आज मैं गूँगा नहीं हूँ (कविताएँ - 78) इस संकलन की कविताओं में भावों की एकान्विति नहीं है. समय समय पर ज...
आज मैं गूँगा नहीं हूँ
(कविताएँ - 78)
इस संकलन की कविताओं में भावों की एकान्विति नहीं है. समय समय पर जो भाव मेरे मन में घुमड़ते गए उन्हें मैं रूप देता गया. ये सारी कविताएँ मेरे आत्मपक्ष से जुड़ी हैं. देश में इमर्जेंसी के बाद सारी राजनीतिक पार्टियों में सत्ता के लिए सिरफ़ुटौवल हो रहा था. उनके मन से आत्मचिंतना सिरे से गायब थी. ऐसे में मुझे लगा कि मुझे अपने भीतर झाँकना चाहिए. क्योंकि राजनीति की ऑधी से मैं भी प्रभावित हुए बिना नहीं था. इन कविताओं में मैंने अपने भीतर झाँकने की चेष्टा की है.
1 जी करता है
जी करता है कहूँ आज
हे माँ फ़िर से मुझे जन दे
कुछ क्षण पिघला क्रोड़ तेरा
पीकर ऑंचल में सो लें ।
दूर रहूँ मैं बचपन पा
कुछ पल आलोड़ित दिक् से
विलग रहूँ अनुभूति-धरा
अनुतिक्त दहकते क्षण से ।
किंतु न जाने वेग कौन
यह अंतर में अकुलाता
उर्ध्वग आवर्तों में उठ उठ
अनुतन त्वर कर जाता ।
फ़ीकी पड़ जाती रेखा सी
क्षणिका यह दिप दिप कर
स्वप्निल मृदु भावना स्विन्न
आवर्तों में बस खोकर ।
जगती है तब उर्मि मधुर
आवेग भरी मृदु मंथर
उमड़ उमड़ उफ़नाती आशा
जीवन जी लें जी भर ।
अभिशापित जीवन यह बंटित
टुकड़ों की निरी इयत्ता में
हो प्रश्नाकुल तब भी उठता
मानस तेरी लघु सत्ता में ।
अणु सा नहीं ईकाई क्या
चेतन-विराट की वपु में मैं
प्रतिबद्ध नहीं क्या भू से हूँ
जीवन सिमटा क्या चिति में।
25.6.78
2. प्रिये! प्राणाधिके!
प्रिये, प्राणाधिके !
तुमने तो कर दिया साहस
बोल देने को कठोर सत्य
झेले हुए भीषण यथार्थ का
बहुत सहज तो नहीं था यह
तुम्हारे लिए
पर तुमने इसे सहज बना दिया
किंतु
कितना भारी पड़ा यह मुझपर
झेल नहीं सका उसे मेरा व्यक्तित्व
सोच सोच कर बुना था जिसे मैंने
मन के स्तर पर.
कितनी डींगें हाँकी थी मैंने
एकांत में
मुट्ठियाँ भिंच आईं थीं हवा में
बड़ा अभिमान हो उठा था मुझे
अपने आप पर कि
बुन लिया है मैंने एक सबल व्यक्तित्व
इस खोल के अंदर
डोल नहीं सकता यह
लोहे की गर्म सलाखें गोभने पर भी
कठोर यथार्थ को ही झेलना
अब मेरी नियति है.
पर जब झेलने का वक्त आया
तो तार तार हो गई सारी बुनावट
एक झटके में और
आज कितने साल हो गए
उन तारों को मैं जोड़ नहीं सका.
28.6.78
3. बो दी है-
बो दी है मैंने क्रांति
मिट्टी में गहरे.
फ़ूट चुके हैं
धरती की छाती फ़ोड़
अंकुर भी, पर
अभी अनावरित नहीं है.
ये मिट्टी में सने
सर पर एक शिला संभाले
झाँकते-से हैं
एक अपरिचित विवर से
घट गया है जो अचानक ही.
इनकी काया का टटकापन
जो उर्ध्वमुखी आवेग की
होनी चाहिए कांति ही-
जगाता है एक अंतर्मुख प्रतीति-
ये धनी हैं क्रांतिकारी चिति के
अकुलाहट है इनमें
उत्क्रांति की.
इनकी गर्भस्थ गति है उदग्र
पर वंचित है व्योम के आवाहन से
शीश को मसलते
परिवेशी शिला के कारण
दस्तक देती है जो स्यात
यथास्थितिवादी नियति का.
कई दिनों से निरख रहा हूँ
इन अंकुरों की ताजगी
वैसी की वैसी ही बनी है
(विवर से स्पष्ट दीखता है यह).
आज इस अंकुर की शीर्ष-नोक
मुड़ी प्रतीत होती है
विवर की ओर
उर्ध्वमुखी.
निश्चित ही यह शंखनाद है
संघर्ष का
इनका अंतर विस्फ़ोट्य है
अस्थिर नाभिक के समान
संपुटित है इनमें
असीमित जीवन-उर्जा
ये अपनी उर्जा के विस्फ़ोट से
तोड़ देंगे प्रस्तावरण
निकल पड़ेंगे आकाश में उदग्र
होने को विराट
एक नया जीवंत विश्व बुनने को.
