प्रविष्टि क्रमांक - 79 डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर' सेंटाक्लाज -------------- 'अंकल, अंकल ! मुझे भी सेंटाक्लाज बना दो ना ।&...
प्रविष्टि क्रमांक - 79
डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
सेंटाक्लाज
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'अंकल, अंकल ! मुझे भी सेंटाक्लाज बना दो ना ।'
चमाचम चाकलेट और टॉफी दोनों हाथों में सँभालते हुए नंदिनी ने कहा।
सेंटाक्लाज मूँछें फड़काता हुआ बोला ,'क्यों नहीं,हम तुम्हें भी बना देंगे प मेरे साथ चलना होगा बेटा!'
अब उसने और बच्चों को खाली झोली दिखाते हुए सहेज ली। बुज़़ुर्ग से दिखने वाले उस व्यक्ति ने नंदिनी को साथ चलने का इशारा किया। वह उसके पीछे-पीछे चलने लगी तो दूसरे बच्चे भी साथ-साथ हो लिए।उसने अपनी आँखें चमकाते हुए मुस्कुराकर कहा," तुम लोग यहीं रुको । हम बडी -ब़ी चॉकलेटों के साथ इस बच्ची को सेंटाक्लाज बना के ला रहे हैं।' यह सुनकर बच्चे आशा में वहीं ठहर गए। वे घंटों इंतज़ार के बाद अपने-अपने घर चले गए।
दोपहर तक जब नंदिनी घर नहीं लौटी तो घर वालों ने नंदिनी को खोजना शुरू किया। उसके साथ खेलने वाले बच्चों ने बताया,'वह सेंटाक्लाज बनने गई है ।'नंदिनी की माँ राधा बेचैन होने लगी तो बच्चों ने बताया कि उसे सेंटाक्लाज अंकल ले गए हैं।' इस वाक्य से राधा की बेचैनी और बढ़ गई। उसने मुहल्ले के उन सारे लोगों से उस व्यक्ति की पहचान जाननी चाही जो नंदिनी को ले गया था तो सभी ने असमर्थता ज़ाहिर की।
थोड़ी देर के लिए राधा को छोड़कर सभी महिलाएँ अपने-अपने बच्चों को खोजने में लग गईं। जब सबके बच्चे मिल गए तो घरों से बाहर पंचायत में लग गईं कि,"भला कोई ऐसे छोड़ता है बच्चों को। ज़माना कितना खराब है। राधा भी नंबर एक की लापरवाह है। इसका आदमी काम पर चला जाता है तो ये आवारा घूमती है। "एक ने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा,"इसके आदमी का इस पर रत्ती भर कंट्रोल नहीं है।"
कुछ आवारा घूमने वाले पुरुष भी पंचायत में शामिल हो गए थे। जैसे किसी भी अनहोनी के बाद कहीं भी और किसी का भी अक़्ल का बंद ताला खुल जाता है,इनका भी खुल गया था और उसी के साथ मुँह का भी। उनके हिसाब से सोसाइटी में सब्जी और फेरी वालों का भी आना बंद होना चाहिए। इन सबकी एक ही राय थी कि भावना सोसाइटी की तरह अपनी सोसाइटी के गेट पर भी गॉर्ड होना चाहिए। हर समय ताला रहे। आने-जाने वालों का आधार कॉर्ड देखा जाए। सब सही होने पर ही कोई इंट्री मारे तब देखते हैं कि कोई ऐरू-गैरू माई का लाल कैसे घुसता है हमारी सोसाइटी में।
राधा की बेचैनी पागलपन तक बढ़ गई थी। वह बदहवास -सी इधर-उधर भागने लगी। खोजना कम रोना-चिल्लाना ज़्यादा। सारा मुहल्ला उसके साथ हो लिया। शाम तक खोजने के बाद भी नंदिनी कहीं न मिली।
नंदिनी के पति रामेंद्र ऑफिस से लौटे तो घर में कोहराम देखकर भौचक्के रह गए। उन्हें नंदिनी न दिखी तो माज़रा भाँप ने में देर न लगी। एक साँस में राधा क सै कड़ों गालियाँ दे डाला और उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में लिखा आए।
पूरे हफ़्ते की छुट्टी लेकर रामेंद्र ने था और घर एक कर दिया। लोकिन परिणाम सिफ़र ही रहा।
सोमवार को हाज़िरी लगाकर छुट्टियाँ बढ़ाने के लिए वे ऑफ़िस के लिए निकले तो कालानाला पर भीड़ देखकर ठिठक गए। बाइक किनारे लगाई। आगे बढ़़े तो उनके पै र उन्हें म-मन भर के भारी लग रहे थे। चला ही नहीं जा रहा था उनसे। बेसब्री इतनी कि कोई उन्हें ले जाता तो भमना नहीं करते। नहीं रहा गया तो चिल्ला के पूछ बैठे,"यहाँ भीड़ कैसी लगी है।" कोई उत्तर न पाकर उनकी बेचैनी और बढ़ गई थी। मुँह सूख गया था। लाख चाहने पर भी स्वर ही नहीं फूट रहा था।
