वैदिक संस्कृति संसारगत ऐश्वर्यों को जीवन यात्रा में साधन मानती है. आज तो मनुष्य ने पाने सुख के लिए आश्चर्यजनक आविष्कार कर लिए है. ये सुख, वि...
वैदिक संस्कृति संसारगत ऐश्वर्यों को जीवन यात्रा में साधन मानती है. आज तो मनुष्य ने पाने सुख के लिए आश्चर्यजनक आविष्कार कर लिए है. ये सुख, विषतुल्य व जीवन यात्रा में बाधक तब बन जाते हैं, जब ये साधन न रहकर साध्य बन जाते हैं। सुख-दुःख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं।प्रेम और घृणा में अंतर करना बहुत मुश्किल है। शब्द में तो साफ अंतर है। इससे बड़ा अंतर और क्या होगा? कहां प्रेम, कहां घृणा! और जो लोग प्रेम की परिभाषाएं करेंगे, वे कहेंगे, प्रेम वहीं है जहां घृणा नहीं है, और घृणा वहीं है जहां प्रेम नहीं है। लेकिन जीवंत अनुभव में प्रवेश करें, तो घृणा प्रेम में बदल जाती है, प्रेम घृणा में बदल जाता है। असल में, ऐसा कोई भी प्रेम नहीं है, जिसे हमने जाना है, जिसमें घृणा का हिस्सा मौजूद न रहता हो। इसलिए जिसे भी हम प्रेम करते हैं, उसे हम घृणा भी करते हैं। मनोवैज्ञानिक सलाह देनी वाली एक कंपनी 'व्हाइट वाटर स्ट्रेटेजिज' के निदेशक फ़ैक्रकोइस मास्कोविसि कहते हैं, "खुशी की 'थरमोस्टैट' की एक अवधारणा है जिसके मुताबिक़ जब कोई बड़ी घटना घटती है। अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये दुख के तीन कारण हैं. इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने आपसे दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा. अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-पुल्टा सोचता है, और उल्टे काम करता है, तद्नुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है, और दुखी बनता है. स्वार्थ, लोभ, अहंकार, अनुदारता और क्रोध की भावनाएं मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं, और वह दूरदर्शिता को छोड़ कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है।
चाहे वह सुखद हो या दुखद, आदमी की मन:स्थिति में बदलाव आता है लेकिन फिर वह अपने पहले की अवस्था में बहुत जल्दी ही लौट आता है."
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सुख और दुख को जो समभाव से ले, समझना कि उसने स्वयं को जान लिया. क्योंकि, स्वयं की पृथकता का बोध ही समभाव को जन्म देता है. सुख-दुख आते और जाते हैं, जो न आता है और न जाता है, वह है, स्वयं का अस्तित्व, इस अस्तित्व में ठहर जाना ही समत्व है। प्रेम की भी अपनी पीड़ा है। सुख का भी अपना दंश है, सुख की भी अपनी चुभन है, सुख का भी अपना कांटा है-अगर नाम न दें। अगर नाम दे दें, तो हम सुख को अलग कर लेते हैं, दुख को अलग कर देते हैं। फिर सुख में जो दुख होता है, उसे भुला देते हैं-मान कर कि वह सुख का हिस्सा नहीं है। और दुख में जो सुख होता है, उसे भुला देते हैं-मान कर कि वह दुख का हिस्सा नहीं है। क्योंकि हमारे शब्द में दुख में सुख कहीं भी नहीं समाता; और हमारे शब्द सुख में दुख कहीं भी नहीं समाता।
सु शब्द सुखामित्यन्त्र पुन्यार्थे खस्तु शुन्यके,
पुण्य खादति यत्त्स्मत सुखं तल्लोक उच्यते.