29.6.78
4. आज मैं गूँगा नहीं हूँ
आज मैं गूँगा नहीं हूँ
न चकित हूँ न भ्रमित हूँ
न निश्चेष्ट ही
कल तक ये सारी बातें मुझमें थीं.
मैं चकित था-
वर्षों की गुलामी से मुक्त हो सकता हूँ
शक्ति है मुझमें.
पर भ्रमित था
यह शक्ति उतारी गई है मुझमें
उभरी नहीं
मात्र कुछ ही लोग हैं जिनमें
यह शक्ति उभर सकती है स्वयमेव.
अतः निश्चेष्ट था-
जब वह शक्ति उभरी नहीं
उभरनी भी नहीं
कुछ स्वयंभू पुरुषों का निमित्त ही हूँ, तो
अपनी पलकें स्वयं ही क्यों खोलूँ
नींद से जागूँ क्यों ?
किंतु
आज मेरी धारणा खुल गई है
पराग पंखुड़ियों को भेद कर
तिरता है वायु में
उनके कष्टों को आंदोलित कर
जीता है आंदोलन के सृजन क्षणों को
पराग के मौन की वाणी है अपनी
अस्तित्वमय.
मैं यह भेद समझ गया हूँ
अब मैं बोलने लगा हूँ
मेरी ऑंखें खुल चुकी हैं
मैं उषा के निमीलन में नहीं हूँ
मुझे एहसास हो चुका है
मैं ही अपना भाग्यविधाता हूँ
मेरी प्रतिबद्धता पहले उस ईकाई से है
जिसे राष्ट्र कहते हैं
फ़िर उस पूरे से है
जिसे विश्व कहते हैं
मैं उस मानवता के लिए संघर्ष करूँगा
अब मुझे संघर्ष करने आ गया है.
30.6. 78
5. मैं व्यग्र हूँ उत्तर पाने को
कल मेरी स्थिति
उस समय अजीब हो गई, जब
दो प्रतिद्वंद्वियों ने
परस्पर विरोधी बातें करते हुए
मुझी को संबोधित किया-
एक ने कहा
आज हमारा जीवन इतना
राजनीतिग्रस्त है
जिससे हमारा मस्तिष्क
हो गया है जर्जर
इसके उलटे सीधे निर्णयों के जाल में
हम कुछ इस कदर फ़ँस गए हैं कि
हमारा विवेक एक खोह में जाकर
अटक गया है दिवाभ्रम के.
स्वधर्म का जैसे नमोनिशान नहीं है
ऑंखें टिकी हैं बस स्वार्थ सिद्धि पर
क्यों साब ?
वह मेरी तरफ़ मुखातिब होते हुए बोले.
प्रतिवाद किया दूसरे ने
कत्तई नहीं
हमारे व्यक्तित्व के उलझाव के कारण
राजनीति नहीं है
राजनीति की व्यापकता ने तो
हमें दी है हमारे चित्त को विस्तार
हमारी दुनिया बड़ी कर दी है इसने
हमारे विचार सार्वदेशिक हो गए हैं
यह धर्म था
जिसने जकड़ रखा था हमें
कोरी नैतिकता में
हम संकुचित थे
एक आवरण के अंदर
गुठली-सा.
यह जो संत्रास है, वह
इसी संकुचन पर
राजनीति की व्यापकता के
आवाहन के परिणामस्वरूप
द्विविधा की चोट है
क्यों साब ?
वह भी मुखातिब हुए.
मुझे जैसे प्रश्नों की नोकों पर
टाँग दिया गया.
मैं पड़ गया बड़ी उलझन में
हमारे व्यक्तित्व में आज
घटित हो रही है प्रतिपल
राजनीति
यह सही है
पर सही यह भी है-
यद्यपि धर्म ने हममें
भर दी थी मानवीयता पर
अपने जीवन के लंबे काल-प्रवाह में
वह इतना रूढ़ हो गया कि
हमारे मस्तिष्क की खिड़कियाँ
बंद हो गईं
हम ताजा हवा के झोंकों से
रह गए अजनबी
राजनीति और धर्म
क्रिया एवं भाव के रूप में
परस्पर पूरक होकर भी
क्यों ये इतना विलग और अजनबी हैं ?
यह मुझे सूझ नहीं सका
मैं भी उन दोनों के बीच
रह गया अजनबी बनकर
मूक अवाक् उलझ कर
किसी की एकांगिता का
कर नहीं सकता था मैं समर्थन
मैं स्वयं अस्पष्ट था.
आज भी यह प्रश्न कोंच रहा है मुझे
मैं व्यग्र हूँ उत्तर पाने को.
9.7.78
6 देखा है मैंने तुझमें
मैं पुलकित तेरी सुरभि से
सांसों में तू उतरी है
अनुरागमयी तू कितनी
करुणा से भरी भरी है.
