(डॉ. रानू मुखर्जी) एक उद्देश्यपूर्ण जीवन लेखन - डॉ. रानू मुखर्जी हिन्दी साहित्य में डॉ. अंजना संधीर जी ने जो जगह बनाई है उसकी आधार भूमि ...
(डॉ. रानू मुखर्जी)
एक उद्देश्यपूर्ण जीवन लेखन - डॉ. रानू मुखर्जी
हिन्दी साहित्य में डॉ. अंजना संधीर जी ने जो जगह बनाई है उसकी आधार भूमि न केवल स्वदेश में साहित्य सृजन के क्षेत्र मैं से है अपितु अमरीका में रचित हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भी निर्मित है।.भारतीय चिन्तन तथा लेखन को भारतीय तथा वैश्विक परम्पराओं का अवगाहन कर, वे आपसी सांस्कृतिक मेल मिलाप के नए नए संबंध स्थापित करती रही है। व्यापक मानवीय सहानुभूति से जूडी होकर भी उनकी रचनाएं संवेदना की सब्ज जमीन से उगी कविताएं हैं। गुजरात विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में प्रथम श्रेणी, वहीं से “पेटर्न्स ओफ फिमेल्स सेक्सुआलिटी सोशिओ पर्सनल फैक्टर” विषय पर पी.एच.डी.। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में लेखन, इन भाषाओं में पत्रिकाओं का संपादन, अनुवादन और मौलिक कृतियों का प्रकाशन, मौलिक कृतियों में “बारिशों का मौसम”, “धूप छांव और आंगन”, “मौजे शहर”, “तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो” , “अमरीका हड्डियों में जम जाता है”, “अमेरीका एक अनोखा देश” (संदर्भ ग्रंथ), लर्न हिन्दी एंड हिन्दी फिल्म सोंग्स” न्युयोर्क इन्श्योरन्स कंपनी द्वारा दस हजार प्रतियों का वितरण, “स्पीक इन हिन्दी”, सीडी से अमरीका मैं हिन्दी का प्रचार। संपादन “प्रवासी हस्ताक्षर”, “सात समुन्दर पार से”, “ये कश्मीर है।”, “प्रवासिनी के बोल”, “प्रवासी आवाज”, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को गुजराती कविताओं का “आंख ये धन्य है। का हिन्दी अनुवाद। “स्वर्ण आभा गुजरात” गुजरात की १०० महिलाओं की हिन्दी में लिखी कविताओं का संपादन, “स्वर्ण कलश गुजरात” से पहली बर ४१ महिला कथाकारों की हिन्दी कहानियों का संपादित कहानी संग्रह। देश विदेश से अनेक साहित्यिक सम्मानों से विभूषित डॉ. अंजना संधीर की भारत और अमरीका में विशिष्ट पहचान है। ब्रिस्टन विश्वविद्यालय न्यू जर्सी, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्युयोर्क तथा स्टोनी बुक यूनिवर्सिटी में एक दशक से ज्यादा अध्यापन ।
विवाहोपरान्त अमरीका में जाकर भी अपनी मातृभूमि की स्मृति बराबर बनी रही। भारत की अस्मिता कभी दूर नहीं हुई। उनके भाव इस गजल से उजागर होते हैं ----
“निकले गुलशन से तो गुलशन को बहुत याद किया,
धूप को, छांव को, आंगन को बहुत याद किया ।”
अंजना जी की व्यापक मनोभूमि अनेक स्तरों पर एक साथ सक्रिय है – परम्परा, स्मृति, संस्कृति जहाँ एक और अनुभव को रच रहें है,वहीं दूसरी और तर्क करता विवेकशील मानस, संबंधों के आवरण में छिपी सच्चाइयों को अनावृत करता है। मुद्दा कोई भी हो डॉ. अंजना हमेशा पुल बनना चाहती है। उनकी रचनाएं सामाजिक अन्तर विरोधों को उजागर करने के साथ साथ एक नए मानवीय संवेदना को दर्शाती है।
उनके साथ कथोपकथन के कुछ अनमोल क्षण नीचे दिए गए हैं--------
प्र. हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आपकी एक प्रभावात्मक छवि है, आप अपने इस प्रभामंडल को कैसे बरकरार रखती है?