किसी तरह अपने शरीर को घसीट कर वहाँ पहुँचे भी तो चक्कर खाकर गिर पड़े। देखते ही उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी कि क्षत-विक्षत और लहूलुहान शव उन्हीं के कलेजे के टुकड़े का है।
अब नंदिनी को छोड़कर भीड़ उन्हें उठाने में लग गई थी।
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प्रविष्टि क्रमांक - 80
डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
बुलावा
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उस दिन बरसात थमने का नाम नहीं ले रही थी और अगले दिन राघवेंद्र का साक्षात्कार था। बादल जबसे घिरे निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। फॉर्म भरा था तभी से उसे उम्मीद थी। आखिर वह दिन आ ही गया जब उसे साक्षात्कार के लिए आमंत्रण का बुलावा पत्र मिला।
गाँव से लखनऊ की दूरी सौ किमी थी। मोटर साइकिल से तीन -साढ़े तीन घंटे में पहुँचा जा सकता था। उसने अपने चाचा की मोटर साइकिल माँगने का मन तो बनाया लेकिन हिम्मत धोखा दे गई। सुबह निकलने के अलावा कोई अन्य चारा न देख माँ के जिम्मे यह काम सौंपकर वह सो गया।
सपने में न जाने कितने प्रश्नों के उत्तर दे डाले। उसे विश्वास था कि उसकी माँ की गोदी में खेले चाचा माँ के कहने पर उसे मोटरसाइकिल दे देंगे। यह भी सपने में देखा कि चाचा उसकी माँ को चाभी पकड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि, "राघवेंद्र से कहना सड़क पर रपटन बहुत होगी। होशियारी से चलाएगा। कुत्ते, बच्चे, औरत और बूढ़े से बचकर ड्राइव करेगा।" सुबह चार बजे ही माँ उठ गई। खाना बनाया। पाँच बजते-बजते माँ उसे भी उठाने लगी तो वह अकबका गया। बोल पड़ा," चाभी लाओ!" माँ के यह पूछने पर कि, "कौन-सी चाभी?"
राघवेंद्र ने याद दिलाया ,"मोटरसाइकिल की और किसकी?" उसकी आवाज़ में झुँझला गया। कुछ देर माँ दौड़ी-दौड़ी देवर के पास गई। बड़े संकोच से उसे जगाया। वह भी झुँझलाहट में बोल पड़ा,"आपको भी चैन नहीं भाभी। कौन-सी आफ़त आन पड़ी है कि चिड़याँ भी नहीं बोलीं कि आप कूद पड़ीं।"
वह गिड़गिड़ाती हुई बोली,"तुमरे भतीजे क्यार यूनिवर्सिटी माँ बुलावा आवा है। तनी अपनि मोटरसाइकिल दइ देतिउ तउ ऊ इंटरभिउ दइ आवति।"
उसे यह उम्मीद थी कि तुरंत चाभी मिल जाएगी। लेकिन रामवीर जो पड़ोसी गाँव के इंटरकॉलेज में क्लर्क था। कोई उत्तर देने के बजाय करवट बदल के सो गया। कुछ देर इंतज़ार के बाद वह फिर बोली,"लला तनी जागि जातिउ।" वह काफ़ी देर तक नहीं जगा तो उसके मन में आया कि कहे कि न देना हो तो साफ़ मना कर दो। वह यही सोचकर मुड़ने वाली थी कि सोए हुए को सभी जगा सकते हैं लेकिन जगे हुए को कौन जगाए तब तक वह जँभाँई लेता हुआ उठ बैठा।
वह जगा तो उसके भीतर का क्लर्क भी जग गया था। उसने बिस्तर से उठते ही तंज़ कसा कि ,"प्रोफ़ेसर साहेब के लिए चाभी चाहिए?"वह बड़ी विनम्रता से बोली, "अरे बेटा! तुमार आसीरबादु होई तउ हमरउ सपनु पुराइ जाई।"
देर देखकर राघवेंद्र भी रामवीर चाचा के पास पहुँच गया था। पैर छुए और बताया, "चाचा लखनऊ विश्वविद्यालय से सहायक प्रोफ़ेसर हिंदी के लए बुलावा आया है।"
रामवीर ने आशीर्वाद देने के बजाय मुँह बिचकाया और कहा,"राम रतन की टैक्सी कर लो। मैं फोन कर देता हूँ। वाज़िब पैसे ले लेगा । देखते नहीं हो। मौसम ख़राब है। बरसात तेज़ हो गई तो बुलावा भुलावा हो जाएगा।" वे दोनों उसे ठगे-से देखते रहे। बहुत देर में संयमित हो पाए और पीछे मुड़े तो वह भी' बुलावा, बुलावा' बुदबुदाते हुए माँ-बेटे के साथ दरवाज़े तक आया और भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर लिया।
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