डाली में खिले सुमन की
पंखुरियों की परतों सी
ममता तुझमें उर्मिल है
उर निधि से छिन्न पसरती
देखा है मैंने तुझमें
जगती के अश्रु सिमटते
फ़िर उसे विश्व करुणा में
घुलकर लोहू में ढलते
तिर तिर कर व्योम उदधि में
किरणों की डोर पकड़कर
मेरा अस्तित्व मचलता
जीने को उद्भासित कर
अबतक जी नहीं सका मैं
जी भर उस संवेदन को
अनुभूति स्यात यह मेरी
जी रही अधमरेपन को
मैं दूर अभी भी तुमसे
संभवतः इसीलिए हूँ
तेरे स्नेहिल उर की
अन्विति से मैं वंचित हूँ
ऐ प्रेयसि किंतु भरा हूँ
कितने अरुणाभ प्रहर से
फ़ूटेंगी किरणें निश्चित
फ़िर क्रांति घटेगी उर में ।
17.7.78
7. उस दिन-
उस दिन मधु सी आई थी तू
खिलती कलियों सी मृदु मंथर
कुछ धूल उड़ी थी प्रेम भरी
अरुणिम प्रातों में मौन मुखर।
किरणों की रेखाएँ, जीवन
बुनती क्षिति पर उग आईं थीं
अधरों से अधर मिले थे जब
मधुरिमा स्विन्न हो आईं थीं।
ढरकी उर की थी कोमलता
पीयूष भरी बूँदें मधुरिम
अनुस्वन अंतर में मुखरित है
उस दिन गहरे उतरी जो ध्वनि।
मैं प्रेरित तेरी साँसों से
पोरों में त्वर तेरी धड़कन
मानस में चित्रित छवि तेरी
अंतर में स्पंदित मूर्च्छन।
अधरों की दूरी है इतनी
परमाणु निकल न सकें इससे
अनुप्रेरित हैं अंतर दोनों
आकर्षण की उर्जा पीते।
ऑंखों में अश्रु ढुलक पड़ते
यह सूक्ष्म बहुत ही पीड़क है
तेरे प्राणों की उर्जा को
मेरे ये प्राण नहीं जीते।
10.8.78
.
8. उत्कंठित
प्रत्येक पल
रहता हूँ उत्कंठित
छू लेने को आकाश.
सपने तिरते रहते हैं
पलकों पर
जीवनमय, करुणाप्लावित.
अणु अणु मेरी काया का
है स्पंदित अनुभूति-स्पर्श से
वायु की उष्मा के.
तरंगें हैं आलोड़ित
अनुदैर्घ्य अनुप्रस्थ
हृदय विवर में
विवर से ही उत्सर्जित.
रोमांचित करती रहती है
निस्पंदों की निष्पत्ति प्रतिपल.
प्रश्नाकुल चिति के स्पंदन से
अनुप्राणित होते रहते थे अधर.
चलते चलते मैं
टकरा जाता हूँ अकसर
अपने आप से ही
लक्ष्य तक पहुँचने के क्रम में
भटक भी जाता हूँ कुछ पल.
क्या है यह आखिर
मेरे व्यक्तित्व में ?
कहीं जुड़ने का
प्रबल आकर्षण तो नहीं
दोलायमान
समूची मानवीयता से ?
9. पलकों में ठहरे क्षण हैं
मैं डूबा हुआ पलों में
पलकों में ठहरे क्षण हैं
मैं हूँ ही नहीं भुवन में
केवल अस्तित्व त्वरण है
रेखांकित नहीं इयत्ता
मेरी मैं उर्जा कण हूँ
आकाश विवर में प्रसरित
उष्मा का कुंड-क्षरण हूँ
गतिशील तरंगों में मैं
उस महा स्रोत को अनुपल
प्रतिकर्षित जिससे बिंदुरूप
रुपक ब्रह्मांड-सरणि पल
अनुकृति मैं नहीं किसी की
बूँदी छिटकी सत्ता की.
18.8.78
10. आतुरता नहीं।
खंडों में जीना
कुछ भाता नहीं
टुकड़ों का संवेदन
कुछ जोड़ता नहीं।
भींग जाते हैं प्राण
अनुभूति खंडों से
किनारों से बँधना
पर जँचता नही।
उद्वेलित है मन
रोज की नियति से
किसी विंदु पर भटकना
पर रुचता नहीं।
पूरेपन का आकर्षण
कुछ इतना लुभावना है
कि अधूरेपन को जीने
की आतुरता नहीं।
8.9.78
11. बूँदों का जोड़
बूँदों का जोड़ हूँ मैं
फ़िर भी अनुबूँद हूँ
प्राणों का जोड़ हूँ मैं
फ़िर भी अनुप्राण हूँ।
तरुण हूँ आर्द्र करुणा से
स्वरों से भींग जाता हूँ
यहाँ सब द्वैत वपु का है
उरों का तार बुनता हूँ
उरों का जोड़ भी हूँ मैं
फ़िर भी उर-बीज हूँ.
अणुक हूँ रिक्तियों से जुड़
सरूपक उर्ज संभरित हूँ
अखिल संसृष्टि की यति हूँ
अथच मैं सृष्टि रचता हूँ.
