मूल मराठी कविता- हेरंब कुलकर्णी हिंदी अनुवाद- विजय प्रभाकर नगरकर कॉमन मैन तुम ने वोट पर ठप्पा लगाया और ‘संसद’ का जन्म हुआ तुम ने उनको राज...
मूल मराठी कविता- हेरंब कुलकर्णी
हिंदी अनुवाद- विजय प्रभाकर नगरकर
कॉमन मैन
तुम ने वोट पर ठप्पा लगाया और ‘संसद’ का जन्म हुआ
तुम ने उनको राजा मान लिया,वे विधायक,सांसद बन गए,
तुम ने क़ानुन के आगे सिर झुकाया,संसद सार्वभौम हो गई।
तुम ने दफ्तर के चक्कर काट-काट कर लाल फीताशाही से फाँसी लगवा ली,
तुम ने सपनों को पुकारा,उनके एजेंडा ने जन्म लिया
तुम लोकतंत्र के पालनहार,माता-पिता सब कुछ घोषित हो गए ।
उन्होंने तुम्हारा सम्मान किया,तुम वोटर राजा बन गए
वे सभा में भाषण देने लगे,तुम आज्ञापालक श्रोता बन गए
वे कानून बनाने लगे,तुम कोल्हु के बैल बन गए
वे नोटों पर नचवाने लगे,तुम उन के प्रचार में बंदर बन गए।
बम-विस्फोट के ठीकरों में तुम
निर्वासन की भीड में तुम
भुखमरी,कुपोषण की मौत में तुम
उन की घोषणा की ओर ताकने वालों में तुम
आत्महत्या करने वाले किसानों में तुम
बाँध बनने पर सब कुछ खोने वालों में तुम
हर्जाना पाने के लिए चक्कर काटने वालों में तुम
फुटपाथ पर रह कर ‘मेरा भारत महान’ घोषणा देने वालों में तुम
तुम नजर आते हो हमेशा राशन की कतार से मतदान की कतार तक
कभी कर अदा करते हुए,कभी लाल फीताशाही के चर्खे में घुटते हुए
लोकल में टंगे हुए, भीड में तितर-बितर बिन चेहरा
तुम बगुलों के बँगलों पर याचना करते हो,वे मस्ती में तुम्हें छेडते हैं
तुम्हारे ‘विश्व दर्शन’ से मेरा अर्जुन करने वाले
हे असाधारण “साधारण” मानव!
झोपडपट्टी के नरक से दूर जंगल में रहते हुए
तुमने अपने दिल का आक्रोश,बगावत किस खाई में फेंक दी है?
”सिसीफस” के समान बदन पर पत्थर उठा कर
चुप चाप तुम्हारा पहाड की चोटी की ओर जाना बार-बार
क्या तुम्हारे इस मौन,सहनशीलता को संत करार दूं?
या तुम्हें डरपोक करार करके तुम्हें फटकार दूं?
तुम्हारे स्थितप्रज्ञ की गीता लोकतंत्र के करुण पराजय की
ध्वजा बनकर लहरा रही है लाल किले पर
तुम स्वयं लक्ष्मण-रेखा खिंच कर मतों की भीख डालते गए
वे रावण बनकर तुम्हारा हरण करके
तुम्हें स्वप्न कांचन मृग दिखाते रहे।
तुम्हारे साधारण रहने पर ही असाधारण लोकतंत्र का सिंहासन आबाद है।
अपनी सहनशीलता को अब मिटा दो।
संसद के सामने वह “महात्मा” आँखें बंद करके बैठा है
और यहाँ तुम पुतला बनकर शरारती नजरों से
सब कुछ बरदाश्त करते जा रहो हो।
पुतला होना तुम्हारी सामर्थ्य है या तुम्हारी सिमा?
यह सोच कर मैं पुतला बन रहा हूँ,
हे कॉमन मैन !
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( )- साभार-समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी के अंक ११० (नवबंर-दिसंबर २००३) में प्रकाशित।
हमारे मित्र हेरंब जी ने सिंबॉयसिस पुणे स्थित कैंपस में स्थापित भारत का प्रथम कॉमन मैन के पुतले को देख कर यह कविता लिखी थी।
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देवेन्द्र कुमार पाठक
1-वध से पहले
नाहक ही हक़ की क्यों हुंकारें भर-भर कर
दलदल में धँसे-फंसे छकड़े को खींचना;
खाली-पोली मुट्ठी बार-बार भींचना!
मरे बाप-दादों की लिखी उस वसीयत की-
शर्तों को आँख मूँद सर-माथे धरना है,
जबरन इन काँधों पर लाद दिया गया बोझ
बेमन ही ढोने का फ़र्ज़ अदा करना है;
होना हलकान,हार जाना हर मोर्चे पर
अपने हिस्से आया हासिल बस हीचना!
बड़बोले बेर-बबूलों पर जा हिलगी है
ललक भरी आँखों की आश की पतंग,
निकल पड़े शब्दशूर तलवारें भाँजते
सर करने जनमत की इकतरफा ज़ंग;
वध से पहले मनो हम हैं बलि-पशु कोई
टीक-पूज कर,हम पर गंगाजल सींचना!
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2-सारा का सारा आकाश फटा है
अगुये छेदों पर मत थिगड़ियाँ लगा,
सारा का सारा आकाश फटा है!
लफ्फाजी तलवारें बेमतलब भांज नहीं,
मत दौड़ा स्याही के घोड़े नीले-लाल;
जनमत की इंक़लाबी भूमि हुई बाँझ नहीं,
बदलने लगीं तेवर गैंतियाँ-कुदाल;
बिफर रही बाज़ारू सदी-नदी मछुआरे
तेरा बाँधा-साधा घाट कटा-छंटा है !
रोटी,छत-छप्पर की अंतहीन यात्रायें
पांवों की अनबदली नियति बन गयीं,
आयातित सपनों की भरमीली छलनायें
कुनबे की प्रामाणिक प्रगति बन गयीं;
साँप जो संपेरे थे छोड़ गये अब वह ही
जन अगुआ बनकर सिंहासन पर डटा है!
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24/11/2018 ,समयावधि-03.50 p.m.
=============================आत्मपरिचय-देवेन्द्र कुमार पाठक
म.प्र. के कटनी जिले के गांव भुड़सा में 27 अगस्त 1956 को एक किसान परिवार में जन्म.शिक्षा-M.A.B.T.C. हिंदी शिक्षक पद से 2017 में सेवानिवृत्त. नाट्य लेखन को छोड़ कमोबेश सभी विधाओं में लिखा ......'महरूम' तखल्लुस से गज़लें भी कहते हैं....................
. 2 उपन्यास, ( विधर्मी,अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम, मरी खाल : आखिरी ताल,धरम धरे को दण्ड,चनसुरिया का सुख ) 1-1 व्यंग्य,ग़ज़ल और गीत-नवगीत संग्रह,( दिल का मामला है, दुनिया नहीं अँधेरी होगी, ओढ़ने को आस्मां है ) एक संग्रह 'केंद्र में नवगीत' का संपादन. ...... ' वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय', 'अक्षरपर्व', ' 'अन्यथा', ,'वीणा', 'कथन', 'नवनीत', 'अवकाश' ', 'शिखर वार्ता', 'हंस', 'भास्कर' आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. 'दुष्यंतकुमार पुरस्कार','पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार' आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित....... कमोबेश समूचा लेखन गांव-कस्बे के मजूर-किसानों के जीवन की विसंगतियों,संघर्षों और सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित......
सम्पर्क-1315,साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर,साइंस कॉलेज डाकघर,कटनी,कटनी,483501,म.प्र. ; ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail.com
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देवेन्द्र सोनी
पांच नई कविताएँ :
जरा हटके
1
रिश्तों के जाल
जब भी
पूरा होता दिखता है
कोई स्वार्थ हमारा
किसी से भी, तो हम
बढ़ाते हैं पहले नजदीकियां
और फिर जकड़ लेते हैं उसे
रिश्तों के जाल में।
करते हैं फिर दोहन
भावनाओं का
होता है इनसे खिलवाड़ भी।
टूटते, दरकते हैं जब ये रिश्ते
अंततः हश्र होता ही है इनका
गहन पीड़ा और अवसाद में।
सीखते तब भी नहीं है हम
इन दुखद स्थितियों से
उलझे ही रहते हैं -
भावनाओं के जंजाल में।
समझना होगा,
सम्हलना होगा वक्त रहते
इस कथित मोहजाल से
अन्यथा
रूठ,टूट,छूट जायेंगे हमारे अपने।
- देवेंन्द्रसोनी , इटारसी।
2
विकार
विकार
होते ही हैं
हम सबके जीवन में
कोई न कोई विकार ।
हो सकते हैं ये -
शारीरिक अथवा मानसिक
या कभी कभी , कहीँ कहीँ तो
दोनों ही तरह के ।
होते हैं ठीक भी ये
समय पर उपचार करने से ।
मानते हैं न इसे तो आप।
अलावा इनके होता है ,
एक विकार और भी
जिसे अधिकतर
लाइलाज मानता हूँ मैं ।
यह होता है हमारा - दम्भ ।
नहीं है दुनिया में ,
इसका कोई इलाज
लेकिन -
खुद को परखने , और
खुद में परिवर्तन करने से
यह हो भी जाता है - ठीक ।
समझ लें इसे दम्भ भी है एक विकार
जो निगल लेता है -
समूचे व्यक्तित्व को हमारे।
बचेंगे न इस विकार से हम
क्योंकि - नियंता ने -
सिर्फ हमको ही दिया है
इसका उपचार ।
- देवेंद्र सोनी , इटारसी।
3
रंग
जीवनमें हम
कृतिम रंगोंका तो
आंनद लेते हैं बहुत।
हर रंगका अपना -अपना
होता है आकर्षण और महत्व
पर मैं तो दो ही रंगको
मानता हूँ असली।
ये दो रंग ही साथ चलते हैं
जीवनभर हमारे।
कहते हैं इन्हें ,सुख और दुःख।
सुख , होता है जितना प्रिय
दुःख देता है उससे कहीं अधिक पीड़ा
सुखको खरीद भी लेते हैं हम
सुविधाओंके रूपमें
मगर आते ही पास
थोड़ा भी दुःख हमारे
घबरा जाते हैं हम।
सुखका हर रंग अच्छा लगता है
पर दुःखका कोई रंग नहीं भाता है।
जब कि जानते हैं सुख और दुःख
एक ही सिक्केके दो पहलू हैं।
सुखका रंग यदि आंकते हैं हम
सुविधाओंसे, तो यह सुख नहीं है।
सुख तो आत्मसंतोषका
रंग बिखेरता है
और दुःख होता है
प्रेरणाके रंगसे सराबोर ,
जो कहता है -
डूब कर गुजरेगा यदि मुझमें तो
कुंदनसा दमकेगा जीवनमें सदा।
समझना ही होगा हमको
इन दोनो रंगका भी महत्व
आएगी तभी सच्ची खुशहाली
जीवनमें हमारे।
देवेंन्द्र सोनी ,इटारसी।
4
किस्मत
अक्सर ही हम रोना रोते रहते हैं अपनी फूटी किस्मतका
चाहे हमको मिला हो कितना भी, अधिक क्यों न !
नहीं होता आत्मसंतोष कभी भी हमको।
चाहते ही हैं –और अधिक, और अधिक।
ये कैसी चाहत है , सोचा है कभी !
मिलता है जितना भी हमको वह सदा ही होता है
हमारी सामर्थ्यके अनुरूप।
मानना होगा इसे और करना होगा संतोष
क्योंकि – वक्तसे पहले और किस्मतसे ज्यादा नहीं मिलता
किसीको भी, कभी भी कुछ।
किस्मत भी बनाना पड़ता है –सदैव कर्मरत रह कर।
कर्मोंका यही हिसाब देता है हमको वह फल ,
जो आता है इस लोक और परलोकमें दोनों ही जगह काम।
बनती है जिससे फिर नए जन्मकी किस्मत हमारी।
समझ लें इसे और करें –निरंतर मेहनत , सद्कर्म।
रखें संतोष,मान कर यह किस्मतसे हम नहीं, हमसे है किस्मत।
- देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।
5
चुप
अच्छा ही होता है
उन लम्होंमें चुप हो जाना
जब लगे कि बातचीत
बदल जाएगी अनावश्यक बहस में।
बहस होती ही तब है
जब होता है वैचारिक टकराव
यही टकराव हिला देता है
रिश्तोंकी बुनियादको
और बिखर जाते हैं बसे – बसाए घरौंदे कई।
नित्य ही, हर कहीँ टूटते –विलग होते
देखा जा सकता है इन परिवारोंको।
बजह होती ही है जिसकी
बड़बोलापन, अनदेखी या फिर सिर्फ चुप्पी।
सकारात्मक और नकारात्मक भी हैं इनके गुण-दोष।
पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि
रहें हरदम हम "चुप " ।
घर –परिवार या आसपास कहीँ भी होते - दिखते
अन्याय –अत्याचार उत्पीड़न के खिलाफ तोड़नी ही होगी
हम सबको अपनी "चुप्पी " ।
यदि यहां भी रहेंगे अगर हम मौन
तो कई नवविवाहिता चढ़ती रहेंगी दहेज लिप्साकी भेंट
कोखमें ही खत्म कर दी जाएंगी बेटियां
होते रहेंगे निर्भया जैसे कांड।
फिर इन्हें भोगना ही होगा बेटोंको भी यह सब
और परिवारोंको भी।
बचाने इन सबको बोलना ही होगा
चुप्पीको तोड़ना ही होगा
क्योंकि
जितना अच्छा होता है चुप रहना
उतना ही कष्टदायी भी होता है यह
परिवार, समाज और देशके मामलेमें भी।
- देवेंन्द्रसोनी , इटारसी
विशेष - इन सभी कविताओं का गुजराती भाषा में अनुवाद भी हुआ है।
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बबिता अग्रवाल कँवल
१) ग़ज़ल,
इश्क़ में फिर छला गई आँखें
जाम-उल्फत पिला गई आँखें
दूरियां इश्क़ से बनाई पर
दिल से दिल को मिला गई आँखें
क्यों लगीं ही नहीं ख़बर मुझको
दिल का दीपक जला गई आँखें
ज़हर जब से मिला जुदाई का
हिज्र में फिर रुला गई आँखें
थक गई थी मैं जब से रो रो कर
रात मुझको सुला गई आँखें
जब चली सामने हवा ठंडी
याद तेरी दिला गई आँखें
मौत नजदीक जब कँवल आईं
ज़ख़्म सारे भुला गई आँखें
***
२) ग़ज़ल,
ये हार लगें क्यों है ख़ुराफ़ात किसी की
पल में ही हरा दें है न औकात किसी की
मौसम का तकाज़ा है तभी झूम के आया
किस्मत से मिली आज है सौगात की
आएं है मजा दिल में नहीं दर्द है होता
ख़ुद की परछाई से हो जब मात किसी की
तकरार ने लूटा है कि इकरार ने लूटा
देखी नहीं आँखों से यूं बरसात किसी की
क्या हाथ अलादीन चिराग लग गया है
होती नहीं ऐसे तो शुरूआत किसी की
चल लूट लें पल मौज़ के खुशियों को चुरा ले
आ झूम के अब नाच हो बारात किसी की
की मौत गले डाल तेरे साथ ही जाऊं
तू सोच कँवल कैसे ले खैरात किसी की
***
बबिता अग्रवाल कँवल
सिल्लीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)
9832497135
नाम - श्रीमती बबिता अग्रवाल 'कँवल'
पति का नाम - श्री महेश कुमार अग्रवाल
पिता - स्व.श्री सागरमल अग्रवाल
वर्तमान/स्थायी पता---
सिल्लीगुड़ी,
महेश ट्रेडिंग कंपनी
नर्बदा अपार्टमेंट,सेवक रोड,
जन्मस्थान---
सिंगताम,सिक्किम
जन्मतिथि - 10-जनवरी
व्यवसाय - गृहणी
विधा - (कविता, ग़ज़ल, कहानी, लेख,भजन)
सम्मान - - -
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित, सिल्लीगुड़ी कलमकार महाकुंभ में सम्मानित, भारत नेपाल मैत्री समारोह में नेपाल में सम्मानित किया गया तथा श्री अटल बिहारी बाजपेई जी की स्मृति में सम्मान चिन्ह से नवाजा गया
प्रदेश अध्यक्ष(पश्चिम बंगाल)--
अखिल भारतीय अग्रवाल परिचय सम्मेलन
प्रकाशित पुस्तक
ग़ज़ल संग्रह (बूँद बूँद सैलाब)
प्रकाशन को तैयार दुसरी ग़ज़ल संग्रह पुस्तक (पत्थर होने की जिद)
लोकार्पण इलाहाबाद में----(बूंद बूंद सैलाब)
न्यायमूर्ति श्री अशोक कुमार जी,न्यायमूर्ति श्री पंकज मित्तल जी तथा महापौर अभिलाषा गुप्ता नन्दी जी द्वारा
मंच सांझा---
श्री सर्वेश अस्थाना जी,श्री शैलेश गौतम जी,श्री राजेश कुमार जी,श्री पंकज प्रसून्न जी आदि कविवर..
सांझा ग़ज़ल संग्रह पत्रिका --
आग़ाज़ /खुशबू ए ग़जल/काव्य रंगोली/
सामाचार पत्रों में प्रायः ग़ज़ल, कविता, लेख प्रकाशित होते रहते हैं
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निहाल चन्द्र शिवहरे
गॉंव
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गॉंव की पगडंडियों पर नहर के किनारे
अब प्रेम भावना से भरे अन्नदाता जैसे
प्राकृतिक आपदाओं के क़हर से जैसे
कहीं गुम हो गये है , ख़ुद में खो गये हैं
खेत के किनारे बनी छोटी सी झोपड़ी
ताज़े धनिया, पोदीना की लुभाती गंध
अब कहीं से भी कूयें से पौर मे दूधिया
जल की धार बैलों की घंटियों की
मधुर -लहरी चंचल कल-कल के
साथ अब मन को नहीं लुभाती है
अब अकाल, बंजर ज़मीन,सूखे तालाब
भूखे बच्चे . कृशकाय जानवर,
मज़दूर किसान , गॉंव से जाते परिवार
पलायन करते किसान गॉंव गॉंव में
अब नज़र आते हैं , पर्यावरण के दुश्मन
शहरों मे बनी कोठियों में आराम फ़रमाते हैं
अब भी समय है अपना फ़र्ज़ निभाए जाओ
मानव के पापों का प्रायश्चित करने को अब
परिवार के प्रत्येक सदस्य पेड़ लगाओ
पेड़ लगाओ, मानवता बचाओ ,प्रकृति को -
हरा -भरा करने मातृशक्ति सामने आओ
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निहाल चन्द्र शिवहरे , झॉंसी
374,नानक गंज , सीपरी
बाज़ार , झॉंसी -284003
ncshiv@gmail.com
000000000000000
ममता छिब्बर
जिन्दगी
अपना क्या पराया क्या ,
यहां तो हर एक शख्स़ दर्द देता है ...
दवा क्या और दुआ क्या ,
वक्त हर जख्म भर देता है,
जीते हैं जिसे अपना कह कह कर,
वो पल भर में पराया कर देता है ,
दिल में बसी उन तमाम यादों को,
उसका एक शब्द जाया कर देता है....
ज़ीया जाए तो कैसे इस दुनिया में ,
जब कोई अपना किनारा कर लेता है...
मंजिल की ओर बढ़े राही को ,
भटकता - बेसहारा कर देता है ....
टूटी हुई उम्मीदों को वो और बिखरा देता है हाथ बढ़ा हो जिसकी तरफ ,
कदम वही अपने समेट लेता है ....
सांसें जब थम जाती है,
एक मेला सा होता है ....
लोग खड़े होते हैं उस सोए बंदे के लिए ,
जो ताउम्र जागा अकेले होता है.....
-ममता छिब्बर "Bakshi M"
ममता छिब्बर
देहरादून, उत्तराखंड
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लक्ष्मीनारायण गुप्त
नानक दुखिया सब संसार
इस दुनिया मेँ सभी दुखी हैं
किसी को अपनी गरीबी का दुख है
किसी को पड़ोसी की अमीरी का दुख है
किसी को भूखा होने से दुख है
किसी को ज्य़ादा खा लेने से दुख है
किसी को अपने शरीर से दुख है
किसी को अपने ज़मीर से दुख है
किसी को अपनी ख़ाला से दुख है
किसी को अपनी भौजाई से दुख है
किसी को दिल के दर्द से दुख है
किसी को किसी की बेदर्दी से दुख है
किसी को आय कम होने से दुख है
अधिक आय वाले को आय कर से दुख है
छात्र को अपने अध्यापक से दुख है
अध्यापक को अपने डीन से दुख है
दीन को दीनानाथ से दुख है
दीनानाथ को इस दुनिया से दुख है
“नानक दुखिया सब संसार”
यह कहावत वाकई में सच है
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महेन्द्र देवांगन माटी
कर्म करो
कर्म किये जा प्रेम से , चिन्ता में क्यो रोय ।
जैसा तेरा कर्म हो , वैसा ही फल होय ।।
सबका आदर मान कर , गीता का है ज्ञान ।
बैर भाव को छोड़कर , लगा ईश में ध्यान ।।
झूठ कपट को त्याग कर , सब पर कर उपकार ।
दया धरम औ दान कर , होगा बेड़ा पार ।।
धन दौलत के फेर में , मत पड़ तू इंसान ।
करो भरोसा कर्म पर , मत बन तू नादान ।।
कंचन काया जानकर , करो जतन तुम लाख ।
माटी का ये देह है , हो जायेगा राख ।।
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तुलसी
घर अँगना अउ चउक मा , तुलसी पेड़ लगाव ।
पूजा करके प्रेम से , पानी रोज चढ़ाव ।।
तुलसी हावय जेन घर , वो घर स्वर्ग समान ।
रोग दोष सब दूर कर , घर मा लावय जान ।।
तुलसी पत्ता पीस के , काढा बने बनाव ।
सरदी खाँसी रोग मा , खाली पेट पियाव ।।
तुलसी पत्ता टोर के , रोज बिहनिया खाव ।
स्वस्थ रहय जी देंह हा , ताकत बहुते पाव ।।
तुलसी माला घेंच मा , पहिरय जे दिन रात ।
मिटथे कतको रोग हा , कभू न होवय वात ।।
तुलसी पत्ता खाय जे , बाढ़य ओकर ज्ञान ।
मन पवित्र हो जात हे , लगय पढ़य मा ध्यान ।।
तुलसी माला जाप कर , माता खुश हो जाय ।
बाढ़य घर मा प्रेम जी , संकट कभू न आय ।।
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हाइकु पंच
चुनाव
(1)
चुनाव आया
नेता टिकट पाया
खुशी मनाया ।
(2)
गाँव में जाते
सब्ज बाग दिखाते
हाथ मिलाते ।
(3)
वादा करते
आश्वासन दिलाते
लोभ दिखाते ।
(4)
हाथ जोड़ते
झुककर चलते
पैर पड़ते ।
(5)
जीता चुनाव
अब कहाँ है गाँव
चूना लगाव ।
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सर्दी आई
( चौपाई छंद)
सुबह सुबह अब चली हवाएँ । सर्दी आई जाड़ा लाए ।
ओढे कंबल और रजाई । हाथ ठिठुरते देखो भाई ।।
धूप लगे अब बड़े सुहाना । बाबा बैठे गाये गाना ।।
भजिया पूड़ी सबको भाये । गरम गरम चटनी सँग खाये ।।
टोपी पहने काँपे लाला । आँखों में है चश्मा काला ।।
आते झटपट खोले ताला । राम नाम का जपते माला ।।
बच्चे आते शोर मचाते । लाला जी को बहुत सताते ।।
धूम धड़ाका करते बच्चे । लेकिन मन के बिल्कुल सच्चे ।।
ताजा ताजा फल को खाओ । रोज सबेरे घूमने जाओ ।।
सुबह शाम अब दौड़ लगाओ । बीमारी सब दूर भगाओ ।।
महेन्द्र देवांगन माटी (शिक्षक)
पंडरिया छत्तीसगढ़
mahendradewanganmati@gmail.com
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शिवांकित तिवारी "शिवा"
बेटी है यह कोई सामान नहीं,यह अनमोल खजाना है,
जिसका कोई दाम नहीं,
बड़े लाड़ प्यार से पाला था जिसको,
हर बुरी नजर से बचा कर संभाला था जिसको,
आज उस जिगर के टुकड़े को खुद से जुदा करते हैं,
पहले बेटी का सौदा करते हैं,फिर बेटी को विदा करते हैं,
बचपन से उसकी हर एक जिद को पूरा किया,
सारी खुशियाँ अरमानों को उसके तवज्जों दिया,
अब उसे करके पराया घर से अलविदा करते हैं,
पहले बेटी का सौदा करते हैं,फिर बेटी को विदा करते हैं,
रक्खा था अभी तक उसको अच्छे से सहेज,
आखिर अब बेच दिया उसको देकर दहेज,
क्यूँ चंद पैसों से उसका सौदा सरेआम करते हैं,
पहले बेटी का सौदा करते हैं,फिर बेटी को विदा करते हैं,
चंद पैसों के खातिर जला देते है बेटी के अरमान,
न बेंचो खरीदों बेटी को यह नहीं हैं कोई सामान,
बन्द करों दहेज लेना और देना,
न लगाओं अब इसका कोई भी दाम,
इस दहेजप्रथा को जड़ से मिटाने की अब सभी सपथ करते हैं,
पहले बेटी का सौदा करते हैं,फिर बेटी को विदा करते हैं,
अब दहेज प्रथा हटाकर,दहेज मुक्त समाज बनाना हैं,
इस कुरीति को मिटाकर बेटियों को बचाना हैं,
-शिवांकित तिवारी "शिवा"
युवा कवि,लेखक एवं प्रेरक
सतना (म.प्र.)
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भूपेन्द्र भारतीय
।। पहाड़ो पर बर्फबारी ।।दूर उस पार
गगनचुम्बी पहाड़ो पर बर्फबारी हो रही हैं
देश के जवान सरहदो की रक्षा में
हड्डियाँ पिघला रहे हैं।
पर इन वीरो के साहस से
राष्ट्र की धड़कने चल रही है।
पहाड़ो पर एक सफेदपोश चादर
के बीचों -बीच सिर्फ़ मानवता रहती हैं।
वहां जाति, धर्म, सम्प्रदाय, राजनीति
के लिए भूमि बंजर है।
अदम्य साहस के साथ प्रकृति की
गोद में जीवन चहकता हैं वहां।
चलो हम भी चले इन उबड़ -खाबड़
मैदानों से पहाड़ो की ओर।
पहाड़ो पर कही बर्फबारी के
बीच किसी कुटिया में
जंगल की सूखी लकड़ियों का
ताप होगा हमारे साथ।
इन कंक्रीट भरे शहरों को छोड़ो !
चलो पहाड़ो पर जीवन का ताप मिलेगा।
मिट्टी के बर्तन में जब स्वादिष्ट साँग बनेगा!
भुल जाओगे इन तथाकथित पंच-सितारा
होटलो का उबला खाना।
किसी भी वाद से दूर,
चलो मनुष्यता की ओर।
पहाड़ो पर बर्फबारी हो रही हैं ।
सुना है! वहां पर जितने लोग रहते हैं,
वे प्रकृति को ही अपना भगवान मानते हैं।
ओर हर दिन जीते है मस्ती में,
उन्हें नहीं मतलब तुम्हारी किसी ख़ैरात से,
पहाड़ो पर बर्फबारी के बीच
अब भी मानवता रहती हैं।।
भूपेन्द्र भारतीय
पता-205 प्रगति नगर सोनकच्छ, देवास,,
000000000
रंजीत कुमार
1.
तुझे मुझको पहचानना भी अनजान हो गया ,
हलचल सी जिन्दगी में अब सुनसान हो गया।
तुझे खोने से ये मौसम बेईमान हो गया,
अब तो आंखे मेरी बहता झरना और मन रेगिस्तान हो गया।
2.