उ. मेरे प्रभामंडल के विषय में मैंने आप से ही जाना और अगर यह है भी तो यह मेरी रचनात्मकता की ही देन है। मेरे विचार से रचनाकार को एक स्वाध्याय तत्पर तपस्वी की तरह होना चाहिए, तभी वह समाज को कुछ देने लायक बन सकता है। मैंने समाज के हर वर्ग के लिए काम किया है। मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी, अंग्रेजी तथा गुजराती भाषा है। इन सभी भाषा में गीत, गजल, कविता कहानी, अनुवाद आदि अति सहजता से करती हुँ। संस्मरण, लेख आदि के द्वारा लोगों का मार्ग दर्शन तथा साहित्य को समृद्ध करने की मंशा रखती हूँ। साक्षात्कार विद्या तथा पत्रकारिता में भी मेरा हस्तक्षेप रहा है। गुजराती दैनिक समभाव में “नवी नारी” शीर्षक से महिलाओं के लिए विशेष पृष्ट पर लिखती रही हूँ। मैंने अहमदाबाद दूरदर्शन के लिए ‘स्त्री शक्ति’ नामक धारावाहिक का गुजराती में लेखन, निर्देशन व निर्माण भी किया है। मेरी रचनाएं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में निरन्तर छपती रहती है।
मैंने “इजाफा” व “यादों की परछाईयां” गजल संग्रहों का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया है तथा “कृष्णायन” नामक गुजराती उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद भी किया है।
प्र. अंजना जी आपने अपने लेखन को विश्व वातायन से जोड़ने का कार्य किया है। इसके पीछे आपकी क्या दृष्टि रही है?
उ. रानू जी मेरे मन में सदा से यह बात घर करती आई है कि पूरब और पश्चिम में जो भी साझा है उसके बीच एक पुल बने। कैसे यह दुनिया और वह दुनिया एक दूसरे से जुड़ जाए और उसका माध्यम मेरी लेखनी बने। इसलिए मेरी साहित्यिक यात्रा अहमदाबाद से शुरु होकर अमरीका तक तथा अमरीका से अहमदाबाद तक विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरी है।
मेरी इस साहित्यिक यात्रा को मैंने मेरा मौलिक लेखन तथा संपादन दो तरह से अभिव्यक्त किया है। मौलिक लेखन में गीत, कविता, गजल संग्रह प्रकाशित है। संपादन के क्षेत्र में भी मेरे अनेक कार्य है।
प्र. कृपया अपने पाठकवर्ग के लिए अपनी रचनाओं के विषय में बताएं।
उ. अवश्य रानू जी क्योंकि मेरा लक्ष्य केवल साहित्य सृजन नहीं था मेरा उद्देश्य अमरीका में रचित हिन्दी साहित्य का प्रचार – प्रसार करना भी था। मैं भारत में मनोविज्ञान के पद पर कार्यरत थी, विवाहोपरांत पति के साथ अमरीका की धरती पर कदम रखा। सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ साथ साहित्यिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रही । मेरी मौलिक रचनाएं है – “बारिशों का मौसम” , “धूप छांव और आंगन”, “मौजे शहर” (उर्दू). “तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो”, “अमरीका हड्डियों में जम जाता है”, “संगम” आदि काव्य संकलन है।
“धूप-छांव और आंगन” में नारी शक्ति और दृढ़ मनोबल को मैंने प्रधानता दी है। खास कर स्त्रियों का जो संघर्ष है वह पीढियों के संघर्ष की तरह है और कठिन भी है। बातचीत के टुकड़े परिवेश में उड़ते ही हैं, उन सबको समेटकर ही कविता एक अंतरंग प्रति – संसार खड़ा करती है। देखिए विमर्श सतर्कता पैदा करते हैं और कविता मन के कोमल भाव को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने का नाम है। “तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो” मेरी छ्न्द मुक्त कविता है, जो एक कथा चित्र खींचती है।” “अमरीका हड्डियों में बस जाता है” को लोगों ने बहुत पसंद किया। अगर मैं कहूं कि यह कविता मेरी पहचान बन गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। “संगम” कृति वास्तव में दो संस्कृतियों के संघर्ष का काव्यात्मक दस्तावेज है। हमें ऐसे संसार की परिकल्पना करनी चाहिए जिसमें घेरेबन्दियाँ कम से कम हो और हमारी समस्याएं सुलझ जाएं। एक बानगी देखिए –
“यह रुठता है कभी दिल दुखा भी देता है
मैं गिर पडूं तो मुझे हौसला भी देता है।”
एक दूसरा उदाहरण देखिए –
“अमरीका जब साँसों में बसने लगे / तुम उड़ने लगो / तो सात समन्दर पार अपनों के चेहरे याद रखना / जब स्वाद में बसने लगे अमरीका तो अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना / सुविधाओं में असुविधाएं याद रखना / यहीं से जाग जाए / संस्कृति की मशाल जगाए रखना / अमरीका को हड्डियों में बसने मत देना/ अमरीका सुविधाएं दे कर हड्डियों में जम जाता है।”
प्र. बहुत सार्थक और सटीक रचना अंजना जी और आपका प्रस्तुतिकरण उतना ही प्रखर तेज।“अमरीका एक अनोखा देश” आपके द्वारा किया गया एक अद्भुत शोध कार्य है। इस ग्रंथ में अमरीका से संबंधित सारी जानकारी सचित्र प्रस्तुत किया है आपने। इसकी सबसे बडी विशेषता यह है कि यह ग्रंथ हिन्दी मैं है। इस कृति के माध्यम से आप क्या दर्शाना चाहती है?