रचना का जोड़ हूँ मैं
फ़िर भी अनुसृष्टि हूँ।
प्रकुति की अनवरत अणिमा
छिटक स्थूलता रचती
उभरता संतुलन, जीवन
परक मैं संतुलन रचता
शक्तियों की संधि हूँ मैं
फ़िर भी अनुशक्ति हूँ।
10.9.78
12. परिधि पर भी
परिधि पर भी क्रांति होती है
खलबलाती है व्यवस्था क्रोध में
बिलगता है विद्युकण जब बक्ष से
परमाणु पर आवेश होता है.
किंतु रह लेता पृथक परमाणु भी
प्लाज्मा में परिधि पर इस व्योम की
या क्रिया कर बंधुता के लोभ में
मूर्त अणु में रूप लेता है.
क्रांतिता तब किंतु मिट जाती विरल
स्थैत-बल का ढूँढ़ता है आसरा
व्यष्टि के निर्माण में जो योग दे
अणु स्वयं आक्रांत होता है.
$
नाभि में भी क्रांति होती है
संलयन से या विखंडन रीति से
फ़ूटती उर्जा अपरिमित क्रोड़ से
प्रकृति तब आपूर्य होती है.
पृथक पर परमाणु रहता है नहीं
आविष्ट होकर बंधुता की खोज में
घटित होते तत्व हैं इस क्रांति में
स्वस्थतर तब बदल होता है.
क्रांति की उष्मा बनी रहती निरत
स्पृष्ट होता स्वतः जीवन विंदु ही
चित्त में तब क्रांति घटती है प्रखर
बदल कुछ व्यक्तित्व जाता है.
$
क्रांतियाँ भी वरित होती है
अगर जीवन-धार जीना हो स्वरिल
अनवरत जल के प्रवाहों में विरल
अनवरत अणु बदल जाते हैं.
उभरती यह स्वयं या तो प्राण में
अनिवार्यता सी प्रकृति के परिवेश में
या तो घटती क्रांति अणु संघात से
क्रांति चिति से जो छिटकते हैं.
घट रहीं इस देश में भी क्रांतियाँ
सुर्खियों में रोज उष्मा विकीरती
किंतु है भू-चेतना ज्यों त्यों वही
क्रांति-नर नभ में भटकते हैं.
11.9.78
13. आओ न बंधु
आओ न बंधु हम जुड़ जाएँ
बस एक लक्ष्य को मुड़ जाएँ.
कुछ अजब दृष्टि हम सब की है
हम सब के लक्ष्य अलग से हैं
अब तक न इकाई हो पाए
अपनी धरती से जुड़ पाए
संघर्ष हमारा बँटा हुआ
अपना अपना अस्तित्व भला
अस्मिता हमारी सीमित है
व्यक्तिस्थ इयत्ता दीपित है
अन्विति की रेखाएँ उर्जित
प्रतिकर्षण की कटुता बुनती
क्रांतिक गतियाँ बस लक्षित हैं
अपनी प्रतिमा को अर्पित हैं
जात्याभिमान की क्षणिकाएँ
जब तब जुगनू से छिप जाएँ
अनवरत विकस पाई न किंतु
खंडित आभा में दिपे विंदु
कितनी दुखमयी कहानी है
पन्नों की श्री कुर्बानी है
अनुस्वरित मात्र यह दर्शन है
ऐसे ही पलता जीवन है
सब ऐसे ही चलता रहता
कितनी ऋजु यह सुविधापरत.
11.9.78
14. संघर्षों से उभरेगी।
पूजा का फ़ूल नहीं हूँ
अनुगत पग-धूलि नहीं हूँ.
युग पुरुषों के तरकश का
शरणागत तीर नहीं हूँ.
अस्मिता एक अपनी भी
संभवता की लहरों - सी
धरणी का लाल, समर्पित
जननी पगतल की भू ही
ज्वाला मेरी साँसों में
रचना की उष्मा भी है
गगनोन्मुख है गति मेरी
सपनों की तृष्णा भी है
युग वीणा में उभरा स्वर
मैं गीत रचा करता हूँ
मेरा अपना धन करुणा
अनुभूति रचा करता हूँ.
टोको मत मुझे पवन में
बोने दो स्पंदन को
आलोड़ित चित्त-उदधि में
स्वर का अन्वित कंपन हो
परमाणु बदल जाएँगे
जीवन की सुरभि खिलेगी
आपूरित व्यक्ति- इयत्ता
संघर्षों से उभरेगी।
14.9.78
15. संत्रस्त हूँ
संत्रस्त हूँ
आक्रांत करती है मुझे
लोगों की अनुकारी कृति
अपने पंजों से.
मैं त्रस्त हूँ
सभी चाहते हैं मैं बनूँ
उनकी उद्देश्यपूर्ति का साधन
अपने को भूलकर
मानों हो ही नहीं मेरा स्व.
संकल्प है
मैं मिटकर हो जाउQँ विराट्
परमाणु की तरह
आंतरिक विस्फ़ोट से
मुखरित हो उठे संगीत
अंतर्व्योम में प्राणों का
मौन अनवरत व्यंजित.
