1-ग़ज़लः लोरी सुना रही है, हिंदी जुबाँ की ख़ुशबू रग-रग से आ रही है, हिन्दोस्ताँ की ख़ुशबू भारत हमारी माता, भाषा है उसकी ममता आंचल से उसक...
1-ग़ज़लः
लोरी सुना रही है, हिंदी जुबाँ की ख़ुशबू
रग-रग से आ रही है, हिन्दोस्ताँ की ख़ुशबू
भारत हमारी माता, भाषा है उसकी ममता
आंचल से उसके आती सारे जहाँ की ख़ुशबू
भाषा अलग-अलग है, हर क्षेत्र की ये माना
है एकता में शामिल हर इक ज़बाँ की ख़ुशबू
भाषा की टहनियों पे हर प्राँत के परिंदे
उड़कर जहाँ भी पहुंचे, पहुंची वहाँ की ख़ुशबू
शायर ने जो चुनी है शेरो-सुख़न की भाषा
आती मिली-जुली सी उसके बयाँ की ख़ुशबू
महसूस करना चाहो, धड़कन में माँ की कर लो
उस अनकही ज़बां से, इक बेज़बाँ की ख़ुशबू
परदेस में जो आती मिट्टी की सौंधी- सौंधी
ये तो मेरे वतन की है गुलिस्ताँ की ख़ुशबू
दीपक जले है हरसू भाषा के आज ‘देवी’
लोबान जैसी आती कुछ-कुछ वहाँ की ख़ुशबू।
2-ग़ज़ल:
सानी नहीं है कोई भी उसके शबाब का
हर लफ़्ज़ बेमिसाल है उसकी किताब का
कलियां उदास-उदास हैं गुलशन में आजकल
चेहरा भी उतरा-उतरा है अब तो गुलाब का
पढ़ने को यूँ तो उनकी मिली नेक-नामियाँ
आया न हाथ कोई भी सफ़्आ सवाब का
माँगा हिसाब अपनी वफ़ाओं का जब कभी
ज़ालिम ने फाड़ डाला वो खाता हिसाब का
जो रोकती थी पाँव को ज़ंज़ीर अब कहाँ
परदा ही जैसे उठ गया रस्मे-हिजाब का
वो बन सँवर के आ गए ‘देवी’ जो सामने
उड़ने लगा है होश क्यों आखिर जनाब का
3-ग़ज़लः
जब ख़लिश बेपनाह होती है
लब पे इक सर्द आह होती है
ज़िंदगी जिसको दर-ब-दर कर दे
मौत उसकी पनाह होती है
ज़ुलम होता है जब भी धरती पर
आसमाँ की निगाह होती है
इश्क का हश्र और क्या होगा
ज़िंदगानी तबाह होती है
पीठ पीछे बुराई की आदत
बद से बदतर गुनाह होती है
वो सराबों की ज़द में रहते हैं
जिनकी प्यासी निगाह होती है
निकले सूरत कोई उजाले की
रात लम्बी सियाह होती है
मिट गईं सारी चाहतें ‘देवी’
एक बस तेरी चाह होती है
5-ग़ज़ल
वो ही चला मिटाने नामो-निशाँ हमारा
जो आज तक रहा था जाने-जहाँ हमारा
दुश्मन से जा मिला है अब बागबाँ हमारा
सैयाद बन गया है लो राज़दाँ हमारा
ज़ालिम के ज़ुल्म का भी किससे गिला करें हम
कोई तो आ के सुनता दर्द-ए-निहाँ हमारा
हर बार क्यों नज़र है बर्क़े-तपाँ की हम पर
हर बार ही निशाना क्यों आशियाँ हमारा
दुश्मन का भी भरोसा हमने कभी न तोड़ा
बस उस यकीं पे चलता है कारवाँ हमारा
बहरों की बस्तियों में हम चीख़ कर करें क्या
चिल्लाना-चीख़ना सब है रायगाँ हमारा
कुछ पर कटे परिंदे हसरत से कह रहे हैं
‘देवी’ नहीं रहा अब ये आसमां हमारा
6-ग़ज़ल:
इम्तिहानों से गुज़री, खरी हो गई
उस की चाहत मेरी बंदगी हो गई
सोच उड़कर गई आसमां तक मेरी
उतरी धरती पे जब शायरी हो गई
मेरा बचपन जो बिछड़ा तो ऐसा लगा
ख़ुद की दुनिया मेरी अजनबी हो गई
सूखा-सूखा सा सावन गुज़र ही गया
ज़िंदगी एक प्यासी नदी हो गई
मन के आँगन में उस रूप की इक किरण
फैलकर दूधिया चांदनी हो गई