एक बार की बात है सुनना, श्रोता अभी बताता हूँ
भारत माँ और सैनिक वार्ता की, कविता रच तुम्हें सुनाता हूँ।
सुरम्य रात थी चांदनी की, तब भारत माँ अपनी नींद से डोली
रात्रि मुख पर दमका चंदा, तब वीर भारतीय सैनिक से बोली।
बोली बतलाओ सैनिक, क्यूँ पूरी पूरी रातों को तुम जगते हो
भीषण और भयावह घाटी में, क्यूँ रात्रि भ्रमण कर पहरे देते हो।
सैनिक बोला भारत माँ, मेरा वंदन अभिनन्दन स्वीकार करो
न पूछो इतने जटिल सवाल, मुझ पर कुछ आभार करो।
मैं तो बस दहशतगर्दों को, अपना जोश दिखाने आता हूँ
पत्थरबाजों और अलगाववादों को, उनकी औकात बताने आता हूँ।
करगिल शहीदों के बदले में, उनके शीश काटने आता हूँ
इसी बहाने भारत माँ का, कर्ज चुकाने आता हूँ।।
भारत माँ और ऐसे वीर सैनिक के समुख,हम सब अपना शीश झुकाते हैं
जिनकी बदौलत हम सब, आजादी के गीत सुनहरे गाते हैं।
3.
खामोशी के गगन में,
तन्हाई का नभचर बनकर बैठा हूँ।
बेवफ़ाओ की नुमाइश में,
तेरी तस्वीर बनाकर बैठा हूँ।
बावला हो गया हूँ तेरी बेवफ़ाई से,
न जाने फिर भी क्यूँ,
तेरे जीवन का मुसाफिर बनकर बैठा हूँ।।
4.
तेरी सूरत को बार - बार ताकना मेरी सीरत हो गयी है
हर बार अपना चेहरा मुड़ा लेना, ये तेरी फितरत हो गई है।
हर टाइम न सही दिन में एक बार देख के मुस्कुरा लिया करो,
इस तन्हा जिंदगी अब में आपकी जरूरत हो गयी है।
5.जो दिखी वो तो अपने रास्ते बदल डाले थे,
तू पास थी मेरे,
लेकिन उसके लिए अपने फैसले बदल डाले थे,
अखिर वो मिली मुझे क्यूंकि मैंने उसे चाहा था,
ये सब मेरी बदनसीबी का हवाला था,
धीरे धीरे पल कटे, बातों मे, मुलाकातों में,
अब उसे मुझे नजरअन्दाज करना आया था,
भरी महफिल मे मेरे प्यार को ठुकराया था,
रोया था मगर आसूं ना आए,
फिर भी मना लेता उसे लेकिन उसकी शर्तें अजीब थी,
अब पूछ लेता हूँ खैरियत उससे इंसानियत के खातिर,
क्यूंकि वह 'रंजीत' के लिए अजीज थी,,,,,
अजीज थी,,,,,,,,
6.सरहद पर तैनात हर सैनिक का बन्दन करता हूँ शीश झुकाकर,
भारत माँ की रक्षा खातिर रहता है तैयार कफन बांधकर,
ऐसे सैनिक कोई आम आदमी नहीं बल्कि हमारे लिए भगवान होते हैं
जो हमारी और भारतीयों की रक्षा करते हैं शीश कटाकर।
7.
तसव्वुफ सी तबस्सुम पर अब अधिकार क्या करना?
'तू मेरी थी' इस पर किसी से तकरार क्या करना?
जब मालूम हो लड़कियों की बेवफ़ाई को
तो इन सब पर फिर एतबार क्या करना?
8.
ना दिखाया करो ये 'कैंडल मार्च'
अगर कुछ दिखाना ही है तो इंसानियत दिखाओ,
हैवानियत नहीं।
#16 दिसम्बर 2012(निर्भया कांड)
9.
रफ़्ता रफ़्ता सहमा सहमा,
कोशिश की थी तुझसे करने की फिर से बात।
मेरी हर बात को ना ना कहते कहते
माँगे थे हमसे अहम इस्बात।
इतनी सी बातों में ही,
फिर एक हसीना खेल गई मेरे साथ।
️️रंजीत कुमार
10.ना जाने क्या कमी थी मुझमें,
जो तू मेरी जिन्दगी से हो गई रवानी है।
अरसा बीत गया तुझसे बात किए,
बिन तेरी बातों के जिंदगी सुनसानी है।
मैं हूँ अब भी सूखा तालाब तेरा,
जिसमें बस तेरी बीती यादों का पानी है।
तू ना करे अब बात मुझसे,
ये सब तेरी मनमानी है।
लोगों से सुना है बावला सा रहता हूँ
ये सब तेरी मेहरबानी है।
मेरे भाई लोग गर पूछे तेरा हाल,
उनको अब बस एक बात समझानी है।
जो थी अब तक मेरी,
वो अब वीरानी है।
मैं हूँ अब भी सूखा तालाब तेरा,
जिसमे बस तेरी बीती यादों का पानी है।
बहुत दिनों बाद दिखी थी उस दिन,
देखा अब तेरी आँखे वीरानी है।
बातें की थी उलझी उलझी,
उसके हर लहजे में हैरानी है।
जब भी देखता हूँ किसी को अंगुली पकड़े,
मेरे इस दिल को पुरानी यादें आनी है।
महफ़िल में गर दोस्त तेरा जिक्र कर दे
️️रंजीत कुमार
11.ये हवायें सिर्फ तेरे खुले बालों को ही नहीं उलझाती है
बल्कि कई लड़को की जिन्दगी को भी उलझा देती हैं।
12.कैसे उन्हें बेवफा कह दूँ,
उन्हें अपने प्यार से सफा कर दूँ
दिल तो पहले हमने दिया था उन्हें,
फिर क्यूँ उन्हें बेवफा कह के खफा कर दूँ ll
13.कोई दिल से टूटा समझता है,
कोई मुझको रूठा समझता है।
मगर उस राधा की बेचैनी को,
बस ये कान्हा समझता है।
- रंजीत कुमार, महमूदाबाद, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
00000000000000
बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
नया सबेरा
*****************
नए साल का,नया सबेरा,
जब, अम्बर से धरती पर उतरे,
तब,शान्ति,प्रेम की पंखुरियाँ,
धरती के कण-कण पर बिखरें,
चिडियों के कलरव गान के संग,
मानवता की शुरू कहानी हो,
फिर न किसी का लहू बहे,
न किसी आँख में पानी हो,
शबनम की सतरंगी बूँदें,
बरसे घर-घर द्वार,
मिटे गरीबी,भुखमरी,
नफरत की दीवार,
ठण्डी-ठण्डी पवन खोल दे,
समरसता के द्वार,
सत्य,अहिंसा,और प्रेम,
सीखे सारा संसार,
सूरज की ऊर्जामय किरणें,
अन्तरमन का तम हर ले,
नई सोंच के नव प्रभात से,
घर घर मंगल दीप जलें//
भवदीय,
बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
206, टाइप-2,
आई.आई.टी.,कानपुर-208016, भारत
000000000000
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
सैनिकों आगे बढ़ो
-----------------------
जागो-जागो वीर जवान
तुम्हीं हो देश की शान
शत्रु पर करो तेज प्रहार
निश्चित शत्रु की हो हार
समझौते की बात न करना
क्षमादान सा काम न करना
शत्रु बड़ा नीच पल्टी मारेगा
भारतभू जीतकर भी हारेगा
गौतम - गाँधी शान हमारी
सुभाष- भगत जान हमारी
अहिंसा की राह हमने चुनी
खेल वो खेल रहा है खूनी
हम शेर हैं, करते शेरों से काम
वो गीदड़,करे गीदड़ों के काम
लेकर आतंकवाद का सहारा
बन बैठा मानवता का हत्यारा
हे वीर ! सैनिकों आगे बढ़ो
तुम शत्रु की छाती पर चढ़ो
बन गये जो भारतमाँ पे भार
तुम दो अब उन सबको मार
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
0000000000000
अनिल कुमार देहरी
बेटियां
संसार में सबसे प्यारी रचना हैं हमारी बेटियां
ईश्वर की सबसे सुंदर रचना हैं हमारी बेटियां
अंधेरी रात में चांद हैं हमारे देश की बेटियां
उफनते नदी में नाव की नाविक हैं बेटियां
जो बेटे करते है कर सकती हैं हमारी बेटियां
लेकिन बुरे काम नहीं कर सकती हैं बेटियां
बेटियों को जन्म दो कोख में न मारो सुनलो
बेटियां हमारे लिए वरदान हैं यह तुम जानलो
दहेज न दो बेटि के साथ यह है बहुत ही खराब
मांगे दहेज और जो दे दहेज दोनों ही हैं खराब
बेटियों को आजादी दो बेटे के ही समान
बनाया है दोनों को जगत पिता भगवान्
बेटियां न करना कभी भी गलत काम कोई भी
तुम मान रखना सारे परिवार की ससुराल में भी
मेरे साथियो बेटियों को कमतर न समझना
उनकी देखभाल में भी लापरवाही न करना
बेटि दिखती कैसी है यह तुम मत देखना
ईश्वर का वरदान समझ दिल से अपनाना
बेटों को ज्यादा महत्व न दो घर में तुम आज से
बेटियों को बराबर अधिकार दो घर में जल्दी से
पाल नहीं सकते तो किसी को गोद दे देना
पर कभी भी बेटियों को कोख में न मारना
मित्रों तुम से है प्रार्थना इतना तो अवश्य करना
बेटियां भी अंत में सहारा बनेंगी तुम ये देखना
बेटियां भी कर रही हैं परिवार का नाम रोशन
मित्रों तुम अब बेटियों को न पहुंचाना नुकसान
बेटियों को अब पराया धन न समझना
उन्हें भी बराबर का तुम व्यवहार करना
कहीं भी कोई बेटि परेशान हो तो देना सहारा
ये मत समझना ये तो मेरा नहीं है कोई पराया
दहेज के लिए दुल्हन को जलाकर न मारो
मारने वालों को सार्वजनिक बहिष्कार करो
दुल्हन ही सबसे बड़ा धन है,अब मानना होगा
समाज के ठेकेदारों को ये नियम बनाना होगा
दहेज प्रथा को हर हाल में खत्म करना होगा
बेटियों के हत्यारो को कठोर सजा देना होगा
बेटियों को सक्षम बनाएं पति पर आश्रित न रहें
जरूरत हो तो अकेले बच्चों को पालती भी रहें
कहीं कोई बेटी परेशान हालत हो मदत करो
जल्दी से जल्दी पुलिस को सूचना दिया करो
बेटियां भी पढ़ लिखकर बन सकती हैं गुणवान
परिवार वाले सहयोग करें, वो भी बनेगी विद्वान
अब बेटियों से भी करो समानता का व्यवहार
तुम सबसे बिनती कर रह हूं मैं अनिल कुमार।
अनिल कुमार देहरी
रायगढ़ (छ.ग.)
000000000000000
डॉ0 नरेश कुमार ''सागर''
ऐसी कविता मैं लिख जाउं
------
जोकर बनकर सबको हंसाउ
देश प्रेम के गीत सुनाउ
बुझे - बुझे से जो रहते है
उनमें हंसी के फूल खिलाउं
डरे -डरे जो रहते है घर में
गीत क्रान्ति के उन्हे सुनाउं
रोते हुए बच्चे से बोलू
चॉद - तारे जमीन पर लाउं
तडप रहे है जो भूख से
हक लेना उनको सिखलाउं
बंजर भूमि के रेगिस्तान में
फूलों के मै बाग लगाउं
मातृ भूमि के खातिर मैं
बलि वेदी पर चढ चढ जाउं
अवला कहने वाली नारी को
झांसी का मैं पाठ पढाउं
याद रखें जिसे जग सदियों तक
ऐसी कविता मैं लिख जाउं !!
------
सभी रचनाओं के मूल रचनाकार -----
डॉ0 नरेश कुमार ''सागर''
ग्राम -- मुरादपुर - पटना, सागर कॉलोंनी, गढ रोड - नई मण्डी
जिला - हापुड -- उ0प्र0
000000000000
अविनाश तिवारी अवि
हाहाकार
हाहाकार मची चहुँ ओर पसरा सन्नाटा है,
कश्मीर से दिल्ली तक
बारूद का बोल बाला है।
भाषा की अभिव्यक्ति मिली,
ये टुकड़े भारत के करते हैं।
जिस थाली में ये खाते नापाकी
उसमे ही छेद करते हैं।
बहुत मांग चुके आज़ादी
अब इनको सबक सीखाना है,
पथ्थर बाजो को उनकी
आज़ादी दिलवाना है।
हाहाकार मचा दो सेना
देश द्रोही पर देर नही,
इनकी बोली हमारी गोली
गीदड़ों की अब खैर नहीं।
छुपकर ये घात लगाते,
कायरों की जमात है।
नाहर बनकर टूट पड़ो
इनकी क्या औकात है।
ये उन्मादी और फसादी
आतंक इनका ईमान है
अर्जुन बन कर टूट पड़ो
ये हमारा हिंदुस्तान है।
जो आंख उठा भारत पर
वो आंख निकाल कर जाएंगे
अबकी छेड़ोगे हिंदुस्तान
तो लौहार में तिरंगा फहराएंगे
---
माँ मेरी माँ
माँ मेरी दुर्गा अम्बे लक्ष्मी सरस्वती है,
माँ से सम्बल और दुलार माँ ही मेरी भक्ति है।
लोरी मेरी माँ की सप्त सुर बन जाती है,
माँ के हाथ बनी ये रोटी
महाप्रसाद बन जाती है।
जिसने गढ़ा इस काया को
अमृत पान कराया है
माँ में मन्दिर माँ में मस्जिद
रब माँ में समाया है
उस माँ का झिड़की मेरा
वरदान बन जाती है
माँ की ममता रामायण जैसी
हर शब्द गीता बन जाती है।
त्याग दधीचि का हमने गाया
पर माँ के त्याग को वह पा न सका
रक्त से सींचा जीवन हमारा
ऋण न उसका चूका सका
तेरे आदर्शो पे चलकर जीवन
पथ पर चलता हूँ
संस्कारों से तेरे अपने बेटी
को पल्लवित करता हूँ
तेरी सूरत ममता सी मूरत
मन में उल्लास दे जाती है
तेरी बाते तेरी खुसबू
जीवन सफल बनाती है।
---
श्रद्धांजलि(दंतेवाड़ा में शहीद रुद्र प्रताप सिंह को)
कह गए थे आने को तुम
क्या ऐसे वापस आते है,
तिरंगे से लिपट के आये
जड़वत हम हो जाते हैं।
दीपावली की थी तैयारी
संग में हमे मनानी थी
रंगबिरंगी रंगोली से
आंगन को सजानी थी।
मेरे साजन तुम न आओगे
कैसा छल तुम करते हो
सोनू की पटाखे आये नही
क्यों मुंह बंद कर सोये हो।
माता देखो लल्ला लल्ला कहकर
गश खा जाती है।
सुखी नहीं मेंहदी की लाली
मुनिया पापा कह बुलाती है।
अभी करवाचौथ का व्रत रखा था
सोचा जल्दी आओगे
क्या पता था साजन मेरे
सिंदूर तुम ले जाओगे।
हाय निर्दयी पापी अधर्मी
तुमको दया नहीं आई
जो सेवक है जनता के
उस पर गोली कैसे चलाई
माँ की ममता को तूने लुटा
रक्त वीर का बहाया है
बहन का सुहाग उजाड़कर
कैसा सुख तूने पाया है।
आंसू न बहेंगे तिरंगे पर
ये मेरे साजन का अपमान है
वीर शहीद मेरे देश का
आन बान स्वाभिमान है।
--
हमारा कर्त्तव्य
तरु की सुनो करुण चीत्कार ,
जिससे पोषित होते हो।
फिर कुल्हाड़ी की चोट से
वृक्ष कटित तुम करते हो।
कृशकाय तटनी विलापित
हो बिलखती है,
विषाक्त कर दी सरिता तूने
जो वसुधा को हरित करती है।
वसुंधरा पर गरल हलाहल
मानव तूने घोल दिया,
छुद्र स्वार्थो में तूने
धरनी को झिंझोड़ दिया।
कांप रही धरा कहीं
सुनामी कहर बरपाती है,
तोड़ोगे तुम प्रकृति नियम
तो ऐसे सबक सिखाती है।
आने वाली पीढ़ी को
कैसा विरासत दे जाओगे
विषयुक्त पर्यावरण की
सौगात दे पाओगे।
सोचो वसुधा वसुंधरा से
रिश्ता हमे निभाना है
जल भूमि वायु का
संरक्षण कर जाना है।
है निवेदन युवाओं से
कुछ सजग तुम्हें होके आना है।
मानवता के लिए पृथ्वी को हमे ही बचाना है।
---
रावण एक्सप्रेस #
स्तब्धित हूँ विचलित भी काल की क्रूर लीला से,
रेल पटरी पर बिछी है लाशें विकलित विछुब्द पीड़ा से।
क्या उन्मादी आयोजकों ने न इतना भी ध्यान दिया,
काल रेंग रही धरती पर
रावण दहन का विचार किया।
कितने माताएं बिलख रही
बेटी कहि चीत्कार रही
बेबस निर्दयी काल बनी
रेल भी चिंघाड़ रही।।
सांत्वना की भेंट चढ़ाने
नेता सामने आते हैं
एक दूजे पर दोष लगाते
लाशों की बोली लगाते हैं।
ममता की दामन फैलाये
माता लाल को ढूंढ रही,
खोई सिंदूर की लालिमा
अपलक किसको घूर रही।
निर्दयी काल के पंजो ने
उत्सव खुनी कर दिया
कितनो को अनाथ कर
जख्म ये गहरा दे गया।।
ॐ शांति शांति शांति
अविनाश तिवारी @अवि
अविनाश तिवारी
[01/11 12:13]
avinashtiwari: पिता के लिए
जिसने न कभी विश्राम किया
स्वेद बहाकर हमें पहचान दिया
दिखाया नही अपना दुलार
पर दिल में छुपा प्यार रहा
हर दर्द को सीने में छुपाये
जमाने के झंझावतों से हमे बचाये
आँखों में गुस्सा पर हृदय में अनुराग
ऐसा है मेरे पिता का प्यार
ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया
जमाने में जिसने जीना सिखाया
हसरते अपनी भुलाकर
हमारी ख्वाइशों को पूरा किया
अपने सपनो को हममें जिन्दा देखा
उस पिता को आज पिता बनकर
समझ पाया हूँ
अपनी यादों में वही कठोर सीना ले आया हूँ
जो था तो कठोर पर मुलायम
था मेरे निर्माण के लिए
आज सर झुका है मेरा
उस निर्माता मेरे भगवान के लिए
इस जन्म में तेरा पुत्र बना
हर कर्तव्य को निभाउंगा
संस्कारों को आपके
अपनी पुत्रि को दे जाऊंगा
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
[01/11 20:42]
avinashtiwari: हमारा कर्त्तव्य
तरु की सुनो करुण चीत्कार ,
जिससे पोषित होते हो।
फिर कुल्हाड़ी की चोट से
वृक्ष कटित तुम करते हो।
कृशकाय तटनी विलापित
हो बिलखती है,
विषाक्त कर दी सरिता तूने
जो वसुधा को हरित करती है।
वसुंधरा पर गरल हलाहल
मानव तूने घोल दिया,
छुद्र स्वार्थो में तूने
धरनी को झिंझोड़ दिया।
कांप रही धरा कहीं
सुनामी कहर बरपाती है,
तोड़ोगे तुम प्रकृति नियम
तो ऐसे सबक सिखाती है।
आने वाली पीढ़ी को
कैसा विरासत दे जाओगे
विषयुक्त पर्यावरण की
सौगात दे पाओगे।
सोचो वसुधा वसुंधरा से
रिश्ता हमे निभाना है
जल भूमि वायु का
संरक्षण कर जाना है।
है निवेदन युवाओं से
कुछ सजग तुम्हें होके आना है।
मानवता के लिए पृथ्वी को हमे ही बचाना है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
लालसा
कुछ कहि कुछ अनकही बात
रह गई है लालसा।
संपूरित होते सपने अधूरे
रह गई है लालसा।।
छूँ लूं अपरिमित गगन और मुठ्ठी भर आकाश,
किन्तु
रह गई है लालसा।
दीप बन हरने चली तमस
घनघोर रात की
स्वर्णिम सबेरा आएगा,
रह गई है लालसा।।
वट वृक्ष सा परिवार
खण्डित रिश्ते कुटित व्यवहार
रह गई है लालसा।
घुटती सांसे उजड़ता कानन
क्रांकीट का विस्तार फैलता
एक जाल
रह गई है लालसा
घटता पानी उछलती हयाएँ
उन्मुक्त बाजार बिकता ईमान
रह गई है लालसा।
सपनों के पूरे होने की
बातों के पूरे होने की
रिश्तों को सहेजने की
अंधेरा दूर करने की
उन्मुक्त सांस लेने की
है अधूरी लालसा
रह गई है लालसा
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
हमारा लोकतंत्र
कौन जीतेगा
लोकतंत्र का पर्व
जन का बल
बिकते वोट
खरीददार कौन
धन का बल
आशा अनन्त
उम्मीद है कायम
नया सबेरा
जन की सेवा
लोकतंत्र की जय
देश प्रथम
लोक का हित
मतभेद भुलाएं
कल की सोंचें
©अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
गांव की ओर
हम फिर से आएंगे
चौपाल के लगते ठहाकों में
पीपल की मीठी छांव में
खेतों में गूँजती स्वर लहरि
घने अमरैया की ठाँव में
हम फिर से आएंगे
कल कल करती तटनी में
गांव की टेढ़ी गलियों में
पनघट के उस भोर में
ताल तल्लिया शोर में
हम फिर से आएंगे
बागों में देवालय में
मंदिर और शिवालय में
मेलों में बाज़ारों में
सुदृढ़ हमारे संस्कारों में
हम फिर से आएंगे
सांझा चूल्हा फिर से जलेगा
दादा दादी की साये में
काका काकी संग झूलेंगे
कदम पेड़ की पुरवाई में
हम फिर से आएंगे....2
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
भारत का लोकतंत्र
मैं भारत का लोकतंत्र
जन गण मुझमे समाया है।
संसद मेरा मंदिर
जनता ने मुझे बनाया है।
मैं गरीब की रोजी रोटी
भूखों का निवाला हूँ,
मैं जनों का स्वाभिमान भी
भारत का रखवाला हूं।
मैं जन हूँ जनता के खातिर
जनता द्वारा पोषित हूं
बन अधिकार जनता का मैं
पौधा जन से रोपित हूं।
ऐसे जनतंत्र को दाग लगाने
भेड़चाल तुम न चलना
मत बिकना कभी नोटों से
प्रजातन्त्र अमर रखना।
कहना दिल्ली सिंहासन से
ये जनता का दरबार है।
भूले से भी भरम न रखना
ये तेरी सरकार है।
अमर हमारा लोकतंत्र है
खुशियां रोज मनाते है।
ईद दीवाली वैसाखी क्रिसमस
मिलकर हम मनाते हैं।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा 495668
मो-8224043737
इन्जार
रास्ते भी बंद हैं और बंदिशें हजार है।
आज भी और कल भी इंतजार है इंतजार है इंतजार है।
वक्त सिमटता रेत सा उजड़ा सा बाजार है।
आकांक्षाएं अपरिमित सपने
हजार है।
कल भी आज भी इंतजार है इंतजार है इंतजार है।
राजनीति निज हितों का साध्य
बन इठला रही,
धृतराष्ट्र दुर्योधनों के राह चलती जा रही
चक्रव्यूह में अभिमन्यु दुर्योधनी सेना से लड़ें
छल कपट छिद्र लोभ साधे
शकुनि पासे से भिड़े।
लूट रही द्रौपदीयाँ कृष्ण पर ऐतबार है
भीष्म शैया पर लेटे हैं बन्धित विचार है
कल भी आज भी इंतजार है इंतजार है इंतजार है।
अग्नि परीक्षा सीता की और कितनी बार हो।
कब तक इस युगों में राम का
वनवास हो
भरत नहीं लक्ष्मण नहीं भातृप्रेम मर रही,
सूर्पनखाएं ताड़कायें स्वांग धर के
घूम रहीं।
रामराज्य का स्वप्न क्यो नहीं साकार है।
कल भी आज भी इंतजार है इंतजार है इंतजार है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
प्रेम अगन
सरसों फुले
मन बहका है
बासन्ती प्रेम।
कर श्रृंगार
लजरत अंखिया
नैन अधीर।
कोयल कूके
आजा मेरे सजना
मन के मीत।
सुन मितवा
लगन तोसे लगी
करूँ जतन।
प्रेम अगन
बैरी बन पपीहा
आग लगावे।
---
सिंहनाद
जब मांग रहा रण तो रणभेरी अब बजने दो।
भुजाएं फड़क रही वीरों की
एक सिंहनाद का गर्जन दो।
एक शीश कटा मातृभूमि में गर
अब दुश्मन की शीश वह मांग रहा
रणचंडी बन भारत माँ
ऐ वीर तुझको बुला रहा
भर हुकांर अब करो प्रहार
अब कर दो तुम आर पार
मिटा दो नख़्शे से अख्श पाक
कर मर्दन पापी मुंडो का
अब नामोनिशान न रहे
इन पाकी मगरूर शीशों का
यलगार हो यलगार हो
पाक बिलकुल साफ हो।।
#अवि
अविनाश तिवारी
मेरा संविधान
लोकतंत्र का अभिमान हूँ
मैं भारत का संविधान हूँ।
मुझमे बसा है भारत देखो
हिंदुस्तान की जान हूँ। ।
मैने समता सम्प्रुभता से
भारत को सींचा था।
बाबा के सपनों में मैंने
समाज वाद भी देखा था।।
टूटे मेरे सपने स्वराज के
राजघाट में लेटा हूँ।
संसद के गलियारों में
हंसता हूँ कभी रोता हूं।।
मैने भाषण की आज़ादी दी
तुम देश को खंडित करते हो।
जे एन यू में बैठ के द्रोही
देश के टुकड़े करते हो।
संसद की भाषा भी देखी
कुर्सी टेबल टूटते हैं,
आंख मिचौली करते नेता
मर्यादा भी खोते हैं।
धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाया
भाईचारा बना रहे।
किन्तु लड़ रहे धर्म पर
खून अपना ही बहा रहे।
बाबा गांधी के सपनो को
आओ सफल बनाना है।
राष्ट्र हित है सर्वोपरि
संविधान अमर बनाना है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
: दस्तक
उनींदे सपनों पर किसी ने दस्तक दी है।
धुंधली सी यादों की महक सी दी
है।
खोजता हूँ दर बदर अपनों की महफ़िल में
गैरों की महफ़िल ने सदा मुझे
दी है।
कल तक थे जो यारे जिगर
मुफ़्लसी में उन्होंने ही ठोकर दी है
गिराने खड़े थे लाखों मगर,
लखते जिगर ने पहले से शिरकत की है।
यादें उन्ही की अब रहबदर बदलें हैं
समझो कि अपने हालात जो बदलें हैं।
मंजिल अपनी फिर से करवट ले रही है,
अनजानी सी कशिश पहचानी खनक दस्तक दे रही है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
अवि के दोहे
घड़ी
घड़ी घड़ी का फेर है,
मन में राखो धीर।
राजा रंक बन जात है,
बदल जात तकदीर।।
प्रेम
प्रेम न सौदा मानिये,
आतम सुने पुकार।
हरि मिलत हैं प्रीत भजे
मति समझो व्यापार।।
दान
देवन तो करतार है,
मत कर रे अभिमान।
दान करत ही धन बढ़ी,
व्यरथ पदारथ जान।।
व्यवहार
कटुता कभू न राखिये,
मीठा राखो व्यवहार
इक दिन सबे जाना है,
भवसागर के पार।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा 495668
avinashtiwari: अवि के दोहे
मां
मां देवी का रूप है,
ममता की है खान।
करे तपस्या शिशु हित में
धरती की भगवान।।
पिता
पिता हृदय सागर बसे,
पर्वत सा जो गम्भीर।
कठोर बने पुत्र हित में
सँवार दे तकदीर।।
पुत्र/सुत
पुत्र वही जो मान रखे,
पिता की रखे लाज।
मर्यादा में काज करे
विवेकी हो विचार।।
भाई
भरत लखन सा भाई हो,
मन की जाने बात ।
अनुरागी जो चित रखे,
स्वार्थहीन व्यवहार।।
बहन
प्रेम की दीया बहना
अंगना जो दमकाय
बात बात में गुस्सा कर
मर्जी अपनी चलाय।।
©अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
#प्रेम पाश
प्रेम पाश बन जाये तो,
प्रेम नहीं अनुबन्धन है।
प्रेम उन्मुक्त नियंत्रण से,
प्रेम त्याग समर्पण है।।
प्रेम कोयल की मीठी बोली
प्रेम नैनों की आंख मिचौली।
प्रेम विमुक्त परिभाषा से,
प्रेम निर्वित अभिलाषा से।।
प्रेम बहना की रेशम डोरी,
प्रेम मां की सुरभि लोरी।
प्रेम पिता का अविरल भाग,
प्रेम पुत्र का चंचल राग।।
प्रेम नियंत्रण न माने,
प्रेम पाश को न जाने।।
प्रेम जीवन का अद्भुत गान,
प्रेम से हम बने इंसान।
प्रेम रिक्त तो शून्य संसार,
प्रेम जगत का है आधार।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
हाहाकार मची चहुँ ओर पसरा सन्नाटा है,
कश्मीर से दिल्ली तक
बारूद का बोल बाला है।
भाषा की अभिव्यक्ति मिली,
ये टुकड़े भारत के करते हैं।
जिस थाली में ये खाते नापाकी
उसमे ही छेद करते हैं।
बहुत मांग चुके आज़ादी
अब इनको सबक सिखाना है,
पथ्थर बाजो को उनकी
आज़ादी दिलवाना है।
हाहाकार मचा दो सेना
देश द्रोही पर देर नही,
इनकी बोली हमारी गोली
गीदड़ों की अब खैर नहीं।
छुपकर ये घात लगाते,
कायरों की जमात है।