अंतर्द्वंद्व है
स्व को भूलकर होना अनुगत
अथवा
मिटकर होना विराट्
पर्याय हो सकते हैं कैसे परस्पर
बो दी गई है हमारे रक्त में
द्विविधाग्रस्त आच्छन्न युग चेतना की
अधूरी युग क्रिया.
संघर्षरत हूँ
पाने को ठोस आधार जिससे
भर सकूँ मैं छलाँग आकाश में
सुन पड़ता है दस्तक देती
अस्फ़ुट आमंत्रण
आपूरित नहीं है किंतु उर्ध्वगति
विकल हूँ रचने को
एक कारुणिक स्पंदन
दूरीकृत हृदयों के बीच.
18.9.78
16. फ़ूटेगी क्रांति एकदिन
इच्छाशक्ति का धानी हूँ मैं
फ़ूटेगी क्रांति एकदिन
जीवनमयी
दूर दूर तक फ़ैलेगी उष्मा
उर्जामयी
सज जाएँगे परमाणु अनुदिश
रचना का अनुभार लिए एवम्
सृष्टिमयी संस्कार लिए
करुणा भरे स्ंस्कार का धनी हूँ मैं.
अंकुर उग आए हैं
मिट्टी को फ़ोड़कर
बस घटाटोप पपड़ियाँ
आड़े पड़ी हैं लक्ष्यपथ में
संघर्षरत है अणु उर्ध्वगामी
प्राणों की उष्मा का सार लिए
संसंजन उर्जा का धनी हूँ मैं.
20.9.78
17. मैं क्रांति-उर्मि हूँ
मैं बूँद हूँ
नदी की आप्रवाह धारा की
शीर्ष बूँद
उछलती कूदती तटों को भिंगोती
किनारे पर पनपे वनस्पतियों में
जीवन की सुगबुगाहट भरती
गतिशील जीवन हूँ मैं.
गतिमयता मेरा धर्म है
कदम रखती हूँ
प्रतिपल
भविष्य के क्षेत्र में
आवाहन पाकर
स्पंदित आकाश का
पाती हूँ आवेग
अनुप्रवह अतीत से.
जीती हूँ मैं भरपूर
हर क्षण को सोत्साह
ये प्रत्येक क्षण
क्रांतिपूरित हैं
जिसके स्पंदन से
आंदोलित है मेरा अणु अणु
रचना का अनुकंपन
थिर हो रहा है उर्मि-मूल में
आकृति देता भावी क्रांतिपुरुष को
मैं क्रांति-उर्मि हूँ.
5.11.78
18.हारूँगा मैं नहीं
हारूँगा मैं नहीं लड़ाई
जीवन की
लडाई ही मेरा धर्म है.
गिर गिर कर मैं आगे बढ़ूँगा
लक्ष्य-पथ में
टूट टूट कर मैं जुड़ूँगा
यात्रापथ में अपनी ही अग्नि से
संकल्पित हूँ मैं.
धीमी है गति मेरी
पर निरंतर है
पीली पड़ गई है कांति
घटाटोप अवरोध से
अवरोधित है उर्ध्व आवाहन
खुले आकाश का
आसंस्कृत आवेग का धनी हूँ मैं.
आपूर्य हूँ जीवन के स्पंदन से
पर तलाश है
एक धागा आकाश की
भर सकूँ उड़ानें अंतरिक्ष में
असीमित
बाँहें पसार कर.
9.11.78
19. एक आंदोलन
अभी पढ़ा मैंने अखबार में कि
इस देश के एक कोने में
हो रहा है एक आंदोलन.
लोग सड़कों पर आ गए हैं
लग रहे हैं नारे गगनभेदी
‘‘बंद करो आरक्षण’’.
सरकार भी कृतसंकल्प है
कल्पनाजीवी
जीनेवाली चुनाव के
चमत्कारिक वायदों पर
‘‘बंद करो प्रदर्शन
हमें करना है उद्धार दलितों का
हम प्रतिबद्ध हैं उनसे’’.
प्रश्न हो गया है विवादास्पद
अथवा बना दिया गया है.
मैं कर रहा हूँ कोशिश
भीड़ में पहचानने की
उन लोगों को
नेतृत्व कर रहे हैं जो
इस जुलूस का
समर्थ हैं जो
सरकार के हर कदमों को
कर लेने को अनुकूल
सुविधानुसार
कहीं वही तो नहीं हैं ये
जिनका व्यसन ही है यही,
या
सचमुच पल रहा है कोई सपना
इनकी पलकों पर
अथवा
यह है एक नई अंगड़ाई
युग की
रचने को नया संसार.
भटकाव की इस दुनिया में
ऑंखों पर
अब नहीं रह गया है विश्वास
जो हो रहा है वह घट रहा है
अथवा एक छलावा है घटने का ?
अनिश्चय की पलकों से
देख रहा हूँ मैं अपलक
अनिर्णय की स्थिति में. 17.11.78
20. प्रश्नाकुल चिति
कोई छिपा पड़ा है सोता
मेंरे अंतर में
सावरण करुणा का
घूर्णित अंतर्जलधि में.
