अपनेपन की महक मेरे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर ख़ूबसूरत गुलाबों की एक फोटो चमक रही थी और उसके नीचे बड़े भैया का संदेश लिखा हुआ था - ‘जन्मदिन बहुत...
अपनेपन की महक
मेरे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर ख़ूबसूरत गुलाबों की एक फोटो चमक रही थी और उसके नीचे बड़े भैया का संदेश लिखा हुआ था - ‘जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो छोटू! आज तुम्हारे ही शहर में आने का कार्यक्रम है, मगर राजनैतिक कामों में ही व्यस्त रहूँगा. तुमसे मुलाक़ात हो नहीं पाएगी.’
मुझे याद आ रहा था कि बड़े भैया मेरे बचपन से मुझे जन्मदिन पर गुलाब का एक फूल भेंट किया करते थे. कई सालों तक बेरोजगारी झेलने के बाद क़रीब एक साल पहले से भैया एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता बन गए थे और अब उन्हीं कामों में बहुत व्यस्त रहने लगे थे.
मोबाइल स्क्रीन पर चमक रहे गुलाबों और भैया के बधाई संदेश में कोई आत्मीयता मुझे महसूस हो ही नहीं रही थी. मुझे तो बड़े भैया का गुलाब का फूल देते समय अपने कंधे पर उनके हाथों का स्नेह भरा स्पर्श ही जन्मदिन की असली बधाई लगता था.
मैं कुछ देर तक मोबाइल स्क्रीन पर चमक रहे गुलाबों को देखता रहा और फिर फोन को एक तरफ रखकर अपने संदूक की ओर बढ़ने लगा जिसमें मैंने भैया द्वारा जन्मदिन पर दिए हुए गुलाबों को अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में वर्षवार सँभालकर रखा हुआ था.
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ज़िन्दगी की महक
शाम को दफ़्तर से लौटकर आया तो पूरा घर मानों भायं-भायं कर रहा था. पत्नी छोटे बच्चे को लेकर आज सुबह ही मायके गई थी दो हफ्तों के लिए. पत्नी और बच्चे के बिना घर ऐसा लग रहा था मानो कोई बियावान रेगिस्तान हो. सब कुछ एक जगह स्थिर, खामोश. कहीं सूई गिरने की आवाज़ तक नहीं.
मैंने पत्नी और बच्चे के कुछ धुले हुए कपड़े और बच्चे के कुछ खिलौने निकाले और उन्हें पलंग और कुर्सियों पर बिखेर दिया. फिर बच्चे की एक पुरानी दूध की बोतल में थोड़ा दूध भरकर उसे मेज़ पर औंधा कर दिया. उसके बाद बच्चे का फुटबाल निकालकर पलंग के पास रखा और ज़रूरत न होने पर भी फुल स्पीड पर पंखा चला दिया. हवा होने के कारण फुटबाल इधर-उधर डोलने लगा. मैंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई. मुझे लगा घर में ज़िन्दगी की महक कुछ हद तक लौट आई है.
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असलियत
ऊपरवाले फ्लैट के फर्श पर जब-तब चलने की आवाज़ बहुत परेशान करती थी. कुछ दिन पहले ही उस फ्लैट में नए किराएदार आए थे. उस दिन छुट्टी के रोज़ नाश्ता करके मैंने सोने की सोची थी ताकि कई दिनों की बाकी नींद को पूरा कर पाऊँ, मगर सो पाना सम्भव लग नहींरहा था. वजह वही ऊपरवाले फ्लैट से हमारी छत पर होती आवाज़ थी. परेशान होकर मैं गुस्से से भुनभुनाता हुआ दनादन सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर की मंज़िल पर जा पहुँचा. सोचा था जो भी घर में होगा, उसे खूब खरी-खोटी सुनाऊँगा. मगर दरवाज़े के पास पहुँचा तो अन्दर से किसी महिला की आवाज़ सुनाई दे रही थी, ‘‘देखो जी, अब तो आप काफी अच्छी तरह चलने लगे हो. भगवान ने चाहा तो कुछ दिनों बाद बिल्कुल ठीक-ठाक हो जाओगे और बिल्कुल सही तरह चल पाओगे.’’