नाहर बनकर टूट पड़ो
इनकी क्या औकात है।
ये उन्मादी और फसादी
आतंक इनका ईमान है
अर्जुन बन कर टूट पड़ो
ये हमारा हिंदुस्तान है।
जो आंख उठा भारत पर
वो आंख निकाल कर जाएंगे
अबकी छेड़ोगे हिंदुस्तान
तो लौहार में तिरंगा फहराएंगे
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
उड़ान
हां मैने बन्द कर दिए वो रास्ते
जो संकीर्ण पुलियों से जाते थे,
हां मैंने बन्द किये दरवाजे
नाउम्मीदी के राह रोक जो जाते थे।
हां मनाही है मेरे लिए निराश होना
बिन प्रयास लिये हार बैठना
हां मनाही है यहां हार की
क्योकि यहां जय होती है
गिलहरी प्रयास की।
कि जब बून्द बून्द से सागर भरता है
तो व्यथित मन क्यों रोता है।
हौसला फौलादी और असीम तेरी
चाह हो।
बन जा परवाज तू सफल तेरी उड़ान हो।।
---------
उलझन
मन मेरे बेचैन क्यूँ तु ,मंज़िल तेरी दूर नहीं।
क्यों भटके तू मोहजाल में, मंज़िल तेरी ये तो नहीं।
क्यों विकलित सा सिमटा बैठा
छूने को आकाश है।
विस्तारित तेरी सम्भावना फलक में दिखा उजास है।
ये भटकन उलझन है तेरी बन्धन सारे तोड़ दो,
दिल की गहराई में झांक के देखो
अब सारे राज खोल दो।
जब हार मिले कहीं तू खोल विजय का द्वार
व्यथित हो न बैठ कभी
मानना न कभी हार।
असफलता से सीख लो सफलता की राह को
मन आश रखो तुम बुझने न दो
उज्ज्वलता की चाह को
होगी तेरी जयश्री सदा इरादे को मजबूत करो
किन्तु परन्तु से हटकर विश्वाश की धीर रखो
वही छूता बुलन्दी जिसका अटल
विश्वाश हो,
पाने को धरती और छूना आकाश हो।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
मेरी छुटकी
छुटकी मेरी बड़ी होने लगी है,
नसीहतें मुझे अब देने लगी है।
कल तक कहती चॉकलेट लाना
अब लेपटॉप की डिमांड करने लगी है।
पुस्तक के पन्ने पलट के कहती
याद हो गयी अब मैं हूँ सोती,
वही मोबाइल से चिपकने लगी है
सेल्फी खींच के मुंह बिचकाने लगी है।
छुटकी मेरी बड़ी होने लगी है।
कपड़े मेरे प्रेस करकर वह कहती
साफ कपड़े पापा रखते नहीं है
आदत पापा की बिगड़ने लगी है।
मेरी नकचढ़ी बड़ी होने लगी है।
कभी कहती पापा कुछ ले के आना
आज वो कहती पापा टाइम से खाना,
खिलौनों को जमा के अब रखने लगी है
बिट्टी मेरी बड़ी होने लगी है।
कभी मुझसे लड़ती कभी है झगड़ती
मेरी नानी सी मुझको लगने लगी है
मेरी नकचढ़ी बड़ी होने लगी है।
संस्कारों से सजी मेरी बिट्टी
घर के आंगन में महकनी लगी है
बिट्टी से रौशन गुलिस्ता हमारा
चिड़िया सी बिट्टी चहकने लगी है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
याराना
ये उन दिनों की बात है,
जब सैर सपाटे चलथे थे।
एक थाली में बैठ के यार,
मज़े से दाना चुगते थे।।
अलबेला था तब रंग हमारा,
मस्तानों की थी टोली।
हुड़दंगी में भी पीछे न थे,
पर कहते प्रेम की बोली।।
तेरा मेरा कुछ नहीं वहां पर,
बस प्यार बसाए रखते।
यारो के यार हम हैं ,
तुम्हें दिलों में बसाए रखते।।
धूम धड़ाके मस्त ठहाके
चौपालों में लगते थे।
यारा अपनी यारी को
लोग बड़े तरसते थे।
कपड़े बदल के पहनते
नई शर्ट उड़ा ले जाते थे
तेरे जूते फाड़ के रौब से लौटाते थे।
एक सुरों में गाना गाते नीत नए तराना।
आओ बैठे साथ मे फिर से
बन जाये फिर याराना।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
लोकतंत्र की जय
ये लोकतंत्र है अमरबूटी
जन जन इसमें समाते हैं,
जो राज करे जन के हृदय में
ताज उसे ही पहनाते हैं।
छद्मवेश धर कोई भरम न
फैला पायेगा,
आज घिरा तमस कल अंधकार
छट जाएगा,
दल दल के चक्कर में फंसकर
सौहाद्र न हम अपना भूलें,
लोकतंत्र की सफल बनायें
अपना भाईचारा न छोड़ें।
आओ मिलकर साथ चलें
जीवन खुशी से बिताएं
प्रजातन्त्र की खुशियों से
देश की बगिया महकाएं।
@अवि
अविनाश तिवारी
दोहा
सत्य आचरण धर्म तत्व है ,
प्रेम मानस का सार।
लाख छुपाय छिप न सके,
असत्य की होत हार ।।
घट घट ईश्वर वास है,
खोजत चहुँ दिश नैन।
हरि मिले दीन कुटी में,
भजते गुण दिन रैन।।
राधा नाची बंशी धुन,
गोपी श्याम नचाय।
शबरी के जूठे बेर,
प्रेम बस राम खाय।।
करनी आप सँवारिये,
दोष न पर में डाल।
हम चलें नेक राह पर,
बदल न अपने चाल।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
मां
मां मंदिर की आरती,मस्जिद की अजान है।
मां वेदों की मूल ऋचाएं, बाइबिल और कुरान है।
मां है मरियम मेरी जैसी,
मां में दिखे खुदाई है।
मां में नूर ईश्वर का
रब ही मां में समाई है।
मां आंगन की तुलसी जैसी
सुन्दर इक पुरवाई है।
मां त्याग की मूरत जैसी
मां ही पन्ना धाई है।।
मां ही आदि शक्ति भवानी
सृष्टि की श्रोत है
मां ग्रन्थों की मूल आत्मा
गीता की श्लोक है।
मां नदिया का निर्मल पानी
पर्वत की ऊंचाई है
मां में बसे हैं काशी गंगा,
मन की ये गहराई है।
मां ही मेरा धर्म है समझो
मां ही चारों धाम है।
मां चन्दा की शीतल चाँदनी
ईश्वर का वरदान है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
जीवन सत्य
मन के आईने में झांक
बिखरे पन्ने समेट रही है।
क्या खोया क्या पाया
भंवर में खो रही है।
अनजानी सपनों ने नींदे तोड़ दी है
#आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है।
समय का घोड़ा अपने पथ में दौड़ा
रिश्ते नातों ने साथ भी छोड़ा
खाएं कसमे वादे वफ़ा की
जख्मों को उसने हवा दी है, #आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है।
बचपन बीता जवानी आई
उन्नीदें स्वप्न ने रैन चुराई
सफेदी ने कनखियों से दस्तक दी है।
#आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है।
बासन्ती ये चित बासन्ती है भेष
मन मयूर नाचे होके बैचैन,
उन्मुक्त गगन ने हलचल सी दी है।
#आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है।
गन्तव्य का प्रस्थान ये आवागमन
बन्ध खुल ही जाएँ कहे अन्तर्मन
काल खड़ी बाँह फैलाते
जीवन ने अतिंम प्रहर दी है,
#आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है।।
@अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
विदूषक
रंगमंच है ये दुनिया और हम विदूषक हैं।
रंग बदलती दुनिया के बहूरुपये जोकर हैं।।
जीवन क्षण भंगुर हमें अगले पल का भान नहीं।
जोड़ लिया सात पीढ़ी का धन
परम् सत्य का ज्ञान नहीं।
कुछ विदूषक ह्रदय तलों से दिल मे बस जाते हैं।
गम को छुपाये सीने में चेहरे में हंसी लाते हैं।
घर घर मे आज विदूषक
छद्म वेश में बैठे हैं।
निहित स्वार्थ में बैठकर सारे
मुखौटों में छुपे हैं।
नाट्य रूप में मसखरे चुपके से कह जाते हैं।
स्वांग भरे जीवन के राज खोल
जाते हैं।
पर्दे के पीछे जाने कितने विदूषक बन घूम रहे ।
कुछ पापी पेट के मारे कुछ
पेट के पापी जूझ रहे।
बहुरूपिया हम भी बने है
जीवन के हैं ये रंग।
क्या सच्चा क्या झूठा
अजब दुनिया के ढंग।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
ममता
मूरत तेरी क्या बनाऊ
ममता की तू सागर है,
तूने सारा जगत बनाया
दया प्रेंम की गागर है।
शब्दों से बयाँ क्या होगा
जिसने ममता से है रोपा,
अंकुरित बीज बना एक पौधा
माँ ने इसे अपने रक्त से है सींचा।
मै सोता तू जगती मै रोता तू रोती
सुखा बिस्तर मेरा तू गीली पर सोती
कितनी राते तू जागी मुझको मीठी नींद दिलाके,
तेरा कर्ज क्या चुकाएं तू हमसे क्या चाहे।
हो सके माँ तो रब से इतना चाहूं,
हर जन्म में तेरी कोख से जन्म लेके आउँ
तेरा अख्स ह्रदय में इस तरह समया है।
ईश्वर से पहले तेरा सुमिरिन लबो पे मेरा आया है ।।
@अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
सलाम मेरीकॉम
पंच से अपने कमाल कर दिया
मेरीकॉम आपने देश का नाम कर दिया।
नारी की महिमा को नाम दे दिया
35 की उम्र को भी मात दे दिया
मेडल स्वर्ण देश के नाम कर दिया।।
बच्चों को भी पाला मां का फर्ज भी निभाया।
तेरी दृढ़ शक्ति से इतिहास बन गया
मेरीकॉम आपने कमाल कर दिया।।
महिला शशक्ति की पहचान बन गयी,
उम्मीदों के हौसलों की उड़ान बन गयी,
औरत के जीवन का नया नाम दे दिया
मेरीकॉम तूने कमाल कर दिया।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
आओ करें मतदान
हो जाओ तैयार साथियों
हो जाओ तैयार,
लोकतंत्र का पर्व है आया
हो जाओ तैयार।
मौका मिला है तुमको
तकदीर तुम सँवार लो
अपने मत की कीमत आज तुम
पहचान लो।
अपने हक की आवाज को
राजधानी में पहुंचाना है,
जागो जागो मेरे भाई
अधिकार तुम्हें ही पाना है
देश सँवारे प्रदेश सँवारे
कर लो तुम इकरार
हो जाओ तैयार साथियों
हो जाओ तैयार
देना तुम मतदान उसे
जो स्वच्छ छवि रखता है,
प्रलोभन से दूर रहे जो
जनसेवा ही करता है।
सबको लाओ केंद्र में
जाकर हम मतदान करे
प्रदेश हमारा आगे बढे
ऐसा हम कार्य करे.।
ले शपथ हम आगे बड़ें
मत है तेरा अधिकार
हो जाओ तैयार साथियों
हो जाओ तैयार।
--
बचपन
खोया मेरा बचपन फिर
वही गांव ढूंढता है,
चौपाल के ठहाके
पीपल का छांव ढूंढता है।
पगडंडी खो गए
क्रांकिटों के अंदर
सुख गये पोखर
अमरइया है किधर
तेज है धूप पर छांव
नहीं दिखता है
खोया मेरा बचपन फिर
वही गांव ढूंढता है।
दादा दादी के किस्से
हो गए किताबी
मामा मामी काका काकी
रिश्ते अब हिसाबी
नाना नानी का फिर वही
दुलार ढूंढता है।
खोया मेरा बचपन
वही गांव ढूंढता है।
वो गुड्डे की शादी
वो सपना सलौना
वो अमरूद की चोरी
और घास का बिछौना
यादों की झिलमिल ठाँव
ढूंढता है,
खोया मेरा बचपन फिर वही
गांव ढूंढता है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
00000000000000000000
राजेश गोसाईं
आना हर गली में हर पल
हे नव वर्ष की नव बहारो
तुम्हें रौशनी की कसम
तुम्हें बागों की कसम
खजाना है यहाँ
इक इक मकां में
खुशियों का , शांति का
आना हर दिल में
महकते हुये , चहकते हुये
नव वर्ष की नव आशाऐं
____________________
1.....नन्हे पाँव
नन्हे नन्हे पांव से
आ रहा है
नव वर्ष
अतीत की स्मृतियां
वर्तमान का सुख
और
भविष्य की उज्जवल
कामनाओं के संग
सुनहरे अर्श का
सुनहरा स्पर्श करवा रहा है
नव वर्ष
हो हर्ष -सर्वत्र उत्कर्ष
नव तरंगों से नव उमंगों से
नव युग में नव आधार धर
नव श्रृंगार कर रहा है नव वर्ष
रचना : राजेश गोसाईं
***********
2......नव किरण
बेटी को पढ़ने दो
बेटी को पढाओ
बेटी की झोली में
विध्या का धन
जो भर जायेगा
नव वर्ष आयेगा
जब दहेज की वेदी में
बहु कोई न जलेगी
जब बेटी बेटे में
कोई अंतर न आयेगा
जब हर निर्भया की
सुरक्षित नव किरण
नव सूरज लायेगा
नव वर्ष आयेगा
रिश्वत का व्यापार न होगा
जब कोई भ्रष्टाचार न होगा
स्वार्थ के रावण को
जब ईमान का बाण लग जायेगा
नव वर्ष आयेगा
जब हरा भरा वातावरण होगा
जब स्वच्छ पर्यावरण होगा
जब सब का रोजगार होगा
जब महंगाई का बादल छट जायेगा
नव वर्ष आयेगा
जब खेतों में विकास की
फसल से देश लहरायेगा
जब हर इंसान खुशी का
झंडा दिल में लगायेगा
जब भारत राष्ट्र उत्कर्ष में
विश्वगुरू बन जायेगा
तब .........
नव सूरज नव किरण की
नव सुबह लायेगा
नव अर्श आयेगा
नव हर्ष आयेगा
नव वर्ष आयेगा
राजेश गोसाईं
************
3......मंगल कामना
मधुर मधुर हो प्रतिपल तुम्हारा
उज्जवल उच्च आशाओं को छूता
सुखमय सुरमय हो अति क्षण तुम्हारा
सुंदर सुगंधित अनुराग में बहता
जगमग जगमग हो नवजीवन तुम्हारा
अलौकिक हो हर पथ हर लक्ष्य प्यारा
सफल सुफल हो सदा प्रति पग तुम्हारा
सुख संपदा से हो आँचल भरा
मंगल मंगल हो हर कल तुम्हारा
प्रेम विश्वास की बहती हो धारा
अमृतमय हो हर संबंध तुम्हारा
उमंग तरंग से अंकुरित हो जग सारा
महक महक हो गुलशन तुम्हारा
राजेश गोसाई
**********
4......ज्योति क्लश.....
ओंस के मोतियों से सजाई हुई
भोर की लाली किसे पेश करूं......
ये स्वर्णिम धागों की पिरोई हुई
रेशमी सुबह मैं किसे पेश करूं......
ये मुस्काई हुई अरुण रश्मियां
ऊषा के ललट पे शरमाई हुई
नहाई हुई कलियों की लतायें
सौंधी सी सुबह किसे पेश करूं.....
गुनगुनाई हुई किरणों की कतारें
गुलाबी धूप में ये खिलती बहारें
ये सिंदूरी फलक के सिंदूरी नजारे
ये ज्योति क्लश मैं किसे पेश करुं......
शुभ्र आँचल धरती का फैला
मंगल घट छलक के आया
उजाले ने दी सुख की छाया
ये अमृत गागर मैं किसे पेश करूं.....
राजेश गोसाईं
***********
5.....नव अर्श पे
कदम कदम बढ़ाये जा......2
धरती है भारत की ये
मेहनत के मोती उगाये जा
इस पावन माटी में
सपने सच तू बनाये जा
कदम कदम .........
ये ऋषि मुनियों का जहां
अन्नदाता अन्नपूर्णा
सफलता और उन्नति की राह में
पसीना खूब बहाये जा
सोना उगा के फिर यहाँ
सोना तू खूब पाये जा
कदम कदम.........
रत्नों की खान है
ये महान हिन्दुस्तान है
सागर है हर दिल दरिया
गागर भर के प्रेम पाये जा
कदम कदम......
त्यौहार नव वर्ष का ये
मनाता रहे हर कोई
गीत खुशियों के सदा
गाता रहे हर इंसां ये
रौशन देश ये जहां रहे
दीप माला तू सजाये जा
हो उत्कर्ष सदा
हर अर्श पे हर फर्श पे
नव वर्ष हर वर्ष फिर मनाये जा
कदम कदम.....
राजेश गोसाईं
**************
6.....नव उत्कर्ष
अभिनन्दन है नव वर्ष तुम्हारा
नव स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा
उज्जवल उच्च आकांक्षाओं को छूता
सुन्दर सुनहरी हो भविष्य सारा
नव उमंगों से नव तरंगों से
नव मधुबन सज जाये सारा
प्रेम ऐकता व शांति की चले
हर दिल में इक अमृत धारा
नव वर्ष की नव वेला में
नव युग का आधार बने
नव जीवन में नव श्रृंगार हो सदा
नव हवाओं में मेहनत का नव जोश हमारा
नव सूरज हो नव किरण हो
नव धरती हो नव अम्बर हो
नव अर्श हो नव फर्श हो
नव उत्कर्ष में नव हर्ष हो हमारा
राजेश गोसाईं
******
7.......नव श्रंगार
नव वर्ष की नव वेला में
नव जीवन का श्रृंगार करो
नई उमंगों से नई तरंगों से
इक नवयुग का आधार धरो
आओ मेहनत को अपना ईमान बनायें
नई खोज से नये जोश से
देश नया बनाये
नई उम्मीदों से नई योजनाओं से
इक नया आविष्कार करो
नव वर्ष आयेगा हर वर्ष आयेगा
स्वागत का फर्श तैयार करो
मुबारक हो जायेगा नव वर्ष
रौशन देश का नाम करो
राजेश गोसाईं
********
8......सुख की हवा
छलकते हुये छलक गया
बीता हुआ वर्ष
सुख दुख से भरा रहा था
वो प्यारा अमृत क्लश
गिरा जो मोती
उसका धरा पर
चमकता हुआ निकल आया नव वर्ष
अभी कली है
फिर फूल बनेगा
गुनगुनाता हुआ दिल में उमंग लेकर
झूम कर खिल आया है नव वर्ष
अतीत के स्मृतियों से
नन्हे पंख फैला कर
दे गया सुख की हवा नव वर्ष
राजेश गोसाईं
********
9.... नया साल
नया साल आ रहा है
खुशियों का पैगाम लिये
कुछ तुम हंसो कुछ हम हंसे
आँचल में फूल सुबह शाम लिये
नव वर्ष की शुभ कामनाएं
हम आपके लिये लायें
हो कुछ ऐसा इस साल
कि छुपे हुये गम दिलों के
आपस में बंट जायें
कुछ हम हंसे कुछ तुम हंसे
सच हो सब शुभकामनाएं
राजेश गोसाईं
*******
आया नया साल
झिलमिल सितारे ले के
आया नया साल
सुबह सवेरे स्वर्ण पथ पे
आया नया साल
उज्जवल भविष्य की
स्वर्णिम कामनाएं
सपने साकार करने
. आया नया साल
यादों के रथ पे
अतीत से चल के
नव अंकुर नव पल्लव
भविष्य की बहारें ले के
आया नया साल
नव प्रीत - नव प्रात -
नव आस नव उच्छवास
नव ऊर्जा नव खुशियाँ ले के
आया नया साल
रिमझिम के तराने ले के
आया नया साल
प्यार का संदेसा ले के
आया नया साल
राजेश गोसाईं
--
1...बेकाबू
तेरे हाथ की लकीरों में
कुछ तो है जादु
ना मैं काबू ना तू काबू
कत्ल भी किया मुस्करा कर
होठों ने कातिल का ही,
हो बे काबू
ना मैं काबू ना तू काबू
नशे में भी निशाना हो गया
इन आँखों का
तेरी नजरों का है जादु
ना मैं काबू ना तू काबू
पर्दा हो गया बेपर्दा
तेरे बेपनाह प्यार का
गुनाहगार मैं या तू
ना मैं काबू ना तू काबू
राजेश गोसाईं
*******
2.....प्रीतम
कभी सूरज सिन्दूरी हो जाये
सांझ की दुल्हन मांग सजाये
कभी कोई झोंका हवा का
कहीं से आ के प्रीतम का
घूंघट उड़ाये
चाँद यूं ही हर रोज नजर आये
सितारों की बारात में
हवायें आधी रात में
दुल्हन के मेहंदी गीत गायें
श्रंगार कोई फिर नया हो जाये
भोर का सूरज फिर सिन्दूर सजाये
प्रीतम के अधर पे लाली लगा
नया सूरज माथे पर
सुनहरी हो जाये
हवाओं में मस्त हो हर किरण
सांझ तक झूमे गायें
प्यार से प्रीतम की बाहों में
हर दिन मुझे ले जाये
सपनों से दूर
कोई सूरज नया सा
रोज ये आये
राजेश गोसाईं
******
3.... मदहोशी
तेरी हर अदा पे मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
शर्माई लाल हुई मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
नींद में अंगड़ाई मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
शबनम में नहाई मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
सितारों की मांग मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
देखा माथे चाँद मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
नव यौवन श्रृंगार मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
पायल ये झंकार मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
मृगनैनों का प्यार, रुत सावन की बहार देख ये
उड़ती चुनरी , मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
अधर लाल गुलाबी गाल , काली घटा सम बाल
ये लचक मचक मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
कंचन काया चूडी छनन छन ये गजरे की खुशबु
चेहरे पे बालोें से झांकती आँख लौंग लिशकारा
बेचैन मन तरसती निगाहें यूं तेरे ही मयखाने में
मदहोश हो कर मैने गीत लिखा मैने मीत लिखा
राजेश गोसाईं
*****
4... दिल्लगी
तू मेरे पास क्या बैठी आज
वक्त की हर शय गजल हो हई
देखा जो तिरछी नजर से
हर नजर आज गजल हो गई
अंग अंग अंगड़ाई लेता हुआ
शरमाई हुई रुत गजल हो गई
नीली आँखे तेरी झुकी झुकी
शराबी गालों पे गजल हो गई
हम क्यों जायें मयखाने आज
जाम तो तू खुद हो गई
पैमाना तेरे हाथ से लिये आज
होठों पे मेरे यह गजल हो गई
दीवारों का साथ छूटा साकी
तेरी दीवानगी मेरी नजर हो गई
दिल की लगी दिल्लगी में तू
आज दिल से दिलबर हो गई
राजेश गोसाईं
******
5....मुस्कान
मैं बन के गीत आऊंगा
मैं प्यार के गीत गाऊंगा
बस तुम उदास न होना
अंधियारी जिन्दगी है
महफिल तो लगी है
मैं चराग बन आऊंगा
बस तुम उदास न होना
मेरी चिता पर लगेंगे
तेरे अश्कों के मेले
मैं तस्वीर से निकल
मुस्कान बन आऊंगा
बस तुम उदास न होना
राजेश गोसाई
******
6...जखीरा
मैं टूट के ना बिखर जाऊं
उन यादों की हवा से
जो अतीत के झरोखे से
आ कर मुझे हिला देती हैं
जिन्दगी का पेड़ हरा भरा है
डाल डाल फल भरा पड़ा है
पंछियों की चहचहाट से
दिल को सुकून मिल रहा है
फिर क्यों गुजरे जमाने की
हवायें मुझे आज ले जा रही हैं
वापिस उस ओर
यादों का जखीरा बन गया
एक नाम तेरा दिल में
लकीरों को मिटा कर लकीर
लगा देता हूँ दिन गिन गिन कर
पहला अक्षर तेरे नाम का
छोड़ देता हूँ , शायद तू आये
इसे भी मिटाने को
पर तेरी आहट का अहसास
हिला जाता है मुझे
तू आये ना आये, मिले ना मिले
कैसे रोक दूं इन हवाओं को
जो बीते हुये कल से आ कर
आज मुझे हिला रही हैं
भविष्य की नींव डगमगा रही हैं
राजेश गोसाईं
*****
7..* * उस दिन * *
मोहब्बत की किताब का
पहला पन्ना था उस दिन
जब हाथ बढ़ाया था मैने
दिल छूने को उस दिन
टुकड़ों में बंट गया अरमान
बैचेन निगाहें थी उस दिन
आखरी पंक्ति की मौत में
बिछुड़ गयी जिन्दगी उस दिन
यादों की हवाओं में चिंगारी बन
जमाने में आग लगी थी उस दिन
बीते हुये लम्हों का कारवां गुजर गया
तस्वीरों पे धूल बन कर उस दिन
उदास हूँ पन्नों के फट जाने से
निराश भी बहुत था उस दिन
जिन्दगी मिल जाती जिन्दगी में
गर वो मिल जाती उस दिन
जमाना बीत गया देखे हुये उसे
हर मोड़ पे सदायें बिखर गई
हाथ दिल से बढ़ाया होता , रूह तक
काफिला यादों का रुक जाता उस दिन
रूह में तू ही तू , बस जिन्दा ही हूँ
पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक ही हूँ
हमसफर बन जाते हम , हम होकर
अरमानों की राख पे आशिया
ना बनता ...तुझसे बिछुड़ के ... उस दिन
/\
राजेश गोसाईं
*****
8...प्रेम पर्व
शहर में बरसात है
बिजली रूठ कर चली गई
आँधी तुफां की रात है
पानी आस पास है
मौसम मस्त खास है
अंधेरी यह रात है
गर्मी का विनाश है
ठण्डी हवा की आस है
चाय काफी की प्यास है
हरि हरि घास है
हरियाली भी साथ है
सुहाना सफर आज है
नहाई हुई रात है
प्रीतम का साथ है
प्रेम पर्व की बात है
राजेश गोसाईं
******
9...झील सी आँखें
आँखों की झील में कहीं
आँखों से बात होगी
जो दिल से दिल मिलेगा
तो दिल की बात होगी
इन आँखों की मस्ती में कहीं
मस्त हो जातें हैं हम
जो कतरा शबनम मिल जाये
तो शबनम की बात होगी
इन आँखों की चाहत में कहीं
ढल ना जायें रातें
जो पूनम की रात होगी
तो रात की बात होगी
इन आँखों की रौशनी में कहीं
लड़खड़ा जातें हैं कदम
जो मयखाना ये खुलेगा फिर
तो पैमाने की बात होगी
इन आँखों की सीप में कहीं
छुपा लो हमे तुम
जो दिल को चैन मिलेगा
तो अश्कों की बात होगी
इन आँखों की गजल में कहीं
जम ना जाये महफिल
जो महफिल का रंग जमेगा
तो गीतों की बात होगी
तो प्रेम की बात होगी
राजेश गोसाईं
*****
10....अजनबी
दोस्ती तुम्हारी की चाह है अब भी
किसी निशा की चाँदनी में बैठ कर
बुनेंगे फिर हम नया
कोई सितारों का जाल
मैं गीत लिखुंगा तुम्हारा चाँद देख कर
तुम मुस्कुराना नैनों में मेरे ....फिर से
जब वैरी हुये थे हम दोनो तब भी
दोस्तों से कम ना थे हम अजनबी
तुम्हारी मुलाकात फिर लड़ाई की बात
बन्द पलकों के पीछे का सागर ताल
याद है सब मुझे आज तक ईर्ष्या तुम्हारी
जो तुम्हारे प्यार का सबूत थी शायद
मगर पानी का बुलबुला मात्र वो ख्वाब
पर आज मैं जानता हूँ तुम आओगी
फिर नई मुलाकात होगी
फिर से नई कोई बात होगी
लड़ाई में आँसुओं की बरसात होगी
पर तुम आओगी जरूर आओगी
किसी ठण्ड की अंधेरी रात में भी
या पूर्णमासी की चाँदनी में
तुम आओगी
फिर से अजनबी बनने को मेरी
आ भी जाओ अब पगली -अजनबी
इंतजार में है यह अजनबी
राजेश गोसाईं
*****
11....अक्स
तुम्हारे चाँद का कोई अक्स
अब भी मेरे दिल के
आईने में उतर आता है कहीं
तुम बहुत दूर हो मेरे से
मगर हर तरफ फिर भी
सिर्फ तुम्हारा ही चेहरा
नजर आता है
नीले अम्बर की चादर में भी
तुम्हारा साया छुपा होता है
मगर हर ढलती सांझ को
तुम्हारा अलग ही रूप
उभर आता है
काले बादलों की ओट मे भी
तुम कहीं सिमट के बैठी हो
मगर हवा का झोंका कोई
फिर तुम्हारा घूंघट
सरका जाता है
राजेश गोसाईं
******
11.....यादों की शाम
यादों की शाम में
प्यार के गीत भरे
तेरे ही नाम में
प्यार के गीत भरे
आ जा के आँखों में
समन्दर हैं भरे भरे
यादों की ......