उ. आपका प्रश्न रोचक है मेरा मानना है कि अंग्रेजी के साथ साथ देश के लोग भी अमरीका के विषय में जाने और सही तरीके से जाने। मेरी प्राथमिकता तो यह है कि मूल रचना का पाठक अधिकाधिक आस्वाद ले। मेरी चिन्ता यह नहीं कि उसका अंग्रेजी में स्वागत हो। “अहमदाबाद से अमरीका” संग्रह में मेरे कई प्रेरणादायक विवरणात्मक संस्मरण है इसमें मैंने अपनी सोच और दृष्टि पर अधिक जोर दिया है। संस्मरण विधा हिन्दी की उन विधाओं में है जिसका मेरे विचार से और विकसित होना चाहिए।
प्र. देश में तो आपने हिन्दी की मशाल को प्रदीप्त किया ही। सुदूर विदेश तक ले जाकर, हिन्दी सृजन, अर्चन द्वारा विश्व के कोने – कोने तक पहुंचने का जो अथक परिश्रम किया आपको इसमें कहाँ तक सफलता मिली?
उ. साहित्य सिर्फ साहित्य होता है। वह विदेश में लिखा जाए या देश में उसका योग्य मूल्यांकन होना ही चाहिए। इसी मंशा के साथ मैंने अमरीका की धरती पर हिन्दी साहित्य साधना कर रहे साहित्यकारों की तलाश आरम्भ कर दी। और मैं आश्चर्य चकित रह गई प्रवासी लेखकों की संख्या को देखकर। उनके लेखन को जगह देनी होगी स्वीकृति देनी होगी, मैं संदिग्ध थी। लेकिन एक कवि को साहसी भी होना चाहिए। उसमें अतिक्रमण करने की शक्ति होनी चाहिए, तभी नवीन रचनाकारों के लिए जगह बनेगी। मैं सभी रचनाकारों को एक महत्वपूर्ण लेखन के रुप में पढ़ती थी। मुझे लगा ये रचनाएं अपने समय को संबोधित कर रही है और फिर १९९७ में “प्रवासी हस्ताक्षर” , के जिसमें २२ अमरीकन हिन्दी रचनाकारों की कविताएं (संपादन), १९९९ में “ये कश्मीर है” २३ अमरीकन हिन्दी रचनाकारों की कश्मीर पर रची गई कविताओं का गुलदस्ता, आपको जानकर हर्ष होगा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपाई जी ने कहा, “अमरीका में तुम कश्मीर के बारे में सोचती हो, मैं तुम्हारे उज्जवल भविष्य की कामना करता हूं। २००१ में ४६ अमरीकन हिन्दी कवि-कवयित्रों की कविताओं का छोटा सा रंग वैविध्य “सात समुन्दर पार” संग्रह निकाला। “प्रवासिनी के हस्ताक्षर” मैं अमरीका के विभिन्न राज्यों में रहने वाली ८१ महिलाओं की कविताएं, तथा ३३ वह लेखिकाएं जो अमरीका में आकाशवाणी-दूरदर्शन से जुडी हुई थी। इसके बाद “प्रवासी आवाज” में हिन्दी कथाकारों को लिया, जिसमें अमरीकी परिवेश को स्पर्श करती कथाएं है।
प्र. प्रवासी लेखन से आप कैसे प्रभावित हुई?