तभी किसी पुरूष का स्वर सुनाई दिया, ‘‘एक्सीडेंट के बाद छह महीने बिस्तर पर पड़े-पड़े तो मुझे यही लगता था कि मैं अब कभी दोबारा चल ही नहीं पाऊँगा. मुझे तो लगता है जैसे फिर से चलना शुरू करने पर मुझे नई ज़िन्दगी मिली हो.’’
यह सब सुनकर मैं एकदम से वापिस मुड़ा और धीमे-धीमे कदमों से सीढ़ियाँ उतरते हुए अपने घर की ओर बढ़ने लगा. मेरा सारा गुस्सा न जाने कहाँ काफूर हो गया था.
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खट्टी चॉकलेट
बच्चा जब भी माँ-बाप से चॉकलेट की फ़रमाइश करता, वे झट-से उसे यही जवाब देते कि चॉकलेट खट्टी होती है. इसे खाने से गला खराब हो जाता है और खाँसी लग जाती है.
माँ-बाप के मुँह से बार-बार यही बात सुन-सुनकर बच्चे ने भी मान लिया था कि चॉकलेट खट्टी ही होती है.
एक दिन किसी दूसरे शहर से बच्चे के चाचा जी उन लोगों के पास आए. वे बच्चे के लिए चॉकलेट का डिब्बा लाए थे. उन्होंने जैसे ही वह डिब्बा बच्चे की ओर बढ़ाया, वह ज़ोर से कहने लगा, ‘‘चॉकलेट तो खट्टी होती हैं. इसे खाने से गला ख़राब हो जाता है और खाँसी लग जाती है. मुझे तो झुमरू की दुकान से चूरन वाली गोलियाँ दिला दो.’’
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अपने-अपने दुःख
सुबह वह इसी उम्मीद के साथ घर से निकला था कि सेठ जी से कुछ पेशगी रकम ले लेगा और शाम को बच्चे का जन्मदिन मनाने के लिए मिठाई और खिलौना लेता आएगा. अगली तनख़्वाह मिलने में अभी दस दिन बाकी थे और पिछली तनख़्वाह तो कब की उड़नछू हो चुकी थी.
मगर सेठ जी से बहुत चिरौरी करने पर भी उसे कोई पेशगी रक़म मिल नहीं पाई. अपने एक-दो दोस्तों से भी उसने कुछ पैसे उधार लेने चाहे, मगर वहाँ भी निराशा ही उसके हाथ लगी.
मायूस-सा वह शाम को काफ़ी देर तक सड़कों पर यूँ ही भटकता रहा. आखि़र घर जाता भी तो क्या मुँह लेकर. देर रात जब उसे लगने लगा कि अब तक बच्चा नींद के आग़ोश में जा चुका होगा, तो धड़कते दिल से वह घर पहुँचा. दरवाज़े की घंटी बजाने की बजाय उसने दरवाज़े को हल्का-सा खटखटाया ताकि बच्चा नींद से जाग न जाए.
पत्नी ने दरवाज़ा खोला तो वह फुसफुसाती आवाज़ में पूछने लगा, ‘‘मिंटू सो गया है न?’’
‘‘कहाँ सोया है अभी तक! आपकी ही राह देख रहा है कि आप मिठाई और खिलौना लेकर आओगे.’’ पत्नी ने उसके ख़ाली हाथों की ओर देखते हुए जवाब दिया.
भारी कदमों से वह कमरे के अन्दर आया जहाँ उसका बेटा बिस्तर पर लेटा हुआ था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बेटे से नज़रें कैसे मिला पाएगा. चोर नज़रों से उसने बेटे के बिस्तर की ओर देखा. बेटा तो जैसे घोड़े बेचकर सो रहा था. अपनी मजबूरियाँ देख उसकी आँखें गीली हो आईं. तभी बच्चे ने दूसरी तरफ़ करवट बदल ली. उसकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे.
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संक्षिप्त परिचय
नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 800 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, एक विज्ञान उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित
एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित
प्रसारण लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,
2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिष्द (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत
(ञ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत
(ट) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता 304, एम.एस.4 केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
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