अर्थात -सुख में जो 'सु' शब्द है,वह पुण्य के अर्थ में है और 'ख' सुनी अर्थात खाली अथवा खा जाने के अर्थ में है.इसलिए जो पुण्य को खा जाये अथवा पुण्य को खाली कर दे,वही लोक में वस्तुत: सुख कहलाता है।
रामचरितमानस में जब गरुण ने काकभुसुंडी जी से पूछा कि संसार का सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुख क्या है तो इस सवाल का जवाब गोस्वामी जी ने कुछ इस प्रकार कहलवाया-
नहिं दरिद्र सम दुःख जग माही। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
यानी दरिद्रता के समान संसार में कोई दुःख नहीं है जबकि संत के मिलन के समान संसार में कोई सुख नहीं। दुःख का मूल कारण तृष्णा है। रेशम का कीड़ा अपने चारों रेशम का जाल बुनता है और मृत्यु को प्राप्त हो दुःख को प्राप्त करता है।मुर्ख लोग भी अपने चारों ओर तृष्णा का जाला बुनते हैं और उस में फंस कर दुःख भोगते हैं। जब हम इन्द्रियों को वश में कर के इन तृष्णाओं का त्याग करते हैं तो वस्तुतः हम अपने दुखों का नाश करते हैं और सुख को प्राप्त करते हैं।मनुष्य का भावनास्तर सार्वभौमिक हो। अपनी सुख-दुःख की अनुभूति का आधार जितना व्यापक होगा उतना ही मनुष्य सुख-दुःख की मोहमयी माया से बचा रहेगा। सबके साथ सुखी रहना सबके साथ दुःखी, अर्थात् सबके सुख में अपना सुख देखना और सबके दुःख में अपना दुःख। इससे मनुष्य न तो सुख में पागल बनेगा न दुःख में रोयेगा।
सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरमयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख माप्नुयात॥
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यदि सुख का कोई स्थायी आधार हो सकता है तो वह है सत्य, सनातन, सार्वभौम मानवीय चेतना। अपनी चेतना, अन्तरात्मा में मन, बुद्धि चित्त को केन्द्रित करके तटस्थ निस्पृह अनासक्त भाव से संसार को देखते रहना आत्म स्थित हो जग में अपने कार्य व्यापार करते रहना, आत्मा में ही मस्त रहना, आत्मा में ही सुखी रहना। आत्मा को देखना, आत्मा को ही सुनना, आत्मा में ही रमण करना मनुष्य को सुख-दुःख की सीमाओं से मुक्त कर देता है।
किसी भी प्रकार के सुख की चाह के साथ दुःख का अभिन्न साथ है। उसे तिरोहित नहीं किया जा सकता। अस्तु सुख-दुःख की सीमा से ही परे हो जाना इसके रहस्य को जान लेना है। और यह आत्म केन्द्रित होने पर ही सम्भव है। हमारी अनुभूति (Feelings) ही सुख और दुःख का कारण है, चाहे उसमें वास्तविकता (reality) या फिर यूं कहें उससे हमें कोई फायदा हो या फिर नुकसान ही क्यों न हो, सिर्फ हमारी सोच तक या इससे कुछ अधिक मिल जाए तो वह हमें ख़ुशी देगी लेकिन अगर कुछ कम हो तो वह हमें दुःख देगा।अपने अनुकूल इच्छा की पूर्ति सुख है तो वही उसकी अनापूर्ति दुख । सामान्यतः कोई भी मनुष्य दुख नहीं चाहता अपितु वह सदा सुखी रहना चाहता है । इसके लिए वह निरंतर प्रयास भी करता रहता है।
दरअसल ,सुख-दुख एक अनुभूति है जो व्यक्ति, वस्तु एवं समय के सापेक्ष होता है ।कोई किसी घटना से सुखी होता है तो दूसरा उससे दुखी । वस्तुतः सुख या दुख की निरंतरता नहीं होती ,यह प्रतिपल बदलती है । मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक अनुभूति आनंद की है। सुख की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती। आनंद और सुख में अंतर है। सुख दुख का अभाव है; जहां दुख नहीं है वहां सुख है। दुख सुख का अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख है। आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है; जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वैसी चित्त की परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद की स्थिति है। आनंद का अर्थ है: जहां बाहर से कोई भी आंदोलन हमें प्रभावित नहीं कर रहा--न दुख का और न सुख का। सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी हमें बेचैन करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों अशांतियां हैं। दुखी सब हैं। कुछ दुखी हैं, कुछ दुखी होने की प्रक्रिया में हैं। उस प्रक्रिया का नाम सुख है। सुख की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए दूसरी की सेवा-सहानुभूति दूसरों के लिए उत्सर्ग का व्यावहारिक मार्ग अपनाना पड़ता है और इससे एक सुखद शांति, प्रसन्नता, संतोष की अनुभूति होती है । सुख और दुःख सहज और स्वाभाविक, आवश्यक वृतियां दोनों वृतियों की सम्यक अनुभूति मनुष्य को विकास, उन्नति, आत्म-संतोष के पथ पर प्रशस्त करती है ।
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