उफ़न उफ़न कर
बढ़ आता है कंठ तक जो
आर्द्र्र हो उठता है मेरा मौन
फ़ूट पड़ती है अश्रु-वाणी.
चिर्तिं होते रहते हैं
वाणी के तट
प्रत्येक अवस्थ्ति में
कुछ ऊपर उठकर
किंतु फ़िर
लौटते रहते हैं वे उफ़ान
अंतराकर्षण से खिंचकर
उर्जा-कुंड में.
वाणी के तट-
मौन के फ़ूटने पर
कैसे ही समीकृत करुणा की दिशा
अंतर-विवृत्त से मुखर विश्व में ?
प्रश्नाकुल चिति
निरंतर सघन होती
संभावना द्वार की तरफ़
होती अग्रसर स्यात.
18.11.78
21. सूनी ऑंखों से
क्यों बैठे हो गुमसुम
पाँवों को सिकोड़
बाँहों से बाँधे घुटनों को
सूनी ऑंखों से
टकटकी बाँधे आकाश में ?
थके हो ?
निराश हो ?
या खो चुके हो साहस
भविष्य में छलाँगें भरने का ?
इच्छा नहीं जगती क्या
आगे कदम बढ़ाने की ?
सोचते हो क्या कि
‘‘सब ऐसे ही चलता है’’ तो
आकांक्षा का अर्थ ही क्या ?
या
खो गईं हैं राहें
किसी मोड़ तक आने के बाद
और
कर रहे हो चिंतन
भावी पथ का ?
आसंस्कृत नहीं है क्या तुझमें
आपूर्य शक्ति-
उद्बोधन है जो
भावी गति की ?
या
आवाहन नहीं है
अंतरिक्ष का आक्रोड़ ?
अथक
अवरोधित हैं रास्ते समस्त
संभावनाओं के
और
प्रयत्न-विकल
थके हारे
कुढ़ रहे हो
जीवन की नियति पर
यात्रा के आरंभ बिंदु पर ही
मौन
विवर्ण
स्थिति-मुख ?
20.11.78
22. टूटी है कोई चीज
टूटी है अभी अभी कोई चीज
मेरे गिर्द
अनुध्वनित है जिसका संवेदन
मेरे चिति-लोक में.
ढूँढ़ता हूँ मैं साश्चर्य
उस संकेत चिर् को ध्वनि-शेष के
किंतु कोई अनुरेखन नहीं
होने का चतुर्दिक.
जीवन के सारे उपकरण-
प्लेटें, शीशे, साज सज्जा
सब पड़े हैं वैसे के वैसे ही
स्पंदनहीन अमुखर
घटा ही न हो मानो कुछ.
तो फ़िर यह टूटना हुआ कहाँ ?
टूटना तो हुआ है यह ध्रुव है
झुठलाई नहीं जा सकती यह प्रतीति
व्यंजित है
इस टूटन की संवेदना
हृदय की विद्यु उर्जा में
करुणा का मरोड़न
हो रहा है अभिफ़तिल.
यह प्रतीति
कोई भान नहीं है
दिग्भ्रमित स्वप्न का
टूट रहा है जो
स्थूल न हो पाने की पीड़ा में.
यह प्रतीति एक यथार्थ है
यह घटी है
यह अस्तित्व है
यह बोध है किसी अपघटन का.
अरे! यह तो और विलक्षण है
इस टूटन की संवेदना
अब तोड़ने लगी है
उन श्लक्ष्ण तारों को
हृदय तंतु के
जोड़ते है जो
ऐतिह्य और भवि को
वर्तमान की संशक्ति से
संस्थित है जिनमें
अनेकों स्मृतियाँ
कोमल मधुर संस्कारित
मूर्च्छना में मेरी अवस्थिति वहाँ.
यह टूटन तो
जैसे विलग सी कर रही है मुझे
मेरे घरौंदों से
बुना है जिसे मैंने
परंपरा के तंतुओं से
बच निकलने के दर्शन से अभिप्राणित
नएपन का भुलावा देकर
जी सकूँ अपनी सुविधा को जिसमें
नया खोल ओढ़कर.
यह टूटन
अब होती जा रही है पीड़क
तोड़कर रख देगी क्या मुझे
एक अजानी धरा पर
फ़िंका सा रह जाऊँगा मैं मूढ़ सा जहाँ
रास्तों के विछे जालों को देख सहसा
विस्फ़ारित नेत्रों से ? 31.11.78
23. तुम कहते हो
तुम कहते हो
दुनिया ऐसे ही चलती है
उसे चलने दो.
मैं प्रश्नाकुल हूँ
तो फ़िर मेरे होने की
सार्थकता क्या है ?
तुम प्रभावित करना चाहते हो मुझे
अपनी युक्ति से
सरगना बने रहने की
आकांक्षा जो है तुम्हारी
कि
‘‘संचित है तुम्हारे पास
अनादि अनुभव
अनंत काल प्रवाह में घटे
कटु मृदु
तुम्हारे अनुभव-रस ही कारण हैं
मेरे होने के
तुम्हारे अनुभव ही काफ़ी हैं
मेरे जीने के लिए’’.