देखे यह रैना काली
नहीं दिल में चैना... मतवाली
तू ही बता दे क्यों
उदास हैं ये पल मेरे
मिलन को प्यासा है मन
यादों के बादल उमड़े
आ जा के आँखों में
समन्दर हैं भरे भरे
यादों की .......
शीतल पवन भी बनी अगन है
वक्त की चुभन भी बनी लगन है
पानी के दीप भरे
नैनों मे प्रीत तरे
आ जा के आँखों में
समन्दर हैं भरे भरे
यादों की शाम में
तेरे ही नाम में
प्यार के गीत भरे
राजेश गोसाईं
******
12... तुम्हारे प्यार में
तुम्हारे प्यार के मन्दिर में
दीप बन कर जल जाऊं मैं
तुम्हारे मन के आँगन में
प्रीत बन कर फल जाऊं मैं
जब से मिला है प्यार तुम्हारा
मीत बन के अमर हो जाऊं मैं
जग माने ना माने ,
हर रीत तोड़ के दौड़ आऊं मैं
आँखों ही आँखों में समन्दर पार
साहिल तुमसा पाकर , तर जाऊं मैं
जिन्दगी रौशन हो गई अब मेरी
काली रातों में फिर क्यों जाऊं मैं
खुशबु बन के गुलिस्तां में मेरे
बसन्त की तरह आये हो जब से
बाँहों को सावन में फिर से
हर बार झूला बना कर सजाऊं मैं
राजेश गोसाईं
*******
13......दीप
प्यार का कोई दीप जल जाये
तो मैं गीत गाऊं
दिल में जब कोई समा जाये
तो मैं गीत गाऊं
सावन रिमझिम संग गुनगुनाये
तो मैं गीत गाऊं
कोई बाँहों में भर कर शर्माये
तो मैं गीत गाऊं
चाँद चौंधवी का मन भाये
तो मैं गीत गाऊं
कोई पंछी कानों में चहचहाये
तो मैं गीत गाऊं
बिछुड़े हुये आज मिल जायें
तो मैं गीत गाऊं
रूठे हुये फिर मान जाये
तो मैं गीत गाऊं
"राजेश - 'का कोई मीत बन जाये
तो मैं गीत गाऊं
यह बोल कोई आवाज बन जाये
तो मैं गीत गाऊं
राजेश गोसाईं
*****
14....चाँद
यूं तांक झांक करता रहता है
यह चाँद की गन्दी आदत है
ये लुका छुपी खेल में रहता है
रात में इसकी बुरी आदत है
मैंने चाँद को समझाया बहुत है
मेघों ने आकर छिपाया बहुत है
पर्वत के पीछे जाने की आदत है
यह पेड़ों के भीे संग बैठा रहता है
धरती पे इसको लाना मुमकीन नहीं
बच्चों के साथ खेलने की आदत है
चाँदनी रात में प्रीतम की बाँहों को
गले लगा यह मस्ती करता रहता है
भोर होने पे भी ये जोश में रहता है
अंधियारी रात में सोने की आदत है
यहाँ वहाँ सब जगह खेलता रहता है
होश में भी मदहोश करता रहता है
सितारे भी इससे नाराज रहते हैं
दूर हो कर टिम टिम करते रहते हैं
इसे रात को रूठने की आदत है
यह आसमां पे इठरा के रहता है
लुक छुप हर दिल में ये रहता है
बिंदी बन माथे पे लगा रहता है
इसे सुहागन बनाने की आदत है
फिर भी धोखे सबको देता रहता है
राजेश गोसाईं
000000000000000
शिवांकित तिवारी "शिवा"
लोग जहर उगलते हैं,रोज चेहरे बदलते हैं,सच के बने सभी किरदार हैं जो,
झूठ और फरेब पे सवार होकर चलते हैं,
बवन्डर नफरतों का जेहन में बरकरार हैं जिनके,
बातें वो सारी प्यार-मोहब्बत की करते हैं,
किसी की कामयाबी की खुशी में,शरीक होने वाले लोग,
उसकी कामयाबी के चर्चो से भी जलते हैं,
दुआ करते हैं की सदा सलामत रहें तू,
जिनके दिलों में हमारे लिये नफरतों के बीज पलते हैं,
हर कदम पे साथ निभाने का वादा करते थे कभी जो,
वक्त आने पर वो न घर से बाहर निकलते हैं,
बहुत विश्वास था जिनपे कभी भी छलेगें ये,
वही विश्वास तोड़ के हमें हर बार छलते हैं,
अब न भरोसे का कोई इन्सान है साहब,
भरोसा तोड़ यहाँ इंसा को इंसा ठगते हैं,
सापों का जहर शामिल हैं यहाँ लोगों में,
हर बार विष भरकर यहाँ इन्सान डसते है,
बहुत चालाकियां सीख ली हमने भी यहाँ लोगों से,
जहर में डूबे किरदारों के जाल में अब हम न फंसते हैं,
शिवांकित तिवारी "शिवा"
-युवा कवि,लेखक एवं प्रेरक
सतना (म.प्र.)
00000000000000000
गौरव गुप्ता
धन का दंभ न दीजिये , नहि झूठा गुणगान ।परिवारी सब खुश दिखें , वहि मेरी मुस्कान ।।
पीड़ा नहि हावी करे , निज मन और ललाट ।
जेहि पीड़ा हावी करी , जड़ हो बुद्धि कपाट ।।
क्षमा बड़ों का धर्म है , क्षम्य करो हर बार ।
छोटे उत्पाती सही , यह उनका अधिकार ।।
सब मिल प्रकृति सहेजिए , आंगन वृक्ष लगाए ।
दोहन जो नियमित करे , अन्त राह वह जाए ।।
मन न छोटा कीजिये , जब जब मुश्किल आय ।
जो मन को छोटा करे , प्रतिपल वह पछताय ।।
प्रतिभा ना कुंठित करें , आगे सदा बढाए ।
जो प्रतिभा कुंठित भई , देश गर्त मा जाए ।।
जीवन एक संग्राम है , गर्व से लड़िए रोज ।
कर्म बिना यह जो लड़े , वह क्या जाने मौज ।
चरण उसी के चूमिये , जो इसका हकदार ।
चाटुकार भौरे फिरे , चुन चुन करे प्रहार ।।
सुख दुख में जो साथ हो , दृढ़ रखे विश्वास ।
सुधरी राह दिखाए जो , ऐसा मित्र है खास ।।
धन्य वही पितु मात हैं , सरहद जिनके लाल ।
शौर्य का बन पुंज यह , रक्षे वतन का भाल ।।
फल की चिंता वह करे , जिसके तुच्छ विचार ।
पावन मन जब कर्म हो , तब सब हो स्वीकार ।।
स्वाभिमान अभिमान है , भिन्न भिन्न दो रूप ।
भरता एक दम जीव में , एक बनाता कुरूप ।।
― गौरव गुप्ता
0000000000000000
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
भारत देश महान--------------------
सदा सुरक्षित रहे हमारा
भारत देश महान ।
सदियों से अमिट रही पहचान ।।
सारा विश्व करे
भारत गौरव गान ।
हमारा न्यायशील विधान ।।
ऋषि-मुनियों की धरती भारत वर्ष
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब इंसान ।
सीमा पर डट जाते सभी जवान ।।
आजादी का पर्व मनाता
मिलकर प्यारा हिन्दुस्तान ।
हमारा भारत देश महान ।।
क्रांतिपथ के अमर सेनानी
सुभाष-भगत सी अवतारी संतान ।
राष्ट्रहित देदी हंसते-हंसते जान ।।
सदा सुरक्षित रहे हमारा
भारत देश महान ।
हमारा भारत देश महान ।।
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
0000000000000
सुशील शर्मा
दूर तुमसे
हवाओं की गुजारिश है कि
याद की खुशबू ,
घुल -घुल कर
तेरे आँचल पे ठहरे।
गुरूरों की खाई
शातिर सी मंशा लेकर
बिछी है तेरे मेरे बीच।
हवाएं खौफ से खामोश हैं।
रात की तन्हाई में
सपने भी सहमे हैं,
आत्मा के अक्षांश पर।
देह के रिश्ते
चिपके हैं मन के द्वार पर।
अंदर खुद को कैद कर
आत्मा के आर्तनाद में
खड़े तुम दूर बेहद दूर
आत्मा के अंतिम किनारे पर।
देह से मैं दूर था
कुछ गुमनाम सा ...
कुछ बदनाम सा ...
कुछ अभिमान सा
स्नेह लिए तुम्हारे पास।
--
सुख दुःख
सुशील शर्मा
सुख !
एक नववधु
अंग-प्रत्यंग सामीप्य अनुभूतिक
मुक्त कुन्तलों की लट सा
अतल ,अनंत सहवास इच्छित।
दुःख !
निरीह असक्त साथी
व्यथा मौन,पतझर की नीरसता
अपूर्ण तृष्णा सा।
सुख !
प्रणय का उद्भव
मधुर स्वप्न सा।
दुःख !
यातना, अविश्वास, अनिश्चय, ईर्षा
विच्छेद,विक्षोभ।
सुख !
नीलाम्बरा दीपित
विस्तीर्ण नीलिम आकाश।
दुःख !
तिमिर शिखा संयुक्त
विकल वेदना प्रकम्पित।
सुख !
यायावर ,सदाचलित
चिरन्तन, नित्य तृष्णा।
दुःख !
संचित ,ज्वालामय अमृत
चिर-तत्पर समवेदना।
00000000
डां नन्द लाल भारती
पिता की दास्तां
कौन कहता है
पिता दौलत का भूखा होता है
अफवाह फैलाने वालों
पिता ऐसा जीव है जो
खुद को तबाह कर देता है
औलाद के स्वर्णिम भविष्य के लिये
पिता भूखे पेट भी औलाद को
निहार कर
सकूं की सास भर लेता है
फटेहाल पिता भी औलाद की खुशी के लिए
कभी भी गरीब नहीं होता
दर्द में भी औलाद की आहट से
खुश हो लेता है
हाय रे पिता का भाग्य
वही औलाद पिता मर्यादा को
खाक मे मिला देती है
पिता के संघर्ष रूपी तपस्या का
चीरहरण कर देती है औलादें
त्याग को भूला देती हैं औलादें
पिता के दर्द को अनदेखा कर
अपयश का पहाड़
पिता की छाती पर पटक देती हैं औलादें
औलाद के भविष्य मे खुद को
स्वाहा किया पिता
औलाद के सुखद जीवन का
बुनता रहता है ताना बाना
औलाद मढ़ती रहती है
पिता के माथे दोष पर दोष
सन्तोष का चोला ओढे पिता का
हर सपना होता है औलाद के लिए
हाय रे पिता तुमको सुख नहीं मिलता
तुम दर्द मे जीते दर्द में मर जाते हो
अब तो और बुरा हाल हो गया है
जब से वाईफ लाईफ हुई है
बेचारे मांता- पिता जैसे
लावारिस हो गये है
मांता पिता प्यार के भूखे होते हैं
लोभी मत बनाओ
अरे नवजवानों होश मे आओ
मांता पिता जीवित भगवान हैं
धरती के भगवान को न ठुकराओ....
----
निरीह जीव...मांतापिता ।
मांता पिता निरीह जीव हो जाते हैं
युवा होते ही अपने बच्चों के सामने
बेबस से लगने लगते हैं
मांता पिता जो स्वयं के
सपनों की आहुति देते देते
जिन्दगी के बसन्त गंवा चुके होते हैं
आस मे जीते हैं मांता पिता
बच्चे ऊंची से ऊंची उडान भरे
वे विहस पड़े
कई मांता पिता का त्याग भी
गुनाह के घेरे मे आ जाता है
अमानुष मां बाप की विष कन्या के आते ही
नेक निरीह मांता पिता कर दिये जाते हैं
बेगाने
धमकियां भी मिलने लगती हैं
कुछ करवा देने की
कत्ल तक करवा देने की
दहेज के मामले मे बर्बाद कर देने की
एक मांता पिता की उम्मीदे
लूट ली जाती हैं,बेटा बना लिया जाता है गुलाम
विषकन्या और उसके विषधर
मां बाप के हाथों
जिस बच्चे की ऊंची उड़ान के लिए
माता पिता खुद को तिल तिल मारते रहे
मर मर कर सीचते रहे सपना
वही नासमझ हो जाता है
अमानुष मां बाप और उनकी विष कन्या की
साजिशो की गिरफ्त मे
वह भी हो जाता है शामिल सुध्दि बुद्धि खोकर
सास ससुर और कुलक्षणा के साथ मिलकर
मांता पिता को देता है धकिया
मांता पिता को बच्चों से क्या चाह होती है
बस इतनी सी बच्चे ऊंची उडान भरे
और माता पिता के दुनिया से विदा लेने पर
दे दे कंधा
इतनी सी ख्वाहिश भी लूटी जा रही हैं
विषकन्या और उसके अमानुष मां बाप द्वारा
बच्चे का मति भ्रम कर खडा किया जा रहा है
बना कर विरोधी
उगाये जा रहे हैं नये चूल्हे
मांता पिता को ढकेला जा रहा है
आश्रम के पथ पर,
ये साजिशें भी नहीं समझ पा रही हैं बच्चे
खडे हो जा रहे हैं अडियल बैल की
खींचने लगे लगे हैं कंधे जनाज से
युवाओं होश में आओ
सास ससुर पत्नी को दो सम्मान
मां बाप को कहा ऐतराज......?
मां बाप के कत्ल का तो ना करो ऐलान.।
-------
विश्वास
विश्वास ही जीवन है
विश्वास ही है भगवान
विश्वास ही तो अमृत है
विश्वास को सींचने वाला
होता है इंसान महान
विश्वास का कत्ल करने वाला
होता है शैतान
शैतान किस्म के लोग
लूट लेते हैं ईमान
बना देते हैं विश्वास के
अमृत को जहर
गले लगाने के बदले
शराफत का नकाब ओढे हैवान
पीठ के रास्ते दिल तक
उतार देता है खंजर
बेमौत मरने के लिए
खुद हैवान जश्न मे डूब जाता है
विश्वास की फसल बोने वाला आंसू में
स्वार्थी हैवान मदमस्त
शैतानियत की हवस में
खुद के कुल की जड़ में
झोंक रहा होता है जहर
वाह रे विश्वास को खुदा
मानने वाला इंसान
छाती मे खंजर से उठ रहे
असहनीय दर्द को बर्दाश्त कर
बो रहा होता है
विश्वास का अमृत
अरे विश्वास का कत्ल करने वालों
मत उतारो नेक सच्चे इंसान की छाती में
पीठ के रास्ते खंजर
वरना रह जाएगी तुम्हारी हर
उम्मीदेँ बंजर।
--
सपना
हम जिन्दा हैं
जिन्दा लाश होकर नहीं
सपनों की मौत
हमारी मौत है नहीं
ठगी का शिकार लाठी
क्या हो गयी
हमारी मौत हो गयी
ऐसा तो नहीं
जीने की ललक जिन्दा होनी चाहिए
जिन्दा लाश होकर नहीं
सपने बुनने लगे हैं
हम भी नये................
जीने के लिये क्या चाहिए....?
सपने..........और सपने
विश्वास के साथ
सन्तोष की सांस
शरीर उम्र की शिकार होगी
हां अपनो के हाथों अरमानों का कत्ल
मौत ही है
ऐसी मौत से उबर सकते हैं
सपने तो बुने जा सकते है
सपनों मे हम उलझे हैं
उलझन ही हमारी सुलझन है
सपने ही हमारे जीने के सहारे हैं
कोई डकैत सपने छिन ले
मतलब ये नहीं कि टूट गयीं उम्मीदें
नहीं......जीने की उम्मीदें बाकी रहती हैं
आखिरी सांस तक
साथी के साथ तक
सपने लूटना हैवानियत है
लूटने वालों के सपने जब
चटकर मटियामेट होने लगते हैं
खुदा भी हाथ नहीं लगाता
बिखर जाती है
सपने लूटने वालों की दुनिया
आओ हम जिन्दगी के हर पल का
जश्न मनायें
हमारे जिसने लूटे भूल जाओ
खुद के कर्म पर करो
विश्वास
सपने देखते रहो जिन्दा रहने के लिए
काल के गाल पर निशां छोडऩे के लिए।
---
साथ-साथ
तुम्हें जाति पर अपनी गुमान है
गुमान के बारुद से तबाह
कर देते हो अछूत का जीवन....
कभी एकांत मे शान्ति से सोचना
अछूत कौन है.....?
तुम्हारी खोपड़ी मे कुछ
ज्ञान की तरंगें उठे तो
अछूत के अस्तित्व को तलाशना
खैर तुम क्या तलाशोगे
तुम्हें तो अपना रंग पोतना आता है.....
तुम्हारे अस्तित्व को उभरे
कुल जमा साढे चार हजार साल हुए हैं
तुम दावा करते हो
अखण्ड भारत के उदभव से पहले
तुम्हारा उदभव हो गया था
झूठ और नफरत के बीज नहीं......
जाति के गुमान को त्याग दो
दुनिया बदल रही है
क्या छूत क्या अछूत सब
समझने लगे हैं
अपना अस्तित्व तलाशने लगे हैं.....
तुम्हारी जाति व्यवस्था
देश की छाती मे खंजर है
माथे पर बदनुमा दाग
मिला लो अब हाथ
मिटा दो छूत-अछूत की आग......
छूत-अछूत की अमानवीय व्यवस्था
तुम्हारे स्वार्थ की दहकती कहानी है
तुम चाहो तो अमानवीय व्यवस्था को
ध्वस्त कर सकते हो
आदमी को आदमी से जोड़ सकते हो....
सांप नेवले जैसा अन्तर्कलह
बन्द कर दो
जातिवाद का जहर हितकर नहीं हैं
सोने की चिडिय़ा के पर नोचे जा चुके हैं
सांस बाकी है,
दुनिया तुम्हारी दी गयी जाति व्यवस्था पर
दुनिया शर्मिंदा है
क्योंकि आदमी कोई अछूत नहीं होते
तुम्हारे रचे चक्रव्यूह मे फंसे लोग
सदियों से थक चुके हैं
दर्द ढोते ढोते.....
तोड़ दो अपनी रची जातिवाद
नफरत की दीवारें
जातिवाद साबित हो चुका नरपिशाच
बढा दो अब समानता के हाथ
तुम चलो हम भी चले साथ साथ.....
0000000000000
संजय कर्णवाल
जीवन की खोज में लग जाओ
सार जीवन का समझ जाओ।कुछ जग को करके दिखलाओ
ऐसा अपने आप को बनाओ।
रास्तो पर चल रहे हैं
फासले बदल रहे हैं।सब मिल रहे हैं
बढ़ते हुए आगे निकल रहे हैं।।
2
ज्ञान का दीपक जलता रहे
सफर जीवन का चलता रहे।दिन रात ये वक्त चाहे यूं ही बदलता रहे ।।
सबको सद्बुद्धि दो
उनकों मन की शुद्धि दो।सुख शांति दो और तन मन को वृद्धि दो।।
मानव से हम महामानव बन जाये।चलते जाये जीवन में उचित राह अपनाये।।
3.... खुशियां भरो जग में
नेक काम करो जग में।
छोड़के सारी बातें तुम शान से तरो जग में।।
अपनी डगर पर हम चलते जाये।
वृक्षो की तरह फूले फलते जाये।।
जो कमियां है उनको सँवारे।जीवन में हिम्मत कभी न हारे।।
ऐसा हम संकल्प करें।ईश्वर का सदा ध्यान धरे।।
4
जिंदगी की चाह में हम सब निकले हैं।
जिंदगी से ही नये सिलसिले चले है।।
खोज ही रहती हैं
जिंदगी में ख़ुशियों की।
सदा ही रही चाह इसमें फूलो की कलियो की।।
सार नहीं पाया तो हमने जग में क्या पाया है।
बड़ी ही मुशकिलो से जीवन का ढंग हाथ आया है।।
5
सच्ची राह में चलने वाले डरते नहीं किसी ऐसी बात से।
मन मे है विश्वास हमारे मुकरते नहीं किसी ऐसी बात से।।
खुद पर भरोसा करते हैं
मुश्किल राह से हंसके गुजरते हैं।
क्या समझे कोई इन जज्बातो को हर हाल में दम भरते हैं।।
ऊँची नीची राहे सारी झुक जाती हैं सोचते सोचते।
कोई न कोई हल निकल आता है ध्यान से देखते देखते।।
6
जीवन के तो रंग हजार
कभी आये पतझड़ कभी बसन्त बहार।
सुख आए सुख जाय सदा रहता है कोई क्यों इंतजार।।
ये राते ये दिन ये पल गुजरते जाते हैं।
ये रुत ये मौसम यूँही बदलते जाते हैं।।
ये मन फिर भी बेचैनी में रहता है।
हम समझे इसे जो ये कहता है।।
7
खुद से जो बेहतर है ज्ञान उनसे लीजिए।
देते हैं जो तुमको उजाला प्रणाम उनको कीजिए।।
जिनके सहयोग से जीवन अपना सरल बना है।
उनके ही उपकार से सफल अपना आजकल बना है।।
नेक राह दिखलाके हमको चलना सिखाया उसपे।
दया भाव और मुस्कान से बढ़ना सिखाया उसपे।।
8 बातोमेंबातें
नई बातें जुड़ती जाती हैं।
मन की उड़ने आसमां तक उड़ती जाती हैं।।
मौसम में बहारे
सावन में फुहारे उड़ उड़कर।
हम पर आती है चढ़ चढ़कर
आगे बढ़ बढ़कर।।
मन तो मयूरा बन जाता हैं
सबका ऐसे में।
मस्त हो कर मीठे गीत सुनाता है सबका ऐसे में।।
9
नेक काम करने वाले
सबको सहारा देने वाले कहलाते हैं जग में सदा ही उत्तम लोग।
हम सभी ऐसी राह पर चले
चलते जाय आगे बढ़े बन जाय हमभी परम् लोग।
उम्र भर हम क्यों ऐसे सोचते रहते हैं।
उत्तम काम नहीं हम क्यों करते हैं।।
जब जब कोई मुश्किल पड़े
हाथ सहयोग में अपने बढ़े।यही अपना इरादा हो
झूठा न कभी अपना वादा हो।
।
10
बुद्धि बल दो
मनमें उमंग भर दो।
ज्ञान प्रकाश करके
हम पे कृपा दृष्टि कर दो।।
हमको दो वरदान ऐसा नेक राह पर चलते रहे हम।
अच्छी बातें करते रहे हम
आगे आगे बढ़ते रहे हम।।
तुमसे ही वजूद अपना साथ तुम्हारा मिलता रहे।
तुम्हारी अनुकम्पा का ये फूल सदा खिलता रहे।।
---
बचपन अपना प्यारा जग से।
किस्सा इसका न्यारा जग से।।
कितना खेले कितना कूदे।
रोके कोई हम न रुकते।
जब जब कोई न बोले हमसे।
आंसू नहीं थमते मन से।
दिल से पूछो कैसा लगता है।
ये जीवन सपनो जैसा लगता है।
,,,,2,,,, बचपन अपना बचपन बड़ा ही सुहाना है।
कभी रूठ जाना है, कभी मान जाना है।।
बड़ी ही मस्ती है,अपनी ये हस्ती है।
और न जाने हम दुनिया की बातें।
मौज मनाये खेले कूदे दिन राते।
रंग रूप है न्यारे न्यारे।
लगते हैं अति प्यारे प्यारे।
...3,,, हरपल खेले खेल नये।
सबसे बनाये मिलकर मेल नये।।
प्यारी सी दुनिया है अपनी।
बचपन की रंग रलिया है अपनी।
सब साथी, साथ में चलते।
रुकते कभी, कभी आगे निकलते।
जो देखे वो देखता रह जाये।
बात हमारी तो सोचता रह जाये।।
....4.... : खेल खेल में दिन गुजरे,सारे मिलजुलकर हम खेले।
सब देखे हम प्यारे सपने,आते जाते हैं जीवन में झमेले।।
ज्यादा न जाने हम कुछ भी, हांहमकूछ भी।
हँसते रहेंगे,मिले जीवन में ज्यादा कम कुछ भी।।
कोई जो बोले प्यार से दो मीठे बोल।
उसके सामने तो अपना दिल जाता है डोल।।
,,,5,,,, लुका छिपी का खेल खेलते हम मिलकर सारे।
मिलजुलकर हम रहते ऐसे,जैसे आसमान में तारे।।
सबको सन्देश हमारा है तुम भी रहो मिलके।
मिलते रहो तुम,हँसते रहो खिलखिलके।।
सब अपने लगते हमको प्यार से बोले बोल कोई।
कोई क्या जाने,किसके लिए कितना अनमोल कोई।।
,,,,,6,,, मीठी मीठी बोली बोले,जब जब मुख खोले।
खुशियां मनाये मन से, मिलके चले हौले हौले।।
साथी अपने साथ रहे,हाथो मे ये हाथ रहे।
कुछ भी हो चाहें जग में पर एक अपनी बात रहे।।
कोई कितना कहे, कोई कितना सुने।
बस अच्छा सुने हम चाहें जितना सुने।।
7,,, रुक रुकके चले अपनी खेल की गाड़ी।
मिल मिलके चले अपने मेल की गाड़ी।।
सारे के सारे हम दौड़ रहे हैं।
दोस्ती का अच्छा नाता जोड़ रहे हैं।।
आओ रे आओ तुम मिलके चलो।
सदा खुशियो से फूलो फलों।।
8,,, चले आओ तुम सारे खेले कूदे मौज मनाये।
साथ साथ चलते जाये सदा हाथ अपना बढाये।।
अपनी ही बातें ये सारा जग करता हैं।
प्यार का नाता मन में उभरता है।।
ऐसी अपनी दोस्ती है जो दोस्तों को खींच लाती हैं।
मिलाती है सबको और अपना बनाती हैं।।
,,,9,,,,,दौड़ते भागते हुए कभी गिर जाते हैं।
फिर से हौसला हम अपना बनाते हैं।।
बच्चे हम सभी ही सैतानी करते हैं।
लोग कहते हैं हम हैरानी करते हैं।
ये जो बातें अपनी सबसे निराली है।
बिना एक दूसरे के सब खाली खाली है।।
10,,, न माने जिद करते हैं, ऊँची नीची राहो से गुजरते हैं।
कभी चलते हैं, कभी रुकते हैं,खुद न जाने कब ठहरते हैं।।
साथ चलते रहे सब हम साथी ।
ना कोई किसी से भी कम साथी।।
हम रहे सब घूमते फिरते।
मुश्किले पार जाये चढ़ते उतरते।।
संजय कर्णवाल
00000000000
अमित कुमार मल्ल
1
जीवन की रेस में
सहेजते
चलते
दौड़ते
सबको लेकर चलते
सम्हलते
प्रेम,
कभी छूट जाता है
लेकिन
प्रेम जूठा नहीं होता है
ना प्रेम मैला होता है
आकर्षण,
लगाव से
शुरू हुए
रिश्ते
तालमेल के साथ
समझदारी के साथ
चलते चलते
कशिश
खो देते है
लेकिन
रिश्ते झूठे नहीं होते
रिश्ते मैले नहीं होते
रिश्ते हो
या प्रेम
कभी
ढीले होते है,
छूट भी जाते है
लेकिन
मन मैला न हो तो
नया
रिश्ता भी जुड़ता है
प्रेम भी नया मिलता है
वह प्रेम,
जिसमे
नयापन होता है
आकर्षण भी होता है
और कशिश भी ,
प्यार भी रहता है
अच्छा भी लगता है
2
मोबाइल बंद करके
टी वी देखता हूँ
रिमोट से
अपने चाहे
अनुसार
चैनल बदलता हूँ
बिना मेहनत के ,
बिना लड़े
बिना हारे
अपने
चाहे अनुसार ,
दुनिया बनाता हूँ
अपनी चाही दुनिया में
रहने का
सुकून पाता हूँ ।
-----////-----
अमित कुमार मल्ल का विवरण
1.नाम - अमित कुमार मल्ल
2 जन्म स्थान - देवरिया
3 शिक्षा - स्नातक (दर्शन शास्त्र , अंग्रेजी साहित्य , प्राचीन इतिहास व विधि )
परास्नातक ( हिन्दी साहित्य )
4 सम्प्रति - सेवारत
5 रचनात्मक उपलब्धियां-
प्रथम काव्य संग्रह - लिखा नहीं एक शब्द , 2002 में प्रकाशित ।
प्रथम लोक कथा संग्रह - काका के कहे किस्से , 2002 मे प्रकाशित ।वर्ष 2018 में इसका , दूसरा व पूर्णतः संशोधित संस्करण प्रकाशित।
दूसरा काव्य संग्रह - फिर , 2016 में प्रकाशित ।
2017 में ,प्रथम काव्य संग्रह - लिखा नहीं एक शब्द का अंग्रेजी अनुवाद Not a word was written प्रकाशित ।
काव्य संग्रह - फिर , की कुछ रचनाये , 2017 में ,पंजाबी में अनुदित होकर पंजाब टुडे में प्रकाशित ।
तीसरा काव्य संग्रह - बोल रहा हूँ , बर्ष 2018 के जनवरी में प्रकाशित ।
कविताये , लघुकथाएं व लेख , देश व विदेश के वेबसाइट , प्रमुख समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
आकाशवाणी लखनऊ से काव्य पाठ प्रसारित।
6, पुरस्कार / सम्मान -
राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान , उत्तर प्रदेश द्वारा 2017 में ,डॉ शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार , काव्य संग्रह , फिर , पर दिया गया ।
सोशल मीडिया पर लिखे लेख को 28 जन 2018 को पुरस्कृत किया गया ।
इ मेल -amitkumar261161@gmail.com
000000000
अनिल जैन उपहार
महानता का
बोझ
कभी लड़खड़ाने
नहीं देता ,
और न कभी होने देता है
अदना
शायद इन्हीं के बीच
तुमने सीख लिया है
अपनों के साथ
विलय होजाने की कला।
तभी तो देवत्व
तुम्हारे कदमो में नर्तन कर
तुम्हें और भी ऊँचा उठा देता है
मनुष्य बिरादरी
और उसकी मानसिकता से ,
सहजना और समेट लेना
सारा दर्द अपने भीतर
यही है खूबी नारी होने की ।
और हां सम्पूर्ण नारी
तुम्ही तो हो।।।।।।।
अनिल जैन उपहार
काव्यांजलि
नयापुरा रोड
मदरसा के सामने पिड़ावा
झालावाड राजस्थान
326034
000000000000
कवि आनंद जलालपुरी
फैशन की ओर
क्या पोशाक है खुला आकाश है
वो चलेगा दे दो वही झकास है
क्या पोशाक है
मुस्काती ऐसे कामिनी जैसे दमके दामिनी
जा रही बिंदास है
क्या पोशाक है..मन ही मन लोग आहें भरें
सीने पर सब बांहें धरें
सबकी नियत साफ है
क्या पोशाक है
पीठ है नंगी केवल गंजी
कपड़े की है इतनी तंगी
यह आइटम कुछ खास है
क्या पोशाक है
झुकाये सर सत्कार करूँ
कैसे इनका प्रतिकार करूँ
आनंद मन उदास है
क्या पोशाक है
खुला आकाश है
वो चलेगा दे दो वही झकास है
क्या पोशाक है
0000000000000
शिवांकित तिवारी "शिवा"
इश्क में तेरे अब मेरा क्या हाल हो गया,
जीने लगा अब मैं,
वाह क्या कमाल हो गया,
अजनबी,अनजान,अजीबोगरीब था पहले मैं,
अब तेरे इश्क-ए-रहमतों से मैं मजबूत ढाल हो गया,
न ही नींद,न ही ख्वाब आते थे पहले मुझे,
अब तो तेरे रंगीन खयालातों से मालामाल हो गया,
बेअसर,बेढंग,बेरंग था बहुत पहले मैं,
अब तो तेरे इश्क-ए-असर का रंग गहरा लाल हो गया,
पहले तो उलझा रहता खुद के ही प्रश्नों में मैं,
अब तो मैं खुद हाजिरजबाबी सवाल हो गया,
पहले अधूरा,बेचैन,बेमतलब सा था मैं,
तेरे इश्क में अब मैं पूरा बेमिशाल हो गया,
मेरी शायरी-गजल-कव्वाली सब तू हैं आजकल,
तेरे इश्क में अब मैं शायर-ए-कव्वाल हो गया,
-शिवांकित तिवारी "शिवा"
~युवा कवि एवं लेखक~
सतना (म.प्र.)
