। सरहदों का मुसाफिर, (प्रैस में), टी. वी इंटरव्यू पर “कैफ कलिच” नामक संग्रह प्रकाशित है। उन्होने धरती माँ–नॉवेल का अनुवाद किया है, कई अन्य पुस्तकें संपादित की हैं। ‘सिंध की बात’ नामक निबंध -संग्रह भी प्रकाशित है। सिंधी ग़ज़ल का संग्रह ‘आवारा बादल और ज़ैब’ जल्द ही मंजरे-आम पर आने वाला है। उन्हें “सेता ज़ीनब” नॉवल के लिए सिंधी अदबी संगत अवार्ड एवं सिंध रानी अवार्ड प्राप्त हुए हैं। सिंध विश्वविध्यालय की ओर से “केफ कलिच” नामक संग्रह के किए सम्मान, और अनेक संस्थाओं से सुशोभित। वे गवर्नमेंट सचल सरमस्त कॉलेज, हाइडेराबाद सिन्ध में सिन्धी भाषा व साहित्य में प्रोफेसर के तौर कार्यरत हैं। पता: 221-3rd नॉर्थ स्ट्रीट, GMBS हाउसिंग सोसाइटी , जामशोरो रोड, हैदराबाद, सिन्ध, पाकिस्तान।
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