यह सत्य है
मेरा होना
तुम्हारे अस्थि मज्जा रक्त का
सार फ़ल है
पर एक फ़ल की तरह
ललक है मुझमें
पाने को जीवन दिशा
दिगंत में .
उग आई हैं अनेकों प्रश्न-पौध
चिदाकाश में
देखा है मैंने इस आकाश को
पहली बार
विस्फ़ारित हैं नेत्र मेरे.
पिघला है मेरा अंतर प्रथम बार
उस चेतनालुप्त
मरियल बिल्ली के गिर्द
उसके दुधमुँहे बच्चों को
देखकर चिल्लाते.
साक्षी है यह फ़ूल
मेरे हृदय में टूटते बनते स्पंदनों का
उभर रहा है जो
मेरे चेहरे पर.
यह फ़ूल भी जगाता है
कुछ अजान संवेदना
अपनी निर्विकार मुद्रा से
घटती घटनाओं के प्रति अनुगिर्द.
यह फ़ूल रहा होगा साक्षी
तुम्हारी विगत धड़कनों का भी
बताता है इसका प्रौढ़पन.
मालूम नहीं
किन साक्ष्यों को जीता
कौन अनुभूति जगाया होगा
यह फ़ूल
तुम्हारी चिति में उस दिन
जब निहारा होगा तुमने
इसे तरल मन से.
यही खुला आकाश
इन्हीं परमाणुओं से संवरित
इन्हीं स्पंदनों इन्हीं सयंवेदनाओं
इन्हीं ध्वनि निस्पंदों से ग्रथित
यही काल प्रवाह रहा होगा उस दिन
अथवा नहीं
पता नहीं
क्या रचे होंगे वे क्षण
तुम्हारे मन हृदय में
यह तुम जानो.
किन रचना तंतुओं से
क्या रच रहे हैं ये
मेरे मन हृदय में
यह मैं जानता हूँ
तुम्हारा जानना हो चुका है
एक रुढ़ि
मेरा जानना है
एक प्रवाह
टूटने बनने की संवेदना लिए.
तुम्हारी रुढ़ियों को जीने से
यह प्रवाह रुकता है
ठहराव जगता है
कुंठा जगती है
तुम्हारी प्रतीतियों को
तिरस्कृत करने से
खो जाता है एक आधार
टूटता है एक ठोसपन.
छलाँगें भरी नही जा सकतीं तब
जब हो नहीं ठोसपन आधार में
छलाँगें ली नहीं जा सकतीं तब
जब पृथकता न हो आधार से.
पर मुझे छलाँगें भरनी ही हैं
क्योंकि यह वर्तमान मुझे जीना है
मैं जिज्ञासु हूँ
प्रश्नाकुल हूँ
क्या हो मेरी नियति ?
7.12.78
24. तुम्हारी प्रतीति भिन्न है
तुम्हारी प्रतीति भिन्न है
मेरी प्रतीति से
पर
यह कोई अचंभा नहीं
न ही हम शिकार हैं
किसी प्रकार की विकृतियों के.
तुम्हारी मानसिकता भिन्न है
मेरी मानसिकता से
पर
यह कोई अनहोनी नहीं
न ही हमारे मन की
हठधर्मिता है यह.
ऐसा होना स्वाभाविक है
क्योंकि
यह प्रतीति यह मानसिकता
मूर्तन है
एक अतींद्रिय उर्जा प्रवाह का
अलग अलग हैं जिनकी निर्मितियाँ
सूक्ष्म तंतुओं में
मानस तल में .
हमने इस स्वाभाविकता को
स्वीकारा नहीं अभी तक
संभवतः इसीलिए
अलग अलग पड़े हैं हम
चुंबक के ध्रुवों की तरह
अपना अपना क्षेत्र रचते हुए.
अपने अपने क्षेत्र की
हमारी प्रतीतियाँ
इतनी प्रखर
इतनी लुभावनी
इतनी स्थूल है कि
तिरोहित हो जाता है वह एहसास
वायु के विरल किरणों में
जिसमें
क्षण भर को उद्भासित
मनवीय संवेदना से
भींग जाता हूँ मैं पल भर को
करुणा की बूँदें
बटोरने के क्रम में.
पर
अलग अलग ध्रुवों पर
अपना अपना क्षेत्र रचते हुए
अनजानेपन में
रचित हो रहे
इस समन्वित सूक्ष्म संवेदना क्षेत्र से
जिसकी अपनी करुणा अपनी दिशा है
वंचित रह जाते हैं हम
अपने अपने द्वैतों को झेलते
जिनकी परिणति
घटित हो रही है
कटुता विद्वेष और निर्ममता में.