0000000000
अविनाश ब्यौहार
दोहे
जीवन में हर वक्त हो, नभ छूने की चाह।
गर स्वतंत्र परवाज हो, तय हो दुर्गम राह।।
प्रजातंत्र में चल रहा, इकलौता यह मंत्र।
सज्जन तो भयभीत हैं, लुच्चे हुये स्वतंत्र।।
जब से थाना खुल गया, सक्रिय है अपराध।
बट्टेबाज स्वतंत्र हैं, पूरी करने साध।।
है स्वतंत्रता नाम की, सब है भ्रष्टाचार।
ऐसे विकसित देश का, लोकतंत्र बीमार।।
शहर आधुनिक हो गये, बिछुड़ गये हैं गाँव।
शिखरों पर चढ़ते हुये, रपट पड़े ज्यों पाँव।।
जीवन में भटकन मिली, मंजिल होती दूर।
छाया की है चाह पर, मिलता पेड़ खजूर।।
औरत पत्नी, बहन है, औरत है संयोग।
लानत उनकी समझ पर, भोग्या समझे लोग।।
शाखों पर मधुदूत की, है पंछी का शोर।
महुआ टपके बाग में, मन में उठे हिलोर।।
कोयल कुहके बाग में, उड़े टेसुई रंग।
इंद्रधनुष यौवन हुआ, मन में लिए उमंग।।
दुर्बल क्षण आते रहे, हुआ नहीं आभास।
हो जीवन में चेतना, लिए हुए उल्लास।।
कौवा बैठ कंगूरे, बोल रहा है काँव।
दल सगुन पंछी के हैं , शुभ मुहूर्त की ठाँव।।
आँखों की है झोपड़ी, बसा सलोना रूप।
मुरझाये मन को मिली, है खुशियों की धूप।।
अच्छाई का पर्व है, पड़ा दशहरा नाम।
दिवस राम से हो गये, है सीता सी शाम।।
कोठे में नेकी बिकी, है दलाल का काम।
शहरों की सुबहें हुईं, सरेआम बदनाम।।
भ्रमित हो रहे हैं पथिक, भटकी हुई सबील।
जीवन ऐसे लग रहा, ज्यों करफ्यू में ढील।।
यौवन पुष्पित पल्लवित, जब जब बहे बहार।
टेसू हँस हँस कह रहा, लज्जित होते खार।।
प्रजातंत्र में हो रहा, हत्या, बलवा, रेप।
गाँवों से आती नहीं, सौंधेपन की खेप।।
विजयादशमी पर्व पर, अच्छाई की जीत!
है मावस व पूनो भी, यही प्रकृति की रीत!!
मीटू मीटू कर रहे, लगा चरित्र में दाग!
नारी है गर सुकोमल, या दावानल आग!!
बदमाशों का शहर है, सपने रखो सँभाल।
पल भर भी लगता नहीं, बनते हुए बवाल।।
खुलती है आषाढ़ में, मेघों की दूकान।
वर्षा झर झर झर रही, घटा करे उन्मान।।
जेठ मास की दोपहर, जोह रही है बाट।
मधुऋतु में होंगे यहाँ, खुशबू वाले घाट।।
भ्रमित हो रहे पथिक हैं, भटकी हुई सबील।
जीवन ऐसे लग रहा, ज्यों करफ्यू में ढील।।
पिता रहे वटवृक्ष से, माता छप्पर छाँव।
भटके पंछी को मिला, दिप दिप करता ठाँव।।
जीवन में हर वक्त हो, नभ छूने की चाह।
गर स्वतंत्र परवाज हो, तय हो दुर्गम राह।।
प्रजातंत्र में चल रहा, इकलौता यह मंत्र।
सज्जन तो भयभीत हैं, लुच्चे हुये स्वतंत्र।।
जब से थाना खुल गया, सक्रिय है अपराध।
बट्टेबाज स्वतंत्र हैं, पूरी करने साध।।
है स्वतंत्रता नाम की, सब है भ्रष्टाचार।
ऐसे विकसित देश का, लोकतंत्र बीमार।।
शाखों पर मधुदूत की, है पंछी का शोर।
महुआ टपके बाग में, मन में उठे हिलोर।।
कोयल कुहके बाग में, उड़े टेसुई रंग।
इंद्रधनुष यौवन हुआ, मन में लिए उमंग।।
दुर्बल क्षण आते रहे, हुआ नहीं आभास।
हो जीवन में चेतना, लिए हुए उल्लास।।
कौवा बैठ कंगूरे, बोल रहा है काँव।
दल सगुन पंछी के हैं , शुभ मुहूर्त की ठाँव।।
आँखों की है झोपड़ी, बसा सलोना रूप।
मुरझाये मन को मिली, है खुशियों की धूप।।
अच्छाई का पर्व है, पड़ा दशहरा नाम।
दिवस राम से हो गये, है सीता सी शाम।।
कोठे में नेकी बिकी, है दलाल का काम।
शहरों की सुबहें हुईं, सरेआम बदनाम।।
भ्रमित हो रहे हैं पथिक, भटकी हुई सबील।
जीवन ऐसे लग रहा, ज्यों करफ्यू में ढील।।
यौवन पुष्पित पल्लवित, जब जब बहे बहार।
टेसू हँस हँस कह रहा, लज्जित होते खार।।
प्रजातंत्र में हो रहा, हत्या, बलवा, रेप।
गाँवों से आती नहीं, सौंधेपन की खेप।।
विजयादशमी पर्व पर, अच्छाई की जीत!
है मावस व पूनो भी, यही प्रकृति की रीत!!
मीटू मीटू कर रहे, लगा चरित्र में दाग!
नारी है गर सुकोमल, या दावानल आग!!
बदमाशों का शहर है, सपने रखो सँभाल।
पल भर भी लगता नहीं, बनते हुए बवाल।।
खुलती है आषाढ़ में, मेघों की दूकान।
वर्षा झर झर झर रही, घटा करे उन्मान।।
जेठ मास की दोपहर, जोह रही है बाट।
मधुऋतु में होंगे यहाँ, खुशबू वाले घाट।।
भ्रमित हो रहे पथिक हैं, भटकी हुई सबील।
जीवन ऐसे लग रहा, ज्यों करफ्यू में ढील।।
पिता रहे वटवृक्ष से, माता छप्पर छाँव।
भटके पंछी को मिला, दिप दिप करता ठाँव।।
शाखों पर मधुदूत की, है पंछी का शोर।
महुआ टपके बाग में, मन में उठे हिलोर।।
कोयल कुहके बाग में, उड़े टेसुई रंग।
इंद्रधनुष यौवन हुआ, मन में लिए उमंग।।
दुर्बल क्षण आते रहे, हुआ नहीं आभास।
हो जीवन में चेतना, लिए हुए उल्लास।।
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट
कटंगी रोड जबलपुर
000000000000
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर '
1.नि:शब्द हूँ
'कभी-कभी शब्द भी नहीं मिलते कि कुछ लिख सकूँ,
जो भी दिख रहा उसका तनिक भी वर्णन कर सकूँ।
पर कैसे मैं अपनी वाणी को विराम दे दूँ ?
शब्द का मौन धारण कैसे स्वीकार कर लूँ?
बोलो आँखों की नमी से ईश्वर को प्रणाम कर लूँ ,
या शब्दों के बाण से मानवता को शर्मसार कर दूँ ?
इस मंजर का बोलो कैसे तिरस्कार कर दूँ ?
नि:शब्द हूँ ,बोलो कैसे,क्या?मै बखान कर दूँ ?'
2.
रावण सबसे पूछ रहा है
बचपन से देखा है हर साल रावण को जलाते हुये,
सभी को बुराई पर अच्छाई की जीत बताते हुये।
उस लंकेश को तो मर्यादा पुरुषोत्तम ने मारा था,
प्रभु श्रीराम ने उसकी अच्छाईयों को भी जाना था।
सभी इकट्ठे होते है रावण को जलाने के लिए,
दुनिया से पूरी तरह बुराईयो को मिटाने के लिए।
आज रावण खुद पूरी भीड़ से यह कह रहा है,
तुम मे से कौन श्रीराम जैसा है यह पूछ रहा है?
क्या तुम अपने अन्दर की बुराइयो को मिटा पाये हो ?
क्या तुम सब तनिक भी खुद को श्रीराम सा बना पाये हो?
यदि उत्तर नहीं है तो क्यो मुझे बुरा मानकर आते हो?
तुम खुद भी हो बुरे तो क्यो मुझे हर साल जलाते हो ?
3.
लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
'सिंह सा गर्जन और हृदय मे कोमल भाव रखते थे,
वल्लभभाई पटेल जी से तो सारे दुश्मन डरते थे।
बारदौली सत्याग्रह का सफल नेतृत्व आपने किया,
'सरदार' की उपाधि वहाँ की जनता ने आपको दिया।
एकता को वास्तविक स्वरूप भी आपने ही दे डाला,
रियासतों का एकीकरण भी पल भर मे कर डाला।
प्रयास से आपने सारी समस्याओं को हल कर दिया,
सबने आपको भारत का 'लौह पुरुष' था मान लिया।
देश का मानचित्र विश्व पटल पर बदल कर रख दिया,
लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने कमाल कर दिया।
31अक्टूबर को हम सब भारतवासी 'राष्ट्रीय एकता दिवस' मनाते है,
आपकी याद मे हम 'स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी' पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते है।'
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर '
4.
कोरा कागज़
मैं तो हूँ एक कोरा कागज
जो चाहे सो लिख लो
हार लिख लो चाहे विजय का परचम लिख लो,
लिख लो तुम परतन्त्रता या आजादी लिख लो।
शामिल हूँ मैं सुख दुख में,
तेरे जीवन के प्रति पल में।
वन्दन लिख लो चाहे या विषाद का वर्णन लिख लो,
लिख लो तुम प्रणय निवेदन या अभिवादन लिख लो।
मिलूँगा तुम्हें मैं प्रत्येक छोर पर,
तेरे जीवन के हर एक मोड़ पर।
बिछोह लिख लो चाहे या मिलन की यादें लिख लो,
लिख लो तुम प्रियतम की यादें या अफ़साने लिख लो।
तेरा जीवन है मेरा रंग रूप ,
मेरे तो हैं कई प्रतिरूप ।
मैं तो हूँ एक कोरा कागज,
जो चाहे सो लिख लो ।।
--
1.लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
'सिंह सा गर्जन और हृदय मे कोमल भाव रखते थे,
वल्लभभाई पटेल जी से तो सारे दुश्मन डरते थे।
बारदौली सत्याग्रह का सफल नेतृत्व आपने किया,
'सरदार' की उपाधि वहाँ की जनता ने आपको दिया।
एकता को वास्तविक स्वरूप भी आपने ही दे डाला,
रियासतों का एकीकरण भी पल भर मे कर डाला।
प्रयास से आपने सारी समस्याओं को हल कर दिया,
सबने आपको भारत का 'लौह पुरुष' था मान लिया।
देश का मानचित्र विश्व पटल पर बदल कर रख दिया,
लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने कमाल कर दिया।
31अक्टूबर को हम सब भारतवासी 'राष्ट्रीय एकता दिवस' मनाते है,
आपकी याद मे हम 'स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी' पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते है।'
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर '
2.
अटल "अटल जी"
अटल मार्ग पर चलने वाले "अटल जी" तुम चल दिये,
भारत रत्न इस धरा को तुम सूना करके चल दिये।
ज्ञानदीप को निज रचनाओं से प्रज्ज्वलित कर तुम चल दिये,
राजनीति के मर्मज्ञ नये आयाम गढ़ तुम चल दिये।
ऊर्जावान,प्रभावशाली तुम स्वाभिमान की ज्वलंत चिन्गारी,
मृत्यु अटल सत्य है इस लोक मे आज तेरी कल उसकी बारी ।
हार नहीं मानूगाँ रार नयी ठानूगाँ कहते थे तुम ये व्रतधारी,
सरल मुस्कान बिखेरी तुमने चाहे संकट हुआ कितना भारी।
आपके अटल इरादों को "अटल जी" काल भी न डिगा सका,
अटल मृत्यु का शाश्वत सत्य भी न आपके नाम को मिटा सका।
आपको इस पावन धरा "भारत" का जन जन वन्दन करता है।
स्तब्ध नि:शब्द "अभिषेक"आपको शत शत प्रणाम करता है।
अटल जी को समर्पित....
3.पिता है सहारा
पिता का प्रेम अतुल्य,अनन्त होता है,
उनका हृदय वात्सल्य से परिपूर्ण होता है।
तात वट वृक्ष समान होते है,
जिनकी छत्र छाया में सब अभिमान से जीते है।
परम् अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की नींव रखता है,
इसलिए वह स्वयं कठिन परिस्थितियों से गुजरता है।
जनक को अपने बच्चों को दिए गए संस्कारों पर नाज़ होता है,
इसलिए बेटी पापा की परी और बेटा राजदुलारा होता है।
पिता को अपनी संतानों पर हर पल अभिमान रहता है,
जग में उसका नाम करेंगे ये सबसे वह कहता है।
पिता के आशीर्वाद से ही सबको सुखमय जीवन मिलता है,
अभिषेक निज तात के चरणों में कोटिशः नमन करता है।
4.
कोरा कागज़
मैं तो हूँ एक कोरा कागज
जो चाहे सो लिख लो
हार लिख लो चाहे विजय का परचम लिख लो,
लिख लो तुम परतन्त्रता या आजादी लिख लो।
शामिल हूँ मैं सुख दुख में,
तेरे जीवन के प्रति पल में।
वन्दन लिख लो चाहे या विषाद का वर्णन लिख लो,
लिख लो तुम प्रणय निवेदन या अभिवादन लिख लो।
मिलूँगा तुम्हें मैं प्रत्येक छोर पर,
तेरे जीवन के हर एक मोड़ पर।
बिछोह लिख लो चाहे या मिलन की यादें लिख लो,
लिख लो तुम प्रियतम की यादें या अफ़साने लिख लो।
तेरा जीवन है मेरा रंग रूप ,
मेरे तो हैं कई प्रतिरूप ।
मैं तो हूँ एक कोरा कागज,
जो चाहे सो लिख लो ।।
5.
क्षेत्रपाल
सूखी धरती की देख दरारें
भृकुटी पर बन गयी मेरी धराये।
नित नवीन चिन्ता में रहता हूं
सब सहता हूँ चुप रहता हूँ।
सलिल की एक बूँद की खातिर
नित मेघों को निहारता रहता हूँ।
समझ बिछौना वसुन्धरा को
अम्बर के नीचे रहता हूँ।
रज की खुशबू धर ललाट
मैं चन्दन तिलक समझता हूँ।
धरती का सीना चीर मैं उसमे फ़सल उगाता हूँ
अपने स्वेद से सींच उसे मैं जीवन्त बनाता हूँ
यूँ ही नहीं मैं धरा पुत्र,क्षेत्रपाल कहलाता हूँ।।
---
कोरा कागज़
मैं तो हूँ एक कोरा कागज
जो चाहे सो लिख लो
हार लिख लो चाहे विजय का परचम लिख लो,
लिख लो तुम परतन्त्रता या आजादी लिख लो।
शामिल हूँ मैं सुख दुख में,
तेरे जीवन के प्रति पल में।
वन्दन लिख लो चाहे या विषाद का वर्णन लिख लो,
लिख लो तुम प्रणय निवेदन या अभिवादन लिख लो।
मिलूँगा तुम्हें मैं प्रत्येक छोर पर,
तेरे जीवन के हर एक मोड़ पर।
बिछोह लिख लो चाहे या मिलन की यादें लिख लो,
लिख लो तुम प्रियतम की यादें या अफ़साने लिख लो।
तेरा जीवन है मेरा रंग रूप ,
मेरे तो हैं कई प्रतिरूप ।
मैं तो हूँ एक कोरा कागज,
जो चाहे सो लिख लो ।।
--
'दिवाली मनाते है'
हम शिक्षक नित ही अज्ञानता का अंधकार मिटाते हैं,
ज्ञान दीप के प्रकाश से हम तो रोज दिवाली मनाते हैं।
कब,कहाँ,क्यो,कैसे? यह सब बच्चों को समझाते हैं।
क्या भला,क्या बुरा? यह सब भी हम सिखलाते हैं।
सरस्वती के पावन मन्दिर मे नया सबक सिखाते हैं,
नवाचार का कर प्रयोग छात्रों को निपुण बनाते हैं।
कबड्डी,खो-खो और दौड़ प्रतियोगिता करवाते हैं,
पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी हम महत्व बताते हैं।
बच्चो का कर चहुँमुखी विकास हम फूले नहीं समाते हैं।
हम शिक्षक शिक्षा की लौ से रोज दिवाली मनाते हैं।
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
00000000000
सोदान सिंह
सुबह की किरण सा है वो
संध्या का सूरज लगता है वो
हंसता है मानो लालिमा छाई हो
ऐसा लगता है पक्षियों की गूंज सुनाई हो
उसका रोना भी कोयल के गीतों सा है
फुलों सा कोमल है वो
और तितली सा चंचल भी
बागों की खुशबू है वो
मधुर हवा सा बहता है
मां का प्यारा है
और पिता का दुलारा भी
जो भी उसको देखें एक अलग ही उर्जा भर देता है
मानो ऊर्जा का कोई स्रोत है वो
-सोदान सिह
000000000
बिलगेसाहब
चलो ले चले हम क़िस्म-ए-इंसान को चैत्यभूमि दिखाने।
बाम-ए-फ़लक से ख़ुदा भी आएगा सर झुकाने।
वो जो नावाक़िफ़ पूछते है कि है ख़ुदा चीज़ क्या।
ख़ुदा ख़ुद आयेगा नाम, जनाब-ए-बाबासाहब बताने।
दरिया-ए-तौहीन को आतिश-ए-संबिधान से मिटाया।
दस्तुर की आँधिया थी आई चिराग-ए-बाबासाहब बुझाने।
गुमराह हुजूम जो खो गए थे क़िस्म-ओ-जाती के मेलों में।
रहनुमा बनके आये थे उन्हें राह-ए-इंसानियत दिखाने।
बंजर थी कल तक पिछड़ों की जमीं-ए-जिंदगी।
बीज-ए-इशरत के सूरत में आये थे वो गुलशन बनाने।
भिमराव के जन्म से हो गए सब काँटे गुल में तबदिल।
बतौर दवा बनकर आये थे मर्ज़-ए-कुल-ओ-नस्ल मिटाने।
इज्ज़त की जगह क़ाफ़िरों ने लिखी हयात में ज़िल्लत।
बेहया मनुस्मृति को सिख-ए-आदमियत आये थे सिखाने।
जिंदगी-ए-दर्द-ओ-बेबसी को ऐश-ओ-इशरत से भर दिया।
रब की भी औक़ात नहीं है इनायत-ए-बाबा चुकाने।
क़रीब-ए-सुरज जाकर वापिस लौट सका है कौन।
ख़ाक हो गए काफ़िले जो आये थे हस्ती-ए-बाबा मिटाने।
तनहाई महसूस होती है अंबेडकर बगैर इंसानियत को।
'बिलगे' चल जानिब-ए-चैत्यभूमि सर अपना झुकाने।
---
तनहाइयों में जीना सीख लिया।
खुद के साथ रहना सीख लिया।
मुखवटों को तुम लाख बदल दो,
हमने चेहरे पढ़ना सीख लिया।
चिरागों से कहो गुरुर न करें।
हमने भी अब जलना सीख लिया।
रास्तों की परवाह आप ही करो,
हमने तो अब उड़ना सीख लिया।
किसी चाल में कभी फंसेंगे नहीं।
हमने भी शतरंज खेलना सीख लिया।
खुशियाँ तुम अपने पास ही रखो,
हमने गम में जीना सीख लिया।
Written by- बिलगेसाहब(Madhukar bilge)
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राकेश चतुर्वेदी "राही"
मेरी कलम हर रोज तेरी ही एहसास लिखती हैशब्द की आईने में बस तेरी ही चेहरे दिखती है
जब तेरी याद आती है हमें हर रोज सनम
शब्द लिखने को ना जाने क्यों चीखती है
लिखते लिखते कलम की स्याही खत्म हो गयी
स्याही बन गयी तेरी आँखों की आंसू जो गिरती है
तेरी दिल की धड़कन से पूछना कभी खाव्बो में
मेरी शब्द की सागर में बस एक तू ही भीगती है
राकेश कागज कम पड़ जायेगी मत लिख ग़ज़ल
कबूल करती है ओ की तेरे ही चेहरे उसे दिखती है
राकेश चतुर्वेदी "राही"
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सुरेश सौरभ
दुकानें
हाथ जोड़े
आंखें मूदें
कुछ लोग
उनसे
जो खुद ईश्वर
के नाम पर
अपनी दुकानें
चला रहे हैं
ऐसे रंगे भगवानों
की चक्की में
कब तक ?
पिसती-लिथरती
रहेगी जनता
यह प्रश्न लिए
कलम मेरी मौन है।
मैं पूछता हूं
ये दुकानदार कौन है ?
- सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
कापी राइट -कवि
कुछ अहसास
कुछ कागज
बिखरे से
उखड़े से
सिमटे से
सिकुड़े से
अकड़े से
कुछ सीना ताने
कुछ अनमने से
कुछ शरमाए
कुछ सकुचाए
कुछ फटे
कुछ नुचे
कुछ मुद्रित
कुछ अमुद्रित
अक्सर तड़पते हैं
आपस में लड़ते हैं
मचलते हैं
किसी कवि
की कलम का
आलिंगन पाने को
-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
कापीराइट कवि
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अंकित विश्वकर्मा
पता है मुझे
कई लोगों का क़ाफ़िला चलता है तुम्हारे साथ
बेशक गुर्राया करो
मगर मैं ख़ुद में एक क़ाफ़िला हूँ ओर अकेले चलना हुनर है मेरा
तो इसे मेरी तनहाई ओर बेबसी न बताया करो
माना कि बदन पर लिबास तुम्हारे ज़रा महँगा है
हक़ है तुम्हें दिखाया करो
मगर मेरे पहनावे की तौहीन कर
भरी महफ़िल में यूँ मेरा मज़ाक़ न बनाया करो।
हाँ जानता हूँ शोक तुम्हारे ज़रा ऊँचे है
मुझे कोई ऐतराज़ नहीं तुम्हारे पैसे है उड़ाया करो
मगर मुझे क़द्र है अपने पैसों की जो
थोड़ी सस्ती चीज़ ख़रीद लूँ तो उसे घटिया न बताया करो।
बातें तुम्हारी इतनी ही ऊँची है
तो उलझे मसलों को सुलझाया करो
मगर मेरी समझदारी को यूँ वेबक़ूफ़ न बताया करो।
आख़िर यूँ कबतक नीचा दिखाओगे मुझे
कभी तो ज़रा शर्म खाया करो
मैं तो फ़क़ीर हूँ ओर यह वफ़ादार ज़मीर ही अमीरी है मेरी
यदि हो हुनर तो मुझ जैसा बनकर बताया करो।
अंकित विश्वकर्मा
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भरत कोराणा "स्वाभिमानी"
हवस का शिकारी
सात्विक ह्रदय का इंसान ,
आखिर कैसे बन जाता है दरिंदा ?
मर कैसे जाती है आत्मा ?
मिट कैसे जाता है ज़मीर ?
मलिन कैसे हो जाता है मन ?
खुश्क कैसे हो जाती है भावनाएं ?
खत्म कैसे हो जाती है प्रज्ञा ?
ठंडा कैसे पड़ जाता है विवेक ?
क्षुब्ध कैसे हो जाता है तू ?
तुम्हें सिर्फ हवस ही दिखती है ?
तेरे भारत मे तो होती है
नारियों की पूजा ,
देवता भी लालायित रहते हैं
इस धरा पर विचरण हेतु ?
फिर मैं तो बच्ची हूं ,
मेरे जिस्म से खेलते वक्त ,
तुम्हें नहीं आती शर्म ?
नहीं काँपती रूह ?
नहीं पिघलता हृदय ?
नहीं जगता विवेक ?
मेरे रूह का कतरा कतरा
चीर देता है दीवारें ,
मेरी आत्मा छटपटा जाती है ,
लम्बे पिलरों से टकरा कर,
पर तुम हवस के पुजारी ,
बेरहम और जालिम
मेरे मांस के लोथड़ों से
खेलते हो
जैसे हो शतरंज के प्यादे ।
मेरे जिस्म से निकलते
खून औऱ छींटे देखकर ,
तुम्हारा पसीजता नहीं मन ?
अरे ! ओह दरिंदे.......
तुम बेघर हो या बेऔलाद ?
तुम्हारे हिस्से में भी आयेगी बेटी ,
तुम भी बेटी के बनोगे बाप ,
फिर....
रहम करो थोड़ी शर्म करो ,
जल मरो या डूब मरो ,
तुम जैसे दरिंदो की वजह से ,
यह आजाद फ़िजा भी देती है टिस ,
मेरा कुनबा रहता है डरा-डरा ,
हरदम भयभीत ,
तुम्हारी दरिन्दगी की वजह से ,
छूट जाती है शाला ,
बिखर जाते है अरमान ,
खाक हो जाते हैं सपने ।
नाम-भरत कोराणा "स्वाभिमानी"
पिता का नाम - श्री कानाराम
पता- मुकाम पोस्ट-कोरणा, तह.-आहोर, जिला- जालोर (राज.)
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तरसेम कौर
एक पहाड़ के पास
अनगिनत वृक्ष हैं
एक आसमान के पास
अनगिनत सितारे हैं
एक समंदर के पास
अनगिनत मोती हैं
वृक्ष शायद कुछ और होता
अगर मिट्टी न होती
सितारे कहीं और चमकते
अगर उनको आसमान न जगह देता
मोती कभी नहीं बन पाते
अगर सीप के लिए समंदर न होता...
मनुष्य के पास ख़्वाहिश है
क्यूंकी उसके भीतर एक मन है...!!
-तरसेम
मेरा संक्षिप्त परिचय --
नाम - तरसेम कौर
शिक्षा - ग्रेजुएट , दिल्ली विश्वविद्यालय
स्थान - नई दिल्ली
लेखन - कविता , कहानी , लेख
लेखन क्षेत्र में उपलब्धियां - कई प्रतिष्ठित काव्य संग्रहों में कवितायों का प्रकाशन । समय समय पर विभिन्न पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में कविताओं , कहानी एवम् लेख प्रकाशन ।
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सोदन सिंह 'उदास'
गर्मी निकली बरसात आई
तपते किसान को राहत आई
बरसी मौसम की पहली बारिश बरसात के साथ किसानों के अरमान बरसे
लेकर चला बीज वह खेतों की ओर
जो बचाया था उसने अपने खर्चों से
बड़ी खुशी से बोया बीच खेतों में
बड़ी उम्मीद है पाली उससे
े फिर निकला नन्हा पौधा उसकी उम्मीदों का
टपक रही थी छत उसके घर की
फिर भी खुश था वो
उन टपकती बूंदों में पल रहा था सपना उसका
अब फसल है पकने को आई
चमक उसके चेहरे पर आई
सोया उस रात उम्मीदों की नींद वो
पर नियति को कहा था यह मंजूर
जिस बारिश ने पाला था उसका सपना
उसने ही तोड़ दिया सपने को
पकती पसल को रौंदा उसने खेतों में
इधर सूरज उदय हुआ उदर उसके सपने डूब गए
रोया हो घर के कोने में बैठकर
अपने बीवी बच्चों से छुपकर
फिर घबराता हड़बड़ा दौड़ा खेतों की ओर
वहां देखा उसने अपने सपने को बिखरा
फिर टूटी उम्मीदों से समेटा उसमें फसल को
अभी तो घाव भरे भी नहीं थे उसके
फिर से संजोये हैं उसने नए सपने
चला वह साहूकार की तरफ कर्ज लेने
साहूकार भी चिल्ला दिया यह कहकर पिछला तो दे नहीं पाया तू अब यह कहां से देगा
सहमा सा सुनता रहा वो साहूकार की बातें
अरे ब्याज का भूखा साहूकार दे दिया कर्ज़ घर के पेपर गिरवी रख कर
बोया बीज सपनों का उसने खेतों में
पाली है उम्मीद फिर उसी बारिश है
बरसेगी एक मावठ लहराएगी फसल मेरी
आई वो बेवफा मावठ ओले बनकर
फिर उसने खूब तोड़ा फोड़ा उसके सपने को
उसकी टूटी छत मैं जा छेद किया
अरे एक छोटा सा ही तो सपना था उसका
आएगी फसल तो टूटी छत ठीक करवा लूंगा
फिर चला वह खेतों की ओर हाथ में रस्सी लेकर
घर पर पत्नी चिंता करती रोते बच्चों को समझाती
अब तक तो लगाता था वह फांसी अपने सपनों की
पर अब खुद ही झूल गया वह फांसी पर-2
मरना तो उसने कई बार चाहा
पर अपने पत्नी बच्चों की चिंता रोक लेती
पर खेला खेल समय ने उसके साथ
जो अपने पत्न ी बच्चों से भी पहले याद आई उसे मरने की
अरे अपने मालिक को मरते देख उसके बूढ़े बैल बोले
क्यों मरते हो मालिक हम मिलकर खूब मेहनत करेंगे खेतों में ~ सोदन सिंह 'उदास'
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सुनीता असीम
कुछ शिकायत भी करें कैसे भला ...उससे कभी।जिन्दगी भर देखिए वो ही हमें....... समझा नहीं।
******
देखके दुख भी मेरा वो तो सदा .......खामोश था।
दिल मेरा तो जल उठा उसका जिगर जलता नहीं।
******
मन वितृष्णा से भरा अब तो मेरा है...... लाजमी।
खो गई खुशियाँ सभी पर चैन भी ...मिलता नहीं।
******
कुछ रहे अरमान थे औ कुछ मेरी थीं ...ख्वाहिशें।
घोंटता उनका गला वो साथ भी ......चलता नहीं।
******
साथ जीवन के लिए था वो नहीं था ....साथ पर।
बस पराया ही रहा समझा हमें .......अपना नहीं।
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दर्द मेरे मर्म को इतने दिए उसने .......... सदा ।
रब्त उससे क्या रखें जो राबिता .....रखता नहीं।
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बाँसुरी की धुन मुझे मदहोश करती जा रही।
दर्श मुझको कान्हा का क्या करूँ मिलता नहीं।
******
सुनीता असीम
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ललित प्रताप सिंह
1
खूबसूरत दिन बितायेगा कौन,
तुम बिन यूं सतायेगा कौन!
हरदम करती हो जिद मुझसे,
यूं अपनी बात मनवायेगा कौन!
रूठ जाना फिर मान जाना,
ऐसा नखरा दिखायेगा कौन!
यूं तो सब कहते है मैं हूं ना,
पर साथ हमेशा निभायेगा कौन!
पल में बदल जाते है मन सबके,
हरदम स्थिर होकर दिखायेगा कौन!
कर लो फैसला जो करना हो,
इतनी सहानुभूति दिखायेगा कौन!
याद करोगी बिछड़कर मुझको खूब,
मुझ जैसा खास बन पायेगा कौन!
"ललित" तो जी लेगा तन्हा भी,
मगर तुमको सुला पायेगा कौन!!!
2
ता उम्र हिफाजत करेगा कौन,
इतना प्यार तुमसे करेगा कौन!
फक़त बात ही करता है कोई,
तो मुझ सा उससे जलेगा कौन!
हर तरफ बस धुन्ध ही धुन्ध है,
ऐसे में मौसम साफ करेगा कौन!
बात बात पर रूठ जाते हो तुम,
इस तरह आखिर मनायेगा कौन!
मौत तो आनी ही है एक दिन,
फिर मौत से पहले मारेगा कौन!
'ललित' बात हो जहां अपनो की,
वहां फिर उनसे यूं लड़ेगा कौन?
3
अपना जब कभी हिसाब होगा,
क्या शरीफ हो तुम?
जुबां पर बस सवाल यही होगा,
क्या नहीं किया तुम्हें हँसाने को,
ना जाने कब नसीब प्यार तेरा होगा!
हो गयी है काफी दूरी बीच में,
करीब आने का क्या जेहन में सवाल फिर होगा,
कोशिश तो पूरी जारी अभी भी,
मालूम है तुम्हें मुझसे प्यार जरूर होगा,
मिलेगें किसी दिन,तुझे भी इंतजार जरूर होगा!
बन्दिशें हैं बहुत जमाने की मालूम मुझे,
मगर एक जैसा हर इंसान नहीं होगा,
तुम कहो अगर रोका है घरवालों ने मुझको,
तो ऐसी बात मुझे विश्वास नहीं होगा,
दावा है तेरे घर 'ललित' का बखान जरूर होगा!
4
जिन्दगी क्यूं नहीं खास होती है,
हरदम सबसे यही बात होती है!
रोज मिलती है नयी परेशानियाँ,
सुख से नहीं कभी रात होती है!
ख्वाहिशें तो कई होती है सबकी,
मगर पूरी तो एक आध होती है!
इसी चाहत में जी रहे है जीवन,
नहीं किसी से अब बात होती है!
मशवरा क्या देगा कोई हमको,
नहीं दोस्ती भी अब खास होती है!
"ललित" मर ही जाना है सबको,
फिर क्यूं आपस में तकरार होती है!
5
कौन किसके हक में ब्यान होता है,
पैसे से ही हर जगह काम होता है!
अगर काम ना पड़े दोबारा उनको,
तो अगली सुबह नहीं सलाम होता है!
यूं तो अक्सर साथ आते जाते है लोग,
मुसीबत में कहा कोई साथ होता है!
हर बार हम ही हट जाते है जिद से,
उनहो तो हमेशा खुद पर गुमां होता है!
कब तक मानते रहे हम बात उनकी,
हमको अब बहुत ही नुकसान होता है!
पल दो पल की जिन्दगानी है 'ललित'
फिर क्यूं आपस में मनमुटाव होता है!
@@@@
ललित प्रताप सिंह
ग्राम _ बसंतपुर,पोस्ट_ हसनापुर
जिला__रायबरेली
0000000000000
शिवांकित तिवारी
वो लोग जो सरकार में हैं, या सरकार खुद को मानते हैं,
जीतने के बाद..
न ही जनता की सुनते कभी फिर, न ही जनता को जानते हैं,
समस्यायें ढेर सारी निराकरण मिलता नहीं,
जीतनें के बाद नेता,जनता की सुनता नहीं,
युवा बेरोजगार हैं,पढ़ा-लिखा बेकार है,
मिलता न रोजगार हैं,ऐसे नेता और सरकार हैं,
झूठे वादे,घोषणाएं करते है लाखों मगर,
लोग भूखें मर रहें हैं,बेअसर सरकार है,
किसानों को लालच देकर करती झूठे वायदे,
जीतने के बाद सारे भूल जाती कायदे,
देखती सरकार केवल सिर्फ अपने फायदे,
कुर्सी पे बैठा हुआ हर नेता गद्दार है,
जनता को गुमराह करके चला रहा सरकार है,
लाखों समस्याओं से,जूझती हैं जनता इस देश में,
नेताजी तो ऐश करते घूमते हैं विदेश में,
डबल चेहरें हर नेताओं के हैं इस देश में,
छल रहे हैं सिर्फ जनता को नेताओं के भेष में,
जुमलेबाज,भ्रष्टाचारी ऐसे नेता को धिक्कार है,
जनता की न मदद करती कोई भी सरकार है,
पाँच सालों बाद,
आती फिर जनता की याद,
करते है फिर बातें और वादे इस बार होगा बदलाव,
बस करिये इस बार सहयोग और जिताइये चुनाव,
भर-भर के परोसते हैं फिर सबको शाही पुलाव,
अब ऐसे नेताओं से बचना जो भ्रष्ट और लाचार है,
वोट देना उसको ही जो सच्चा,अच्छा समझदार है,
मतदान के लिये..
जागो जनता,दिखाओ क्षमता होकर नक्कालों से सावधान,
अपना अधिकार जान,अच्छे नेता की कर पहचान,इस बार करो सभी मतदान,
युवा कवि और लेखक
शिवांकित तिवारी
सतना (म.प्र.)
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जितेन्द्र वेद
उम्र के पचासे पर
उम्र का आंकड़ा जब छूता है अर्धशतक
लगता है कुछ अधूरी ,कुछ पूरी ललक
लगती तो है यह उम्र खूब मस्त-मस्त
खाने -पीने में रहना पड़ता है खूब चुस्त
कभी बीवी,कभी बच्चे लगाते रोक-टोक
मुश्किल में न उतरता निवाला हलक का
जब हसीना मुस्कुराती है तो होती बहुत खुशी
सीने की धड़कन कहती है ग्रेट हो तुसी
इधर-उधर ढूंढती निगाहें जाने-अनजाने को
उम्र संभला देती, रह जाता किस्सा पलक का
मर्यादा-सीमा देती चेतावनी सुबह-ओ-शाम
कुछ खोया,कुछ पाया किस्सा अब तलक का
भागना तो चाहता है मन इस पल,उस पल
बहना चाहता है यौवन का सोता कलकल
याद आती है कभी फेट्स की या कोलेस्ट्राल की
करना पड़ती है मशक्कत टम्मी के देखभाल की
छोटी-मोटी चीजों पर करना पड़ता है जब-तब गौर
हौले-हौले बदलना पड़ता है जीवन का फलक
किसने इनके होंठों पर ताला डाला है
मीडिया के कोठों पर बड़ा घोटाला है
सब बिके हुए लगते हैं ये कलम घिसने वाले
गांधी को मारकर इन्होंने गोड़से को पाला हैं
झूठ ही झूठ और फरेब की दुनिया को
कलम के सिपाहियों ने क्यूं संभाला हैं
घावों पर नमक छिड़कते रात ओ दिन
सिर्फ अमीरों के लिए यहाँ उजाला है
करोड़ों सो जाते हैं अधभूखे रोज- ब-रोज
कुछ के लिए यहाँ जिंदगी मसाला हैं
मजहब तो हो गया सियासत का हिस्सा
देश का मजहब तो बन गया घोटाला है
कौन-किसको-क्यों रोये इस जमीन पर
यहाँ सब तरफ बहता केवल गंदा नाला है
जितेन्द्र वेद
सी 113 बख्तावर राम नगर इंदौर
00000000
अमित कुमार झा
जन्मतिथि -१६-०६-१९९६
शिक्षा -बी.ए, एम.ए (समाजशास्त्र), पी .जी डिप्लोमा (जेंडर एंड वुमन स्टडीज) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी ,नेट .
विधा - कविता ,ग़ज़ल ,कहानी ,लघु कथा, आरम्भ ,प्रतिलिपि ,रचनकार में रचना प्रकाशित , राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित .
ईमेल – amitjha9648@gmail.com
काव्य - तुम जो थे ।
तुम थे तो मैं अक्सर रूठ जाती थी छोटी -छोटी बातों पर,
तुम जो गये तो मैं रूठना ही भूल गयी बड़ी- बड़ी बातों पर.
तुम थे तो मैं अक्सर बैठ कर संवारा करती थी खुद को आईने के सामने,
तुम जो गये तो मैं संवरना ही भूल गयी.
तुम थे तो आईना भी जलती थी मेरी खूबसूरती से,
तुम जो गये तो कमबख्त आईना भी जलना छोड़ दिया.
तुम थे तो क़त्ल करती थी आँखों के काजल की ये खंजर,
तुम जो गये तो काजल भी आँखों में ठहरना भूल गया.
तुम थे तो रोज चाँद भी बादलों से मुझे झांक कर देखा करता था,
तुम जो गये तो अब ये चाँद भी झांकना छोड़ दिया.
तुम थे तो हम अक्सर सुनसान सड़क पर लम्बी सफर तय किया करते थे,
तुम जो गये तो मैं घर से निकलना ही भूल गयी.
तुम थे तो अक्सर कानों के पीछे कर देते थे बिखरे जुल्फों को,
तुम जो गये तो ये जुल्फें अब बिखरना ही भूल गया.
तुम थे तो अक्सर उलझ जाया करती थी जुल्फें,
तुम जो गये तो अब ये जुल्फें भी उलझना छोड़ दिया.
तुम थे तो मैं अक्सर रूठ जाती थी छोटी -छोटी बातों पर,
तुम जो गये तो मैं रूठना ही भूल गयी बड़ी बड़ी बातों पर.
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कमलेश सवि ध्रुवे
""" चुनाव महराज """
काश चुनाव महराज
तुम आते जी बार बार
तेरे आने से बनते हैं
नये नये कई रिश्ते।
नेताओं को जनता
नजर आतें हैं फरिश्ते
तेरे पनाह में पनपते हैं
ठगों का ठग व्यापार
काश....................
चुन- चुन मतों का फूल
बनातें हैं मधुरस छाता
काटते हैं बर्रे बनकर
खोले पंचवर्षीय खाता
हो जाता है नेता जी के
कई पीढ़ियों का बेड़ापार
काश.......................
संवर जाती हैं गलियां
चाहे कुछ पल के लिए
पड़ता है चुनावी कदम
दुभर होगा कल के लिए
मजा आता है जनता के
सपने के करके तारतार
काश.......................
चुनावी धुप में नेताजी को
झोपड़ा बहुत सुहाता है
बेलगाम करता है भाषण
चुंकि मुंह बहुत खुजलाता है
अंशकालिक सन्यासी बनता
छोड़े सुख सुविधा घर बार
काश.........................
नेताओं के हाथ में
आज फिर वही कटोरी है
थाम लिया मतदाता ने
उनके किस्मत की डोरी है
खादी वाले बाबाजी की
सुन लो कुटिल पुकार
काश......................
फटे बांस की बज रही
वादों की बंशी कोरी है
खादीधारी चोरो को देखो
कर रहे सीना जोरी है
'ठगभेरी'बजी चहुंओर
एक हुए रंगहा सियार
काश...................
चुनावी हवा बनाती है
नेताओ के भाग़्य विधाता
गर्भित होता है जनता भी
महसुस कर कर्ण सा दाता
पांच वर्ष तक इस दानी को
मिलता है सतत दुत्कार
काश..........................
अहसास होता है जनता को
कि वह अहसान कर रहा है
अमीर हुआ वह भी आज
क्योंकि मतदान कर रहा है
कानों में अभी बरस रहे है
मनभावन वादे कई हजार
काश चुनाव महराज
तुम आते जी बार बार
कमलेश सवि ध्रुवे, राजनांदगांव छ.ग.
00000000000
अजय अमिताभ सुमन
माँ
आओ एक किस्सा बतलाऊँ,एक माता की कथा सुनाऊँ,
कैसे करुणा क्षीरसागर से, ईह लोक में आती है?
धरती पे माँ कहलाती है।
स्वर्गलोक में प्रेम की काया,ममता, करुणा की वो छाया,
ईश्वर की प्रतिमूर्ति माया,देह रूप को पाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
ब्रह्मा के हाथों से सज कर,भोले जैसे विष को हर कर,
श्रीहरि की वो कोमल करुणा, गर्भ अवतरित आती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
दिव्य सलोनी उसकी मूर्ति ,सुन्दरता में ना कोई त्रुटि,
मनोहारी, मनोभावन करुणा,सबके मन को भाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
मम्मी के आँखों का तारा, पापा के दिल का उजियारा,
जाने कितने ख्वाब सजाकर, ससुराल में जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
पति के कंधों पे निश्चल होकर, सारे दुख चिंता को खोकर,
ईश्वर का वरदान फलित कर, एक संसार रचाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
नौ महीने रखती तन में, लाख कष्ट होता हर क्षण में,
किंचित हीं निज व्यथा कहती, सब हँस कर सह जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
किलकारी घर में होती फिर, ख़ुशियाँ छाती हैं घर में फिर,
दुर्भाग्य मिटा सौभाग्य उदित कर, ससुराल में लाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जब पहला पग उठता उसका,चेहरा खिल उठता तब सबका,
शिशु भावों पे होकर विस्मित , मन्द मन्द मुस्काती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
बालक को जब क्षुधा सताती,निज तन से हीं प्यास बुझाती,
प्राणवायु सी हर रग रग में,बन प्रवाह बह जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
माँ की ममता अतुलित ऐसी,मरु भूमि में सागर जैसी,
धुप दुपहरी ग्रीष्म ताप में,बदली बन छा जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
नित दिन कैसी करती क्रीड़ा,नवजात की हरती पीड़ा,
बौना बनके शिशु अधरों पे, मृदु हास्य बरसाती है।
धरती पे माँ कहलाती है।
माँ हैं तो चंदा मामा है,परियाँ हैं, नटखट कान्हा है,
कभी थपकी और कभी कानों में,लोरी बन गीत सुनाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
रात रात पर थपकी देती,बेटा सोता पर वो जगती ,
कई बार हीं भूखी रहती,पर बेटे को खिलाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जीवन के दारुण कानन में,अतिशय निष्ठुर आनन में,
वो ऊर्जा उर में कर संचारित,प्रेमसुधा बरसाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
शिशु मोर को जब भी मचले,दो हाथों से जुगनू पकड़े,
थाली में पानी भर भर के,चाँद सजा कर लाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
तारों की बारात सजाती,बंदर मामा दूल्हे हाथी,
मेंढ़क कौए संगी साथी,बातों में बात बनाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जब जब चोट लगी जीवन मे,अति कष्ट हो तन में मन में,
तब तब मीठी प्यारी थपकी ,जिसकी याद दिलाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
छोले की कभी हो फरमाइस ,कभी रसगुल्ले की हो ख्वाहिश,
दाल कचौड़ी झट पट बनता,कभी नहीं अगुताती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
दूध पीने को ना कहे बच्चा,दिखलाए तब गुस्सा सच्चा,
यदा कदा बालक को फिर ये, झूठा हीं धमकाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
रोज सबेरे वो उठ जाती , ईश्वर को वो शीश नवाती,
आशीषों की झोली से,बेटे हो सदा बचाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
बच्चा लाड़ प्यार से बिगड़े, दादा के मूंछों को पकड़े,
सबकी नालिश सुनती रहती, कभी नहीं पतियाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
छिपकिलियों से कैसे भागे,चूहों से रातों को जागे,
जाने सारी राज की बातें,पर दुनिया से छिपाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
पिता की निष्ठुर बातों से,गुरु के निर्दय आघातों से,
सहमे शिशु को आँचल में ,अपने आश्रय दे जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
कभी डांटे, कभी गले लगा ले,स्नेह सुधा कभी वो बरसा दे,
सपनों में बालक के अपने, आंसू धोने आती है ,
धरती पे माँ कहलाती है।
पिता की नजरों से बचा के, दादा से छुप के छुपा के,
चिप्स, कुरकुरे अच्छे लगते, बच्चे को खिलाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जब भी बालक निकले घर से,काजल दही टीका कर सर पे,
अपनी सारी दुआओं को, चौखट तक छोड़ आती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
फिर ऐसा होता एक क्षण में,दुलारे को सज्ज कर रण में,
खुद हीं लड़ जाने को तत्तपर, स्वयं छोड़ हीं आती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जबतक जीवित माँ इस जग में,आशीषों से जीवन रण में,
अरिदल से करने को रक्षित,ढाल सदृश बन जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
बड़ी नाजों से रखती चूड़िया, गुड्डे को ला देती गुड़िया,
सोने चाँदी गहने सारे ,हाथ बहु दे जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
फिर प्रेम बँटवारा होता, माँ बहू में झगड़ा होता,
बेटा पिसता कुछ कह देता, सबकुछ वो सह जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
ये बात सभी कुछ जाने वो,बहु को भी तो पहचाने वो,
हँसते हँसते ताने सुनती कुछ, बात नहीं कह पाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
बहू-माँ में जब रण होता है, बालक घुट घुट कर रोता है,
प्रेम अगन पे भारी पड़ता, अनबन खुद सुलझाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
बच्चों के जब होते बच्चे,दादी के नजरों में अच्छे,
जब बच्चों से बच्चे डरते,दादी उन्हें बचाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
परियों की फिर वही कहानी,दुहराती एक राजा रानी,
सब कुछ भूले ये ना भूले,इतनी याद बचाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
आँखों से दिखता जब कम है, जुबाँ फिसलती दांते कम है,
चिप्स ,समोसे को मन मचले,खुद बच्चा बन जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
अब बिस्तर पे लेटी रहती, जब पोते को खाँसी होती,
खाँस खाँसके खाँसी के ,कितने उपाय सुझाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
कितना बड़ा शिशु हो जाए ,फिर भी माँ का स्नेह वो पाए,
तब तब वो बच्चा बन जाता,जब जब वो आ जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
उपाय न कोई चलता है,आखिर होकर ही रहता है,
यम अधिनियम फिर फलता है,वो इह लोक छोड़ जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जब भी उसकी याद सताती,ख्वाबों में अक्सर वो आती,
जन्मों का रिश्ता माँ का है,मरने के बाद निभाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
तूने ईश्वर को नहीं देखा होगा,लगता माँ के हीं जैसा होगा,
बिन मांगे हीं दग्ध हृदय को,प्रेम सुधा मिल जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जिनके घर में माँ होती है,ना घर में विपदा होती है,
सास,ससुर,बेटे, बेटी की,सब चिंता हर जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
काश कि ऐसा हो पाता, ईश्वर कुछ पाने को कहता,
मैं कहता कह दे माता से,यहाँ क्यूँ नहीं आती है?