उ. देखिए रानू जी चेतना के बहुत सारे स्तर ऐसे होते है जो हमारे भीतर होते हैं। लेकिन हम उन तक आसानी से पहुंच नहीं पाते है। मेरा अपना मानना है कि वैचारिक भावनाएं वहां बहुत हद तक दुबकी रहती हैं, इसलिए प्रयास कर हमें वहां तक जाना चाहिए। मैं समझती हूं कि कविताओं मैं अभिव्यक्ति मैं एक खास तरह का परिवर्तन, संयम और वयस्कता होनी चाहिए। लेकिन कविता हो या गद्य दोनों जगह मेरा उद्देश्य एक ही है कि हम जिस समाज में रहते हैं उसको भली भाँति परखें, उसको ज्यादा सच्चा और सह्य बनाए जिससे सभी लोग न्याय पूर्वक रह सके ।
प्र. “लर्न हिन्दी एन्ड हिन्दी फिल्म सोंग्स” नाम पुस्तक आपके हिन्दी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुई। हिन्दी फिल्मों और उसके गीतों का विश्वव्यापी लोकप्रियता से सभी परिचित हैं परंतु इसने एक राष्ट्रीय कार्य किया है इसके विषय में बताईए?
उ. संगीत के प्रति आकर्षण सभी का रहता है । यह केवल मनोरंजन का माध्यम ही नहीं है अपितु इनसे लोगों को एक सूत्र में बांधा जा सकता है और मैंने वही किया । इसे ना केवल हिन्दी सीखने का माध्यम बनाया बल्कि जिनकी मातृभाषा हिन्दी है परन्तु बोलने और समझने में कठिनाई महसूस करते हैं उनके लिए यह वरदान स्वरुप है । इस पुस्तक ने मुझे बहुत ख्याति दिलाई । और मैंने इस पुस्तक को “नई पीढ़ी के नाम” कर दिया । नई पीढ़ी को सही हिन्दी का ज्ञान कराने में यह सहायक सिद्ध होगी ।
राजस्थान पत्रिका ने जब लिखा, “ मूलतः अहमदाबाद की डॉ. अंजना संधीर अमरीका की कोलंबिया युनिवर्सिटी में विदेशी विद्यार्थियों को हिन्दी सिखा रही हैं । उन्होंने “ लर्न हिन्दी एंड हिन्दी फिल्म सोंग्स “ नामक पुस्तक एंव सी.डी. का निर्माण किया है । उन्होंने गाने के माध्यम से हिन्दी सिखाने का नुस्खा खोजा है, जिसे अमरीका में काफी सराहा और अपनाया जा रहा है । न्यूयोर्क लाइफ इन्स्योरेंस कम्पनी ने इस पुस्तक और सी.डी. को प्रकाशित किया और कंपनी की और से पुस्तक और सी.डी. मुफ्त में दिया जा रहा है । डॉ. संधीर ने अमरीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों का मान बढाया है ।” तब आप मानेगी नहीं मैं खुशी से गदगद हो गई । इस प्रकार के अनेक प्रतिभाव विदेश - लुजियाना, अमरीका, जमाईका, न्युयोर्क, ओहायो अमरीका, तथा स्वदेश - दिल्ली, पटना अहमदाबाद आदि से मिलने लगे जिसने इस क्षेत्र में मेरा जोश दुगुना कर दिया ।
मैंने कोलंबिया विश्व विद्यालय में मिडल इस्ट लैग्वेज एंड कल्चर सेन्टर के हिन्दी विभाग में हिन्दी फिल्म कल्ब शुरु की । अमरीका में रह कर “विश्व मंच पर हिन्दी – नए आयाम” , “ अमरीकी हिन्दी शब्द कोश” पुस्तक का संपादन किया । अमरीका के टी.वी. चैनल पर हिन्दी के अनगिनत कार्यक्रम किए । भारत लौट कर २००९ से गुजरात विद्यापीठ भारती भाषा संस्कृति संस्थान में विदेशी छात्रों को हिन्दी सिखाती हूं । स्पीक इन हिन्दी का लोकार्पण चैन्नई के राजभवन में महामहिम गवर्नर के हाथों हुआ। “धड़कन नाम से एक गीतों और गजलों का संग्रह भी लोगों को पसंद आया।
प्र. सुधा ओम ढींगरा जी ने आपका जो साक्षात्कार लिया था उस विषय पर अपना अनुभव बताइए।
उ. सुधा ओम ढींगरा जी स्वयं एक वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार है, मैंने उनसे अपने विचार साझा किया कि अमरीका का पूरा हिन्दी साहित्य, साहित्यकारों को दुनिया के सामने लाना मेरा उद्देश्य है। मैंने अमरीका के कोने – कोने से रचनाओं और रचनाकारों को ढूंढा। एक जौहरी की तरह मैंने अमरीकी रचनाकारों को ढूंढ निकाला। मुझे इस बात की खुशी है कि आज अमरीकी साहित्य की चर्चा हिन्दी के हवाले से हो रही है। यह अपने स्थान पर विशेष है।
प. माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी की गुजराती कविताओं का हिन्दी में आनुवाद, “आंख ये धन्य है” करते समय आपका अनुभव कैसा रहा?