फिर ठहरता भी आखिर अंधेरा कहाँ
जब सहर हो गई, रोशनी हो गई
एक दूजे के ‘देवी’ सहारा हुए
दिल की जब दर्द से दोस्ती हो गई
8-ग़ज़ल
सुनते हैं कहाँ गौर से वो प्यार की बातें
रह जाती है घुटकर दिले-लाचार की बातें
जाते हैं इयादत को लिए साथ उन्हें जो
ख़ामोश सुना करते हैं बीमार की बातें
ख़ुद बोल उठीं जिनको तराशा किए शिल्पी
थीं ख़ूब कला और कलाकार की बातें
बच्चों को बलाओं से जो रखती हैं बचा कर
वो माँ की दुआओं में है इफ़कार की बातें
लिखते हैं बही-खाते जो सच- झूठ के ‘देवी’
क्या ख़ाक करें उनसे सदाचार की बातें
[इफ़कार= निर्जला व्रत]
9-ग़ज़ल
दर्द की तानें उड़ायेगी ग़ज़ल
इक अजब खुशबू लुटायेगी ग़ज़ल
जब भी आयेगी इधर बादे-सबा
नकहतें सहरा में लायेगी ग़ज़ल
हैं लबों पर गुल खिले मुस्कान के
फूल से नगमे सुनायेगी ग़ज़ल
नफ़रतों की मार से घायल हुए
प्यार का मरहम लगायेगी ग़ज़ल
टूटे रिश्तों से बढ़ी वीरानगी
जीस्त को गुलशन बनायेगी गज़ल
होंगी रौशन ये अंधेरी बस्तियाँ
जब भी ’देवी’ गुनगुनायेगी ग़ज़ल
10-ग़ज़ल
चांदनी रात में जब जश्न मनाया हमने
चाँद को रश्क ही करता हुआ पाया हमने
जब भी तूफ़ान में टकराई थीं मौजें हमसे
अपने सीने को ही साहिल था बनाया हमने
है शबे-ग़म की गली तंग, सहर दूर बहुत
नाउम्मीदी में उम्मीदों को जगाया हमने
इश्क की आग थी वो या कि तड़प का दरिया
जाम साहिल के लबों से जो चुराया हमने
मेरी मग़रूर अना झुक ही गई सजदे में
हाथ जब जब भी इबादत को उठाया हमने
है फ़रिश्तों की ज़बानों पे इसीकी चर्चा
कि मक़ाम अपना मुहब्बत में बनाया हमने
सामने ख़ुद को परखने की घड़ी जब आई
हाथ दुश्मन की तरफ़ पहले बढ़ाया हमने
झांक पाए न कहीं से भी वहाँ ग़म ‘देवी’
दर पे ख़ुशियों का कड़ा पहरा बिठाया हमने
11-ग़ज़ल
क्या मुकद्दर लेके वो पैदा हुआ है या ख़ुदा
कोई भी अपना नहीं जिसका, न कोई आशना
अजनबी सी अपनी सूरत क्यों नज़र आती मुझे
आईना देगा फ़रेब ऐसा, कभी सोचा न था
नाम के ही रह गए रिश्ते करें तो क्या करें
जो निभाए ही न जाएँ, ऐसे रिश्तों का भी क्या ?
देखना है उठती मौजों में सफ़ीने का नसीब
डूब जाए या किनारे जा लगे, किसको पता
आशियाँ बन-बन के ऊजड़े और फिर से बन गए
रुक सका रोके न ये जज़्बा कभी तामीर का
क्यों नहीं सुनती है ये मासूम कालियों की पुकार
किसलिए इठलाती फिरती आजकल ‘देवी’ सबा
12-ग़ज़ल:
हिस्सा था ख़ानदान का, उससे जुदा न था
पत्ता जुड़ा था शाख़ से जब तक गिरा न था
बचपन गया जो छोड़ के आया न लौट कर
शायद वो लौटने की डगर जानता न था
सूरज के साथ-साथ वो मेरा लगा मगर
अफ़सोस उसके ढलते ही साया मेरा न था
कांटे सदाबहार सफ़र में थे हमसफ़र
फूलों ने ऐसा साथ किसी को दिया न था
ग़म के हज़ार ख़ार थे उसमें खिले-खिले
ग़ुल एक भी ख़ुशी का चमन में खिला न था
सारे जहाँ को जीत के, हारा था मौत से
कुछ साथ अपने लेके सिकंदर गया न था
DEVI NAGARANI
Devi Nangrani
Sindhi Katha Sagar at:
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