धरती पे माँ कहलाती है।
जननी तेरा अभिनन्दन,तेरे चरणों मे कर वन्दन,
गंगा यमुना जैसी पावन,प्रेम का अलख जगाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
माँ तो है बरगद की छाया,ईश्वर ब्रह्म तो उसकी माया ,
ऋचाओं की गरिमा है माँ ,महाकाव्य सा भाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जन्नत है जहाँ माँ है मेरी, मन्नत मेरी हर होती पूरी,
क्या मांगु बिन मांगे हसरत,वो पूरी कर जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
जाओ तुम्हीं काबा काशी,मैं मातृ वन्दन अभिलाषी,
चारोंधामों की सेवा जिसके,चरणों मे हो जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
पुत कपूत सुना है मैंने,नहीं कुमाता देखा मैंने,
बेटा चाहे लाख अधम हो,वो माफ़ी दे जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
माँ जिनकी होती न जग में,जब पीड़ा होती रग रग में,
विचलित होते वे डग डग में,तब जिसकी याद सताती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
और कहो क्या मैं बतलाऊँ? माँ की कितनी बात सुनाऊँ,
ममता की प्रतिमूर्ति ऐसी,देवी छोटी पड़ जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
माँ को गर न जाना होता, क्या ईश्वर पहचाना होता?
जो ईश्वर में, जिसमे ईश्वर, जो ईश्वर हीं हो जाती है,
धरती पे माँ कहलाती है।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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राम ममगाँई पंकज
दोहाभाषा मेरी प्रेम की, मैं लिख दूँ भरपूर ।
हुए सभी बदनाम तो, मीरा राधा सूर ॥1
लिखते रहना तूलिका, जन्ममरण का साथ।
पूरी हो मन कामना, मेरी भोले नाथ ॥2
वादा रहने साथ का, करते थे दिनरात ।
सपनों में आया करो,करते क्यों आघात ॥3
नीद रात में खो गई,दिवस खो गया चैन।
दुनिया सारी खो गयी,मिले जब से नैन॥4
चाँद चाँदनी से कहे, तेरे मन की बात॥
मिलन हमारा कैसे हो,इस पूनम की रात॥5
स्वरचित राम ममगाँई पंकज
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नवनीता कुमारी
अपनी हालात पे ना जाने कितना रोये हैं हम,
ना जाने क्या पाकर क्या खोये हैं हम,
अपनी हालात पे ना जाने कितना रोये हैं हम ।
शब्दों का सहारा लेकर जीये हैं हम,
ना जाने क्या पाकर क्या खोये हैं हम ।
लोग पूछते हैं क्या गम है तो मुस्कुरा देते हैं,
ना जाने कैसे हर दर्द छिपा लेते हैं हम ।
अपनी हालात को जीने का वजह बना लिये हैं हम ।
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कंचन
दर्द था सब सह गया
गमों का अश्क बह गया।
तन्हा ही आया था
और तन्हा रह गया।
चेहरे पर छाइयां थी
पैर में बिवाइयां थी।
झूठी मर्यादा थी
औकात से ज्यादा थी।
दिल में कुछ आशा थी
चेहरे पर निराशा थी।
प्यार को समाज को
देकर खुद रह गया।दर्द था...
अकेला वह चल पड़ा
हिम्मत को खुद बढ़ा।
पथरीली राह थी
कोई न परवाह थी।
धूप थी न छांव था
शहर था न गांव था।
तेज था कपाल पर
लालिमा थी गाल पर।
सोच राष्ट्र का लिए
वो हर किसी से कह गया।। दर्द था ..
कंचन
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सक्षम द्विवेदी
चाय की दुकान-
जब भी हँसने का मन होता है
चाय की दुकान जाता हूँ
एक प्याली चाय मंगाता हूँ
ये बड़ी ही दिलचस्प जगह होती है
वर्जनाये यंहा तार-तार होती हँ
लोग अपने मन की हर बात कहने लगते हैं
जब वो भावनाओं मे बहने लगते हैं
यंहा आने वालों को कभी कम ना समझना
भूलकर भी इनसे ना उलझना
ये लेते हैं ठेके बिकवाते है जमीन करवाते हैं पेपर आउट
पर निज भविष्य को लेकर ही होता है सबसे बड़ा डाऊट
हर छोटे बड़े मुद्दे पर होती है यंहा व्यापक चर्चा
पर केंद्र बिंदु बनता है अब कौन देगा चाय का ख़र्चा
अखबार यंहा बहुत प्रेम से शेयर होता है
एडिटोरियल मिलना तो रेयर होता है
क्योंकि वो तो बिछ जाता है दुकान की मेज पर
मंगवाना पड़ता है उसे 'छोटू' को भेज कर
अचानक चाय वाला समेटने लगा चाय और खस्ता
सामने से आने लगा नगर निगम का दस्ता
बैठे लोंगो को जरूरी कम याद आने लगा
दुकान हुई बंद मैं भी अब जाने लगा
सक्षम द्विवेदी
रिसर्च ऑन इंडियन डायस्पोरा, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा,महाराष्ट्र
संपर्क:
20 नया कटरा,दिलकुशा पार्क,इलाहाबाद,
000000000
मीनाक्षी वशिष्ठ
#नानी
ने कहा था#
कभी नानी ने कहा था
कुछ रिश्ते शुरु होते है ,,
खत्म होने के बाद!!
जितने पुराने होते हैं
उतने ही गहराते जाते हैं
और एक दिन भेद देते हैं
मन की सातों परत,,
सच ही तो कहा था तुमने
धीरे -धीरे तुम्हारा न होना
शामिल होता जा रहा है
मेरी जिंदगी मे
तुम्हारा होना बनकर !!
हर दिन उतरना पड़ता है
कुछ पल के लिये
मन के आँगन में !!
मिटाना चाहती हूँ
तुम्हारी स्मृतियाँ
मन के कोने -कोने से
तुम्हारी यादों के जाले से
पुर गई हैं मन की दीवालें
खिड़कियां और रोशनदान
यादों की धूल जमी पड़ी है
सारे आँगन में . . !!
वो तारों भरे आसमाँ तले
देर तक तुम्हारा कहानियाँ और भजन सुनाना , ,
वो पीली मिट्टी पर होती सौंधी बारिश
और फिर, जुगनूंओं से झिलमिलाती शाम , ,
मौसम की नमी
और बचपन का सावन
सब कुछ झाड़ कर फेंक देती हूं फिर भी, ,
फिर भी बचा रह जाता है
मन में थोड़ा सा सावन !!
तुम्हारी यादें इतनी भारी है
लाख कोशिश कर लूं
टस से मस नहीं होती, ,
बंद कर लेती हूं मन के खिड़की, दरवाजे,
रोशनदान फिर भी पतझड़ का एक झोंका जमा कर देता है
यादों के बरोठे में ..
ढेरों नीलगिरी के पत्ते ,,
वो तुम्हारा लगाया हुआ
बेर का पेड जिसे मैने
कटने से बचाया था
उस पर घोंसला बुनती नन्ही बया....
आज भी चहकती है
मुझे देखक़र, ,
कान्हा के श्रृंगार से बचे वो लाल फूल के गजरे
तुम्हारे बाद अब कोई नहीं लगाता मेरे बालों में .,,
मैने रोपा था आँगन में
जो शर्मीला बेला'
आज भी खिलता है मन में
छुप-छुप कर, ,
दिसम्बर की दोपहरी में
नहीं लड़ती सलाईयाँ
अब मेरे लिये
जो तुमने डाले थे
स्कार्फ के लिये फंदे,
यूं ही पड़े हैं
अधबुने ,अधूरे , उलझे !!
मन का आँगन खचाखच भरा है तुम्हारी यादों से , ,
गूँजती है मन में अब भी तुम्हारी ,बातें !!
'नानी ' अब मैं बड़ी हो गयी हूं ,,
जरा सी चिड़चिड़ी हो गयी हूं , ,
फिर भी बिल्कुल वैसी हूं
जैसा तुमने सोचा था !!
...क्योकि कुछ बाते समझ आती हैं
ना समझने के बाद !!
. ...क्योंकि कुछ रिश्ते शुरु होते हैं
खत्म होने के बाद।।
मीनाक्षी वशिष्ठ
000000000000
लक्ष्मी श्रीवास्तव
कुछ कहना है..........
आज मन है बहुत उदास प्रिये।
तुमसे करनी है कुछ बात प्रिये।।
मन बहका- बहका रहता है।
दिन हो, चाहे हो रात प्रिये।।
निज अंतरमन की उमस बढ़ी।
तो ले आई बरसात प्रिये।।
हर पल ये दिल कुछ कहता है।
अब बस में नहीं है जज्बात प्रिये।।
तुम भी कभी - कभी कह दो।
अपने मन के हालात प्रिये।।
क्या लिखे नहीं कभी तुमने।
नग़मा-ओ-शेर की सौगात प्रिये।।
कैसे समझूं में तेरे........ ।
मोहब्बत के इशारात प्रिये।।
तुमसे करनी है कुछ बात प्रिये........
लक्ष्मी श्रीवास्तव
000000000
सुनील जैन
बात रौशनी की
रौशनी का मेला ,
फिर भी हर आदमी अकेला !
बंध के नहीं रहेगा ये चिराग ,
उस ने जग को रौशन करने
की जो ठानी है !
सूरज का नुमाइन्दा है ये छोटा
सा दिया ,रौशनी ही रौशनी ,
बेशक कम जिया
देख के जिद उस जिद्दी चिराग की ,
अँधियों ने अपना रुख पलट लिया
रौशनी है चिराग का मजहब ,चिराग की जात ,
कितनी छोटी सी ,कितनी साफ़ बात !
कहा गया चिरागों के हवाले ,
हम आये हैं ,बांटने उजाले !
चिराग सिर्फ रौशनी ही नहीं ,
हौसला भी देता है ,
सच के हक़ में फैसला भी देता है
सुनील जैन
0000000000000
संध्या चतुर्वेदी
त्यौहार तो सिर्फ बहाना है।
बस रोशन घर और
परिवार को करना है।।
मिठास दिलों में बढ़ाना
ही दीवाली है।
दीप प्रज्वलित कर के
किसी गरीब के घर को
भी रोशन करना है।
विरोध करो दिखावे का
किसी गरीब को कुछ
तोहफा दे कर,
कुछ दुआएं भी
साथ ले आये।।
एक दीवाली ऐसी भी मनाये।।
रंगों से अपने घर सजाओ।
फिर जगमग जगमग दिये जलाओ।।
पटाखों से दूरी रख के
पृथ्वी को स्वच्छ बनाओ।
ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण से वातावरण को बचाओ।
एक दीवाली ऐसी भी मनाओ।
अपनी गली,मोहल्ले को भी साफ रखों।
सभी को प्रेम से गले लगाकर कुछ मीठा खिलाकर,
दीवाली का शगुन मनाओ।
एक दीवाली ऐसी भी मनाओ कि
किसी का दिल ना दुखाओ।
अपने दिलों के मैल भी मिटाओ।।
एक दिया शहीदों के नाम का भी जलाओ।
एक दीवाली ऐसी भी मनाओ।।
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
000000000
शालू मिश्रा
" ये कैसा रामराज्य है "जो सारी धरती का स्वर्ग कहलाता है कश्मीर,
दहशत की आग में आज जलता जा रहा है ।
उद्योगों से सज रहे है देखो अनेको नगर,
गंगा का पावन जल अमृत से विष बनता जा रहा है ।
बेरोजगारी से तंग आ गया है बेरोजगार,
यहाँ हर इंसान प्रदूषण से खोखला होता जा रहा है ।
पुरखो से राम राज्य का पाठ पढा है हमने,
जहाँ गण और तंत्र आपस में लङे जा रहा है।
पापी रावण का आज भी हो रहा है रथ पे गुणगान,
आज भी रावण प्रजा को नित रुलाये जा रहा है।
कभी अपनाते थे राम के आदर्शो को सब,
वहाँ शहीदो का आँकङा आज बढ़ता जा रहा है।
कितने ही मंदिर बनवालो तुम राम भगवान के,
पहले जैसा राम राज्य ना फिर आ पाएगा।
इस कलियुग की हैवानी दुनिया में,
कौन सच्ची इंसानियत को जगा पाएगा।
===============
युवा कवयित्री
शालू मिश्रा, नोहर
(हनुमानगढ़) राजस्थान
000000000000
विनय कुमार शुक्ल
जीवन का पथ है कष्ट युक्त
फिर भी तू आगे बढ़ता चल
काँटों से भरा तेरा पथ है
आगे फूलों सा पथ कोमल
कंकण- पत्थर हैं राहों में
इन राहों में भी है दलदल
परवाह न कर इन राहों की
आगे यह धरती समतल
कष्ट का यह पथ तुझको
देगा एक लक्ष्य अटल
मत डरना इन राहों से तुम
हो जाओगे ''विनय'' सफल
"विनय कुमार शुक्ल"
ग्राम-टिकरी
पोस्ट-मझगावा(गगहा)
गोरखपुर(उ.प्र)
000000000000
प्रिया देवांगन "प्रियू"
दिवाली मनायेंगे
***************
चलो जलायें दीप साथियों , मिल कर खुशियाँ मनायेंगे।
एक एक दीप जलाकर हम , अंधियारा दूर भगायेंगे।।
गली मुहल्ले साफ रखेंगे , कचरा नहीं फैलायेंगे।।
स्वच्छ वातावरण रहेगा , मिलकर दीप जलायेंगे।
नहीं लगायें झालर मालर , एक एक दीप जलायेंगे।।
दीपक की रौशन से हम , घर घर को सजायेंगे ।
खूब खायेंगे खील बताशा , दिवाली मिलकर मनायेंगे।।
आतिशबाजी बड़े करेंगे , फुलझड़ी बच्चे जलायेंगे।
मिलकर सब खुशियाँ मनाये , एक एक दीप जलायेंगे ।।
---
पेड़ लगायें
************
चलो चले एक पेड़ लगायें ।
पेड़ लगाकर पर्यावरण बचाये।।
पेड़ो से मिलती है शुद्ध हवा।
शुद्ध हवा हर रोग से बचाये।।
मीठे मीठे फल लगेंगे।
रंग बिरंगे फूल खिलेंगे।।
बागों में हरियाली होगी ।
चारों तरफ खुशहाली होगी ।।
शुद्ध वातावरण मिलेगा ।
राही को छांव मिलेगा ।।
--
ठंड का मौसम
****************
ठंड का मौसम आया है ।
साल और स्वेटर लाया है।।
बिस्तर से न उतरे हम।
चादर रजाई ओढे हम।।
सबको धूप का है इंतजार ।
कहा गये सब पंछी यार।।
किट किट करते दांत सभी का।
आंख न खुले सुबह किसी का।।
गरम पानी जी सबको भाये।
ठंड़ा कोई हाथ न लगाये ।।
दादी अम्मा आती है।
चूल्हे को जलाती है।।
सभी सेंकते अपने हाथ ।
मिलजुल कर रहते साथ ।।
--
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया
जिला - कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
Priyadewangan1997@gmail.com
000000000
अविनाश दुबे
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
इश्क के सरताज मिले
एक प्रेम कहानी,दो ऐसे हमराज मिले
जो मिट तो गए पर फिर भी मिट न पाए
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
एक सबक एक सबब मिले
ताजमहल की रूहानी यादे,शाहजहां ए मेहबूब मिले
सबके इस्तकबाल का दर एक घर
दिदार ए हुस्न ताजमहल शबाब मिले
जो मिट तो गए पर फिर भी मिट न पाए
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
मेरी मोहब्बत के शुरूआती दौर भी इसी दहलीज से होके गुजर मिले
जहा से हम गुजरे वहा से वो गुजर मिले
हाथो की लकीरो मे नाम लिख लाए,तकदीर एक शाम लाए
आखो ही आखो मे,इशारो मे जैसे राहगीर रहगुजर मिले
जो मिट तो गए पर फिर भी मिट न पाए
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
हम मोहब्बत के जब सौदागर मिले
एक मोड़ मिले कुछ इसकदर मिले
अंजान इश्क की दहलीज मे जब पाव पड़े
ना हमे खबर ना उन्हे खबर मिले
जो मिट तो गए पर फिर भी मिट न पाए
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
अश्क बहता रहा छिपाते नजर मिले
बैठ करीब हमनफ़स से,आखो मे किस बात का असर मिले
पुछ बैठे हम भी उनसे क्या हुआ तुम्हे
क्यो इतने बेचैन हालत,जवाब बेखबर मिले
जो मिट तो गए पर फिर भी मिट न पाए
हमे ऐसे इश्कबाज मिले
~अविनाश दुबे
गोंदिया महाराष्ट्र
0000000000000
विकास परमार "वीरा"
। गौ संवेदना ।
गोपालक की दिव्या धरा पर ये केसा घोटाला है,
दुध देती गाय छोड़कर सबने डॉगी पाला है।
गाय चराना शर्म समझते, कुत्तों के संग शान है,
दरवाज़े पर बोर्ड लगा हे, कुत्ते से सावधान रहें।
गौ माता का दौर गया, अब कुत्तों का दौर है,
प्यारे बछड़े चुप रहना, अब पिल्लौ का शोर है।
गायों का अहसान नहीं पर, कुत्ते वफ़ादार हैं,
मानव घर के बाहर रहता, कुत्ते चौकीदार हैं।
अब न रहती गन्वै घर में और गायों का बाढा भी,
खा गए सारी गौचर भूमि और गायों का चारा भी।
कुत्ता सच्चा दोस्त है लेकिन, गाय तो मेरी माता है,
सड़क पर मरती गाय को भी, कुत्ता ही तो खाता है।
माँ को घर से बाहर रखा और यारों को बिस्तर में,
जिन कुत्तों को समझ नहीं माई,बीवी,सिस्टर में।
दुध पिया होता माँ का तो समझ जरा बड़ी होती,
कितना अच्छा लगता यारों हर घर गाय खड़ी होती।
चलो शहर की समझ में आती, गाँवों में क्या रक्खा है,
देव दूत को छोड़ सभी ने, महिष को पाल रक्खा है।
गायों को कटने भेजा और भेसौ का व्यापार करा,
कामधेनु के शिवशंकर पर, अब असूरी का दुध चड़ा।
गौ माता सब भूलगए COW COW करते हैं,
न गायों को रोटी है और पंछि भूखे मरते हैं।
चाहे जितना अन्न उगालो, फिर भी ये सन्ताप रहे,
भूखे मरती इन गन्वौ का हर मानव को श्राप रहे।
करले जितना जुल्म हे करना और चलने जितने दांव तुझे,
मन करता है फिरभी मेरा, दे सकती ना घाव तुझे।
हे मनु की वंश वाहिनी, तू सदा यूँही धनवान रहे,
अपनी माँ सम्भली न इनसे, गौ माता क्या ध्यान रहे।
मैं जो मिट जाऊँ धरती से, सुखी मेरी सन्तान रहे,
मैंनें दुख झेला जीवन में, इनसे वो अनजान रहे।
ओ खुशियों से रहने वाले, तेरा ये अहसान रहे,
घर-आँगन से छोड़ा मुझको, तेरा देश महान रहे।
घर-आँगन से छोड़ा मुझको, तेरा देश महान रहे,
इस दूनियाँ मे सबसे ऊंचा भारत देश महान रहे।
देवकीनन्दन हे कृष्ण कनाही तेरा ये वरदान रहे,
जबतक रहे ये धरती,नभ से ऊंचा मेरा हिन्दुस्तान रहे।
*"वीरा":*
क्यों चाहिए एसी शोहरत,
जो चले सिर्फ़ शाम तक
क्यों न पहचान सके कोई,
आपका रुतबा-ए नाम तक
करके वादे जो पलट जाये,
ऐसे गुमान का क्या करें "वीरा"
झूठ आकर न रुके जिस जुबान तक । 1 ।
पहचान मिली हो तो समझ आता है
हर शख़्स क्यूँ झूठ पर इतना इतराता है
जिसनें कमाई हो शोहरत अपने दम पर
उसका तो चहरा ही अलग नज़र आता है
अक्सर हम लोगों को यूँ लगता है "वीरा"
खुद को छोड़, सब कामयाब नज़र आता है । 2 ।
इतना क्या पागल होना 'अर्श' को देखकर
क्यों 'कीचक' को उठाना पानी फैंक कर
जब तक न मिले पहचान मेरे फ़न को "वीरा"
क्यों पलट जाना किस्मत का पासा फेंककर । 3 ।
बेवजह नहीं करना बर्बाद समय अपना
देखकर सोते में अबुझ एक सपना,
पंछियों का घरोंदा कब अपना होता है
उड़ने का तो उनका पैदाइशी हुनर होता है
किश्तियाँ डूब जाती, आकर उनकी किनारे "वीरा"
बिच मझधार में जो पतवार बदल लेता है । 4 ।
उनकों लगता है कि हम बड़े निखर रहे हैं
क्या बताएं उनको किस दौर से गुजर रहे हैं
ये निखार तो मेरे यार का अक्स है "वीरा"
हम तो बस उसके साये से निखर रहे हैं । 5 ।
।। ऐसे नेताजी को मैं नेता नहीं मानता ।।
चुनाव के दिन,
नेता की बात
ओर गधे की लात,
कब पलट जाए कोइ नहीं जानता।
ऐसे नेताजी को मैं नेता नहीं मानता,
जिनका दिन दरिया,
ओर रात समंदर है
कभी बाहर, कभी जेल के अन्दर हैं,
जो व्यक्ति खुद को नहीं पहचानता।
ऐसे नेताजी को मैं नेता नहीं मानता,
चुनाव तक प्रचार में,
आधा दिन समाचार में
जो न मित्र मे, न यार में,
जिनकी कोई शक्ल-सूरत नहीं जानता।
ऐसे नेताजी को मैं नेता नहीं मानता,
जिनका एक ही करम,
कोई जात न धरम
न लाज न शरम,
जो पूजा और इबादत नहीं जानता,
ऐसे नेताजी को मैं नेता नहीं मानता,
मतदान तक साथ में,
परिणाम की रात में
सुबह किसकी बरात में,
यहाँ कैसे ? कौन हो तुम, मैं नहीं जानता।
मेरा तो ठीक है, आप लोगों का नहीं जानता।
ऐसे नेताजी को "वीरा" नेता नहीं मानता।
विकास परमार "वीरा"
इन्दौर, मध्यप्रदेश
ईमेल -: Vikasparmar860@gmail.com
0000000000000
मंशू भाई
हां मै बागी हूं
हां मैं बागी हूं !
दुश्मन का सर मुड़ दूं ऐसा त्यागी हूं
हां मैं बागी हूं !
किस्मत ही कुछ ऐसी है कि मैं बागी हूं
हां मैं बागी हूं !
समाज की कुरीतियों से मैं सीखा हूं
शासन सत्ता के क्रूर-चक्र से मैं जागा हूं
हां मैं बागी हूं !
फूल था और था मैं कांटों से अन्जान
देश के लुटेरों ने बना दिया मुझको शैतान
हां मैं बागी हूं !
गरीबों असहाय और इमानदारों का नेता हूं
चोरों का चोर और डाकूओं का सरताज हूं
हां मैं बागी हूं !
कसम भवानी की मैं लुटेरों का लुटेरा हूं
ईमानदारों का रक्षक बेईमानों का भक्षक हूं
हां मैं बागी हूं !
था मैं बालक सीधा-साधा,प्यारा और नादान
समाज ने बना दिया मुझको ददुआ और सुल्तान
हां मैं बागी हूं !
अब यही है तमन्ना मेरी और यही है पैगाम
संभल जाओ ऐ गद्दारों जीना कर दूंगा हराम
हां मै बागी हूं !
जुल्मों के कहर को मैं मिट्टी में मिला दूं
जो मांगते फिरते सदा खुशहाल नए सवेरे कि,
आसमां पर एक दीपक मैं उनके लिए जला दूं
हां मैं बागी हूं !
दुश्मन का सर मुड़ दूं ऐसा त्यागी हूं
हां मैं बागी हूं !
---
आया रे आया रे आया रे,
हरियाली का दिन आया रे,,
जीवन को खुशहाल बनाने आया रे ,
ऋतुओं का ऋतुराज आया रे,,
खुशहाली का मौसम लाया रे।-1
इस मौसम का क्या है कहना,
क्या है तेरे मेरे बीच का रैना,,
दिलों को दिलों से मिलाने आया रे।-2
उपवन को महकाने आया रे,
सालों से गुम आवाज सुनाने आया रे,,
खुशहाली का मौसम लाया रे।-3
फलों का फलराज आया रे,
हिन्दी संवत का अन्तिम माह आया रे,,
ऋतुओं का ऋतुराज आया रे।-4
--
मंशू भाई
00000000000
आदित्य राठौर
एक नन्ही चिड़िया उड़ना चाहती है।
आसमानों को छूना चाहती है।
दरियाओं मे गोते लगाते हुए।
आगे बढ़ना चाहती है।
एक नन्ही चिड़िया उड़ना चाहती है।
फिर ना जाने क्यों समाज के द्वारा ।
पिंजरे मे बंद कर दि जाती है।
नन्ही चिड़िया....
घुटन तो होती होगी उसको भी ।
पर समाज को कहां ये बात समझ आती है।
नन्ही चिड़िया
क्यों नहीं वो साहस दिखा पाती है।
क्योंकि हर आजादी उस से छीन ली जाती है।
नन्ही चिड़िया
वो भी एक इंसान है।
आजादी पाना चाहती है।
फिर क्यों उसकी खुशी उस से छीन ली जाती है।
नन्ही चिड़िया ..
