व्यवस्था ने दाता को याचक बना दिया // घनश्याम भारतीय

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        कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत का किसान उसकी  रीढ़ है, फिर भी न जाने वे कौन से कारण हैं जिनके चलते न कृषि की उन्नति हो रही है और ...

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        कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत का किसान उसकी  रीढ़ है, फिर भी न जाने वे कौन से कारण हैं जिनके चलते न कृषि की उन्नति हो रही है और न ही कृषक सुदृढ़ हो पा रहा है। नतीजा यह है कि अन्नदाता की स्थिति हर रोज बद से बदतर होती जा रही है और हुकूमत उसे लॉलीपॉप थमा कर बहला रही है। सर्वाधिक चिंता यह भी है कि खुद को किसान का बेटा कहने वाले राजनेता कृषि और कृषक के हित को नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसे में सरकारों के पास किसानों के कल्याण और कृषि के सुदृढ़ीकरण के लिए सोचने का भी वक्त नहीं है। निसंदेह इस व्यवस्था ने ही उस किसान को आज याचक बना दिया है जिसे वास्तव में दाता होना चाहिए। कर्जमाफी कुछ देर के लिए राहत तो दिला सकती है परंतु कृषि समस्याओं के समाधान का यही एकमात्र विकल्प नहीं है। कुछ ऐसा भी होना चाहिए जिससे कृषि कार्य के लिए ऋण लेने वाला किसान हंसी-खुशी ऋण की अदायगी करे और खुद के किसान होने पर गर्व भी महसूस करे।

            खास बात यह कि देश की सर्वाधिक आबादी आज भी कृषि पर ही निर्भर है। यहीं से उन सारे लोगों को भी खाद्यान्न की उपलब्धता सुनिश्चित होती है, जिनका कृषि से कोई लेना देना ही नहीं है। जाहिर सी बात है कि व्यक्ति के पास कितना भी धन हो जाए, खाएगा तो अन्न ही। ऐसे में कृषि की उपयोगिता और कृषक का महत्व सर्वाधिक है। इसके बावजूद भी निराशा की स्थिति में आत्महत्या करने वालों में किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सबको अन्न उपलब्ध कराने वाला कृषक वर्ग निराशा से मुक्त नहीं हो पा रहा है। एक तरफ प्रकृति उससे रुठ रही है तो दूसरी तरफ सरकार की नीतियां उसका संरक्षण नहीं कर पा रही हैं। ऐसे में टूट जाने के बाद किसानों द्वारा आत्महत्या जैसा कठिन निर्णय लेना घोर चिंता का विषय है। वर्तमान में बढ़ती लागत के बाद भी उत्पादन का समुचित मूल्य न मिल पाना किसानों पर मानसिक दबाव का सर्व प्रमुख कारण है। सरकार किसानों की आय दोगुनी कर जहां उसका हित पूरा करने का दंभ भर रही है वहीं संपूर्ण सरकारी तंत्र का रवैया शोषकों वाला ही है। चाहे वह खाद, बीज, पानी का मसला हो अथवा उर्वरक व कृषि यंत्र की उपलब्धता का हो, या फिर उत्पादन की बिक्री का, सभी मामलों में किसान सरकारी मशीनरी के लिए दुधारू गाय ही बना हुआ है। जिसको छूट की आवश्यकता है उसकी चप्पलें दफ्तरों का चक्कर लगाते घिस जाने बाद उसके हिस्से सिर्फ निराशा ही आती है।

          येन केन प्रकारेण जब उसकी फसलों का उत्पादन हो भी जाता है, तब उत्पादित वस्तुओं के मूल्य बाजार में इतने निचले पायदान पर चले जाते हैं कि एक साल के घाटे से उबरने में उसे कई साल लग जाते हैं। दूसरी तरफ सरकारी क्रय केंद्रों पर की जा रही मनमानी कटौती से भी उसकी कमर  टूट रही है। सूखन के नाम पर भारी कटौती समस्या बनी है। कटाई-पिटाई व मड़ाई हुए महीने भर से अधिक का समय बीत चुका है तमाम धान क्रय केंद्रों पर किसान भटक रहे हैं और आढतियों के धान खिड़कियों से खरीद लिए जा रहे हैं। हार मानकर किसान सरकारी क्रय केंद्रों द्वारा अंदर से पोषित इन्हीं आढ़तियों के हाथों अपनी उपज औने पौने बेचने को विवश है। ऐसे में मूल्य वृद्धि का क्या मतलब रह गया। कमोवेश यही स्थिति गन्ना किसानों की भी है। ऐसे में पूँजीपति बिचौलिए मलाई काट रहे हैं और किसान खून के आंसू रो रहा है।