17.12.7
25. एक ऐसा अंकुरण
कितना लुभावना था वह
प्रकृति का मनोरम सृजन
बारिश में भींगा
राख की ढेरी पर उगा
वह अमोला
आकाश के आवाहन से उत्थित
अपनी लघुता में
वृक्ष की विराट संभावना समेटे
प्रकृति की मनोरम
रचना था वह
रचा होगा प्रकृति ने उसे
अपने आंतरिक रागों स स्वर्णिम
निचोड़ा होगा हृदय-रस
धरती ने बड़े मन से
देखा होगा मैंने भी उसे तरल मन से
तभी उसके तंतुओं में स्फ़ुरित
विद्युत तरंगों ने
करुण आवृत्तियों वाली
मौन ध्वनि तरंगों में परिवर्तित होकर
छुआ होगा मेरे मर्म को
जिससे
उस स्थूल उर्जा पुंज के
तरल संस्करण को
अनुभूत किया था मैंने
वायु के विकल कणों में
एक समकक्ष मानवीय संवेदना
सपना सँजोते
उस दिन तो नहीं
पर आज मैं प्रश्नाकुल हूँ
उस रचना की
पल्लव-हरीतिमा से
स्फ़ुरित होने वाली
विद्यु-उर्मियों का उत्स कहाँ होगा?
वह घूरा तो
राख, सड़े गोबर तथा
कूड़े की सड़न का समुच्चय था
या यों कहें
वह घूरा कुछ अस्तित्वों के विध्वंस से
निर्मित था
फ़िर एक बेकार सी चीज
गुठली के फ़ाँकों को तोड़ वह अंकुरण
कहाँ से जीवन रस लेकर पनपा और खिला होगा?
क्या विध्वंस का अस्तित्व
नई रचना का आधार हो सकता है?
क्या विध्वंस में भी जीवन रस का
उत्स हो सकता है
जो रचना की नई निर्मिति में
संवेदनशीलता की तरलता झोल सके?
घूरे का अस्तित्व
अवश्य ही मिट्टी के संसर्ग में था
पर क्या मिट्टी का रस
विध्वंस के अस्तित्व को भेद कर
एक बेकार सी दिखती चीज से भी
अंकुरण की संभावनाएँ खोलने में समर्थ है
एक ऐसा अंकुरण जिसमें
भावी विराटता
संगुंफ़त हों?
20-12-78
26. खुले आकाश के नीचे
खुले आकाश के नीचे
रात के उजाले में बैठे
उस सनकी से
जब मैंने पूछा-
क्यों तुम बैठे हो दिया जलाए
इस उजली रात में ?
क्या आवश्यकता आ पड़ी
इस मिद्धम मटमैली लौ वाले
दीए को जलाने की
जबकि
प्रकृति की सभी दिशाओं में
बरस रही है अतींद्रिय आनंदवाली
शुभ्र ज्योतिर्मयी चाँदनी?
बेला अहीं किंतु वह
कुछ क्षण तक
उसकी मुद्रा से लगा
जैसे वह समाधिस्थ हो
किंतु ऑखें उसकी खुली थीं
न देखती सी कुछ मानो
दृष्ट-संवेदना की---अनिमेषता में
घ्वनि-संवेदना को समेटे
वह सहसा
स्पंदित चेतना व
तैर गई वायु कणों में
और तरंगायिता से संवेदित
मेरी घ्वनि नाड़ियाँ
प्रभावित करने लगी मेरे मस्तिष्क को
दे तो रहा हूं प्रत्युत्तर
पर तुम समर्थ नहीं मौन संभाषण में
स्यात्
मौन घ्वनित घ्वनि तरंगों को जो
रेडियो तरंगों सी ही
प्रसरति हो रही हैं व्योम में
पकड़ नहीं पा रहे हो तुम
सो गई है स्यात्
तुम्हारी संवेदना नाड़ी
अथवा
दृष्टि विंदु में तरंगित
त्वचा की सुकुमारता में
व्यतिक्रम खड़ा कर दिया है
उत्स और ग्राहक के मघ्य
अब मुखर वाणी में सुनो
यह दीए की लौ मेरी अपनी है
उसे मैंने जलाया है
उष्मा से अंतरंगता स्थापित कर
और यह लौ
साथ देगी मेरा रात बीतने तक
तूफ़ान हो, झंझावात हो, सन्नाटा हो
पर यह छिटकी चाँदनी जो
मेरे रक्त में घुली नहीं है
अभी कोई बादल का टुकड़ा आए
तो वह खो जाएगी दिगंत में
उसे पाने को मुझे देखना होगा
चाँद की तरफ़ प्रतीक्षा करते
पर यह लौ जलती रहेगी सदैव
यह चुक भी सकती है, पर तब
उसे मैं स्वयं जलाउँगा
यह मेरी स्वनिर्भरता है
यह जीने का उद्घोष
इसमें घुली है मेरी अस्मिता
और यह मेरी अस्मिता में घुली है
मैं सुनता रहा वह मुखर वाणी
जो रिस रही थी पोर पोर में स्पंदित
कुछ क्षणों बाद
गूँज गया सारा अंतराकाश
तरंगों से उद्वेलित
और आज भी वह गूँज शेष नहीं हुई
किंतु वह गूँज जैसे कैद हो गई है आज
इसकी संभावनाएँ खुल न पातीं
आकाश की दिशाओं में
जिसमें खिल नहीं पाते जीवन के फ़ूल
करुणामय राग रंजित.
25-12-78
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