आदित्य राठौर
0000000000000
कवि डीजेंद्र कुर्रे
मांममतामई मां तुझ पर जान न्योछावर है।
एक झलक पाने के लिए नयन तरसे हैं ।
तू छोड़ कर कहां चली गई मां ,
तेरी यादों के सहारे हूं ।
सांसे केवल चल रही मां,
शरीर निर्बल लिए बैठा हूं ।
मां चीखती चिल्लाती है,
काम कर के बोझ उठाती है ।
पेट भरती,पानी पीती,
फुटपाथ में सो जाती है ।
बच्चों की जुदाई में ,
रो-रो कर बेहाल हो जाती है ।
काम में शहर की ओर जाता हूं ,
जाकर वहां मां से मिल जाता हूं ।
चूमती चाटती मां सीने से लग जाता हूं ।
सारे टीस भुलाकर खुशी से झूम जाता हूं।
--
*धूप निकलने लगी है*
आओ आओ जी , धूप निकलने लगी है।
देखो देखो जी ,वृक्ष की पत्तियां हिलने लगी है।
मौसम की सुहाना बादल की मस्ताना,
प्रकृति ने अंगड़ाइयां लेने लगी है।
पक्षी की चहकना जी , मन को लुभाने लगी है।
मौसम की रंगत देखो जी, अब बदलने लगी है।
प्रकृति की नजारा मौसम का उजाला,
मनुष्यों को विटामिन डी देने लगी है।
धीरे-धीरे यहां का जी मौसम बदलने लगी है।
लोगों के जीवन में जी खुशियां आने लगी है।
मौसम अलबेला लोगो का प्यारा,
प्रेम की गोता में डूबने लगी है।
देखो जी सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पन्न होने लगी है।
हवा की लहरों से पवन ऊर्जा की महत्ता बढ़ने लगी है।
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आज का दिन है सुहाना ,मौसम अलबेला है मस्ताना। योग ध्यान करके दिन की शुरुआत कराना ।
निरोग रहकर स्वास्थ्य को अच्छा बनाना ।
आज का दिन है सुहाना ,मौसम अलबेला है मस्ताना ।हर कार्य को तन मन को लगाना ।
जीवन की संघर्ष को आसान बनाना ।
आज का दिन है सुहाना ,मौसम अलबेला है मस्ताना। खान पान को सादगी सरल बनाना ।
जीवन में आत्मीय गुण को जगाना ।
आज का दिन है सुहाना ,मौसम अलबेला है मस्ताना। आपस में प्रेम भाव को बढ़ाना ।
हंसता-खेलता जीवन को आगे चलाना ।
आज का दिन है सुहाना ,मौसम अलबेला है मस्ताना।
*मेरी ताकत है कलम*
कलम से लिखना सीखा हूं ।
लिखकर पढ़ना सीखा हूं ।
मेरी ताकत है कलम ।
लिख कर पढ़ना पढ़ कर लिखना ।
और याद करना सीखा हूं ।
मेरी ताकत है कलम ।
कलम की सहायता से ही ,
परीक्षा में प्रथम आना सीखा हूं।
मेरी ताकत है कलम ।
12वीं ,बीएससी ,एम,ए ,कंप्यूटर डीएड।
ITI की पढ़ाई करना सीखा हूं ।
मेरी ताकत है कलम ।
इसी डिग्री की सहायता से ,
नौकरी पाना सिखा हूं।
मेरी ताकत है कलम ।
बच्चों को शिक्षा देना ,
कविता की रचना करना सीखा हूं।
मेरी ताकत है कलम ।
लोगों के बीच में पहचान बना ।
मेरी जीवन में खुशियां लाना सीखा हू।
मेरी ताकत है कलम ।
आज जो कुछ भी हूं ,
कलम की वजह से हूं ।
मेरी ताकत है कलम ।
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मेरी प्यारी बेटी नन्ही परी
मां की कोख में हिलती डुलती परी।
इंसान के मशीनों से घिरी।
आवाज़ों की पुकार ,पापा के दुलार।
संसार में आने की इंतजार करी।
मेरी प्यारी बेटी नन्ही परी।
हाथ का हिलना ,पैर का डुलना।
चिकती चिल्लाती रोती परी।
दूध को पीना,आराम करना।
हल्की हल्की गालो में मुस्कुराना।
सबको सुंदर लगती दुलारी।
मेरी प्यारी बेटी नन्ही परी।
गोलमटोल गाल उनका,
प्यारी प्यारी आंख ।
छोटे छोटे हाथ पैर उनके।
सुंदर सुंदर नाख।
पापा के पास चुपचाप रहती।
मम्मी को बहुत सताती।
मेरी प्यारी बेटी नन्ही परी।
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*मेरा पहला स्कूल*
मैं छोटा सा नन्हा ,प्यारा सा गुड्डा था।
खिलौने के लिए, मां को तंग करता था।
पापा मनाने मे,हर जिद पूरा करता था।
मेरा पहला स्कूल , मां पापा ही था।
जिसने 1,2,3, अ,आ, इ सिखाया था।
फिर स्कूल में,गुरुजी से मिलाया था।
गुरुजी ने " ईश विनय" पढाया था।
घर आने पर, मां खूब प्यार करता था।
दूध पिलाती, बालों को सहलाती ।
लोरी गाकर, मुझको मां सुलाती थी।
मेरी मां फूल है ,पापा श्री गणेश।
सबसे प्यारा अच्छा,मेरा भारत देश।
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*नेता बनना आसान नहीं*
नेता बनना आसान नहीं,पैसा बिना कुछ काम नहीं।
युवा बेरोजगार की बागडोर इन पर,
राजनीतिक के अलावा ध्यान नहीं किसी पर।
शिक्षा स्वास्थ्य की देखभाल इन पर,
परंतु दिशा दशा के झुकाव दूसरों पर ।
नेता बनना आसान नहीं,पैसा बिना कुछ काम नहीं।
पुलिया सड़क निर्माण का दायित्व इन पर,
चिंता नहीं जनताओ के हित पर।
बिजली पानी की जिम्मेदारी इन पर,
अपनी व्यवस्था के बाद ध्यान नहीं दूसरों पर।
नेता बनना आसान नहीं, पैसा बिना कुछ काम नहीं।
अनाज दलहन तिलहन का दायित्व इन पर,
ध्यान नहीं किसानों की दुर्दशा पर।
सामग्री उत्पादन एवं फैक्ट्री की दायित्व इन पर,
जीएसटी की मार आम जनताओ पर ।
नेता बनना आसान नहीं ,पैसा बिना कुछ काम नहीं ।
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*मातृभूमि की महिमा*
भारत माता भाग्य विधाता,तेरे चरणों में वंदन है।
तेरी कर्ज चुका न पाऊ,मेरा सादर अभिनन्दन है।
रज कण में खेले कुदे,इस मिट्टी की सौगंध है।
हम पर दया कर मां,तेरे चरणों में अभिनंदन है।
इस मिट्टी में जन्म लिए,हम आपके पुत्र पुत्री है।
हम सबकी माता आप,तेरे चरणों में अर्पण है।
नदी नाला पर्वत पठार ,और वन सम्पदा है।
सारे चीज को दिए मां,तेरे चरणों में समर्पण है।
शीश झुकाऊ तुम पर मां,सर्वस्व न्यौछावर करते हैं।
हम पर कृपा कर मां,
तेरे चरणों में अभिनंदन है।
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कवि डीजेंद्र कुर्रे (भंवरपुर बसना छत्तीसगढ़)
0000000000
भोलेनाथ यादव
बदलते परिवेश में बहुत कुछ बदल जाता है
कभी कभी उजाले को अंधेरा निगल जाता है
बड़ी अजीब सी है दास्तां संसार की
कभी -कभी समंदर भी दरिया से दहल जाता है
माना हम सह लेते हैं तेरे हर जुल्मों सितमको
मेरा दिल कभीकभी तेरे सतानेपे उछल जाता है
कैसा भरोसा करूँ मैं ऐ वक्त तेरे उपर
लोगों से सुना है कि तु भी अक्सर बदल जाता है
सच को इस जहां में इज्जत नहीं मिलती
नाथ तभी दबे पांव इस बस्ती से निकल जाता है
- नाथ गोरखपुरी
(भोलेनाथ यादव -एम एड1
दी द उ गो वि वि गोरखपुर
0000000000
सचिन राणा हीरो
" राम लला "
तम्बू में है मेरे राम लला,, मैं कैसे दिवाली मना लूं,,
आज भी घर से बाहर है वो,, मैं कैसे दिए जला लूं,,
लाज शर्म की सारी चादर,, नेताओं ने उतारी है,,
जो सबकी करते सुनवाई,, उन पर ही मुकदमा जारी है,,
राम नाम से सत्ता पाकर,, कुछ लोगो ने मुहं छुपाया है,,
मन्दिर बनाने वालो ने ही, उन्हें कचह़री पहुंचाया हैं,,
कण कण में श्री राम है रहते, ये सदा से सुनते आएं है,,
जो जज साहब उनका प्रमाण है मांगे,, वो अक्ल कंहा धर आए हैं,,
हर हिंदू के मन मन्दिर में रहते है श्री राम जी,,
जो श्री राम के बन ना पाए वो डूब मरो श्री मान जी,,
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" करवाचौथ "
बिंदियां, चूड़ी, कंगन , पायल, सब कुछ नया मंगाया है,,
कुछ ऐसे ही सजनी ने करवाचौथ मनाया है,,
सुनहरे बालों को रंगवाया, आई ब्रो भी बनवाई है,,
फैशियल और ब्लिचिंग से चैहरे पर रौनक छाई है,,
अपने सजने सवंरने को, घण्टो ब्यूटी पार्लर में समय बिताया है,,
कुछ ऐसे ही सजनी ने करवाचौथ मनाया है,,
साड़ी नई मंगाकर के सखीयों को दिखलाई है,,
चूड़ी, पायल , बिंदियां सब साड़ी सगं मैच कराई है,,
नैल पेन्ट तक को साड़ी के रंग से मिलाया है,,
कुछ ऐसे ही सजनी ने करवाचौथ मनाया है,,
किसी उत्सव सी तैयारी करवाचौथ की होती है,,
हर त्यौहार से ज्यादा शापिंग इस त्यौहार में होती है,,
पूरे साल पर ये एक दिन भारी, ये स्वंय को समझाया है,,
कुछ ऐसे ही सजनी ने करवाचौथ मनाया है,,
पति की लंबी आयु का ये व्रत बताया जाता है,,
पत्नि पति की रखवाली, ये सबको समझाया जाता है,,
पति पत्नि की साझेदारी, जीवन भर चलनी है,
इस दिन सजनी गुस्सा ना हो, ये कोशिश भी करनी है,,
सच बोलूं तो उसके प्रैम से मेरा मन हर्षाया है,,
कुछ ऐसे ही सजनी ने करवाचौथ मनाया है,,
सचिन राणा हीरो
" हरियाणवी युवा कवि रत्न "
मधुमिता घोष
तुम जल्दी आना (०१)
*****************
चाँद तुम जल्दी आना
आज न देर लगाना
सुबह से किया है तेरा इंतजार
भूख प्यास से हूँ बेकरार
अब और मुझे न तड़पाना
चाँद तुम जल्दी आना
जब तक तू न आयेगा
मन मेरा घबराएगा
तब तक न आयेगा करार
जब तक न करूं छलनी से
साजन का दीदार
पिया मिलान की आस
अब देर न लगाना
चाँद तुम जल्दी आना
हाथों में मेहंदी रचाये
थाल में करवा सजाये
रहूँ सदा मैं सुहागन
ये वरदान दे जाना
चाँद तुम जल्दी आना
पिया से ही मेरा श्रृंगार है
पिया से ही मेरा प्यार है
जन्मों जन्म रहे साथ पिया का
ऐसा वर तुम दे जाना
चाँद तुम जल्दी आना
*******************
मधुमिता घोष (शिक्षिका)
ग्राम - भदार , जनपद- राजपुर
जिला -- बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
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अजीब यादें......(०२)
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यादें भी कितनी अजीब होती हैं
वक़्त बेवक़्त आ जाती हैं
पर जब भी आती हैं
या हंसाती हैं या रुलाती हैं
ले जाती है उस जहां में
जो कभी हमारा था
जगा जाती है वो सपने
जो कभी हुआ न पूरा था
मन कभी तरुण हिरण सा
उमंगों के कुचालें भरता है
और कभी वृद्ध की तरह
हर पल आहें भरता है
पर जब भी बचपन की
यादें ताजा होती हैं
पलकें झपकना भूल कर
सपनों में खोती हैं
बचपन के दोस्त
बचपन का खेल
इतना याद आता है
भूल जाती हूं कि
मैं बड़ी हो गई
दिल बच्चा हो जाता है
जब भी यादें आती हैं
दिल को सुकूँ और
आंखें नम कर जाती हैं
यादें भी कितनी अजीब होती हैं
------- मधुमिता घोष (शिक्षिका)
ग्राम--भदार ,जनपद-- राजपुर,
जिला-- बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
-------------------/----------------------
आजाद परिंदे (०३)
............................
मैं आजाद परिंदा हूँ,
मुझे आजाद ही रहने दो,
कतरो न मेरे पंख,
मुझे अभी और उड़ने दो।।
बन्दिशों की बेड़ियाँ,
न डालो मेरे पांव में,
ख्वाहिशों के बोझ तले,
मुझे अब और न दबने दो।
मैं आजाद परिंदा हूँ,
मुझे आजाद ही रहने दो।।
रश्मों रिवाजों की डोर,
तोड़ मुझे आज उड़ना है,
खुले आसमां तले,
सपने मेरे सजने दो।
मैं आजाद परिंदा हूँ,
मुझे आजाद ही रहने दो।।
छूना है मुझे आज,
ऊंचाइयां बुलन्दियों की,
कटाक्ष भरे अपने तीर,
आज तरकश में रहने दो।
मैं आजाद परिंदा हूँ,
मुझे आजाद ही रहने दो।।
तुम्हारे नजरिये ने,
मेरे हौसले सदा पस्त किये,
उमंगों से भरे इरादों को,
नई डोर संग उड़ने दो।
मैं आजाद परिंदा हूँ,
मुझे आजाद ही रहने दो,
कतरो न मेरे पंख,
मुझे अभी और उड़ने दो।।
---- मधुमिता घोष (शिक्षिका)
ग्राम ---भदार , जनपद --राजपुर
जिला बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
000000
गीता द्विवेदी
मैं अपने ग्राम में रामदरबार देखती हूँ
---------------------------------------------
अश्विन महिने में भक्ति के , रंग हजार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में , राम - दरबार देखती हूँ ।
बहू हूँ मैं यहाँ की , सो छिपते - छिपाते जाती हूँ ,
घुंघट नहीं सरकती , मर्यादा भी बचाए जाती हूँ ,
फिर हर्षित हो राम - सीता का श्रृंगार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
बच्चे - बूढ़े सभी में , उत्साह बड़ा भारी है ,
चूल्हे जले हैं जल्दी , रामलीला की तैयारी है ,
एक माह तक , अनोखा त्योहार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
अभिनय करने वाले भी , सभी मेरे अपने हैं ,
ये उत्सव सफल हो , सब ये कामना करते हैं ,
चूड़ी , साड़ी , और धोतियों का ,उपहार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
भेदभाव भूलकर सब , यहाँ दौड़े चले आते हैं ,
देव गण भी निज धाम से ,अविलम्ब चले आते हैं ,
दर्शन को लालायित नयन , हजार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
सुख की वर्षा यहाँ , अनवरत होती रहती है ,
स्वर्ग की चाह कभी , किसी को नहीं रहती है ।
हर हृदय में राम के प्रति , प्रेम अपार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
--
शायद वो आती होगी
--------------------------
शायद वो आती होगी ,
गागर जल की छलकाते हुए ।
कुसुम कली सी चटकी होगी ,
चंद्र किरण सी छिटकी होगी ,
कुछ इठलाते कुछ शरमाते ,
धानी सी गंध बिखराते हुए ।
शायद वो आती होगी ,
गागर जल की छलकाते हुए ।।
बाबा की दुलारी , अम्मा की लाडली ,
बन के चिरैया चहकी होगी ,
गोद में लिए चंचल गिलहरी ,
श्यामा गौ सहलाते हुए ।
शायद वो आती होगी ,
गागर जल की छलकाते हुए ।।
कभी पनघट पर अठखेली ,
कभी सखियों संग आँख - मिचौली ,
हिरणी सी कुलांचे भरती ,
झांझरिया झनकाते हुए ।
शायद वो आती होगी ,
गागर जल की छलकाते हुए ।।
...............................गीता द्विवेदी................
मेरे पैतृक ग्राम में लगभग ७० शाल से रामलीला का आयोजन "आदर्श रामलीला संघ -हरला" के तत्वावधान मे प्रति वर्ष आयोजित होता है । जहां उक्त ग्राम के युवा ही नहीं बल्कि बड़े बुजुर्ग ही अभिनय करते हैं । रामलीला का आयोजन अश्विनी माह किया जाता है । जो रामजन्म से लेकर राम राज्याभिषेक तक की जाती है । रामलीला पुरे एक माह चलती है । आयोजन सौहार्दपूर्ण मनाया जाता है । सायं सात बजें से रात्रि दो बजे तक सम्पन्न होती है । ग्राम हरला ही नहीं बल्की आस पास के ग्राम सागर, रवन, रेही, जगदीशपुर, महूआरी ,बाधी, जागेबरांव, के ग्रामीण जन, दीर्घा में बैठकर रामलीला का आनंद उठाते हैं । एक सचाई यह भी है कि ग्राम में किसी बात को लेकर आपसी रंजिश भी हुआ है तो भी उस दौरान भूल कर स्थानीय लोग रामलीला के पात्र बन कर पाठ करतें हैं। जिसका परिणाम यह देखने को मिलता है कि दो चार माह पूर्व जिससे बातें नहीं करतें थें वो रामलीला के मंच पर रामायण की चौपाईयों का सम्बांद करते है ।
रामलीला देखने सभी वर्ग समूदाय जाती धर्म के लोग आते है महिला पुरुष ग्राम की बेटी बहू भी रामलीला देखने आते हैं पर भगवान श्री रामचंद्र की कृपा से मेरे कानों में आज तक कोई अप्रिय घटना सूनने को नहीं मिला है । इसी लिए मै कहती हुँ कि आज भी मेरें गांव में रामदरबार सजता है । मेरा ग्राम में रामराज्य जैसा महौल रहता है ।
गीता द्विवेदी
0 0000000000
चंचलिका
" शरद पूर्णिमा और तुम "
मेरे जोगी !
सब कहते थे
शरद पूर्णिमा की
सोलह कला पूर्ण
चंद्रमुखी हूँ मैं.....
तुम संग मेरी पहली
शरद पूर्णिमा की याद
खूब है मुझे......
डरी, सहमी सी
कुंठामयी वो षोड़सी ,
तुम्हारे सान्निध्य से
कहीं ज़्यादा बादलों की
ओट में छुपकर बस
तुम्हें निहारती रही.
अपने योगी पुरुष की योग में
शामिल होती रही....
हाँ , दूसरी शरद पूर्णिमा में......
एक आकांक्षा लिए
प्रत्याशी बन तुमसे
सान्निध्य चाहती रही
जो तुम्हारी आँखों में
न दिखी और मैं
सिमटने लगी
अपने आप में
तुम्हारी अनुयायी बनकर
और तुम बस धुनि
जलाये महायोगी
बन मंद मंद
मुस्काते रहे.....
इस तीसरी
शरद पूर्णिमा में
तेरे घर आँगन की
मैं लक्ष्मी बन बैठी ।
एक धीमी धीमी
सुलगती चिंगारी
सुलग रही है अब भी
तन मन में मेरे...
जिसे जब चाहे
अपने स्निग्ध प्रेम से
सुलगा लेना....
तेरा योगी रुप
अलौकिक छटा
मेरी आँखों से उतर कर
मेरे मन - मानस को
तुष्ट करती है .....
कभी मैं न
बन पाऊँगी मेनका
न ही रम्भा जो तेरे
योग को भंग करुँ...
ले तू आज वचन ले ले
चौथी शरद पूर्णिमा में
तेरे संग संग मैं भी
जोगन बन जाऊँगी
तेरे इस अलौकिक प्रेम में .....
---- चंचलिका.
00000000000
आशुतोष मिश्र
चाँद-चाँदनी
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अमावस जाएगी पूनम होगी
बिखरे गा चाँद मुस्कराती चाँदनी होगी।
एक दिन पहुँचेगे मुकाम पर
दुनियामेरी दिवानी होगी।।
सुख मे जो अतीत व्यतीत हुआ
उसकी न कोई निशानी होगी।
भाग्य को न कोस सफलता की
स्वयं लिखनी ये कहानी होगी।।
यदि हवाओं से किनार लोगे
फिर जीत तूफानी होगी।
प्रकृति को ही बस
बात अपनी बतानी होगी।।
वह रात जरूर आएगी
जब सुबह सुहानी होगी।
जँग जिदगी वही है
जो जीत इन्सानी होगी।।
गुजरेगा पतझडी जमाना
अब ऋतु मस्तानी होगी ।।
बिखरेगा चाँद फिर
मुस्कराती चाँदनी होगी।।
--
रेड लाइट एरिया
यह वह स्थान है विश्व में जहां
इन्सानियत शर्मसार होती है।
इस काल के गढ्ढे मे पडकर के
बेटियाँ बिना आंसू के रोती हैं।।
छोटी-छोटी गेंद खेलने वाली
बेटियाँ खरीद के लाई जाती हैं।
पूरी जिंदगी वह यहीं पर बस
रो रो कर गुमनाम बिताती हैं।।
मध्य काल मे मुगलों ने इन
कुकर्मो को गुलज़ार किया।
फिर बाद मे आकर अंग्रेजों ने
इसको एक नया आकार दिया।।
मध्यकाल से यह अबतक भी
अनावृत हैं लगातार चल रहे।
1956 के एक कानून के तहत
इनको लाइसेंस हैं मिल रहे।।
1986 मे हुए थे कुछ संशोधन
वह भी साबित हुए झुनझुना।
शरीरिक मोल यहां पर गीत
राजनैतिक दिनभर रहे गुनगुना।।
आज महानगरों से चलकर के
यह कस्बों तक हैं पहुंच गये।
इनको रोकने हेतु न किसी ने
कोई कहीं कभी इंतजाम किए।।
बहकावे मे फंस यहां आकर
के ताउम्र वह कलंक ढोती हैं।
इस काल के गढ्ढे मे पडकर के
बेटियाँ बिना आंसू के रोती हैं।।
आशुतोष मिश्र
तीरथ सकतपुर
72
दुष्कर्म का इतिहास
इस मानवीय कुकर्म का भारत मे
उद्भव सन् 725 ई0 मे हुआ था ।
जैसाकि मैंने चचनामा तथा अन्य
इतिहासिक पुस्तकों मे पढा था।।
इसी समय मोहम्मद के वंशज का
गुलाम बिन कासिम भारत आया।
जिसने पंजाब सिंध ब्राहमानावाद
मे था भयंकर लूट - पाट मचाया।।
यह फल मिला था श्री दाहिर को
जो उसने खलीफा को बचाया था।
एक क्रूर व्यभिचारी शासक को
नीति धर्म न्याय जो सिखाया था।।
मुहम्मद बिन कासिम ने श्री दाहिर
जी की बेटियों संग कुकर्म किया।
सांप निकला वह आस्तीनी जिसको
राजा ने बच्चा समझ छोड़ दिया ।।
फिर सारे राजाओं ने मिलकर के
भारत से खलीफा को भगाया था।
ऐसे उसे भगाया कि सदियों तक
कोई मलेच्छ रूख न कर पाया था ।।
सदियों बीत गये थे सुख शांति से
फिर मोइनुद्दीन चिश्ती को एक बार।
गजवा ए हिन्द सफल करने हेतु
पुनः चढा एक महाभयानक बुखार।।
उसने भारत मे मुहम्मद गौरी को
गजवा ए हिन्द हेतु बुलवाया था।
मोइनुद्दीन चिश्ती ने गौरी को लेकर
गुजरात फतह विचार बनाया था।।
गौरी ने चाल्लुक्य से लड़ने हेतु
एक मदद मांगी थी पृथ्वीराज से।
पृथ्वी एक गौभक्षी की मदद नहीं
करना चाहते थे आपसी संघर्ष मे।।
गौरी चाल्लुक्यों से पराजित हो
कर पृथ्वीराज जी से चिढ़ गया।
वो मूर्ख सारे कार्यों को छोड़कर
एक महा पुरुष से भिड़ गया।।
पृथ्वीराज ने मुहम्मद गौरी को इन
सत्रह युद्धों मे सोलह बार हराया।
हर बारी उसने कुरान की शपथ
खाकर के अपने आप को बचाया।।
सत्रहवें युद्ध मे जयचंद के संग मे
उसने धोखे से युद्ध जीत लिया।
इस्लाम न कबूल करने पर पृथ्वी
की आंखो को उसने फोड़ दिया।।
महारानी संयोगिता जी को उसने
अपने सैनिकों के आगे फैंक दिया।
माता जी अकेली लडीं राक्षसों से
आंच न कभी सतीत्व पर आने दिया।।
पृथ्वीराज जी की दोनो बेटियों से
चिश्ती करना चाहता था कुकर्म।
उन महान बेटियों ने मोईनुद्दीन से
राक्षस को मार बचा लिया था धर्म ।।
आज अजमेर शरीफ जाकर वहां
अब कई भारतीय मत्था टेकते हैं।
जिन्होंने चोट पहुंचाई है हमारी
संस्कृति को उन्ही को पूजते हैं।।
उधर पृथ्वीराज जी ने शब्दशब्दभेदी
बाण से मुहम्मद गौरी को मार दिया।
और हम लोग उन्हे ही इतनी आशु
भूले जिन्होंने हम पर उपकार किया।।
आशुतोष मिश्र
तीरथ सकतपुर
73
वह लड़की
सुन्दर सुशील सुशिक्षित एक
गुणवत्ता परिपूर्ण लड़की थी।
पिछले वर्ष विद्यालय मे जो
संग वो हम सबके पढती थी।।
हर समय वह विद्यार्थियों से
खूब शरारत किया करती थी।
जब हम उसको मोटी कहते
तो वह अति हमसे लड़ती थी।।
ऊपर बैठे प्रभु को सम्भवतः
मस्ती खुशी यह मंजूर न थी।
एक काला दिवस ऐसा आया
शादी पक्की हो गई उसकी।।
शादी पक्की होनी उसकी मैं
भाग्य समझूं या फिर दुर्भाग्य।
क्योंकि यह रिश्ता हुआ था
एक शूरवीर सैनिक के साथ।।
सीमा पर युद्ध जंग छिडी थी
वह जा था रहा लड़ने आज।
अभी तो दिवस दस हुए थे
बस वापस घर आए बारात।।
घर वालों के संग दुल्हन ने
भी नम आंखो से दी विदाई ।
अभी सबके कानों मे गूंज ही
रही थी ब्याह की वही सहनाई।।
अभी ब्याह की मेंहदी का
रंग भी नहीं सही से छूटा था।
जो आकर दुश्मन का कहर
उस शूरवीर क्यूं पर टूटा था।।
रो रोकर वो विधवा अब मृत्यु
भोज हेतु भोजन बना रही है।
हार श्रृंगार की आयु मे वह
विधवा की रस्म निभा रही है।।
क्या कैसे वह इस सदमे को
अब जीवन भर भुला पाएगी।
मान लो भी ब्याह जो जाएगा
परन्तु अब दोहाजू कहलाएगी।।
आज रो रो उसने हाल सुनाया
जो हंस हंस के बातें करती थी।
हमसे वो कितना पीछे छूट गई
जो आगे सीट पर बैठती थी ।।
अब वो चेहरा छुपा रही सुबह
-सुबह जो सबसे मिलती थी।
जरा सी बात पर सहम जाती
जो कभी किसी से न डरती थी।।
आशुतोष मिश्र
तीरथ
00000000000000
डॉ मयंक तिवारी
निरंकुश
अब तो बात रंग की है ।
जो करती फिजा को लाल है ।
गिले ना कोई शिकवे होते ।
जो आप मर्म बोलते ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप मीठा बोलते ।।
मोती भी तो गर्भ में थे ।
जो आप भेद ना खोल दे ।
सीप भी सोच ले गर्भ में क्या पालते ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप ज्योति भेज ते ।।
एक दोर जीत का था।
सबसे जीते चले ।
आपसे जो हार कर ।निरंकुश
अब तो बात रंग की है ।
जो करती फिजा को लाल है ।
गिले ना कोई शिकवे होते ।
जो आप मर्म बोलते ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप मीठा बोलते ।।
मोती भी तो गर्भ में थे ।
जो आप भेद ना खोल दे ।
सीप भी सोच ले गर्भ में क्या पालते ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप ज्योति भेज ते ।।
एक दोर जीत का था।
सबसे जीते चले ।
आपसे जो हार कर ।
फिर नहीं कभी चले ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप प्रीत जोड़ते।।
(डॉ मयंक तिवारी)
फिर नहीं कभी चले ।
यू निरंकुश भी नहीं होते ।
जो आप प्रीत जोड़ते।।
(डॉ मयंक तिवारी)
नरसिंहपुर म० प्र ०
000000000000
अशोक कुमार ढोरिया
मैं वायु हूँ
हर वक़्त,
प्रहरी की भाँति,
दिन रात,
जीव जगत की,
सलामती चाहकर,
निःस्वार्थ भाव से,
सेवा करती हूँ।
स्वार्थी मानव से,
जो हर पल,
कदम कदम पर,
नियम कायदे,
ताक पर रखकर,
प्रदूषण बढ़ा कर,
मेरा हुलिया
बिगाड़कर,
मुझे बर्बाद
करता रहा है,
मैं डरती हूँ।
हठधर्मिता से,
हर रोज,
नासमझी से,
स्वार्थवश,
मानव जब,
लाँघता है,
सीमा
तब मैं
मजबूर होकर,
विकराल रूप
धारण करती हूँ।
शांत सोय सागर को
उठा कर मैं,
अथाह पानी
लेकर संग में
कहर बरसाती हूँ,
बाढ़ बनकर,
सुनामी बनकर,
भूस्खलन करके,
अपार जान माल
का नुकसान करके,
रुद्र रूप से,
अपना
प्रतिशोध करती हूँ।
तूफान बनकर,
सबक सिखाने,
किसी पहर,
बिना सूचना के,
तोड़ फोड़ करती,
मानव को,
यह बताने,
प्रदूषित करने में,
मुझे कितना दर्द होता है
वर्ना,
विनाश करने से,
मैं भी डरती हूँ।
मैं आज,
मानव जाति से,
हाथ जोड़कर,
प्रकृति से,
छेड़छाड़ न करने की,
प्रार्थना करती हूँ।
परिचय:-
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
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इस तरह से रचनाकार का रेंज में और भी रचनाएं रचनाकारों की संकलित की जानी चाहिए जिससे अगली पीढ़ी को अच्छा संदेश दिया जा सके। रचनाकार रचनाओं को विविध आयाम देकर कुछ छंद बद्ध और कुछ बिना छंद के अच्छी रचनाएं आजकल सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर रहे हैं रचनाकार को ईश्वर का दूत माना गया है इसलिए मेरी राय यह है कि हमेशा रचनाएं सार्थक हों समसामयिक हों, संदेश पर रख क हो, अपनी संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप हो। मानव का कल्याण करने वाली हों। और जो सर्वग्राही हो।
जवाब देंहटाएं- सुख मंगल सिंह अवध निवासी