उ. किसी के मन के रहस्य को पढ़ना है तो उसकी कविताएं पढिए। अवचेतन में प्राप्त पूर्वाग्रह कविताओं में स्वतः और अकस्मात अवतरित हो जाते हैं। अति उच्च कोटि के सरस, सरल और प्रवाहमयी कविताओं को अनुवाद करके मैं एक अनमोल कसौटी से गुजरी।
प्र. गद्य लेखन, संपादन, अनुवाद सब अपनी अपनी जगह रहे पर आपकी कविता में सजगता दिखाई तो पड़ती है। आपको यहाँ भावना की गहराई तो है विचार और ऊर्जा भी है क्या यह बड़ा कठिन रहा। अपनी काव्य प्रेरणा और रचना प्रक्रिया के विषय में कुछ बताईये?
उ. मेरी समकालीन कविताएं भोगे हुए यथार्थ और सच को उजागर करती है। इसलिए बहुत लोगों का कहना है कि मेरी “पोएट्री” पिक्टोरीयल पोएट्री (चित्रात्मक कविता) है। अमरीका के बारे में “अमरीका नसों में जम जाता है” शीर्षक कविता के बारे में मैंने जो लिखा वो किसी ने नहीं लिखा। मैंने वही लिखा जो अमरीका में भोगा, छुपाया नहीं। सत्य सत्य ही रहता है कविता मन को रानू जी कोमल बनाए रखती है। मेरी कविता जन-बोधता को साथ लेकर चलती है। कविता की प्रक्रिया सिर्फ व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं है जो आपके भीतर चल रही है, आपके पाठक, आपका समाज, आपकी भाषा का इतिहास सब एक साथ काम कर रहे होते हैं। बहुत सारी चीजों को मैं कहती भी नहीं केवल इंगित करके छोड़ देती हूँ।
प्र अंजना जी आप रचनाशीलता में मूलतः एक विचार – संपन्न कवियत्री – शाइरा है। इसके साथ ही कहानी लेखिका, उपन्यासकार, समर्थ अनुवादक, संपादक और पुरअसर पत्रकार है। अब आप ये बताईये लेखन के क्षेत्र भविष्य में आपकी क्या योजना है?
उ. अमरीका से भारत वापसी का मुख्य कारण था अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़ना, भारत की संस्कृति को परम्परा को रचना धार्मिकता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचना। मेरी लेखनी अपनी संस्कृति का वाहक बने यह मेरी हार्दिक इच्छा रही। मेरे पाठक वर्ग मेरे संस्मरण की मांग करते रहे हैं। अपने अनुभव के पिटारे को खोलना है। जिसमें भारत की झलक के साथ साथ अमरीका वासियों के मन में भारत के संस्कृति के प्रति जो सम्मान है उसका भी चित्रण करना है। इसके साथ ही विदेशी विद्यार्थियों को पढाने का जो अनुभव रहा उसके साथ-साथ उन विदेशियों पर मेरे शिक्षण के प्रभाव के विषय में लिखना है। मेरे विद्यार्थी आज भी मेरा आदर करते हैं। समय मिलने पर बडे अपने पन के साथ मिलते हैं। इसे तो लिपिबद्ध करना ही है। गुरु शिष्य संबंध की महत्ता को दर्शाते हुए मेरे अंतरात्मा की आवाज से यह पुस्तक लबरेज होगी। और आपको एक खुश खबरी दूं मेरी एक कविता संग्रह “निवेदन है” शीघ्र ही प्रकाशित हो रही है। बडी शिद्दत से उसमें व्यस्त हूं।
बड़ा अच्छा लगा आपसे बात करके अंजना संधीर जी। आप जितनी सहज सरल और आत्मीय है उतनी ही गरिमामयी है आपका पाठक वर्ग आपसे और अधिक साहित्यिक कृतियों की अपेक्षा करता है। सभी की शुभ कामनाएं आपके साथ है। आपकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए आपने अपना बहु मूल्य समय दिया आभार आपका। नमस्कार ।
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परिचय
डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण आनुवाद कार्य में संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शीघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रिय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमि गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों क परिचय कराना।
संपर्क - डॉ. रानू मुखर्जी
17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.
Email – ranumukharji@yahoo.co.in.
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