       हमारे देश में किसानों की कई श्रेणियां हैं। पांच प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो कुल कृषि योग्य भूमि के साठ प्रतिशत भाग के मालिक हैं। इनके पास विभिन्न स्थानों पर बड़े-बड़े फार्म हाउस हैं। किसानों का एक समूह ऐसा भी है जिसके हिस्से 3 एकड़ भूमि भी नहीं है। इन सबके बीच तमाम ऐसे भी किसान हैं जिनके नाम बस इतनी ही भूमि है कि वे अभिलेखों में भूमिहीन नहीं कहे जा सकते। तमाम ऐसे भी किसान हैं जो उन्नत साधन नहीं अपना सकते क्योंकि उनके पास ज्यादा लागत लगाने की क्षमता नहीं है। इन्हीं के बीच एक वर्ग वह भी है जिसके पास कोई भूमि ही नहीं है। यानी भूमिहीन होने की दशा में यह वर्ग भूमिधर किसानों के खेतों में मजदूरी करता है। इस समूह को कृषि मजदूर कहा जाता है। दुर्भाग्य यह कि जिनके खेतों में इस वर्ग के लोग काम करते हैं वे समुचित मजदूरी भी दे पाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में कृषि, कृषक और कृषि मजदूर तीनों की दशा हर रोज दयनीय होती जा रही है। रोजमर्रा की जरूरतों के साथ बच्चों की पढ़ाई, दवाई और शादी-विवाह पर आने वाले खर्च की व्यवस्था मजबूर किसान पर भारी पड़ रही है। ऐसे समय में जब लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा हो अन्य व्यवस्थाओं के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

         कृषि, कृषक और कृषि मजदूरों के कल्याण के लिए तमाम छोटे दल कृषि आयोग के गठन और कृषि को उद्योग का दर्जा दिए जाने की मांग लगातार करते आ रहे हैं, परंतु उक्त दिशा में अब तक कोई ठोस कदम न उठाया जाना भी कृषि के पिछड़ेपन का कारण है। इसके विपरीत सरकारें कर्जमाफी के अचूक हथियार से अन्नदाता को पंगु बनाती जा रही हैं। जो किसान कभी दाता हुआ करता था आज वह याचक बनता जा रहा है। कर्जमाफी ही इस समस्या का समाधान नहीं है। इसके लिए कृषि कल्याण के ऐसे तमाम उपाय तलाशने चाहिए जिससे उत्पादन तो बढ़े ही किसानों के चेहरे पर मुस्कुराहट भी फैल सके। इसके लिए संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता के साथ उत्पादन की बिक्री की बेहतरीन व्यवस्था होनी चाहिए। बेहतर यह होगा कि उत्पादित खाद्य वस्तुओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार सरकार और व्यापारियों के बजाय किसानों के पास हो। साथ ही किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी सीधे उनके खाते में दी जानी चाहिए। जानकार बताते हैं कि ऐसी व्यवस्था हुई तो हर किसान परिवार को प्रतिवर्ष लगभग पचास हजार आसानी से मिल सकेंगे। सब्सिडी की अब तक जो व्यवस्था है वह पूरी तरह बंदरबांट का शिकार है। कृषि विभाग के निचले कर्मचारियों से लेकर उच्च पदेन अफसरों तक सभी के उदर विशालकाय हो चुके हैं। किसानों को मिलने वाली सारी सब्सिडी यही उदरस्थ कर रहे हैं।

        करोड़ों अरबों की लागत से चलने वाले उद्योग कारखाने जब अंतिम सांसे गिनने लगते हैं तब जिस तरह सहायता और सुविधाओं के जरिए सरकार उन्हें बचाकर पुनर्जीवित करती है, उसी तरह लड़खड़ाती कृषि को भी बचाने की जरूरत है। ऐसा होने पर किसानों का आत्मबल बढ़ेगा। जब आत्मबल बढ़ेगा तब आत्महत्या की दर भी निश्चित रूप से घटेगी। जाहिर है कि फसल बीमा योजना भी चरमराती खेती किसानी को नहीं बचा पा रही है। वह तो बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए हितकर सिद्ध हुई है। साथ ही कृषि कार्य के लिए बैंकों द्वारा किसानों को दिए जाने वाले ऋण की जटिल प्रक्रिया के चलते किसान जब साहूकारों से मदद लेता है तो उसके ऋण से कभी मुक्ति नहीं मिल पाती। आत्महत्याओं का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है। सरकार बैंक से लिए गये कर्ज माफ कर रही है परंतु जो किसान आज भी साहूकारों के कर्ज के बोझ तले दबा है उसका क्या होगा ? वह ब्याज तो पानी की तरह बढ़ेगा ही।

          मेरे विचार से चुनावों में कर्ज माफी के एलान को जिस तरह एक बड़े हथियार के रूप में प्रयोग किए जाने की परंपरा चल पड़ी है, उससे राजकोष पर बोझ बढ़ेगा ही वास्तविक कृषक को इसका लाभ भी नहीं मिल पाएगा। यदि ऐसा ही होता रहा तो एक वर्ग ऐसा भी विकसित हो सकता है जो खेती के नाम पर बड़ा ऋण लेकर उसे माफ करवाने को धंधा बना ले। ऐसी परिस्थिति में कर्ज माफी के प्रपंच से निकल कर सरकार को चाहिए कि कृषि कल्याण की ऐसी योजनाएं बनाएं जिसमें प्रत्येक किसान का हित हो। जिसमें बाढ़, सूखा, अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की उपयुक्त व्यवस्था हो। यदि ऐसा हुआ तभी एक किसान पुनः दाता बन सकता है। अन्यथा उसे तो याचक बना ही दिया गया है।

                  घनश्याम भारतीय

           स्वतंत्र पत्रकार/ स्तंभकार          

               अंबेडकरनगर (यू.पी.)

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रचनाकार: व्यवस्था ने दाता को याचक बना दिया // घनश्याम भारतीय
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